tag:blogger.com,1999:blog-57242417264508527272024-03-13T09:08:50.823+05:30कहानी-कलशगिरिराज जोशीhttp://www.blogger.com/profile/13316021987438126843noreply@blogger.comBlogger118125tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-72457206109133449622011-08-09T23:39:00.001+05:302011-08-09T23:39:56.928+05:30भविष्य<img src="http://folks.co.in/wp-content/uploads/2009/12/leadership.jpg" align="right" width="200">उस दिन आफिस में मुहर्रम की छुट्टी थी। सर्दी के मौसम में सूरज देवता की पूरी मेहरबानी होने का मतलब है, कुछ मूँगफलियों हों, रेवड़ी-गुड़, खुला आसमान और थोड़ी-सी मौज-मस्ती। सोचा बच्चों को इंडिया गेट लेकर जाया जाए। वहाँ की खुली धूप में पिकनिक ही कर ली जाए। खाने और खेलने का सामान बँधा, कार निकाली, चले पड़े।<br />
कार में बच्चे बात कर रहे थे- "बुआ, इंडिया गेट के पास ही तो राष्ट्रपति भवन है ना?’।<br />
मैंने कहा, "हाँ" चलते-चलते मैंने कार राष्ट्रपति भवन की और मोड़ ली।<br />
मैं बच्चों को आस-पास नजर आ रही सभी इमारतों के विषय के बारे में बता रही थी।<br />
तभी मेरा भतीजा, संसद भवन की आेर ईशारा कर के बोला, "बुआ वो क्या है?"<br />
"बेटा, वो संसद भवन है।"<br />
"संसद भवन क्या होता है?" सनी बोला।<br />
"बेटा, हमारे देश का सारा काम-काज इसी संसद भवन से होता है। हमारे द्वारा चुने गए सभी नेता यहीं से देश का भविष्य निश्चित करते हैं।"<br />
"अरे-अरे बुआ, क्या यही वो जगह है, जहाँ वो सभी एक-दूसरे को कुर्सी मारते हैं, खूब हंगामा करते हैं, जो टी वी में भी आता है।<br />
मैंने देखा था क्या लड़ाई होती है। सनी, तुम भी देखना खूब मजा आता है कोई किसी की बात नहीं सुनता है। एक आंटी चुप करने को कहती रहती हैं, और कोई चुप नहीं करता है।", पिंकी ने कहा।<br />
"बुआ चलो, बुआ चलो चलकर देखते हैं लड़ाई", सनी ने कहा ।<br />
<br />
मैं इंडिया गेट की तरफ गाड़ी मोड़ चुकी थी और पिंकी द्वारा संसद की इस पहचान पर स्तब्ध थी।<br />
<br />
<b>सीमा ‘स्मृति’</b>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com53tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-78496911454876102302010-07-13T13:09:00.001+05:302010-07-13T13:10:31.681+05:30बलवा हुजूम ः मिथिलेश प्रियदर्शीदोस्तो,<br />
<br />
किन्हीं तकनीकी कारणों से हम सोमवार की कहानी को ठीक समय पर नहीं प्रकाशित कर सके, उस बात का हमें खेद है। युवा कहानीकारों की कहानियों के प्रकाशन की शृंखला में इस बार पढ़िए युवा कहानीकार मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी- 'बलवा हुजूम'।<br />
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<hr/><center><span style="font-weight:bold; font-size:140%; color:#8f134a;">बलवा हुजूम</span></center><br />
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यकीन मानें मेरा। खूब खुश हो रहा हूँ, अपने भीतर का सब कुछ आपके आगे उड़ेलकर। अपनी बातें आपकी भाषा में लिखकर। इस तरह बातें करना वाकई बड़ा सहज और मजेदार है।<br />
अक्षरों के टेढ़े-मेढ़ेपन पर मत जाइये। ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। बस ‘क‘ और ‘फ‘ तथा ‘म‘ और ‘भ‘ और कभी कभी ‘घ‘ और ‘ध‘ को पढ़ते समय सावधान रहने की जरूरत है। दरअसल मेरी उँगलियां लकीरनुमा छत खींच कर उसके नीचे शब्दों को लटकाने की आदी नहीं है, इसलिए दिखने और लिखने में लगभग एक समान लग रहे अक्षरों के साथ गड़बड़ी की संभावना का बन जाना मुश्किल नहीं है। <br />
जमीन पर पतली लकड़ी से पाठ सिखाते समय नानूसान कहते, ‘‘शब्द जिन्दा होते हैं। नीचे मिट्टी में लिख रहे हो तब तक ठीक है। कागज पर बिना रेखा खींचे शब्दों को हवा में लटकने दोगे, कागज हिलाते ही वे गिर पड़ेंगे।‘‘ मैं विस्मित होकर उन्हें ताकता, वे मुस्कुराते और ठुड्डी पर टिकी उनकी लंबी सफेद दाढ़ी थोडी़ और लंबी हो जाती।<br />
सीखने के शुरूआती दौर थे, जब मैं ‘क‘ और ‘फ‘ में लगातार घालमेल कर रहा था। नानूसान मुझसे बार-बार ‘काफ्का‘ लिखवा रहे थे। जमीन पर लिखते-मिटाते एकबार मैंने उनसे पूछ दिया ‘‘काफ्का माने?‘‘ <br />
’’बहुत पहले पैदा हुआ बाहर देश का एक लेखक। उसकी किताबें तुम्हें पढ़ाऊँगा, जब हम यहाँ से बाहर होंगे।‘‘<br />
आगे के कई दिनों तक अनायास मेरे हाथ तिनके से ‘‘काफ्का‘‘ लिखते रहे थे। <br />
कईयों के लिए मेरा इस तरह से फर्राटेदार लिखना, समझना एकदम से दांतों के नीचे उँगली रख लेने वाली बात हो सकती है। दुनिया-जहान में आजकल होने वाले कई अजूबों पर सिर हिलाकर आश्चर्यमिश्रित सहमति कायम की जा सकती है, जैसे कि कल को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का पद पट्टे पर मिलने लग जाए (लोकतंत्र की स्थिति समझाते हुए नानूसान कहा करते हैं), या फिर कानून के मोटे पोथे में एक पन्ना और जुड़ जाए जो सोचने को अपराध मानने और उसपर दण्ड देने पर रंगा हो (कानून व्यवस्था की बात निकलने पर उन्होंने यह बात कही थी), या यह कि शहर के तमाम चिड़ियाघर बंदरों, सियारों के साथ-साथ पेड़ भी दिखाने लग जाएं या कि पीने के पानी के लिए समन्दर से ही मोटी-मोटी पाईप लाइनें जोड़ी जाने लगे (पर्यावरण के लगातार छीजते जाने पर चिन्तित होकर फीकी हंसी के साथ नानूसान ये बातें कहते हैं)। <br />
ऐसी और न जाने कितनी अजीबोगरीब बातें, जो कल को हकीकत हो जा सकने वाली हों, बड़ी तेजी से फैलती समझदारी के कारण इन पर यकीन कर हामी भरने वालों और बातें करने पर भरसक चिन्तित होने की कोशिश करने वालों की संख्या खूब-खूब है। पर मेरा या मुझ जैसे एक निपट जंगली आदिवासी का जेल में या जंगल में रहकर फर्राटेदार लिखना-पढ़ना, वह भी उस भाषा में जो धरती की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा हो। कईयों के लिए यह वाकई अविश्वास से भरकर सिर धुनने वाली बात है। पर होती रहे। यहाँ तो प्रमाण है, इस लिसलिसहे स्याही से बनते शब्दों से पटता जाता यह कागज। <br />
आगे बातें शुरू करने से पहले मैं अपने उन दोस्तों का नाम लेना चाहूँगा, जिन्होंने अपने असीम यातनाओं से भरे दिन-रात से कुछ बेहद धैर्य वाले घंटे निकाले, जिनकी बदौलत ढेलकुशी चलाने वाली मेरी उँगलियां अक्षर गढ़ने लगीं।<br />
नानूसान, मेट, और बुच्चू। लेकिन सबसे पहले नानूसान क्योंकि लिखने के लिए जरूरी चीजें कागज, कलम और ज्ञान सब उन्हीं का उपलब्ध कराया हुआ है।<br />
मुझ जैसे जवान लड़कों को पहली ही नजर में बाप-दादा की उमर सरीखा लगनेवाला, सफेद-धूसर लंबी दाढ़ी और उसके बीच हमेशा कायम रहने वाली एक गंभीर मुस्कान का धनी बुढ़ा नानूसान। जंगल और जंगल की पहचान, पीड़ाएं उसकी नसों में भरी हैं, तभी तो दूसरे ही दिन सुबह नाश्ते के वक्त संकेतों से ही मुझे अपने करीब बुलाया। उसी स्थिर मुस्कान के बीच उनके होंठ हिले और एकदम से हमारे जंगल की भाषा झरी, ‘‘जंगल से हो?‘‘ मैंने अचकचाकर हाँ तो कह दिया, लेकिन नाश्ते का कटोरा हाथ में लिए खड़ा कई पलों तक उन्हें ताकता रह गया। सुखद आश्वस्ति में डाल देने वाली यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात के तीसरे रोज ही हमारी दूसरी मुलाकात में उन्होंने सीधे पूछा ‘‘कुछ गड़बड़ किया जो पकड़े गए?‘‘ तब अपने अपराध के प्रति अनजान-सा उनकी आंखों में एकटक झाँकता मैं चुपचाप उंकडूँ बैठा रहा था। मुझे यूँ खामोश देख, उन्होंने इस बार तनिक करीब आकर मेरे बेडौल, खुरदुरे हाथों को अपने हाथों में लेकर मेरी नाड़ी देखी थी और जरा चिंतित लहजे में हौले से मेरी ही जुबान में कहा था ‘‘तुम पर जंगल में सिपाहियों की अंदरूनी खबरें फैलाने का आरोप है। बतौर मुखबिर।‘‘ <br />
सुनकर मैं सकते में नहीं आया था और न ही मैंने कोई सवाल उनकी नजरों पर टांगा था, क्योंकि पकड़कर तुरन्त वहीं ढ़ेर कर दिये जाने के मुकाबले यह सब तो कुछ भी नहीं था। पर बाद की मुलाकातों में ऐसे कई खामोश सवालों के जवाब मुझे मिलते गये थे।<br />
नानूसान डॉक्टर हैं, जैसे बडे़ अस्पतालों में हुआ करते हैं। लेकिन वे लोगों को अपने पास बुलाने की बजाए खुद उनके पास पहुँचने पर यकीन करते हैं।<br />
उनके पास एक मोटरगाड़ी है, जिसपर कुछ मित्रों को लेकर वे दूर-दराज के इलाकों में इलाज के लिए निकल पड़ते थे। उनकी मोटर में हमेशा खूब दवाईयां होती थी, जिसे वे अपनी देखरेख में बांटा करते थे। इन इलाकों में इनके बैठने के दिन-समय तय होते थे। मोटर से मोड़ी-खोली जा सकने वाली मेज-कुर्सियां उतरतीं और किसी पेड़ की छाया के नीचे दवाखाना जम जाता। सूई लगाने से लेकर पानी चढ़ाने तक का काम खुले आसमान के नीचे होता। मलेरिया, फायलेरिया, कालाजार, डायरिया, टीबी जैसे घातक रोगों के खूब रोगी होते थे। सब के सब हारे-थके, परेशान। भूत प्रेतों और डाक्टरों पर एक साथ भरोसा करने वाले। इन सब पर नानूसान का <div class="parichay"><span style="font-weight:bold; font-size:120%;">लेखक परिचय- मिथिलेश प्रियदर्शी</span><br />
<img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/vyaktitva/mithilesh_priydarshi.jpg" align="right">जन्म- चतरा, झारखंड<br />
पहली ही कहानी ‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ को वागर्थ २००७ का नवलेखन पुरस्कार।<br />
<b>संप्रति-</b> अखबारों के लिए लेखन<br />
<b>ईमेल-</b> askmpriya@gmail.com<br />
