Thursday, November 1, 2007

सही पते पर

आज का सारा शेड्यूल बिगड़ गया। एक तो गाड़ी आठ घंटे लेट और ऊपर से मद्रास बंद। स्टेशन पर कोई ऑटो, टैक्सी नहीं। ऑफिस की गाड़ी आकर कब की चली गयी होगी। किस्मत से सहयात्री मिलीटरी वाला है। उसी की जीप में लिफ्ट लेकर होटल तक पहुंच पाया हूँ।
अब एक पूरा बेकार, खाली-सा दिन मेरे सामने पसरा पड़ा है। बाहर जा नहीं सकता। इन बंद वालों को बस आज ही का दिन मिला था। पहले पता होता तो आता ही नहीं आज। पर अब क्या करूँ। आज शनि है। कल रवि। यानी सोमवार तक मुझे यूँ ही वक्त गुजारना है। समझ में नहीं आ रहा - क्या करूँ।
कुछेक फोन ही कर लिये जायें। टेलीफोन डाइरेक्टरी मँगवाता हूँ। लोकल ऑफिस के मैनेजर के घर फोन करके अपनी पहुँच की खबर देता हूँ। बताते हैं वे, ड्राइवर तीन-चार घंटे इंतजार करता रहा स्टेशन पर। फिर बंद वालों ने भगा दिया। उन्हें यह जानकर तसल्ली होती है, होटल में ठीक-ठाक पहुंच गया हूं। अपने कामकाज के सिलसिले में पूछता हूं। बताया जाता है मुझे - आज तो कोई मिलने भी नहीं आ पायेगा। अलबत्ता, कल सुबह ही वे किसी के साथ गाड़ी भिजवा देंगे, घूमने-फिरने के लिए।
अब! फिर वही सवाल। इस अजनबी शहर में, `बंदोत्सव' में मैं करूँ तो क्या करूँ। याद आया, अरे, बनानी से भी तो मिलना है। मन एकदम रोमांचित हो आया। सारे रास्ते तो उसके ख्यालों ने व्यस्त रखा लेकिन मेरा सारा रोमांच क्षण भर में गायब हो गया। इस समय तीन बजे हैं। वैसे भी जब पूरा मद्रास बंद है तो युनिवर्सिटी भी तो बंद होगी। उसके घर का पता कहाँ है मेरे पास। डाइरेक्टरी देखता हूं। युनिवर्सिटी के नम्बरों में न तो अंग्रेजी विभाग का डाइरेक्ट नम्बर है, न ही विभाग के हेड का नाम या उसका रेसिडेंशियल नम्बर। बनानी के नम्बर का तो सवाल ही नहीं उठता। काश! उससे आज मुलाकात हो जाती तो कितने अच्छे कट जाते ये दो दिन।
अब तो परसों तक इंतज़ार करना पड़ेगा, ``कैसे तलाशा जाये आपको इस महानगरी में मिस बनानी चक्रवर्ती? किसी को भी तो नहीं जानते हम इस अजनबी शहर में मैडम। आपको खोज भी लेते हम, लेकिन यह ''बंद'।''
यूँ ही डाइरेक्टरी के पन्ने पलटता हूँ- ''सी' और ''सी' में चक्रवर्ती। अचानक सूझता है मुझे - थोड़ी-सी मेहनत की जाये तो बनानी को आज और अभी भी ढूँढ़ा जा सकता है। आज पता भर चल जाये तो मुलाकात कल भी की जा सकती है। है तो बेवकूफी भरा तरीका, लेकिन किसी को पता थोड़े ही चलेगा, इस तरफ कौन है। ऐसा हो ही नहीं सकता, यहाँ का बंगाली समुदाय और उनमें से भी चक्रवर्ती, बनानी को न जानते हों। आखिर कितनी होंगी ऐसी बंगाली लड़कियाँ मद्रास में, जो युनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाती हों और बंगला में लिखती हों। हिसाब लगाता हूँ - पूरे मद्रास में पच्चीस तीस हजार के करीब बंगाली होंगे। उनमें भी चक्रवर्ती होंगे, हजार से भी कम। और टेलीफोन डाइरेक्टरी बताती है - कुल 42 चक्रवर्तियों के पास फोन हैं। इन्हीं से पूछकर देखा जाये तो। न भी मिले, कुछ वक्त तो गुजरेगा। तीस-चालीस रुपये में यहीं बैठे-बैठे बनानी का पता चल जाये तो उससे बढ़कर क्या हो सकता है आज के दिन। हो सकता है, इन्हीं में से किसी परिवार में ही हो वह। वैसे डाइरेक्टरी में कोई बनानी चक्रवर्ती नहीं है। तो यह शरारत भी करके देख ली जाये।
पहले चक्रवर्ती से शुरू किया है। एक... तीन... पंद्रह... सत्ताइस... पैंतीस... और ये बयालीस। कुल पचास मिनट लगे और पैंतीस जगह बात हुई बाकी नम्बर दुकानों, ऑफिसों के हैं या लाइन नहीं मिली। हंसी आ रही है खुद पर-हर तरह की आवाजें, प्रतिक्रियाएं, गालियां, हंसी। फोन पटके गये। होल्ड कराया गया, पागल करार दिया गया मुझे। बेहद भले लोग, लेकिन नतीजा जीरो। ''हां, नाम सुना तो है, देखा भी है, पन किधर रहती, मालूम नहीं। आर यू क्रेजी, इज इट द वे टू लोकेट ए गर्ल, नो... नो... नो... ऑवर बनानी इज ओनली एट ईयर्स ओल्ड... यहां बनानी है, बट वह हमारा वाइफ है। वह कभी टीचर नहीं थी। हू आर यू... यू मैड मैन... विच बनानी चक्रवर्ती? यू मीन दैट गर्ल...डॉटर ऑफ प्रोताश चक्रवर्ती, बट शी इज टीचर इन प्राइमरी स्कूल...''.
मज़ा आ रहा है मुझे। कल तक पूरे शहर के बंग समाज में यह खबर फैल जायेगी - कोई सिरफिरा बम्बई से आया है और किसी बनानी चक्रवर्ती को खोज रहा है। एक - एक घर में फोन करके। क्रेजी फैलो। डाइरेक्टरी एक किनारे रख दी है। तो इन सब चक्रवर्तियों में हमारी वाली बनानी को कोई नहीं जानता। नहीं जानता का यह मतलब तो नहीं कि वह है ही नहीं। हो सकता है जो नम्बर नहीं मिले, वहीं हो। कुल मिलाकर एक मज़ेदार एक्सरसाइज हो गयी। न सही आज मुलाकात, परसों युनिवर्सिटी तो खुलेगी। उसे बताऊँगा इस बारे में कितना हंसेगी।