</div>इलाज चलता और साथ में समझाईश भी। इन जानलेवा रोगों के अलावे और कई रोग पसरे पड़े थे, पर जो सबसे बड़ा रोग था और जिससे प्रायः जूझ रहे थे और जिसका उपचार नानूसान के पास भी नहीं था, ऐसी भूखमरी ने कईयों को अकाल मौत के हवाले डाल दिया था। इसके पीड़ितों से इसके बारे में बात करना उनकी दुखती रग पर हाथ रखना होता था, लेकिन बातें होती थीं और बार-बार होती थीं। इस रोग की पहचान और इसके लक्षण तो साफ थे, बस इसके मूल और निदान पर लोगों के साथ नानूसान की चर्चाएं जमती थीं। यह एक दुःख था जो कहने से जरा कम टीस देता था।<br />
हमारे जंगल का पश्चिम छोर, जहां से बाहर निकलने के लिए पेड़ों से बचबचाकर निकलती हुई कई पतली पगडंडियों से मिलकर बनी एक चौड़ी पगडंडी, जो आगे जाते-जाते कच्ची सड़क की शक्ल ले लेती है, जंगल से लगातार इसी राह के साथ दूर होते जाने पर कुछ छोटे गांव और बाद में एक हाट पड़ता है, जहाँ से हम नमक और देह ढंकने के लिए कपड़े लाते हैं। नानूसान कहते हैं, वे इसी हाट में कई दफा आ चुके हैं, जहाँ से जंगल के रोगों-दुःखों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, समझने का बढ़िया मौका मिला है। हालांकि अफसोस कि नानूसान से मेरी मुलाकात कभी नहीं हो पाई, जबकि मैं पियार, केंद, बैर, लकड़ियां लेकर कई बार हाट जा चुका हूं।<br />
और इसी तरह दुःखों-बीमारियों का पीछा करते जंगल को समझते-बुझते वे जंगल के हो गए। जहां उन जैसों के लिए अपार काम था। वे रम गए। भाषा सीखी, संस्कृति को समझा, दर्द को महसूसा, दावेदारों को पहचाना, सब कुछ खोद कर लूट ले जाने को आतुर बाहर-भीतर के लूटेरों, गुंडों, ठेकेदारों को पहचाना। जंगल को जंगल न रहने देने की साजिशों में शामिल तत्वों को देश-दुनिया के सामने नंगा किया। उन्होंने पूरे जंगल का इलाज किया, सोचने-समझने, लड़ने लायक स्वस्थ बनाया। युद्धभूमि में मानवीयता के लिए बेखौफ समर्पित एक ऐसे वैद्य और प्याऊ की भूमिका उन्होंने निभायी, जिसके लिए हर घायल उसके कर्तव्य के दायरे में आता है। उन्होंने सबको दवाईयां दी, सबकी मरहम-पट्टी की, सबको माने उनको भी जिनके करीब तक जाना मना किया गया था, जंगल आते समय। <br />
प्रदेश के खलिफा, हुक्मरान जंगल के जिन रखवालों के शिकार के लिए जी-जान से जुटे थे और नाकाम होने पर मंदिरों में घंटियां तक टनटना रहे थे, नानूसान का चिकित्सक होने के नाते उनका भी दर्दे-ए-हाल लेते रहेने को भीषण जुर्म माना गया। बस, बिना जोखिम उठाये तुरंत के तुरंत नानूसान को भी शिकार घोषित कर पकड़ लिया गया। <br />
जिससे जितना ज्यादा डर, उसपर उतने ज्यादा और भारी आरोप। राजद्रोह लगा दिया गया और वे तब से यहाँ हैं।<br />
नानूसान के बारे में ये बातें खुद नानूसान ने नहीं, मेट ने और थोड़ी-बहुत बुच्चू ने बतायी, जब मैं थोड़ा पुराना और हिन्दी सुनने-समझने लायक हो गया।<br />
सबसे पहले दोस्ती मेट से ही हुई थी। तब नानूसान से और बाद में बुच्चू से। <br />
मेट अच्छा आदमी है और चालक है। यहां इसलिए है कि उसकी ट्रक से नशे में धुत एक रईसजादा अपनी विदेशी कार सहित कुचला गया था। मरने वाले के बाप ने ऐसी जुगाड़ लगायी थी कि मेट उम्रकैद के फासले से चंद ही कदमों से बच पाया था। मालिक ने ट्रक तो छुड़ा लिया पर मेट को सड़ने के लिए छोड़ दिया और संयोग कि उस खूनी ट्रक को अब मेट का बेटा चला रहा है।<br />
और बेचारा बुच्चू प्रेम में मारा गया। एक लड़की थी मीना, जिसके साथ बुच्चू ने भागकर शादी की। लड़की के परिवार वालों की ओर से अपहरण का मुकदमा दर्ज कर दिया गया। आनन-फानन में दोनों के दोनों पकड़ भी लिये गए। संयोग कि लड़की को अठारह पूरा करने में आठ दिन की कसर रह गई थी। काले कोट वालों ने पैसे को आगे और प्रेम को पिछवाड़े डालते हुए अपनी जिरह से साबित कर दिया कि बुच्चू ने नाबालिग लड़की को बहलाया, फुसलाया और उसे गुमराह करके अगवा कर लिया। बलात्कार की पुष्टि के लिए किए गए डाक्टरी जाँच में कुछ नहीं निकला, फिर भी बुच्चू तीन सालों के लिए रेल दिया गया और अभी तो पचास-पचपन दिन ही हुए हैं उसे।<br />
मेरी उम्र के ही अगल-बगल फटकने वाले इस चमकदार लड़के की चमक बंद अहाते में रहते हुए बदरंग हो गई है। उसके भीतर फैले हुए सारे रंग उड़ने लगे हैं। वह आँखों में अतल सूनापन लिए खाली होता जा रहा है, इतना कि कोई कभी भी आए कभी भी जाए फर्क नहीं पड़ता। <br />
अपनी दमक और तेज खो देने वाला एक अकेला बुच्चू नहीं है यहाँ। कई हैं। जेल हुक्मरानों को इसी में चाहरदीवारी की सफलता भी दिखती है। इस जगह को बनाया ही इस तरीके से गया है कि यहां लाये जाने वाले का पहले व्यक्तित्व मार खा जाये, फिर देह जंग खाकर निस्तेज हो जाये और अंत में सोच उसका साथ छोड़ दे। जब वह यह जगह छोड़े तो निरा पंगु होकर, मृत्युपर्यन्त अपनी निरर्थकता के साथ। <br />
मुझे खुद से ज्यादा रोज बूढ़ा होते हुए नानूसान की परवाह है, जिनकी परवाहों में गांव है, जंगल है और हर वह आदमी है जो पीड़ित, बीमार और घायल है। डर भी लगता है कि प्रकृति, समाज और मानवता से दूर इस नितांत बंद जगह की जड़ता से हमारे माथे की गति प्रभावित न हो जाये। नानूसान कहते हैं, ‘‘हृदयगति से कम खतरनाक मस्तिष्क की गति का रुक जाना नहीं है, जो व्यक्ति की पहचान, उसके अस्तित्व पर संकट ला देता है।<br />
इस घेरे में गति का घोर अभाव है। यहाँ सब कुछ स्थिर और नियत है, जिससे हमारे भीतर एक ऊसर किस्म का सूनापन भरता जाता है। <br />
वही-वही चेहरे, वही-वही आवाजें, घड़ियों के पीछे-पीछे बजने वाली घंटियों की टन-टन, धीरे-घीरे बनती-मिटती परछाईयाँ, पानी के विशालकाय जड़ हौदे, बुरी तरह से ढंकी हुई कुएँ की मुंडेर, कोठरी के भीतर की चुप्पी, अँधेरा और सीलन, सूरज के उगने से लेकर तारों के ओझल होने तक की तयशुदा हलचलें, कोठरी से दिखती लाल-लाल दीवारें और उनपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे उपदेशात्मक वाक्य कि ‘अनुशासन ही देश को महान बनाता है‘, ऐसे और भी कई आधे-लिखे-मिटे चकतेनुमा शब्द-वाक्य, जिनसे अक्षर ज्ञान के बाद मैं चिढ़ता रहता हूँ। चौतरफा रचे-बसे ये सारे के सारे दृश्य आँखों से स्थायी रुप से चिपक-से गए हैं। ऊबकर इनसे टकराने से बचता हूँ, लेकिन बेकार। <br />
पेशी के दिनों को छोड़कर बाकी के दिन और तारीखें कैलन्डरों और रजिस्टरों में ही गतिमान हैं। इनका बदलना हमारे लिए कोई बदलाव लेकर नहीं आता है। लगता है, आज के दिन जैसे जिया, कल इससे अलग नहीं था या परसों भी या फिर पिछले दो सालों के लगभग सभी दिन, जब से यहाँ रखा गया हूँ। दिन-रात इस सुस्ती से सरकते हैं, मानों इस चाहरदीवारी के भीतर घटों, मिनटों और सेकेण्डों की स्वाभाविक गति को थोड़ा घटा कर रखा गया है। शायद बाहर के तीन सेकेण्ड पर यहां एक सेकेण्ड होता हो या इसी तरह भीतर के एक मिनट में बाहर तीन मिनट गुजर जाते हों। समय के बड़े-बड़े बोझों से सबकी पेशानियों पर हताशा की एक स्थूल परत जम गयी है। गाहे-बगाहे लाख खुलकर हँसने पर भी यह परत छिपती नहीं है।<br />
यहाँ बन्द हम कईयों से मिलने कोई नहीं आता, एक मरगील्ले कुत्ते को छोड़ कर, जिसे चाहने वालों की संख्या पचास के पार है और वह जल्द ही पुचकारों और दुलारों से ऊबकर-थककर पूँछ हिलाना बन्द कर देता है और बाहर चला जाता है। हम कुछ नये सहमे से रहने वाले लोग उसे छूने भर की तमन्ना लिए, अपनी बारी का इन्तजार करते, किनारे बैठकर मन मसोसते रह जाते हैं। कभी-कभी उसे देखे पखवाड़े गुजर जाते हैं।<br />
एक नीमरोज, जब अधिकतर लोग अपनी बैरकों में ऊंघ रहे थे और मैं पखानाघर के सामने की घासें नोच रहा था, वह मुझे दिखा। वह मेरी ओर नहीं आ रहा था, जानकर मैं अचानक उसके सामने कूद पड़ा। बचकर वह भागने को हुआ लेकिन मैंने दोनों हाथों और पैरों का फैला हुआ घेरा दिखाकर उसे छेक लिया। गोल और मीठा मुँह बनाकर धीमी आवाज में पुकारता-पुचकाराता मैं उसे पकड़ने में सफल रहा।<br />
मैंने उसे अंकवार रखा था और महीनों से इकक्ष हो रहा प्यार उड़ेलना चाहता था। मैं उसकी रोओं में फंसी बाहर की हवा और महक पाना चाहता था। पखानाघर के सामने कुत्ते को इस तरह अकेले में भीचें देखकर भीतर की पहरेदारी वाला सिपाही मेरी ओर ऐसे लपका, जैसे डण्डे से मारकर मेरा सिर खोल देना चाहता हो। उसके चीते की तरह लपकने में मेरे द्वारा कुत्ते का आलिगंन, जैसे किसी अनर्थ, अपराध या अनुशासन भंग का हिस्सा हो और मेरे ऐसा करने से उसका देश महान बनने से रत्ती भर से रह गया हो या शायद जेल की अवधारणा में प्रेम का प्रस्फूटन या संबंधों का गाढ़ापन जेल की स्वाभाविक यातनाओं को ठेंगा दिखाता हो या फिर वह मुझे कुत्ते के फेफड़े में भरी आजादी की उस हवा को चखने से रोक देना चाहता हो जिसको लेकर पूरे इतिहास भर में कई बगावतें हुई, जैसा कि नानूसान बताते हैं। <br />
खैर, कुत्ते को वहीं हड़बड़ाया-घबराया छोड़, मैं भाग कर अपने पिंजड़े में दुबक गया। साँसों को तरतीब कर ही रहा था कि बीसियों गालियों के साथ दो-तीन रुल चूतड़ों पर चिपक गए, साथ में कई दिनों तक यह जलालत भरी अफवाह भी कि जंगलों के लोग कुत्ते-बकरियों तक को नहीं बख्शते। यह उसी सिपाही ने फैलाया था, जो मुलाकातियों से जमकर रुपये ऐंठा करता था। कई दफा उनकी दी हुई मिठाईयां और खाने वह पूरी की पूरी डकार जाता था। उसे मुझ जैसे कैदियों से घोर नफरत थी जिससे मिलने कोई नहीं आता।<br />
कुत्ते वाली अप्रत्याशित घटना में मजा ढूँढ़ने वाले वे लोग थे, जो खाकी कपड़ों से ढँकी टाँगे दबाते और उनकी थूकों में नमक लगा कर मजे से चटकारे लेते। इनमें से कईयों ने औरतों और बच्चों को रौंदा था, तो कईयों ने कईयों के गले और अतड़ियों में खुखरियाँ घुमाई थीं। ये हत्यारे, बलात्कारी कहने को जेल की छड़ों के दूसरी ओर थे। जेल प्रशासन के नुमाइन्दे के रुप में अघोषित राज इन्हीं का चलता था। इनकी क्रूर, वहशी और घाघ आँखों के चौकन्नेपन और खुफियागिरी से सिर्फ हम ही नहीं जेल के चूहे तक परिचित थे। इनमें भाड़े के खूनी, बौने कदों वाले नेता, सेठ-ठेकेदारों के गुर्गे, घरों और सड़कों के लुटेरे आदि सब शामिल थे, जो भ्रष्ट जेलर के साथ मिलकर साजिशों और खुसुर-फुसुर का माहौल गर्म रखते।<br />
जंगल से बहुत-बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी, जहां दुनिया की किसी भी खूबसूरती को गलती से भी नहीं छोड़ा गया था। उल्टे, मानवता को लजा देने के लिए जिन-जिन नमूनों की जरूरत पड़ सकती है, ऐसे सारे तत्वों को यहां चुन-चुन कर रखा गया था। लेकिन प्रकृति की स्वच्छंदता के आगे किसी का जोर नहीं चलता। हमारे भीतर के सुख महसूसने वाले सारे तंत्रों को निष्क्रिय बना देने के पुरजोर प्रयासों में लगे जेलर को प्रकृति की कलाओं, रंगों और छटाओं से खासी मशक्कत करनी पड़ती।<br />
प्रकृति का उत्सव हमारे लिए वाकई एक अलग खुशनुमा पहलू है, जो सारे दबावों-तनावों को धुल-पुंछ देता है।<br />
मैंने देखा है, यहाँ भी लोगों को पुलकते हुए। उस दिन, जिस दिन बारिश की पहली बौछार पड़ती है। हमें लगता है, ये बूँदे बाहर से बेखटक हमसे मिलने आयी हैं, जेल की दीवारों पर लिखे ‘अनुशासन ही देश कोे महान बनाता है‘ जैसे सारे उपदेशों और कायदे-कानूनों को धोते हुए। हाथ बढ़ाकर हम बूँदांे को हथेलियों और माथे पर मलते हैं, जीभ से उसका स्वाद लेते हैं। वाकई हम पुलकते होते हैं।<br />
बारिश अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर भीतर हमारे लिए बदलाव चाहता है। जेल की ऊसर जमीन पर भी जेलर की नाक तले वह हमारे लिए प्यारी-प्यारी हरी दूबें जन्माता है। उनकी हरियाली और मुलायमियत हमारे दिलों में उतरती जाती है। निर्मोही जेलर को यह सब बदलाव नहीं सुहाता, वह इन प्यारी दूबों पर हमी से फावडे़ चलवाता है। इन दूबों के साथ-साथ धरती पर आए लाल-सुनहले कीट-पतंगें भी खत्म हो जाते हैं। <br />
बारिश के बाद आए मेंढ़कों और झींगुरों की लोरी से हम मजेदार नींद की सैर करते हैं। प्रकृति दुष्ट जेलर के समूचे नियंत्रण को ध्वस्त कर हमें दुलारती-बहलाती है और असहाय जेलर हमें खुश होने और मजे लेने से नहीं रोक पाता है। वह चाहरदीवारी के भीतर जन्म से ही कैद बारह सालों के जुड़वाँ अशोक के पेड़ों का बारिश में लहलहाना भी नहीं रोक पाता है या बसंत में अशोक की फुनगियों पर जंगल, पहाड़, नदी, गांव और शहर की सैर कर आई कोयल का कूकना भी। <br />
छोटे-मोटे गड्ढों में ठहरे बारिश के गंदले लेकिन आजाद पानी से खेलते हुए हम उसकी ठंढई अपनी रोओं में महसूसते हैं। हौदों और कुओं में कैद रंगहीन सर्द पानी की बजाए जी करता है, हम उसी थोड़े पानी में नहायें या फिर नहाने के लिए जेल की गहरे तक गड़प् दीवारों से नदी निकल पड़े और जिसमें ऊपर से भी बारिश होती रहे। जेल के बीचो-बीच होकर गुजरती यह नदी अपने भीतर असंख्य मछलियां समेटी हो, जिससे जेल के स्वादहीन खाने से हमें निजात मिल सके।<br />
बरसात की तरह बसंत भी बाहरी दुनिया और हमारे बीच फर्क किए बगैर जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों को फलाँगते हुए बेधड़क आता है और तब उसकी मादकता और मोहकता के जेल में करीने से सज जाने पर तमाम यातनायें हमें हँसी-खेल लगने लगती हैं। तब लगता है कि सजा की कुल दिनों की बात करते समय उसमें बसंत के दिनों को न जोड़ूँ। <br />
अपने समूचे क्रूर प्रयासों के बाद भी हमें दुःखी न देख जेलर कुढ़ता-झींखता रहता है। बहुत ही ज्यादा बढ़ आए फोते के कारण बेहद भद्दे अंदाज में टांगें फैला कर फूदकता हुआ जेलर, गर्मियों के दिनों में अपेक्षाकृत ज्यादा शैतान लगता है। <br />
पिछली गर्मी की लंबी दुपहरियों में जब सूरज कई-कई घंटों अपनी पूरी ताकत से जलता हुआ आकाश में टंगा रहता, हम पेट में कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे अनाज लिए, पैर मोड़ते फैलाते झपकियां लेने की असफल कोशिशों में जुटे रहते। गर्मियों के लू-दाह वाले दिनों में भी जेलर इत्मिनान से घूम-घूम कर हमारा जायजा लेता रहता और लगभग उजड़ चुके अपने चुनिंदा बालों में उँगलियों से ऐंठ डालते हुए बर्फिला रंगीन पानी गटकता रहता। बलात्कारियों, खूनियों और ठगों की अविराम चापलूसियों से घिरा वह अश्लील लतीफे धड़ल्ले से सुनता-सुनाता और दूर-दूर तक सुनाई देने वाले लंबे-लंबे ठहाके लगाता। <br />
सिकचों के इस पार से दिखने वाले सीमित दृश्यों को ताकते-ताकते आँखों में पर्याप्त बोरियत भर जाती। धुँआ कर चलने वाली गर्म हवाओं से जेल का पूरा अहाता सुलगता रहता। दोपहर को धरती से निकलती हुई गर्मी से अहाते का सूनापन भी दहकने लगता। चौतरफा फैले ऐसे गर्म दृश्यों को देखने पर लगता आँखें झुलस जाएँगी।<br />
सूरज का प्रकोप शाम खत्म होने पर भी कम नहीं होता। एक अदृश्य आग में हम लगातार धीमे-धीमे सिंक रहे होते। शाम को हम उसी पानी से हाथ-मुँह धोते जो दोपहर को खुले आसमान के नीचे खौलता होता। हम प्यास से अकुलाते यूँ ही पड़े रहते पर गर्म पानी हलक के नीचे नहीं जा पाता। <br />
घंटी लगने पर जब रात में सोना होता, हम घंटों छत को और छत से लटकते पीले बल्ब को घूरते रहते। गर्मी से बेहाल हम करवटें बदलते, उठते-बैठते घंटों निकाल देते। ऊबने-थकने पर तब कहीं नींद आती। आधी रात या उसके आस-पास जब हम सारी थकान, गर्मी, और मच्छरों को भूलकर बेमतलब के सपनों में गिरते-पड़ते बेसुध पड़े होते, दुष्ट जेलर अपने दल-बल के साथ हमारी कोठरियों में टार्च की सफेद रोशनी चमकाता, रुल से सिंकचों पर चोट करता औचक निरीक्षण करने में जुटा रहता। एकाएक नींद टूट जाने से हम हड़बड़ाकर उठ बैठते, घूमते दल-बल को देख झुँझलाहट होती और फिर गुस्से में मच्छरों के लिए हथेलियां चटचटाते अपनी खीझ और गुस्सा जाहिर करते। रतजग्गे वाले ऐसे समयों में हम अपने पिंजड़ों में दाह-पसीने, चिपचिपाहट और बेचैनी के बीच अपनी सजा को और अधिक खींचता हुआ महसूस करते। भर गर्मी हमें परेशान देख जेलर खूब पर्व मनाता और पुलका-पुलका रहता। <br />
जाड़े में हमारे मजे औसत रहते। मीठी धूप में बैठना यदि नसीब होता तो हमारे भीतर की उचटता नर्म धूप की गर्मी में पिघलकर बह जाती, नहीं तो कंबल के भीतर के अंधेरे और गर्मी में ही दिन-रात कट जाते। <br />
जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, सर्दी के शुरुआती दो महीने निकल चुके हैं, जो हमंरे लिए कहीं से भी सुखद नहीं रहे हैं। पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना के बाद से जेल सुपरिटेंडेन्ट को हटाकर बहुत दूर एक कस्बाई जिले के जेल में भेज दिया गया है। उसकी जगह पर जो नया आया है, जो नानूसान की उम्र के आस-पास ही ठहरता है, सनकीपन की हद तक जाकर दौरे करता है। दुष्ट जेलर, हेड चीफ, वार्डर सब उसके पीछे जूते बजाते, रुल घूमाते, नफरत और वहशीयाना नजरों से हमें घूरकर चले जाते हैं। <br />
असल में, उन्हें यह विश्वास करने में बड़ी दिक्कत हो रही है कि पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना में हमारी कहीं से कोई संलिप्तता नहीं है। <br />
हमारे प्रति बनी उनकी धारणा और विश्वास इसलिए भी नहीं घट रहा है कि प्रांरभिक जाँच में घटना के समय हमारी गतिविधियाँ उनके लिए खटकने वाली थी। इतवार की सुबह मुलाकाती जब अपने बंधु-बान्धवों से मुलाकात कर रहे थे, मैं और नानूसान, वार्डर और मेट की निगहबानी में कोहरा छंटने के बाद खिले जाड़े की सुषुम धूप में देह के पोरों में गर्माहट भर रहे थे कि गेट के करीब वह कानफोडू़ धमाका हुआ था। ‘ये क्या हुआ‘ की घोर जिज्ञासा वाले भाव के साथ वार्डर और मेट को भूलकर हम तत्क्षण गेट की ओर लपके थे, पर तुरंत पोजीशन में आए वार्डरों और सिपाहियों द्वारा हम गेट से दस-पन्द्रह फर्लांग पहले ही धर लिए गए थे। <br />
हम जिस तरह से जकड़े गये थे और वापस अलग-अलग कोठरियों में डाले गये थे, यह समझना कहीं से भी कठिन नहीं था, कि हमारे इस तरह अचानक दौड़ पड़ने को क्या समझ लिया गया है। हमारे प्रति बने-बनाये पूर्वागह और उसपर यह घटना, जाहिर तौर पर उनके इतने गड़बड़ तरीके से समझ लिए जाने पर पूरी जांच की शुरुआत हम ही से हुई थी। <br />
मुझे नानूसान से अलग करके कैद तन्हाई में डाल दिया गया था। कई आशंकाओं के भंवर में डूबता-उतरता मैं नानूसान के लिए चिंतित था। मुझे डर था कि इस घटना के जरिए नानूसान का मुकदमा और ज्यादा प्रभावित न कर दिया जाए। <br />
धमाका और फिर तुरंत कैद तन्हाई, यह सब इतने त्वरीत अन्दाज में हुआ था कि घटना को लेकर हमारी अनभिज्ञता बनी ही रह गई थी। घटना के तुरंत बाद अहाते में कड़ाई व्याप्त गया था। सारे ओहदों पर खूब फेर-बदल हुई थी। हमारा दोस्त मेट भी नहीं दिखता था जो कुछ बता सके।<br />