अजीब गोरख धंधा है इस युनिवर्सिटी का भी। दस जगह फोन करके भी कुछ पता नहीं चल पाया है बनानी का... कहीं कोई तमिल भाषी बैठा होता है तो कहीं कोई कुछ बताये बिना ही फोन रख देता है। हार कर अपने स्थानीय साथी से अनुरोध करता हूँ-अंग्रेज़ी विभाग की बनानी चक्रवर्ती से बात करा दें जरा। वे भी कई जगह फोन करते है। अधिकतर तमिल में ही बात करते हैं। बताते हैं - युनिवर्सिटी गर्मियों की छुट्टियों की वजह से बंद है और दूसरे, अंग्रेजी विभाग में इस नाम की लेक्चरर नहीं है। ''अरे, तो फिर कहां गयी बनानी, राघवेन्द्र ने तो सिर्फ यहीं का पता दिया था। अब वह वहां है नहीं। पता नहीं मद्रास में भी है या नहीं। कैसे पता लगाया जाये। उसकी शक्ल, सूरत, पता-ठिकाना, घर-परिवार कुछ भी तो पता नहीं।''
सोच रहा हूं - यूनिवर्सिटी छोड़कर कहां गयी होगी। फिर उसका यह पता भी तो तीन साल पुराना है। बता तो रहा था राघवेन्द्र, तीनेक साल से सम्पर्क छूटा हुआ है। हो सकता है इस बीच कलकत्ता लौट गयी हो या शादी कर ली हो। कुछ तो पता चले। अगर यहीं है तो मिलने की कोशिश की जाये और नहीं है तो किस्सा ही खत्म। अपने साथी से फिर अनुरोध करता हूं - ज़रा फिर फोन करके अंग्रेज़ी के हेड का नाम, पता और फोन नम्बर पुछवा दें। वे ही शायद बता सकें, बनानी अब कहां है। वे फिर दो-चार बार नम्बर घुमाते हैं। आखिर हेड का नाम, पता लोकेट कर ही लेते हैं - डॉ. वाणी कुंचितपादम। अब मैं उनके घर का नम्बर मिलाता हूं। इंगेज आ रहा है लगातार। असिस्टेंस सर्विस की मदद लेता हूँ - फिर भी नहीं मिलता। लगता है फोन खराब है। सोचता हूँ, खुद ही उनके घर की तरफ निकल जाऊँ। वैसे भी यहां शाम को कुछ करने-धरने को नहीं है।

मज़ेदार किस्सा बन गया है बनानी का। सिर्फ छ: शब्दों के तीन साल पुराने पते के सहारे उसकी तलाश कर रहा हूँ इतने बड़े शहर में। न मुझे जानती है, न मैं उसे जानता हूँ। दो दिन पहले तक नाम भी नहीं सुना था उसका। कभी राघवेन्द्र को मिली थी। ऑथर्स गिल्ड की कॉन्फ्रेंस में। तीन-चार साल हुए। तभी दोनों का परिचय हुआ था। बातें हुई थीं। किताबों का आदान-प्रदान हुआ था। पांच-सात पत्र भी आये-गये, फिर नौकरियां बदलने के चक्कर में दोनों का सम्पर्क लगभग छूट गया था। अब मेरी मद्रास ट्रिप से राघवेन्द्र को बनानी की याद ताजा हो आयी। चलते वक्त कहा था राघवेन्द्र ने - तुझसे झूठ नहीं कह रहा हूँ शेखर, बहुत ही जहीन और मैच्योर लड़की थी यार। ब्रेन एण्ड ब्यूटी का अद्भुत ब्लैण्ड। उस लड़की में गज़ब का आकर्षण था कि आप उसे इग्नोर कर ही न सकें। अगर तुम्हारी मुलाकात हो जाये तो तुम्हारी यात्रा सार्थक हो जायेगी।
अब जैसे-जैसे उससे मुलाकात में देर हो रही है, या मिलने की संभावना कम हो रही है, उससे मिलने की ललक उतनी ही बढ़ने लगी है। कल बाजार में घूमते हुए, किताबों की दुकान में वक्त गुजारते हुए और शाम को मरीना बीच पर अकेले टहलते हुए एक सुखद-सा ख्याल आता रहा। हो सकता है, वह भी यहीं कहीं, आस-पास हो। कोई उसे उसके नाम से पुकारे और...फिर तेजी से ख्याल झटक दिया - मैं भी फिल्मी स्टाइल में सोचने लगा हूँ। पहले दिन तो फोन करके उसे तलाशने की बेवकूफी करता रहा और अब उसे सड़कों, चौराहों पर खोज रहा हूँ।