अब तक पजए गए जेल जीवन के सबसे दर्दनाक दिन मेरे लिए यही रहे। अँधेरे में दिन-रात काटता मैं अपनी अब तक कि जिन्दगी जेल से जंगल को मन ही मन दुहराता चला जाता। घटनाओं के साथ-साथ लगने वाले दुःख, पीड़ा, क्षोभ, अफसोस, खुशी, पछतावा जैसे भावों को दुहरा-तिहरा जीता मैं हर पल बेचैन होता रहता। मैं हफ्तों पहले देखे गये उगते-डूबते सूरज, उसकी गुनगुनी गर्मी, उड़ती चिड़ियाओं के झुंड और शाम ढ़ले जेल के हाते के ठीक ऊपर से गुजरते थकान से भरे कबूतरों को याद कर मन मसोसता और लंबी ऊब और झुंझलाहट से भर देने वाली पूछताछ में साहबों का साथ देने की भरसक कोशिश करता। <br />
दरअसल हम उस झमेले के शिकार हो गए थे जिसका हमको ठीक-ठीक पता तक नहीं था। घटना को लेकर उत्सुकता का आलम यह कि लंबी पूछताछ के दौरान साहबों की ओर से पूछे जाने वाले सवालों के जवाब में मन करता की बड़े भोलेपन से उल्टी पूछूँ कि कैसे क्या हुआ था साहब उस दिन? मैं असमंजस में पड़ा आँखें चिहाऱ कर उन्हें देखता भर रह जाता। वे सवाल दर सवाल किए चले जाते। आखिर में वे अँधेरे में इधर-उधर गालियां बिखेर कर और दो-तीन झन्नाटेदार थप्पड़ों से मेरी कनपट्टियां झन-झनाकर इस वायदे के साथ रुखसत होते कि वे फिर आयेंगे, धमाके वाले इतवार कांड में कौन-कौन शामिल है, यह उगलवाने। <br />
यह सब लगातार चलता रहा और जब जाँच में लगे साहबों के हाथ कुछ मजबूत सूत्र आए जिसमें हम कहीं नहीं थे और जब फरारियों को पकड़ कर कुछ नए आरोपों के साथ वापस जेल में ले आया गया, तब जाकर मुझे कैद तन्हाई से मुक्ति मिली। हालांकि इसके बाद भी नानूसान को किसी तरह की कोई राहत नहीं दी गई। <br />
इतना कुछ हुआ, परि जाकर पता चला कि उस इतवार को आखिर हुआ क्या था? <br />
असल में, घटना वाले इतवार एक मुलाकाती अपने साथ जो खाना लेकर आया था, उस टिफिन में ऊपर से तो गोल-गोल लिट्टियां रखी थीं, पर नीचे दो जिन्दा देसी बम थे, जिन्हें विस्फोट कर दो लोगों को भगाया गया था। बुच्चू बता रहा था कि भाग निकले कैदी पकड़े नहीं जाते पर कुछ ऐसा हो गया कि दोनों के दोनों धरे गये।<br />
धमाका कर मुलाकाती सिर्फ अपने भाई को भगाने आया था पर धुएँ और अफरातफरी का सहारा लेकर एक सजायाफ्ता कैदी और फरार हो गया, जो किसी ठेकेदार के चक्कर में पड़ कर अपनी प्यारी पत्नी को शक के कारण पीट-पीटकर हत्या कर देने के आरोप में ष्बीसबरसाष् भोग रहा था। भागकर दोनों महुआटांड जाने वाली बस में सवार हो गये थे, पर महुआटांड जाने की बजाए दोनों आपस में बातचीत कर वहाँ से लगभग पन्द्रह-बीस किलोमीटर पहले ही एक गांव के नजदीक उतर गए। उतरे तो ठीक, लेकिन जिसको भगाने के लिए बम फोड़ा गया था, उसकी लूटने-झपटने की पुरानी आदत। उतरते-उतरते उसने बस के दरवाजे पर खड़ी बुढ़िया से उसका लाल बांका मुर्गा छीन लिया। यह आदमी पहले घाटी में गिरोह बनाकर बस-ट्रक लूटता था, वह भी पार्टी के नाम पर। गिरोह के सदस्यों को पुलिस तो खोज ही रही थी, नाम बदनाम करने के कारण पार्टी वाले भी पीछे पड़े थे, लकिन पार्टी वालों के हाथ पड़ने से पहले ही गिरोह के चार आदमी पुलिस के हत्थे चढ़ गए। पार्टी के नाम पर उत्पात मचाना खूब भारी पड़ गया। थाना लूटने, पिकेट उड़ाने जैसे बीसियों आरोप और ऊपर से लाद दिए गए। दो साल से यूँ ही पड़े हुए थे। इन्हीं चार में से एक को उसके दुस्साहसी भाई ने बम पटक कर भगा लिया।<br />
दूसरा कैदी जिसने मौका ताक कर चालाकी दिखाई थी और निकल लिया था, उसी की योजना थी, गाँव के नजदीक उतरने की, क्योंकि इस गाँव में उसकी फूफसास रहती थी। तुरंत के लिए यह ठिकाना उन्हें महफूज भी लगा था, पर संयोग कि लाल रंग वाले उस बांके मुर्गे वाली बुढ़िया इसी गांव की निकली और उसने इन दानों को पहचान भी लिया। फिर तो गांव वालों ने दोनों को भरदम मारा और थाने में दे दिया। जहां इन्होंने सब किस्सा बक दिया।<br />
इस बम कांड ने बहुत कुछ उलट कर रख दिया है। कहां तो इसे जेल तोड़कर नानूसान को भगाने की बात कही जा रही थी। लेकिन तथ्यों के सामने आते ही सभी अफवाहों की हवा ढीली हो गयी। अब तो पूरा इतवारी बम कांड झरने के पानी की तरह साफ है, पर जेल वालों के दिमाग में अब भी हमारे प्रति अविश्वास, सर्तकता और चौकन्नापन साफ झलक रहा है। हालांकि मुझे कैद तन्हाई से छुटकारा दे दिया गया है, पर वापस नानूसान की देखभाल के लिए नहीं रखा गया है। उन्होंने मुझे ताकीद भी किया है कि मैं उनसे दूर रहूँ। इस समय मेरा अकेलापन हाट से बाहर की ओर आने वाले उस सड़क के सूनापन जैसा हो गया है जिसपर हाट खत्म होने और अँधेरा घिर आने की वजह से कोई एक कुत्ता तक मौजूद नहीं होता।<br />
मैं बुच्चू के साथ भी नहीं हूँ। मुझे कोठरी में उच्चकों और चार सौ बीसों के साथ रखा गया है। ये लंपट हैं, चापलूस हैं, धूर्त, लोलुप झगड़ालू और कटखने भी। भद्दी-भद्दी बातें बतियाते हैं और बात-बात में कहकहे लगाते हैं। ये आपस में दोस्ती का नाटक करते हैं, एक-दूसरे की तारीफ करते हैं, खुशामद करते हैं, फिर किसी बात पर एक दूसरे की मां-बहनों पर चढ़ बैठते हैं, बाहर निकलकर सबक सिखाने की धमकियाँ देते हुए कुत्ते-सूअरों की तरह लड़ते-भिड़ते हैं। <br />
अकेलेपन निराशा और अवसादों का यह दौर अब आगे भी जारी रहने वाला है। लगता है, अब सही मायने में जेल मुझे डराएगा और इस डर और हताशा से बचाकर मुझे सिखाने, बताने वाला कोई नहीं होगा। मैं जान गया हूँ, जेल जैसे रेतीले-पथरीले और ऊसर जगह में मौसम की सारी अठखेलियाँ और ठिठोलियाँ नानूसान जैसों के संग ही समझा जा सकता है। अभी सर्दी है। सर्दी की कनकनी भरी रातों में कछुए की तरह कंबल के अंधेरे में सिर घुसाए, मैं इतना कुछ सोच लगातार कांपता रहता हूँ। मेरा कांपना केवल सर्द रातों की वजह से नहीं है। इस कंपकंपी में कल सताने वाला एक अदत्श्य भय है, जिसके संकेत मैं रोज-ब-रोज पा रहा हूँ।<br />
मुझे यह कंपकंपी नई नहीं लग रही है। मैं इसे पहले भी दो-तीन दफे महसूस कर चुका हूँ। बचपन में हुई ऐसी कंपकंपियों का तो मुझे ख्याल नहीं, पर इस कोठरी में आने के दो दिन पहले जंगल की उस मायूस सांझ की पहली और जरा कम तीव्रता वाली कंपकंपी और उस सांझ के उतरने के बाद आयी काली-कलूटी रात की भीषण कंपकंपी की झनक अबतक मेरे देह में बची है। <br />
हौले से हरेक अंग को झनझना कर, रीढ़ की हड्डी में समाकर खत्म हो जाने वाली वह पहली कंपकंपी, मैंने गर्मी की उस सांझ महसूस की थी, जब जंगल की या कि मेरी त्रासदी अपनी प्रक्रिया में थी और इसके कुछ लक्षण मुझे अपनी प्रेमिका में भी दिखाई दे गये थे।<br />
सुक्की , मैं और हमारा जंगल।<br />
हम प्यार करते थे और फूल गिरते थे। उन फूलों को बकरियाँ अपने गालों में दबाकर खा जाती थी। हम प्यार करते थे और महुए टपकते थे, उन महुओं को भी बकरियाँ आँखें नचाकर खा जाती थी। महुआ या जामुन की जड़ों पर जहाँ हम बैठे या अधलेटे होते, हमारी देहों पर या बिल्कुल करीब गिरे फूलों या महुओं को खाने कोई साहसी और समझदार बकरी आती या फिर कोई मासूम, छौना। छौना निधड़क और बड़ी कोमलता से फूलों या महुओं को चुभलाता हमारी ओर से बेपरवाह होता। हम मिलकर उसे आसानी से पकड़ते और बारी-बारी से चूमते। वह उसे छाती से चिपटाकर कहती, ’’हम तीनों वहां घर बनाएंगे, जहां यह जंगल खत्म होता है और जहां इस धरती और आकाश का मिलन होता है। तब हमारे घर का दरवाजा जंगल की ओर होगा और घर की पिछली दीवार के रुप में क्षितिज का विशाल आसमान होगा, जिसकी ओट में हम बिल्कुल सुरक्षित होंगे। हालांकि ऐसी तमाम कल्पनाओं में खोते हुए उसके चेहरे का रंग मलिन होता जाता, क्योंकि जंगल की आबोहवा तेजी से बदलती जा रही थी। इसका भान था मुझे और उसे भी, पर हम अलग-अलग दुःखी हुआ करते थे, अलग-अलग समय में। वह हर सांझ, जब हम यूं ही लेटे या अधलेटे होते, डूबते सूरज के साथ अपनी कल्पनाओं को, जंगल में आने वाली संभावित त्रासदी से दरकता हुआ पाती।<br />
जंगल का गाढ़ापन जार-जार होकर बिखर रहा था और जंगल के बदलते मौसम के साथ-साथ हमारे प्यार का तिलिस्म भी चटक रहा था। जंगल में बढ़ आए फाँटों से अब कोई भी नया-पुराना जो मुंह उठाकर जंगल में घुसा चला आ रहा था, हमें आसानी से झांक जाता था। पेड़ों की जिन जड़ों पर पसरकर हम सपने बुना करते थे, वहां कुछ देर या बहुत देर पहले कईयों के होने की गंध और निशान बचे होते थे। <br />
हम इस डर मिश्रित निराशा और दुःख के साथ लगातार खामोशी भरे चौकन्नेपन में जिए जा रहे थे। जंगल के गंधाते जा रहे माहौल में अब सुक्की क्षितिज के भी सुरक्षित होने को लेकर आश्वस्त नहीं लगती थी। सांझ, सवेरे, दिन, दोपहर हमें प्रेम के लिए जगह तलाशनी पड़ रही थी। अपने ही घर में हम भटक-भटक कर प्रेम कर रहे थे। हमारी प्यारी मुर्गियां और बकरियां गायब हो रही थीं और हमारे परिजन भी। हमारी झोपड़ियां अचानक राख हो रही थीं और हमें जंगल से बाहर बने तंबूओं की ओर खदेड़ा जा रहा था।<br />
हमारे दिलों में खौफ भरने वाले धीरे-धीरे पूरे जंगल में छितर रहे थे। इनमें से कई हमारे बंधु-बांधव थे और कई, बड़े शहरों से भेजे गए हरबे-हथियारों से लैस सिपाही। ये अपनी लोहेनुमा गाड़ियों में गोला-बारुद भरकर लाये थे और मुक्त हाथों से हमारे बंधु-बांधवों को बाँट रहे थे ताकि जंगल के पुराने रखवालों से जंगल को खाली कराया जा सके। जंगल के सौंदर्य से हमेशा खिलवाड़ी करते रहनेवाले कुछ मुट्ठी भर लंपट, लफंगे किस्म के लड़कों का साथ उन्हें नसीब था, जो घरभेदिये का काम कर रहे थे।<br />
शहरी सिपाहियों ने हमारे लिए एक रेखा खींच रखी थी, जीवन और मृत्यु की कि इनकी ओर से हथियार उठाने पर जीवन अन्यथा सौ फीसदी मृत्यु। पर सच यह था कि कोई भी चुनाव शर्तिया मौत की ओर ही ले जाने वाला था। भाईयों से ही लड़ने-कटने की स्थिति में थे हम।<br />