डॉ. वाणी कुंचितपादम का घर ढूंढ़ने में खासी परेशानी हुई। ''मैडम घर पर नहीं हैं। आधे घंटे में आ जायेंगी, आप बैठिए।'' उनके पति बताते हैं। मेरे पास इतनी दूर आकर इंतज़ार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। वे दो-चार बार कुरेदते हैं, लेकिन मैं टाल जाता हूँ, मैडम से ही काम है। वे ड्राइंगरूम में मुझे अकेला छोड़कर गायब हो गये हैं। टिपिकल तमिल साज-सज्जा, तस्वीरें, तमिल पुस्तकें, पत्रिकाएं, लगता ही नहीं, इंग्लिश की हेड के घर बैठा हूँ।
वे आयीं। सामान से लदी-फंदीं। मुझे देखकर चौंकती हैं। आने का कारण जानकर राहत की सांस लेती हैं। बताता हूं। फोन पर ही पूछना चाहता था, पर... हाँ, फोन कई दिन से खराब पड़ा है। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा, एक अनजान लड़की का पता लगाने के लिए कोई इतनी मेहनत कर सकता है। बताती हैं - अब वह युनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाती। दो साल से भी ज्यादा हो गये। यहां वह लीव रिज़र्व थी। एक और सदमा मेरे लिए। ''बता सकती हैं कहाँ होंगी आजकल? '' एक आखिरी कोशिश। ''हाँ, हाँ, क्यों नहीं।'' वे बताती हैं, बनानी मद्रास में ही है। सेंट जेवियर्स आर्ट्स कॉलेज में पढ़ाती है। वहां वह कन्फर्म हो गयी है। अरे, तो बनानी अभी भी संभावना है। मैं हल्का-सा खुश हो गया हूँ। यहां आना बेकार नहीं गया, लेकिन वे बनानी के घर का पता नहीं बता पातीं। अलबत्ता, सेंट जेवियर्स का पता बता देती हैं। वहां इकॉनोमिक्स के हेड हैं मिस्टर पद्मनाभन, उनसे मिलने की सलाह देती हैं। वहीं कॉलेज क्वार्टर्स में रहते हैं।
उनसे विदा लेता हूं। वे अभी भी मुझे अविश्वास से देख रही हैं - एक अपरिचित लड़की के लिए... इतनी भागदौड़... दरवाजे पर आकर हाथ जोड़कर विदा करती है।
होटल वापस आते-आते रात हो गयी है। तय करता हूँ, कल किसी वक्त जाऊँगा। आज सात में से तीन दिन बीत चुके हैं।
जितना वक्त बीतता जा रहा है, उतना ही यह सवाल मैं खुद से बार-बार पूछने लगा हूँ - क्यों मिला चाहता हूं उससे! क्यों एक अनजान लड़की के लिए इतनी भागदौड़ कर रहा हूँ। एक ऐसी लड़की के लिए, जो मुझे जानती तक नहीं और जान भी ले तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि यह पहचान परिचय तक भी पहुँचेगी या नहीं। माना, बनानी एक संवेदनशील रचनाकार है, मैच्योर है, पढ़ी-लिखी है, उससे बात करना अच्छा लगेगा, लेकिन उस जैसी तो सैकड़ों हैं, हज़ारों हैं, तो क्या सबसे... फिर पूछता हूँ खुद से। इतनी-इतनी तो मित्र हैं पहले से, फिर एक और की तलाश क्यों, क्या एक शादीशुदा, सुन्दर व पढ़ी-लिखी बीवी के पति, दस साल की बच्ची के पिता, एक छोटे-मोटे अफसर और छोटे-मोटे लेखक को यह शोभा देता है कि वह एक मित्र के कहने भर से उसकी मित्र की तलाश में मारा-मारा फिरे। जितना सोचता हूं, उलझन बढ़ती ही जाती है।
अगर उससे पहले ही दिन मुलाकात हो जाती तो राघवेन्द्र का पत्र देकर छुट्टी पा लेता। वह फिर मिलना चाहती तो मिल भी लेता, लेकिन उसने न मिलने से जो यह उत्सुकता और बढ़ती जा रही है उससे मिलने की, उससे मेरी दुविधा ही बढ़ रही है और फिर राघवेन्द्र ने चिट्ठी भी तो इतनी आत्मीयता से लिखी है कि मन करने लगा है - इस लड़की से मुलाकात होनी ही चाहिए। उस कवि-मन अनदेखी युवती के प्रति एक अनचीन्हा-सा अनुराग जागने लगा है। फिर राघवेन्द्र की उसके नाम लिखी चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा हूँ:

बम्बई, 29 मई

प्रिय बनानी,
बहुत लम्बे अरसे से तुमसे मेरा पत्राचार छूट गया है, पर तुम्हारे भीतर के संवेदनशील रचनाकार की छवि मेरे मन में अभी भी वैसी ही है। मन है, तुमसे मिलना हो, खूब बातें हों और लम्बे अन्तराल की उपलब्धियों की पोटलियां खोली, दिखायी जायें। मन खुशियों से सराबोर हो जाये। प्रिय शेखर मेरे अभिन्न मित्र, भाई और प्रखर संभावनाशील कथाकार हैं। और उससे भी कहीं अधिक एक प्यारे भाई, अंतरंग और मेरे सहचर। उनकी रचनाएं ज़रूर तुम्हारी नज़रों से गुज़री होंगी। अचानक पता चला कि मद्रास जा रहे हैं तो तुम्हारी याद आना बहुत स्वाभाविक है। इनके साथ तुम्हारे सुख-दु:ख की पहचान मेरे पास वैसे ही पहुँच जायेगी, जैसे कि तुम इनसे मिलोगी। शायद नये शहर में तुम्हारा संवेदनशील व्यक्तित्व इन्हें बहुत अपनत्व देगा।
मेरे नाम खत लिखना और शेखर के हाथ भेज देना। मैं लगातार नौकरियों के चक्कर में भटकता रहा। जल्दी ही तुम्हें अपना पता लिखूँगा। बहुत भाग दौड़ के कारण ही पत्राचार में तुमसे पिछड़ गया। बाकी, तुम्हारी उपलब्धियों को बहुत पास से देखते का मन है।
और क्या लिख रही हो। क्या कर रही हो। आगे क्या इरादा है। कलकत्ता में परिवार कैसा है। पत्र दोगी और ढेरों बातें लिखोगी। सकुशल होगी। नमस्कार।
सस्नेह तुम्हारा
राघवेन्द्र

इस पत्र के एक-एक शब्द के पीछे एक खूबसूरत, शालीन चेहरा झिलमिलाता दिख रहा है। अलौकिक सौन्दर्य से दिपदिपाता। संवेदनशील व्यक्तित्व। इस पत्र के ज़रिये और जो कुछ राघवेन्द्र ने बताया था, उसके आधार पर मैंने बनानी के रूप, सौन्दर्य, व्यक्तित्व, स्वभाव और यहां तक कि उसकी बौद्धिकता और कलात्मक अभिरुचि की भी एक तस्वीर-सी बना ली है। मन है, जब भी उससे मिलूँ, अपनी कल्पना के अनुरूप पाऊँ।

सेंट जैवियर्स में पहुँचने पर पता चला है, पद्मनाभन जी नहीं हैं। सपरिवार कुल्लू-मनाली गये हैं। अगले हफ्ते आयेंगे। पता नहीं क्यों, बहुत अधिक निराश नहीं करती यह खबर। शायद पूरी स्थितियां ऐसी बनती चली जायेंगी कि बनानी से मुलाकात नहीं ही होगी। या तो मैं अधबीच कोशिश छोड़ दूँगा, या कोई और कारण आ निकलेगा। वहाँ से लौटने को हूँ कि वहीं कोई और प्राध्यापक मिल गये हैं। बताते हैं-बनानी यहीं पढ़ाती हैं। पक्का तो पता नहीं, लेकिन शायद एग्मोर में वाइ.डब्ल्यू.सी.ए. के हॉस्टल में रहती हैं। वहीं एक बार पता करके देख लें। उनका बहुत-बहुत आभार मानता हूं।
तो! अब! सड़क पर खड़ा सोच रहा हूं-तो मिस बनानी चक्रवर्ती, आप हमें मिले बिना जाने नहीं देंगी। घड़ी देखता हूँ-साढ़े आठ। वहाँ पहुँचते-पहुँचते नौ बज जायेंगे। क्या एक शरीफ लड़की से पहली बार उसके हॉस्टल में मिलने जाने का वक्त है यह। क्या पता, स्टाफ ही न मिलने दे। लेकिन अब जब पता चल गया है उसका, तो मिल ही लिया जाये। जो भी होना है, आज ही हो ले। मिले या न मिले। आज ही निपटा दिया जाये यह मामला। वैसे भी वापसी में सिर्फ तीन दिन बचे हैं।