जंगल में एक संभावित युद्ध शुरु होने वाला था और हम इसके सबसे आसान शिकार थे। बड़े शहरों से आए सिपाहियों ने हथियार चलाने के लिए हमारे बंधु-बान्धवों का कंधा चुना था और मौज के लिए हमारे बहनों को, जो चंद पैसों या फिर मौत के विकल्प पर उन्हें उपलब्ध हो जा रहा थे। यह सबकुछ वाकई डरावना थां।<br />
उथल-पुथल से भरे ऐसे ही समय की वह सांझ, हमारी पिछली कई सांझों से बिल्कुल अलग और हमें एक-दूसरे से जूदा करने वाली थी।<br />
उस सांझ जब वह आयी तो रोजाना की तरह उसकी हाथों में हंसिआ नहीं , पलक झपकते मृत्यु की गलियों में भेज देने वाला एक खतरनाक हथियार था, जो निश्चित तौर पर सिपाहियों की ओर से ही दिया गया था। अलविदा कहते सूरज की सुरमई तांबई रोशनी में वह हद से ज्यादा उदास और डूबती दिख रही थी। <br />
महुओं का टपकना दिन भर से शुरु था और वे गिर कर बासी हो रहे थे। बकरियों का आना शायद अभी भी बाकी था। <br />
मैंने उसे सहारा दिया और उसके हाथों से हथियार लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह वैसी ही अधलेटी उदास और थकी-थकी नजरों से मुझे देखती रही। <br />
सूरज भरपूर रंगीन होता हुआ नीचे जा रहा था, जैसे किसी पेड़ पर गिरकर लटक जाएगा।<br />
मैं उस हथियार को जतन से पोछता रहा और वह मुझे ताकती रही। शायद वह बहुत कुछ कहना चाहती थी या फिर कुछ भी नहीं। मैं भी बहुत कुछ पूछना चाहता था या फिर कुछ भी नहीं। हम अगले कई पलों तक अबोले बैठे रहे थे।<br />
फिर मैं चुप्पी छोड़ आहिस्ते से उठा और अपनी पूरी ताकत से सामने जामुन की टहनियों की ओर उस हथियार को उछाल दिया। काले-काले, रस से भरे खूब सारे पके जामुन गदबदा कर पथर गए। मैं बड़े इत्मिनान से उन्हें चुन रहा था और उनमें धंसे छोटे-छोटे कंकड़ों-मिट्टियों को हटाकर, साफ जामुनों को बकरियों की तरह अपनों गालों के बीच दबाता जा रहा था।<br />
कुछ साबूत जामुनों को दोनों हथेलियों में भरकर, जब मैं उसकी ओर मुड़ा, वह वहाँ नहीं थी। <br />
सूरज अपनी रंगीनियाँ बिखेरकर जंगल के बाहर गिर गया था। जामुनों को वहीं बिखेरकर मैं तने और जमीन के ऊपर तक निकल आए मोटे-मोटे जड़ों का सहारा लेकर पसर गया। वह शायद इस जंगल के सांझ के साथ कहीं बिला गयी थी, सोच कर रीढ़ की हड्डी के बीच से एक हौले से झुरझुरी के साथ एकबएक कंपकंपी उठी और मैं हिल गया। <br />
सांझ खत्म हो जाने के बाद मद्धिम रात पसरने को थी और मैं यूँ ही पसरा रहा, एक धीमी किन्तु स्थाई कंपकंपी के साथ। जामुन के कसेपन के साथ वाले खट्टेपन से मुझे अपने होंठ ज्यादा मोटे और भद्दे तरीके से लटके लग रहे थे। पिछले कई मिलनों में, खास कर गर्मियों वाली देर से उतरने वाली सांझों में, जब हम भरपेट आम, जामुन खाकर एक दूसरे को चूमते तो हमारे होंठ अपेक्षाकृत ज्यादा मोटे, ठोस, मुलायम और झूलते मालूम होते थे। मैं जंगल और सुक्की के बारे में घंटों सोचता रहा। <br />
चाँदनी छिटकने पर साधारण लकड़ी की तरह मालूम होता हथियार, बिखरे जामुन के बीच अब भी पड़ा था। सुक्की के इस तरह हथियार छोड़ चले जाने और रात की सांय-सांय भयानक तरीके से बढ़ आने से रीढ़ की हड्डी से उठा मेरा भय कनपटी पर आकर सनसनाने लगा। लग रहा था, जंगल में घुसपैठ मचाकर फैल जाने वालों की खूनी नजरें अगल-बगल के पेड़ों से मुझे झाँक रही हैं। अचानक वे पेड़ों से सरसराते हुए उतर पड़ेंगे और क्षण भर में मुझे नोच-फाड़ खाएँगे। इतने भयानक ख्याल आते ही मुझे ठंड का अहसास हुआ और मैं डरकर सिकुड़ गया। मैं जामुनों के बीच पड़े उस हथियार की ओर फिर से देखे बगैर उसे वहीं छोड़ तुरंत उठ खड़ा हुआ और भागने लगा, बिल्कुल नाक की सीध में, सुक्की की झोपड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर। <br />
जामुन खाने से विकृत हुए होंठ और गले की भरपूर ताकत से एक भयंकर आवाज के साथ मैं चिल्लाना चाहता था, अपनी प्रेमिका के लिए कि वह सावधान हो जाए और बची रहे। हम जंगल नहीं छोड़ंेगे । हम आगे और प्रेम करेंगे। मैं पूरी ताकत लगाने पर भी भागता हुआ नहीं चिल्ला सकता था, या शायद ठहरकर भी नहीं। मैं जितना अधिक जोर लगाता था, आवाज निकलने की बजाए मेरी कंपकंपी बढ़ जाती थी। और मैं हिरण की रफ्तार से नहीं भाग पा रहा था।<br />
मेरा डर, मेरी आशंका सब कुछ सच था। मैं भागता हुआ सच में दबोच लिया गया था। मुझे अपनी गिरफ्त में लेने वाले जंगल के रखवाले नहीं थे। ये वही थे, जिनसे हम पिछले कई हफ्तों से भागते फिर रहे थे, जो बाहरी सिपाहियों और उनके गोले-बारुदों के साथ मिलकर हमसे जंगल छोड़ने को कह रहे थे, जो हमारी प्यारी मुर्गियों और बकरियों को खा रहे थे। हमारे प्रिय परिजनों को गायब कर रहे थेव। हमारी झोपडियां जला रहे थे और भेड़ियों की तरह झुंड में घूमते हुए हमारी बहनों को भंभोड़ रहे थे। <br />
ये गुडडव मुझे पहचानते थे और मैं उन्हें। मैं कई दिनों या हफ्तों या फिर महीनों से इनकी नजरों में चढ़ा था। ये एक साथ मुझपर गुर्रा रहे थे और फिर तुरंत ही उन भेड़ियों ने मेरे धुर्रे उड़ा दिए। मेरी अंतड़ियां उलट गई। आँखें पलट गईं, लेकिन पीड़ा के इस जोर से मेरी आवाज लौट आई जो डर से कुछ देर पहले भागते हुए जम सी-गई थी। वे संपूर्ण ताकत से मुझे पीट रहे थे और मैं मारे जाते हुए सूअर की तरह भयंकर आवाज निकालता हुआ चीख रहा था, ‘‘सुक्की सावधान रहना, तुम बची रहना। जंगल मत छोड़ना। हम बचेंगे और आगे और प्रेम करेंगे।‘‘ <br />
मैं अपने भीतर की सारी आवाज सुक्की को सचेत करने में झोंक रहा था। <br />
खूब पीट जाने पर लगा, मेरी नसों में न रक्त बचा है, न शक्ति और न कोई आवाज। <br />
और रौसे मैं मर गया।<br />
अगली दोपहर मैंने जाना, मैं बच गया हूँ और चारों ओर जंगल का नामोनिशान नहीं है। <br />
मैं बड़े शहर के सिपाहियों के बीच था जो मेरी ओर इशारा करते हुए जोर-जोर से मुखबिर-मुखबिर चिल्लाकर बातें कर रहे थे। अगले कई हफ्तों तक हर उसके पास जिसके सामने मेरी पेशी हुई, मेरे लिए मुखबिर शब्द ही कहा गया।<br />
जेल की इस चाहरदीवारी में मैं इसी आरोप में बन्द हूं। उनकी नजरों में मैंने बेहद संगीन अपराध किया है। यदि किया है तो। और सब सोचते हैं, मैंने यह जरुर किया है, नानूसान, मेट और बुच्चू को छोड़कर। <br />
नानूसान बेहद दुःखद स्थिति में हैं। उनसे अलग किया जाना मेरे लिए बेहद दुखदायी है और यह सुक्की से अलग होने से तनिक भी कम असहनीय नहीं है।<br />
जंगल की लड़ाई शायद लंबी चले, क्योंकि कई अपने ही दूसरे खेमे से लड़ रहे हैं। अब तक तोे गोलियों की दिन-रात की बौछार और बमों की चिंगारियों से पेड़ों की पतियाँ, फूल और फल बिंध कर झर गए होंगे। बंदर, नीलगाय, खरगोश, चितल, तेंदुए और हिरण यहाँ तक की अपनी बाँबियों में दुबके विषधर भी बारुद की तेज भभकने वाली आग में भून गए होंगे और हमारी झोपड़ियों के खाक हो जाने के बाद पेड़ों पर ठहरने वाले चिड़ियाओं के घोसलों का जलना-गिरना आम हो गया होगा।<br />
और जंगल की इस आग में मेरी सुक्की का प्रेम करने के लिए बचा रह जाना, तालाब में पर्याप्त जहर छोड़ देने के बाद भी एक सुनहली मछली के जीवित तैरते रह जाने जैसा होगा।<br />
मुझे नहीं मालूम कि इन आड़े-तिरछे अक्षरों, शब्दों और वाक्यों को निहार भर लेने के लिए सुक्की जिंदा है या नहीं, लेकिन लिखना सिख लेने के बाद मैं यह सब इसलिए भी लिख रहा हूं ताकि दुनिया को कल अचानक घट जा सकने वाली बातों की बाबत पहले से इढाला कर सकूं।<br />
दरअसल, उस इतवारी बम कांड के बाद नामालूम क्यों, हम जेलर की नजरों में और अधिक संदिग्ध हो गये हैं। वह हमारी तकलीफें लगातार बढ़ाता जा रहा है। मालूम होता है, वह हमेशा हमें मारने के मौकों की तलाश में लगा रहता है, हालांकि उसे ऐसे मौके हाथ नहीं लग रहे हैं, क्योंकि हम हमेशा बड़े संयमित और सचेत रहते हैं। पर बात इतनी ही नहीं है। यह सब तो मैं अपने सामान्य विवेक से पकड़ रहा हूं। बुच्चू के मार्फत नानूसान ने कुछ सचमुच डरावनी बातें बतायी हैं कि ऊपरी और उससे भी ऊपरी और सबसे ऊपरी आकाओं के इशारों पर वे उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। बड़ी चालाकी से उनके लिए खामोश मौत की तैयारी की जा रही है। इसलिए नानूसान ने मुझे भी चौंकन्ना रहने को कहा है।<br />
नानूसान अपनी कोठरी में बीमार हैं और कभी-कभी खून की उल्टियां कर रहे हैं। जेलर आखिरकार उन्हें बीमारावस्था में धकेल देने की अपनी योजना में सफल हो गया है। इसलिए उसने जानबूझ कर उन्हें उल्टियां करते हुए छोड़ दिया है। बाहर किसी को भनक तक नहीं लगने दी जा रही है। हुक्मरान उनकी प्राकृतिक मौत हो आने की आस में टकटकी बांधे बैठे हैं। दिखावा के लिए जेल का डॉक्टर उन्हें सुईयां लगाना चाहता है, लेकिन उनके लिए सबसे खतरनाक बात यही है। डर यह है कि कहीं सुईयों में हवा भर कर नसों में पैवस्त कर नानूसान को मार न डाला जाए। इसलिए नानूसान शहर के किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की बात पर डटे हैं। मुझे तो यह भी डर है कि कहीं रोज-रोज उनके खाने में थोड़ी-थोड़ी विष न दी जा रही हो। यह सब देखने-समझने वाला उनके पास कोई है भी नहीं। <br />
मैं अपनी कोठरी में चेता हुआ हूं और नानूसान तो सावधान हैं ही। बस, अब जंगल, पहाड़, गांव और शहर को भी चेत जाना चाहिए ताकि कल को कुछ ऐसा-वैसा हो जाए तो ये सब झूठे आश्चर्य में पड़ कर दिखावे में मुंह बाये न रह जाएं।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-70873369311772805622010-07-05T18:53:00.005+05:302010-07-05T18:54:50.562+05:30मिट्टी का प्रेमी- शेखर मल्लिकइन दिनों आप हर सोमवार को युवा कहानीकारों की कहानियों का आनंद ले रहे हैं। अब तक हम आपको शशिभूषण द्विवेदी की कहानी 'एक बूढ़े की मौत' और गौरव सोलंकी की कहानी 'कम्पनी-राज' पढ़वा चुके हैं। आज पढ़िए युवा कहानीकार शेखर मल्लिक की कहानी 'मिट्टी का प्रेमी'।<br />
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<hr/><center><span style="font-weight:bold; font-size:140%; color:#8f134a;">मिट्टी का प्रेमी</span></center><br />
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उसने अचानक चीख कर कहा, “मैं आदमी हूँ और मेरी आदमियत एक सच्चाई है. जिसकी समुचित व्याख्या आदमी के इतिहास के किसी भी ज्ञात-अज्ञात दर्शन में दर्ज नहीं की गयी है !” <br />
…मंच के सामने के लोग हक्के-बक्के से उसे ताकने लगे...<br />
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…और वह एकाएक सपने से बाहर आ गया...पसीने से तरबतर...हांफता हुआ सा... उस एक पल को, जब वह सपने की गिरफ्त से छूटा था, एक अजीब सा भाव उसके प्रौढ़ता की दहलीज पर खड़े चेहरे पर मंडरा रहा था... अजीब और डरावना… <br />
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प्राची ने दोस्ती आगे बढ़ाई थी, उन दिनों जब शिशिर को ना तो देश की राजनीतिक उथल-पुथल से कोई लेना-देना था, ना इराक पर बरसते अमेरिकी मिसाइलों से हलाक हो रहे मासूम इराकियों के खून से, ना ही भारत-उदय के भडकीले नारों से... वह सिर्फ अपनी बी.टेक. पूरी करना चाहता था. ऊंचे ग्रेड के साथ. एक सरकारी उपक्रम की ताम्बे के कारखाने से जबरन वी.आर.एस. दिलवाकर नौकरी से बिठाये गए बाप की जोड़-गाँठ कर जमाई जमापूंजी से बी.आई.टी. मेसरा जैसे नामी संस्थान में, एक साल भटकने के बाद, प्रवेश पाया था उसने. तब उसे खुद को साबित करना था, खुद को टिकाना था... उस समय उसे सिर्फ, अर्जुन की तरह, मछली की आँख दिखाई देने लगी थी. <br />
मैंनेज्मेंट गुरूओं के बेस्ट सेलींग उवाचों का अक्षरशः पालन करने वाला शिशिर तब, भगत सिंह की बड़े चाव से खरीदी गई जीवनी या पाश की कविताओं के संग्रह को भूल चुका था...<br />
… प्राची महक की तरह एकदम से उसके उसके पुरे वजूद पर छाती जा रही थी उन दिनों... लेकिन वह प्यार के समीकरण में एलजेबरा सी कठिन कब बन जाएगी, ये वह उन दिनों सोच या समझ नहीं पाया था.<br />
प्राची ने इसके चार महीनों बाद सपाट लहजे में आखिरी फैसला किया था, “आई डोंट लव यू, आई लव समवन एल्स... <br />
<div class="parichay"><span style="font-weight:bold; font-size:120%;">लेखक परिचय- शेखर मल्लिक</span><br />
<img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/vyaktitva/shekhar_mallik.jpg" align="right">18 सितम्बर 1978 को हाबड़ा (पं॰ बंगाल) में जन्मे शेखर चन्द्र मल्लिक मुख्यतः कथाकार हैं। ‘हंस’ में <b>‘प्रेमचंद कथा सम्मान</b>’ में इनकी एक कहानी पहले स्थान पर चयनित। एक कहानी (<b>कोख बनाम पेट</b>) का तेलगू भाषा में अनुवाद हुआ। <b>‘गुलमोहर का पेड़’</b> नाम से एक कहानी संकलन प्रकाशित। संप्रति- प्रलेसं की जमशेदपुर ईकाई से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन।<br />
<b>संपर्क-</b> बी डी एस एल महिला महाविद्यालय, काशिदा, घाटशिला, पूर्वी सिंहभूम- 832303, झारखण्ड<br />
<b>मोबाइल-</b> 09852715924<br />
<b>ई-मेल-</b> shekhar.mallick.18@gmail.com<br />
</div>...तुम मेरा बहुत ख्याल रखते हो शिशिर, इतना ज्यादा कि मेरा दम घुटने लगता है... मैं सांस भी नहीं ले पा रही. मुझे तुम्हारा प्यार एक तंग सुरंग लगता है. लगता है मैंने पत्थर पर ही सर मार लिया है...” <br />
एक ऐसा धमाका जो सिर्फ उसके भीतर हुआ, जिसकी गूंज बाहर कहीं सुनाई नहीं पड़ी थी. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि इतना पुख्ता विश्वास भी तोड़ा जा सकता है ? बकौल उसकी सहेली, उसे अब कोई और पसंद आ गया था, उसकी खुशी अब कोई और था. आत्मा तो, गीता के अनुसार, अपना चोला बदल लेती है. <br />
क्या प्रेम भी, और वो भी इतनी जल्दी !<br />
प्राची ने अगली सुबह स्वीकार किया था कि ‘आज जिस तरह तुम्हारा दिल तोड़ रही हूँ, कल कोई मेरा तोड़ दे तो मैं इस दर्द को जान सकूँगी...’ ईमानदार स्वीकारोक्ति थी...<br />
शिशिर ने इसके बाद कहा कि वह तो मिटटी का आदमी है, मिटटी का आदमी टूट जाता है...<br />
इसके बाद शिशिर वह नहीं रहा, जो वह रहा आया था. गुंजाइश भी नहीं थी. टूटने के बाद जुडना मुश्किल, बेहद मुश्किल... नामुमकिन सा होता है. <br />
वह अख़बारों में संपादक के नाम पत्र लिखने लगा...संसद की बहसों, सेंसेक्स की ऊँचाइयों के ओट में छिपी झुग्गियों की गुमनामियों पर, मोहल्ले की बजबजाती गन्दी नालियों के ऊपर से काफिले सहित गुजर जाने वाले गेंदे की माला के महक में दुबके विधायक जी की बेतकल्लुफ़ी पर, नुक्कड़ पर जाने कितने सालों से लोगों पर पत्थर फेंकने वाली उस अधेड़ पगली पर जिसका बलात्कार कर, जननांग में पत्थर ठूंस दिए गए थे...वह समाचार चैनलों को एस.एम्.एस करने लगा...बहसों में जुड़ने लगा... वह अपने पंगु हो चुके इमोशंस से असली संवेदनाओं के दायरे में आ रहा था. सपनों से मोहभंग होते ही वह कसमसाकर आदमियत की एक और धारा या कहें मुख्यधारा में आ रहा था... बेलाग सच्चाइयों को छानने वह घने-घुप्प अंधेरों में गोते मारने लगा... <br />
कभी-कभी एक राय बनाता कि पवित्र रिश्तों में धोखे नहीं होते, या फिर...<br />
रिश्ते बहुत कम ही पवित्र हो पाते हैं...<br />
बहरहाल इसके बाद एक सकारात्मक बात यही हुई कि प्राची प्रेमिका से अच्छी दोस्त में रूपांतरित हो गयी थी... आम तौर पर इसका विपर्य ही देखने को मिलता है. दोनों ने घावों को कुरेदना छोड़ दिया था, कम से कम शिशिर ने तो. <br />
प्राची ने अपने नए ‘फंटे’, जैसा कि उसी ने बताया था, इंजीनियरिंग महाविद्यालयों की मौलिक शब्दावली में दो हँसों का जोड़ा “फंटा-फंटी” कहलाता है, को इन गुजरे सालों के किसी शांत, गुमशुदा सी विस्मृत कर दी गई रात के किसी पहर अपना कौमार्य सौंप रही थी. जर्रा-जर्रा... आहिस्ता-अहिस्ता...<br />
वो बेदर्दी से सर काटे आमिर/ और मैं कहूँ उनसे... / हुज़ूर आहिस्ता, आहिस्ता जनाब... आहिस्ता-अहिस्ता...<br />
प्राची से भी कुछ तो छूट रहा था...हर दोपहर एफ. एम. या अपनी टोली के भैयाओं के कंप्यूटर पर...जगजीत सिंह की रूमानी गज़लें... प्यार मुझसे जो किया तो क्या पाओगे / मेरे हालत की आंधी में बिखर जाओगे...<br />
...छूट रहा था, गुनाहों का देवता जैसी रचनाओं का पढ़ा जाना... मुख़्तसर डूब कर...<br />
...छूट रहीं थी, बच्चन और निराला-नागार्जुन की कवितायेँ...जो उसने १२वीं के दौरान स्कूल के पुस्तकालय से लेकर पढ़ी थी. <br />
वह भी तो उस रात के बाद सिर्फ एक टुकड़ा शरीर भर रह गयी थी... बस एक मादा शरीर... अपनी तमाम संभावनाओं से भरपूर, फिर भी सिर्फ एक मादा शरीर ! <br />
फिर एक दिन किसी अंतरंग क्षण जैसी सहूलियत मिलने पर उसने शिशिर से ये सब बताया था. और पता नहीं, वह वाकई निरपेक्ष रहा या उसे बुरा लगा... प्राची तय नहीं कर सकी. उसे लगा कि वो खुद भी तय नहीं कर सका.<br />
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उसने सामने दीवार पर लगभग झूल सी रही पैतृक युग की घड़ी को कुछ उनींदी आँखों से देखा, सुबह के साढ़े आठ हो चुके थे... <br />
एन.डी.टी.वी. के ‘मुकाबला’” कार्यक्रम में पिछली शाम साढ़े आठ बजे क्रमशः दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नुमाइंदों, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता, एक प्रसिद्द प्रोफ़ेसर सह उत्तर-आधुनिक साहित्यकार आदि के श्रीमुख से उसने ‘क्रांति’ नामक शब्द की विविध व्याख्या सुनी थी... ‘आज देश की पिछहत्तर फीसदी आबादी २५ साल से कम वय की है और, ये नयी पीढ़ी बदलाव ला सकती है, ला रही है...’ सूत्रधार ने एक हडबड़ाऊ सा निष्कर्ष दे कर कार्यक्रम समाप्त घोषित किया था, गोया विज्ञापन ना मारे जाएँ... और एक चाय का विज्ञापन चलने लगा, जिसमें सोते देशवाशियों से जागने की अपील की गई है. <br />
...क्रांति...?<br />
प्राची ने दोपहर उसे एसएमएस कर उससे कहा था, “ पता है आज शाम मैं वोदका पीने जा रही हूँ. साला गम बहुत हो गया है जिंदगी में, देखूँ कम कर पाती हूँ क्या...”<br />
शिशिर को हँसने का मन हुआ. ज़िंदगी में गम का नशा ही इतना गहरा होता है, इतना पुरजोर, इतना दमनात्मक कि कोई और नशा चढ़ता ही नहीं... मगर प्राची से कहना फ़िजूल ही था. उसे लगा प्राची कन्फ्यूज्ड है... वह रिश्तों में यकीन करती है मगर परम्परागत रिश्तों के दायरे से बाहर, उनकी जब्त से परे, वह तो अनाम रिश्तों में जूझती रही है... मगर उसे अब तक ना तो तसल्ली मिली है, ना ठहराव. वह उसी से ही पूछती सी रही है कि आखिर उसे चाहिए क्या ? <br />
“यू मस्ट् नॉट मैरी एवर... तुम ऐसे ही रहो, शादी मत करना कभी... तुम ऐसे ही खुली ठीक हो...बांध कर नहीं रह पाओगी...या जो तुम हो वह रह सकोगी...,” शिशिर सोच कर कह रहा था, “और जैसी तुम हो वैसी तुम्हें पति नाम का कोई जीव स्वीकार कर पाएगा...” ऐसा कह चुकने के बाद उसने खुद को अंदर से खंगाला, ये उसके भीतर का मर्द सोच रहा है या वह सिर्फ एक खोखली सोच गढ़ रहा है.<br />