वहाँ अगला सदमा मेरा इंतज़ार कर रहा है। इस नाम की कोई लड़की यहां नहीं रहती। मुझे अजीब-सा महसूस होने लगा है। एकदम तेज प्यास लग आयी है। यह क्या मज़ाक है। बीच-बीच में अचानक यह क्या हो जाता है कि वह एक जगह होती है और दूसरी जगह से गायब हो जाती है। फिर अगली जगह फिर प्रकट हो जाती है। क्लर्क से पूछता हूं-जरा अच्छी तरह देखकर बताएँ - शायद कुछ अरसा पहले तक रहती रही हो। वह मुझे अजीब निगाहों से घूरता है। मैं उसकी परवाह नहीं करता। यह आखिरी पड़ाव है जहाँ बनानी को होना चाहिए। अगर वह यहां नहीं है तो फिर कहीं नहीं है। वह रजिस्टर के पन्ने पलट कर मना कर रहा है - इन्द पोन इंगे इरकरदिल्ले... यहां नहीं रहती यह लड़की।
अब मैं इस हॉस्टल के रिसेप्शन में रुकने-न रुकने की हालत में खड़ा हूँ। क्लर्क फूट लिया है। हो सकता है, बनानी यहीं रहती आयी हो, अब न रहती हो। इन गर्ल्स हॉस्टलों के नियम भी तो कुछ ऐसे ही होते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा एक साल, दो साल। क्लर्क ने भी तो यही कहा है, नहीं रहती। अगर रहती थी तो अब कहाँ गयी। कुछ तो पता चले। लेकिन पूछूँ किससे। इतने में मुझे दुविधा में देख एक लड़की खुद आगे आयी है - किसे पूछ रहे हैं सर?
उसी के सामने पूरा किस्सा बयान करता हूँ। यह भी पूछता हूँ कि इसी संस्था का और कोई भी हॉस्टल है क्या आस-पास। बताती है लड़की - हॉस्टल तो यही है अलबत्ता, बनानी... दो-एक लड़कियां और जुट आयी हैं। वहीं रिसेप्शन में इंतज़ार करने के लिए कहती हैं - अभी पता करके बतायेंगी, पुरानी हॉस्टलर्स से, आया से, वॉचमैन से।
मैं अजीब-सी हालत में वहीं बैठा हूँ। यह मैं क्या कर रहा हूँ। यह कौन-सा तरीका है किसी को खोजने का? दिमाग खराब हो गया है क्या? मिल भी गयी वह तो कौन-सी क्रांति हो जायेगी। मैं ही तो सारे कामकाज छोड़कर उससे मिलने के लिए मारा-मारा फिर रहा हूं। अगर मिल भी गयी और उसने ''ओह, थैंक्स, सो नाइस ऑफ यू। आप आये, बहुत अच्छा लगा'' कहकर संबंध पर, मुलाकात पर वहीं फुल स्टॉप लगा दिया तो। क्या कर लूँगा मैं तब?
मैं एक झटके से उठ खड़ा होता हूँ। नहीं मिलना मुझे उससे। अब और बेवकूफी नहीं करूंगा। चलने को ही हूँ कि एक लड़की भागती हुई आयी है - सर आप ही... मिस बनानी से... मैं उसकी तरफ देखता हूँ - तो... क्या... यह लड़की... बनानी... ''सर, वह मेरी रूममेट थी। अब यहाँ नहीं रहती। उसके एक अंकल ट्रांसफर होकर आये थे, दो-तीन महीने पहले। अब वह उन्हीं के साथ रहती है, मइलापुर में।''
लो। एक और पता। लम्बी सांस लेता हूँ। चलो यही सही। उससे पता पूछता हूं, पता उसके पास नहीं है। सिर्फ उसे छोड़ने गयी थी टैक्सी में। तभी देखा था उसके अंकल का फ्लैट। हाँ, लोकेशन बता सकती है। वह कागज पर ड्रा करके लोकेशन बताती है। सेंथोम चर्च। उसके ठीक सामने एक तिमंजिली इमारत। बिलकुल सफेद रंग की। ग्राउण्ड फ्लोर पर बायीं तरफ का पहला फ्लैट। दरवाजे पर पीतल की नेम प्लेट। अंकल का नाम याद नहीं, लेकिन वे भी चक्रवर्ती। काफी है मेरे लिए। जाऊँ या न जाऊँ, बाद की बात है।

अब वापसी में सिर्फ दो दिन बचे हैं। फिर दुविधा में पड़ गया हूँ। जाऊँ या नहीं। कल दोबारा उन्हीं स्थानीय लेखक मित्रों से मिलने चला गया, जिनसे तीन दिन पहले ही मिला था। वही-वही समस्याएं, वही-वही रोना कि यहां सबसे अलग-थलग बैठे हैं, हमारे लिखे को कोई नोटिस नहीं लेता। और रचनाओं के नाम पर सब कुछ बासी पुराना-पुराना-सा। आज खाली हूँ। फिर बनानी के ख्याल आ रहे हैं। अब भी मिलने नहीं गया तो अफ़सोस होता रहेगा। इतनी कोशिश की, भागदौड़ की और मंज़िल का पता पूछकर लौट आया। फिर राघवेन्द्र सुनेगा तो हंसेगा।
दूसरा मन कहता है - अब बचे ही सिर्फ दो दिन हैं। अगर इन दो दिनों में दो बार भी मुलाकात हो जाये तो गनीमत। अब तो घर-परिवार में है। पता नहीं कैसे लोग हों, घर पर कौन-कौन हों? लेकिन एक आखिरी कोशिश करके देख लेने में हर्ज क्या है? तय कर लेता हूँ, जाना ही चाहिए।

घर बिलकुल आसानी से मिल गया है। दरवाजे पर साफ-सुथरी चमकती हुई पीतल की नेम प्लेट लगी है-डॉ.चंदन चक्रवर्ती। घंटी पर हल्के से हाथ रखता हूं। थोड़ा इंतज़ार। अब यहां पहुँचकर भी वह पहले वाली ऊहापोह नहीं रही है, जो चार-पांच दिन पहले तक थी। इतना तो भटका दिया है इस लड़की ने कि मिलने न मिलने के बीच का अंतराल ही मिट गया है।
दरवाजा एक महिला ने खोला है, निश्चय ही आंटी होंगी, नमस्कार करके बतलाता हूँ - बम्बई से आया हूँ, बनानी और मेरे एक कॉमन फ्रेण्ड हैं राघवेन्द्र। यहां आ रहा था तो उन्हीं ने पता दिया था बनानी का। पूछते-पूछते यहाँ तक आ पहुँचा हूँ।
वे बड़े प्यार से अंदर बुलाती हैं। बिठाती हैं। दो-एक घरेलू नाम पुकारती हैं। पल भर में उनके पति और दो लड़कियां ड्राइंग रूम में आ जुटे हैं। लड़कियों को देखकर सोचता हूं-कौन-सी होनी चाहिए बनानी इनमें से। एक लम्बी-पतली-सी है, घने बाल, आंखों पर चश्मा, हाथ में किताब, दूसरी गाउन में है। शायद रसोई का काम छोड़कर चली आयी है। थोड़ी सांवली, दूसरी से बड़ी, खूबसूरत चेहरा-मोहरा, पहली ही नज़र में जहीन होने का सुबूत देता हुआ।
महिला उन्हें मेरे बारे में बताती है, सबको आश्चर्य होता है मेरा इतना रोमांचकारी खोज अभियान सुनकर। मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी है - बताया क्यों नहीं जा रहा - इनमें से बनानी कौन-सी है। वैसे मेरी ख्याल से गाउन वाली ही होनी चाहिए। या क्या पता, इन दोनों में से हो ही नहीं।
आंटी पहले बंगला में शुरू करके, फिर हिन्दी में बताती हैं - बनानी कलकत्ता गयी हुई है। उसकी मां का ऑपरेशन हुआ था, उसके लिए गयी थी। इसी सण्डे रात को वापस आ रही है। आप मण्डे आयेंगे तो ज़रूर मुलाकात हो जायेगी, आप ज़रूर आना।
''तो मिस बनानी चक्रवती।' मैं आखिरी झटके से उबरने की कोशिश करता हूं - आप नहीं ही मिलीं। मन-ही-मन मुस्कराता हूं। अब इन लोगों को कैसे बताऊं कि मेरी गाड़ी के जाने का वक्त भी लगभग वही है, जो बनानी के आने का है।
चलने के लिए उठता हूं, लेकिन आदेश सुना दिया गया है - डिनर के बिना नहीं जाने दिया जायेगा। बनानी नहीं है तो क्या हुआ, घर तो उसी का है।
बैठ जाता हूं। अब सबसे परिचय कराया जाता है। छोटी वाली बरखा बी.ए. में, बड़ी वाली श्यामली एम.ए.में। दोनों बनानी दी की जबरदस्त फैन। श्यामली भी लिखती है। छपी भी हैं उसकी रचनाएं। ये लोग कई साल इलाहाबाद रहे हैं, इसलिए कई लेखकों से परिचय रहा है।
शुरू-शुरू में अटपटा महसूस करता रहा, लेकिन जब पूरा चक्रवर्ती परिवार इतने सहज, आत्मीय और खुलेपन के साथ बात करने लगा तो मेरी भीतरी गांठें खुलने लगीं। मैंने देखा, उन लोगों की हर तीसरी बात में बनानी का ज़िक्र ज़रूर आता था। मैं बार-बार खुद को कोसने लगा - ऐसे वक्त क्यों आया! एक तो पूरे शहर की परिक्रमा करके उसके घर तक पहुंचा और यहां... उससे मिलना कितना सुखद होता।
उस परिवार में दो-तीन घंटे बैठा रहा। अत्यन्त शालीन, सुसंस्कृत लोग। बेहद आत्मीय। जब चलने के लिए इजाज़त चाही तो आग्रह किया गया, एक बार फिर आऊं। उनके साथ एक और शाम बिताऊं। मैं हंसकर रह जाता हूं। फिर पूछा जाता है - बनानी के लिए कोई मैसेज देना चाहेंगे। एक इच्छा होती है-राघवेन्द्र के पत्र के साथ अपनी तरफ से दो लाइनें खिकर दे दूं, लेकिन टाल जाता हूं। दरवाजे से बाहर आते-आते अचानक पूछ बैठता हूं - क्या मैं बनानी का कमरा देख सकता हूं।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

24 कहानीप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आदरणीय सूरज प्रकाश जी,

बनानी को खोजते खोजते पाठक अंत में मुस्कुरा कर आपकी कहानी से उठेगा जहाँ आप कहते हैं "दरवाजे से बाहर आते-आते अचानक पूछ बैठता हूं - क्या मैं बनानी का कमरा देख सकता हूं।"

आपसे हम नये कथाकारों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। क्लाईमेक्स बेहतरीन। बंद हुए शहर में अकेले आदमी के उस मनोविज्ञान को जिसे आप "मिलने के रोमांच" कह रहे हैं, उसका कोतूहल जिस तरह से प्रस्तुत हुआ है, न केवल प्रसंशनीय है अपितु वह कहानीकार को और अधिक पढ पाने के लिये उद्वेलित हर रहा है।

हिन्द-युग्म के मंच पर इस कहानी के साथ आपका हार्दिक अभिनंदन।

*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सूरज जी सबसे पहले आपका बहुत बहुत स्वागत यहाँ पर ...
आपकी यह कहानी मुझे बहुत ही सुंदर और दिल को छू लेने वाली लगी
कहानी रोचक है और अंत तक अपने साथ साथ इस ने बांधे रखा
हर पंक्ति पढने के बाद आगे जानने की उत्सुकता बनी रही
और साथ साथ एक चित्र सा बनता रहा दिमाग में ...
बधाई सुंदर कहानी के लिए
शुभ कामना के साथ

रंजना [रंजू ]