प्राची ने कलम का कैप निकल कर दांतों तले दबाया और चूसने लगी, “शिशिर, यहाँ खुली, स्वच्छंद लड़की रह ही कहाँ सकती है, इवेन इन टुडेज सोसाईटी...? और तुम क्या मुझे खुला ही देखना चाहते हो, अव्यवस्थित... क्या मैं ‘नगरवधू’ हूँ शिशिर ?” <br />
वह हल्की खांसी से गला साफ़ करके बोला, “तुम्हें तो खुद पता नहीं कि तुम्हें चाहिए क्या...तुम ही खुद को कैसे देखना चाहती हो ?”...<br />
प्राची किरचों की तरह एक बार बिखरी, फिर खुद को समेट रही है, आज तक... शायद ‘वोदका’ उसे पूरा जोड़ ना भी दे, जुड़ जाने का भ्रम जरूर दे सकता है, एक रात के लिए... बस खुमार की उम्र तक... ताकि लगे कोई गम, कोई पछतावा, कोई ‘गिल्ट’ उसके दरारों से बाहर नहीं झांक रहा... <br />
वातावरण में कुछ अटपटापन हर रहा था. दो विपरीत-लिंगी अपने अंदर एक घुटन सी महसूस करने लगे... कॉल डिस्कनेक्ट हो चुका था.<br />
वह धीरे से चलकर छत की मुंडेर पर आ खड़ा हुआ था. उसने दूर तक क्षितिज में गहराती जा रही शाम को देखा और विचारों का गुना-भाग करने लगा…<br />
प्रेम और क्रांति... पवित्र विश्वास और विश्वासघात... <br />
उसने 'अपराधबोध' के भार से दबती जा रही प्राची से कहा था, शायद सतही तौर ही, “तुम गिल्टी मत महसूस करो, जो भी तुमने किया वो उस क्षण का फ़ैसला था. उस क्षण जो तुम्हें अच्छा लगा, वही किया तुमने . यदि उस क्षण वो सही था तो फिर अब क्यों पछताना या उसके गलत होने का एहसास करना...”<br />
प्राची की आवाज़ तीखी मगर कांपती सी लगी, “मैं तुम्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानती हूँ...शिशिर, मैंने कह दिया और तुम चले गए... मुड़कर भी नहीं देखा...”<br />
'मुड़कर तो कई बार देखा, कई बार जताया भी, पर तुम तो सारे दरवाजे बंद कर चुकी थी... मेरे लौटने के. सिर्फ इसलिए कि कोई और तुम्हें अब पसंद था, चाहे तुम उसके साथ खुश होने का भ्रम ही पालते रहो , फिर भी अब तुम उसके साथ ईमानदार थी... शिशिर ने मन में कहा, प्रत्यक्ष्य नहीं. <br />
<br />
“क्या तुम अपनी वर्जिनिटी खो चुकी हो ?” शिशिर ने बहुत सहम कर, जैसे चोर मन से पूछा था, जब प्राची को उसने फिर से कुछ व्यक्तिगत हो जाने दिया था. प्राची थोड़ी देर हँसती रही, मानों तत्काल उठे भावों को जबरन हंसी की ईंटों तले दबा देना चाहती हो, “हाँ !” उसने फिर स्पष्ट कहा, “दीपेश ने आग्रह किया था...”<br />
“और तुमने मान लिया ?”<br />
“हाँ, मैं बस एक्सप्लोर करना चाहती थी...ये आखिर चीज क्या है? यू नो, जस्ट फॉर शीयर एक्सपेरिएंस...<br />
पर मैं बहुत ठंडी हूँ शिशिर, बेहद ठंडी...बुत की तरह पड़ी रही...बस वही करता गया जो कुछ उसे करना था...फिर मैं बहुत रोई थी. बहुत देर तक. किसी गिल्ट से नहीं, बल्कि मुझे सचमुच बहुत बुरा लगा ये सब...एकदम बुरा...इसमें क्या मज़ा था... खुद से जैसे घिन सी होने लगी, यकीन करोगे ?”<br />
<br />
उसने चादर अपने बदन से उठाकर परे हटा दिया और पैर नीचे टिकाया...एक आधी सी अंगड़ाई ली, सूरज काफी चढ़ चूका था. जिस ईमारत में वह बतौर पेइंग गेस्ट ठहरा हुआ था, उसकी चौथी मंजिल के खिड़की तक... उसने कैलेंडर पर तारीख के अंकों और वार को गौर से देखा. आज २१ अक्तूबर है, मंगलवार... आज दिवाली है, अँधेरे पर प्रकाश की जीत का दिन...अमावस्या को चनौती देने के लिए लाखों दीयों की पंगत बैठेगी आज...<br />
वह बुदबुदाया ‘रौशनी’... फिर इस शब्द को चबाता हुआ सा वह गुसलघर में घुसा. <br />
उस रात उसे जगमगाते दीयों की पाक रौशनी के धुंधले हो जाने के बाद और पटाखों का शोर थम जाने के बाद लगा, अभी रात के सन्नाटे को दो फाड़ कर मानों कोई एक रूमानी कोरस गा रहा हो जैसे, जैसे इंसानी जज्बतों के हर्फें सारे के सारे ट्युन्ड ऑन कर दिए गए हों...और बयार की रवानगी में बहे जा रहे हों... <br />
<br />
प्राची से आखिरी मुलाकात कब हुई थी याद नहीं, याद है धुंधली होती हुई वो मुलाकात...<br />
इंजीनियरिंग के प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ संस्थान में अंतिम सेमेस्टर की तैयारी में जुटी प्राची... अपनी सेकिंड हैण्ड स्कूटी पर कॉलेज से लौटती प्राची...कैम्पस चयनों में अब तक कोई बजी हाथ ना आने से परेशान प्राची...२१ वीं सदी के पहली आर्थिक मंदी के दौर में भविष्य को लेकर आशंकित प्राची...<br />
“तुम पूना या बंगलौर क्यों नहीं ट्राई करती ?”<br />
“करुँगी.”<br />
शिशिर उसके कानों के टॉप्स देखता है, कानों के पास की लट उड़ जाने से टॉप्स उसका ध्यान खींच रहे हैं, बार-बार. प्राची एकाएक उसे घूरती हुई बोलती है, “शिशिर यार आई वांट टू किस यू...वेरी डीपली, मेरा हक बनता है.” <br />
...शिशिर सहम सा गया.<br />
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आज रात ठंडी बढ़ती सी लगने लगी है. उसने चादर बक्से से निकाल कर ओढ़ ली थी, कमर तक ही...<br />
कुछ भी स्थाई नहीं है, कुछ भी अंतिम नहीं है, ना तो पहला प्रेम ही... तोल्स्तोय ने ऐसा क्यों कहा था...?<br />
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प्राची खुले आकाश में उड़ रही है...निर्विघ्न...निर्बाध...क्या ये मुक्ति है...? २१ साल की लड़की...भावी कंप्यूटर इंजिनियर...उन्मुक्त...डैने फैलाये...’सोसाइटी’ की गर्द और गुब्बार से परे...किंचित ऊंचाई पर, नियमों-वर्जनाओं से अछूत...<br />
तो फिर... सेक्स और वोदका...!<br />
प्रतीक हैं, या मुक्ति की किलकारी...?<br />
उसे लगा प्राची उसे चिढ़ा रही है...ठेंगा दिखा रही है...दानिशमंदों को समाज के टूटने, संस्कारों के बिखेरने की चिंता खाए जाती हो, तो हो उसकी बला से. ‘प्राची आई विश आई कुड लिव लाइक यू...’<br />
शिशिर का भी अंतिम सेमेस्टर है, पर लग रहा जैसे कहीं कुछ अपूर्ण है...कुछ खाली-खोखला सा है...शायद कुछ छूट सा रहा है, शायद वह विश्वास जो संस्थान में प्रवेश लेते समय था... पर वह पा ही लेगा खुद के लिए, अपने परिवार के लिए वांछित...पैसा...जिंदगी का आधार...पर संतोष उसे फिर भी नहीं है...<br />
<br />
मुंडेर पर खड़े आधे घंटे बाद उसने देखा सूर्य एक-एक इंच धंसता हुआ पहाड़ों की ओट में छिप चुका है और उस जगह पर अब सिर्फ कमजोर होती लालिमा बची रह गयी है. <br />
सूर्य की तरह इस पूरी जैविक सत्ता की भी नियति यही है. अस्त हो जाने की. पर सूर्य फ़िलहाल अगले दिन फिर परवान चढेगा, नई तारीख के साथ...<br />
प्राची अब एक बार भावनाओं की रौ में आकर कह गई है, “शिशिर , मैं तुम्हारी वही गुड़िया हूँ...” <br />
लेकिन इसका अब कोई अर्थ नहीं है. खंडहर फिर नहीं जुड़ते...<br />
शिशिर का बी. टेक. अंतिम सेमेस्टर में है... पर उसने अपनी तसल्ली के लिए फिर से चित्र बनाना शुरू किया है. कूची कैनवास को फिर से चूमने लगी है...नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-725059613291268402010-06-28T20:29:00.003+05:302010-06-28T21:34:16.443+05:30कम्पनी-राज ः गौरव सोलंकीजैसाकि हमने पिछले सोमवार को वादा किया था कि हर सोमावर हम आपको एक ऐसी कहानी से रूबर करवायेंगे जिसे युवा कहानकार ने लिखा हो। इस शृंखला में दूसरी कहानी के तौर पर मशहूर युवा कवि-लेखक गौरव सोलंकी की एक कहानी 'कम्पनी राज' लेकर उपस्थित हैं। यह कहानी वागर्थ में प्रकाशित हो चुकी है।<br />
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<hr/><center><span style="font-weight:bold; font-size:140%; color:#8f134a;">कम्पनी-राज</span></center><br />
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वह एक लम्बे अरसे से बीमार था। उसे कम भूख लगती थी और ज़्यादा सपने आते थे। वह एक साँवली सलोनी लड़की से प्रेम करता था और झटपट शादी कर लेना चाहता था। एक चुकी हुई सी नौकरी करने के अलावा उसके पास कोई काम नहीं था, लेकिन उसे लगता था कि उसके पास समय कम है और काम बहुत ज़्यादा। वह हर समय हड़बड़ी में रहता था और आधी चीजें भूल जाया करता था। जैसे आप उसके साथ रहते हैं और गैस पर दूध रखकर ऑफ़िस के लिए निकल गए हैं। रास्ते में गाड़ी में तेल भरवाते हुए आपको दूध याद आता है और आप तुरंत उसे फ़ोन करके दूध देखने को कहते हैं। वह फ़ोन पर बात करता हुआ रसोई की ओर बढ़ता है, लेकिन दरवाजे तक पहुँचते पहुँचते फ़ोन कट जाता है। आप निश्चिंत हो गए हैं लेकिन इस बात के नब्बे प्रतिशत चांस हैं कि फ़ोन कटते ही वह भूल जाएगा कि आपने क्या कहा है। ओह! वह मुड़ गया है और ऐसी संभावनाएँ सौ प्रतिशत हो गई हैं। वैसे इसमें सारा दोष उसी का हो, ऐसा भी नहीं था। वह गाँव जैसे एक छोटे से कस्बे से आया था और महानगर में खो गया था, लेकिन खोना नहीं चाहता था। सारी बेचैनी और परेशानी इसी कारण थी। उस महानगर में बहुत सारी अमेरिका-राष्ट्रीय कंपनियाँ थी जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहा जाता था। उन्हीं में से एक इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग का काम करने वाली कंपनी के लिए वह काम करता था यानी घूमती हुई पृथ्वी पर खड़े लोग, जो अपकेन्द्रण बल के कारण एक दूसरे से और धरती से दूर होते जा रहे थे, वह उन्हें जोड़ता था। दुनिया भर में डेढ़ करोड़ लोग उसकी कम्पनी की वेबसाइट के सदस्य थे और कम्पनी का दावा था कि उनकी साइट पर प्रतिदिन चार हज़ार प्रेम प्रसंग शुरु होते हैं। इसी तरह कम्पनी अब तक