Virendra Bansal ''Binu'' का कहना है कि -

वाह सूरज जी
एक खोजपुर्ण कहानी मे सस्पेन्स बहुत ही बढिया था

नीरज गोस्वामी का कहना है कि -

अद्भुत. बेहद रोचक अंदाज में लिखी इस कहानी के लिए साधुवाद. कहानी का अंत चौकाता है. मेरी बधाई स्वीकार करें.
नीरज

anuradha srivastav का कहना है कि -

सूरज जी आपकी पहली रचना और आपका स्वागत है। लीक से हटकर सुन्दर कहानी। शुरु से आखिर तक एक प्रवाह जो जोडे रखता है। एक अनजानी सी उत्सुकता और उतना ही रोचक अन्त। आशा है आगे भी इसी तरह से आपको पढने का मौका मिलेगा।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

सूरज जी,

मैं क्या कहूँ, शूरू से ही खोजी के साथ मैं भी हो लिया था, बनानी से मिलना चाहता था, देखना चाहता था।
बिलकुल ऐसा ही तो नहीं लेकिन थोड़ा-सा मिलता-जुलता हादसा मेरे साथ भी हुआ है। मेरा एक मित्र है, रेणुकूट का (सोनभद्र, उ॰ प्र॰) , उससे बात हो जाए, इसके लिए मैंने भी नाकों चने चबाए हैं। दूसरे-दूसरे लोगों को उसका हुलिया बताकर संबंधित मुहल्ले में भेजा करता था, क्योंकि उसने जगह बदल दी थी, उसके पिता जी ने नं॰ बंद करा दिया था और मैं उसके पिता जी का नाम भी नहीं जानता था, और वो बताया करता था कि मैं जिस मुहल्ले में रहता हूँ वहाँ मुझे मेरे घर का मेहमान ही मानते हैं।

आपका अंत सच में बहुत अच्छा है। सुंदर कहानी के लिए बधाइयाँ।

शोभा का कहना है कि -

सूरज जी
आपकी रचना ने प्रभावित तो बहुत किया है । कुछ ऐसा बाँधा कि पूरी पढ़ ली । पर आगे ?
मुझे तो लगता है कहानी अधूरी है । शायद यह भी एक अदा है कथाकार की । पर मुझे यह जरूर लगा कि
आगे आप कहेंगें कि शेष भाग अगले अंक में ।
एक-एक शब्द सुन्दरता से गढ़ा है । इतनी सुन्दर रचना ने उम्मीदें बढ़ा दी हैं । बधाई स्वीकार करें ।
अगली रचना का इन्तज़ार रहेगा ।

addictionofcinema का कहना है कि -

sunder kahani
ajkal aisi kahaniyan bahut kam likhi ja rahi hain jahan pathak ke liye bhi saath chalne ka space ho. is kahani me suraj ji ne apne pake anubhavon ko kholte hue pathakon ko kayas lagane ke liye poore mauke diye hain. ek bechaini jo kahani me shuru hoti hai wah ant tak tari rehti hai use suraj ji ne ant tak sajagta se nibhaya hai.
badhai

Mohinder56 का कहना है कि -

एक रोचक रचना जो पाठक को अन्त तक बांधे रखने में शक्ष्म है..कौतूहल बना रहता है और अन्त भी कम कौतूहल भरा नहीं..
आप से सीखने को बहुत कुछ मिलेगा

कथाकार का कहना है कि -

दरअसल मैं अभी कुछ नहीं कहना चाह रहा था और देखना चाह रहा था कि पाठक कितनी तरह की और किस तरह की प्रतिक्रियाएं देते हैं.. यही तो जीवन है कभी कुछ मिलने की उम्‍मीद तो कभी न मिलने की नाउम्‍मीदी. हां मैं विमल जी से सहमत हूं कि कहानी में पाठक के लिए भी स्‍पेस होना चाहिये. मैंने आपकोबनानी के घर तक पहुंचा दिया. एक डिनर का न्‍यौता भी बाकी है और बनानी आ ही रही है न रविवार की रात.. मिलिये और बताइये मुझे कि मुलाकात कैसी रही. हां मैंने आपको उसके कमरे के भीतर के दर्शन नहीं कराये. कुछ तो मेरे साथ भी रहने दीजिये
आप सबकी राय ने मेरा हौसला बढ़ाया है..
आगे भी मिलते रहेंगे.
सूरज

SahityaShilpi का कहना है कि -

आदरणीय सूरज प्रकाश जी!
कहानी विधा की विशेषताओं के विषय में कुछ भी कहना मेरे लिये अनाधिकार चेष्टा ही होगी. अत: इस विषय में मौन ही रहनें दें, परंतु किसी भी साहित्यिक कृति का लक्ष्य पाठक होता है और इस कहानी द्वारा आप मेरे पाठक को अपने साथ आरंभ से अंत तक जोड़े रहने में आप पूरी तरह सफल रहे हैं. इस दृष्टि से कहानी को श्रेष्ठ कहने में मुझे कोई संकोच नहीं.
इतनी सुंदर कहानी के लिये आभार स्वीकार करें.

Avanish Gautam का कहना है कि -

ऐसी ही चीजों के लिये ग़ालिब ने लिखा होगा "वो ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता".

एक बात बताईये कमरा देखा था आपने या नहीं? बता दीजिए... पाठकों पर ज्यादा ज़ुल्म अच्छा नहीं...

Avanish Gautam का कहना है कि -

ये खलिश*

विश्व दीपक का कहना है कि -

सूरज जी,
आपकी कहानी पढते-पढते मैं पूरी तरह उसमें रम गया था। उम्मीद बन चली थी कि अब तो बनानी से मिलना जरूर हो सकेगा। लेकिन आपने तो ......
कहानी कहने का यह तरीका बहुत हीं पसंद आया।
बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

वाह।
बहुत रोचक कहानी।
बनानी को देखने के अरमान मन में ही रह गए। कभी दिखाइएगा।

Unknown का कहना है कि -

सूरजप्रकाश जी

कौतूहल को अंत तक बनाये रखा आपने साथ ही कुछ और के ऊहापोह में पाठक को अगली रचना के इंतजार में सहज ही छोड़ते हुये....
आपकी प्रथम पोस्ट से पूर्व ही कलश को आपसे बहुत अपेक्षायें हो चली हैं. कलश को उसका सूरज मिल चुका है प्रकाश की पहली किरण के साथ ही

सादर

Sajeev का कहना है कि -

माफ़ कीजिये आज ही समय मिल पाया इस सुंदर सी कहानी को पढ़ पाने का, क्या कहूँ, एक साँस मी पढ़ गया, प्रवाह कहीं भी टूटता नही है, और अंत, ....लाजावाब, अविनाश जी वाली बात है, वो खलिश कहाँ से होती.....

RAVI KANT का कहना है कि -

सूरज जी,
सुन्दर कृति। बनानी से मिलने की इच्छा का सूत्रपात कर देती है यह पाठक के मन में। बनानी का कमरा भी ध्यान खींचता है।

गीता पंडित का कहना है कि -

सूरज प्रकाश जी,

रोचक कहानी ....
कहानी का रोचक अंत ..


सुंदर कहानी के लिये
आभार .........

अगली रचना का इन्तज़ार रहेगा ।

praveen pandit का कहना है कि -

आदरणीय सूरज प्रकाश जी!
आपका आगमन जितना सुखद है, कथा का पारायण/पाठन भी मुग्ध कर गया।
कहीं पल भर भी रुकने का मन नहीं हुआ और जहां अंत किया आपने कहानी का, मुझे प्रारंभ सा लगा।
बिनानी की खोज मे मन बावरा बना और अभी भी बावरा है।
मैं खुश हूं कि कथा-लेखन को जानने-समझने का अवसर आपके माध्यम से उपलब्ध हुआ।

मेरे उल्लास में भागी बनें।

सस्नेह
प्रवीण पंडित

कथाकार का कहना है कि -

प्रिय रंजन, रंजू, वीरेन्‍द्र, नीरज, अनुराधा, शैलेष, शोभा, विमल, मोहिन्‍दर, अजय, अभिलाष, तन्‍हा कवि, गौरव, श्रीकांत, सजीव, प्रवीण, रवि, गीता और प्रवीण तथा वे सब पाठक जिन्‍होंने मेरी ये कहानी तो पढ़ी लेकिन किसी कारणवश अपनी टिप्‍पणी दर्ज नहीं की. आप सब का तहे दिल से शुक्रिया कि एक मामूली सी कहानी को इतना पसंद कर बैठे. एक तरह से मेरी जिम्‍मेवारी आप सब ने बढ़ा दी है कि भविष्‍य में अगर यहां रहना है तो बेहतर लिखना ही होगा.
कहानी पसंद आने की एक वजह शायद इसकी पठनीयता है और दूसरी बात शायद ये है कि मैंने कहानी को open ended रखा है. इसमें अपनी कल्‍पना शक्ति से कहानी को पूरा करने के लिए पाठक के पास भरपूर गुंजाइश है. जो भी कहानी पाठक का ख्‍याल रखेगी और उसे स्‍पेस देगी, पसंद ही की जायेगी.
इस कहानी के साथ भी ऐसा ही हुआ है और मैंने महसूस किया है कि हर पाठक के मन में उसकी अपनी एक बनानी है या उसकी छवि है जो मिल कर भी नहीं मिलती या मिलते मिलते रह जाती है.
हम सब के जीवन में यही तो होता है कि हम अपनी अपनी बनानी की चाहत में जाने कहां कहां भटकते रहते हैं. कई बार हम गलत दरवाजे खटखटाते रहते हैं और भीतर खबर नहीं होती. कई बार ऐसा भी तो होता है कि कहीं किसी और बंद दरवाजे के पीछे कोई हमारी राह देख रहा होता है और हमें खबर नहीं होती. बनानी तो किस्‍मत वालों को ही मिलती है. किसी के हिस्‍से में उसके कमरे का दीदार है तो किसी के हिस्‍से में वो भी नहीं. पुनः एक बार शुक्रिया
सूरज

Divya Prakash का कहना है कि -

मंजिल मिले न मिले ,जिस भी रह मैं मंजिल ढूँढने की कोशिश हो वस सफर का मजा ही अलग है | हम कई सारी ऐसे बातें करते हैं जिनका कोई कारन नही होता और शायद ये सही भी है की हर कृत्य का कारण न ढूँढा जाए ,तभी जीने का मज़ा है | मज़ा आ गया पढ़ के , मैंने अपने आप से बहुत relate किया इस कहानी को !!
हमको क्या करना चाहिए और क्या नही इस बंदिश को दूर छोडती हुई ये कहानी बहुत ही अच्छी लगी , सूरज जी बहुत बहुत बधाई |

सतीश पंचम का कहना है कि -

बहूत रोचक कहानी है. शुरू से अंत तक कहानी ने बांधे रखा

Unknown का कहना है कि -

Zabardasttt story hai sirr.....bahut hi badiya....

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)