पन्द्रह हज़ार शादियों की पहली सीढ़ी बनने का दावा करती थी। ख़त्म होते प्रेम प्रसंगों और टूटी हुई शादियों का न तो कोई हिसाब रखा जाता था और न ही वेबसाइट के पहले पन्ने पर उन्हें मोटे मोटे अक्षरों में लिखा जाता था। जबलपुर की उस लड़की का नाम कनिका था और वह एम बी ए कर रही थी। लड़के का नाम उदयसिंह था और उस समय एक विकासशील देश में यह आत्मघाती ज़िद थी कि वह एम बी ए नहीं करना चाहता था। कुछ साल पहले तक वह अनाथ बच्चों के लिए एक स्वयंसेवी संगठन खोलना चाहता था लेकिन नौकरी में घुसने के बाद से उसका वह इरादा भी दिन-ब-दिन कमज़ोर पड़ता जा रहा था। अब ऐसा हो गया था कि वह कनिका से शादी कर लेना चाहता था और कभी कभी एसी, फ्रिज़ और दीवार पर तस्वीर की तरह टँगने वाले टीवी से युक्त तीन कमरों वाले घर के सपने देखता था। यह इकलौता सपना था, जिसे देखने के बाद उसे देर तक घुटन महसूस होती थी, जैसे किसी ने उसे तेईस डिग्री के स्थिर तापमान वाले कमरे में एक आरामदेह कुर्सी पर एक कम्प्यूटर के सामने बिठा दिया है और लोहे की जंजीरों से बाँध दिया है। इस तरह कि माउस से चुम्बक की तरह चिपके उसके हाथ उतनी ही गति कर सकें, जितनी कर्सर को पूरी स्क्रीन की यात्रा करवाने के लिए आवश्यक है और उसकी आँखें उसकी नाक पर अटके चश्मे की सीमाओं से बाहर न देख सकें और उसके पैर, जिनके नीचे घोड़े वाली नाल ठोककर लोहे के भारी पहिए लगा दिए गए हैं, उसे उतनी ही दूर ले जा सकें, जितनी दूर सी जी 4000 नाम की एक दूसरी मशीन है, जिस पर उसे काम करना पड़ता है। यह और <div class="parichay"><span style="font-weight:bold; font-size:120%;">लेखक परिचय- गौरव सोलंकी</span><br />
<img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/vyaktitva/gaurav_solanki.jpg" align="left">हिन्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय युवा कहानीकार। गौरव की कहानियों के प्रशंसकों की संख्या इंटरनेट और इंटरनेट के बाहर लगभग बराबर। पिछले डेढ़-दो सालों से हर नामी-गिरामी पत्र-पत्रिका में धड़ल्ले से छप रहे हैं। गौरव की एक कहानी <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/07/peele-phoolo-ka-suraj.html">'पीले फूलों का सूरज'</a> को चर्चित साहित्यिक पत्रिका 'कथादेश' द्वारा द्वितीय पुरस्कार। मेरठ (यूपी) में जन्मे और सांगरिया (राजस्थान) में पले-बढ़े गौरव सोलंकी आईआईटी रूड़की से बीटेक की पढाई पूरी कर चुके हैं, लेकिन लेखन ही इनका एकमात्र साध्य है। जीविकोपार्जन के लिए 'तहलका-हिन्दी' की नौकरी। हिन्द-युग्म द्वारा प्रकाशित यूनिकवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह <b>'सम्भावना डॉट कॉम'</b> में इनकी कविताएँ संकलित और इस कारण भी चर्चा में। गौरव की कविताओं को पसंद करने वालों की संख्या कहानीप्रेमियों की संख्या से भी अधिक। गौरव की कविताएँ <a href="http://vahak.hindyugm.com/2007/04/blog-post.html">यहाँ</a> पढ़ी जा सकती हैं।<br />
<b>ईमेल-</b> aaawarapan@gmail.com<br />
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</div>भयानक था कि उसकी सीट पर छना हुआ ठंडा पानी हर समय मौज़ूद रहता था और उसे प्यास नहीं लगती थी। उसके पास मुफ़्त आई एस डी कॉल की सुविधा वाला एक फ़ोन रखा रहता था और वह किसी से बात नहीं करना चाहता था। उस फ़ोन से वह किसी भी वक़्त ऑर्डर देकर मुफ़्त में पिज़्ज़ा मँगवा सकता था लेकिन उसे भूख नहीं लगती थी और लगती भी थी तो वह केवल चने खाना चाहता था। वह हर शाम सात या आठ बजे एक कमरे में लौटता था, ज्इसे वह घर कहता था। उसके मोबाइल फ़ोन में उस कम्पनी की सिम थी, जो दिलों को दिलों से जोड़ती थी। वह आकर आँख मूँद कर अपने बिस्तर पर पड़ जाता था और देर तक फ़ोन पर कनिका से बातें किया करता था। उसे कभी कभी गुस्सा आता था जिसमें वह फ़ोन काट देता था। प्यार आने पर वह फ़ोन को चूमने की ध्वनि निकालता था और मन में एक बार और निश्चय करता था कि जल्दी ही किसी दिन, जब आखातीज जैसा सावा होगा, वह कनिका से शादी कर लेगा और दहेज की एक फूटी कौड़ी भी नहीं माँगेगा। तब उसे अपने पिता की भी हल्की सी फ़िक्र होती थी जो उम्र भर घर घर घूम घूम कर बिजली के फिटिंग करते रहे थे और उसकी शादी से उम्मीदें बाँधे हुए थे कि वे एक नया घर बनाएँगे जिसमें पूरा फिटिंग अंडरग्राउंड होगा। फ़ोन रख देने के बाद वह देर तक तकिये को अपनी बाँहों में भींचकर पड़ा रहता था और फिर अपने कम्प्यूटर पर तेज़ आवाज़ में गाने चलाकर चाय बनाने लगता था। उसकी बगल में रहने वाला राजीव दीक्षित शाम को जाता था और सुबह पाँच बजे लौटता था। यह उसे अच्छा लगता था लेकिन राजीव को बहुत बुरा लगता था। उसे तारे देखते हुए सोना अच्छा लगता था। इसलिए उसने अपने कमरे की छत पर चमकते हुए चाँद, तारे और ग्रह चिपका रखे थे, जो अँधेरा होने पर चमकते थे। एक दिन उसका पारले जी बिस्कुटों को देखते हुए सोने का मन हुआ तो उसने गोंद से दस बारह बिस्कुट छत पर चिपका दिए। सुबह होने पर वह उन्हें उतारकर चाय में डुबो डुबोकर खा गया। गोंद का स्वाद भी उतना बुरा नहीं था। उसका कनिका को देखते हुए सोने का मन भी करता था। उदय की कम्पनी का नाम ‘वी’ था यानी हम। उसी की वेबसाइट पर चैटिंग करते हुए वह और कनिका मिले थे। कनिका की आईडी थी ‘लिप्स’ और उदय की ‘स्मोक’। वह कनिका से ऐसे मिला था- <br />
स्मोक(10:25) – हाय... स्मोक(10:25) – हाउ आर यू? स्मोक(10:27) – आर यू देयर? स्मोक(10:31) - ? लिप्स(11:48) – आर यू अमित? स्मोक(11:49) – नो...आई एम उदय स्मोक(11:50) – एंड यू... स्मोक(11:52) - ? स्मोक(12:03) – फ़क ऑफ़ लिप्स(12:05) – सॉरी....आई वाज़ आउट ऑफ़ माई रूम लिप्स(12:06) – सो हू आर यू? स्मोक(12:07) – आई एम उदय लिप्स(12:08) – आई एम कनिका <br />
बाद के दिनों में उन्होंने एक साझी मेल आई डी बनाई, ‘स्मोकिंग-लिप्स’। उसने सिगरेट कभी नहीं पी लेकिन उस आई डी के बनने के कुछ दिनों बाद से ही वह बीमार रहने लगा। वह ईश्वर और शगुन, दोनों में ही विश्वास नहीं करता था और कभी कभी इसके लिए पछताता भी था। उसे लगता था कि उसके फेफड़े खराब होते जा रहे हैं और वह जिस हवा में साँस लेता है, वह किसी प्रयोगशाला में बनाई गई हवा है। वह एक बार खाँसने लगता तो तीन-चार मिनट तक खाँसता ही रहता था। उसकी उम्र तेईस साल थी और कभी कभी उसे लगता था कि वह कई युगों से इस धरती पर है और जवान है, लेकिन बूढ़ा हो गया है। वह जब कार में बैठा होता था तो उसका रेलगाड़ी के जनरल कम्पार्टमेंट में बैठने का मन करता था। वह कार के शीशे पर अपनी आँख टिकाकर अपनी उंगलियों को गोल मोड़कर बाहर की सड़क को देखता था और जिस दिन धुंध होती थी, उसका मन करता था कि वह कुछ दूर तक पैदल चले। कभी कभी मोबाइल फ़ोन पर बात करते हुए उसे लगता था कि उसका कान गर्म होकर पिघलने लगा है। तब वह शीशे में अपना चेहरा देखता था और उसे एक कान नहीं दिखाई देता था। फिर उसे याद आता था कि उसकी दायीं आँख की नज़र कमज़ोर है और उसने चश्मा नहीं लगा रखा है। एक लम्बी सुबह में उसने तय किया कि उसे डॉक्टर के पास जाना चाहिए। शाम को जिम में दो किलोमीटर दौड़ने के बाद मौसमी का जूस पीकर वह एक डॉक्टर के पास गया, जो चार सौ रुपए फ़ीस लेता था। डॉक्टर फ़ुर्सत में था और ख़ुश था। मरीज़ वाली कुर्सी पर उदय बैठने लगा तो बिना बीमारी जाने ही उसने उसे विश्वास दिलाया कि वह बहुत जल्द ठीक हो जाएगा। डॉक्टर ने कहा, चूंकि बाहर बारिश हो रही है (और बारिश हो रही थी), इसलिए ऐसे सुहाने दिन में हम बीमारियों के बारे में बात नहीं करेंगे। हम जीत और आरोग्य के बारे में बात करेंगे। उसे डॉक्टर का यह दृष्टिकोण अच्छा लगा। डॉक्टर ने उसे स्तन कैंसर पर विजय पा लेने वाली औरतों की कहानियाँ सुनाई और पिचानवे रुपए प्रकाशित मूल्य वाली एक किताब पढ़ने को दी। वह उसका पहला पन्ना ही पढ़ पाया था, जब डॉक्टर ने किताब वापस ले ली। उसने कॉफ़ी पी और चार सौ रुपए देकर लौट आया। अगले हफ़्ते फिर से आने की बात के साथ डॉक्टर ने उसे लिखकर दिया कि उसे खाने में से मिर्च कम कर देनी चाहिए।<br />
उस शाम वह उदास था और रोना चाहता था। उस सुबह की तरह ही वह एक लम्बी शाम थी, जो कई दिन तक बीतती रही। उसने नौकरी छोड़ देने की सोची और अपने पिता को फ़ोन किया मगर वह नौकरी छोड़ने की बात नहीं कर पाया। उसे पढ़ाई के लिए लिया गया लोन चुकाना था और उसकी दो छोटी बहनें थी, जो उसकी तरह किसी अच्छे मुहूर्त में शादी करना चाहती थी। उस रात उसने एक खराब कविता लिखी और सो गया। अगले दिन दफ़्तर में बहुत काम था। उसकी मैनेजर का नाम प्रिया गुप्ता था। वह चालीस के आस पास की मोटी और गोरी औरत थी। वह तेज गति से बोलती थी और कुछ अक्षरों में तुतलाती भी थी। वह एक घंटे बाद ही उसके पास आधे दिन की छुट्टी माँगने गया। वह आधे दिन की छुट्टी लेकर ही पूरे दिन के लिए चला जाना चाहता था। उसे छुट्टी नहीं मिली। मैनेजर के केबिन से लौटते हुए उसने सोचा कि कि किसी रात, जब वह देर तक ऑफिस में रुकी होगी, तो वह पार्किंग में गला घोटकर उसकी हत्या कर देगा और उसकी कार लेकर चला जाएगा। - तुम आजकल उदास उदास लगते हो। शाम को कनिका ने उसे फ़ोन पर कहा। - मैं आजकल एक नए प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं। - कौनसे नए? - यह कि लोग जब अपना अकाउंट खोलें तो हर समय उन्हें विपरीत लिंग का कम से कम एक व्यक्ति बात करने के लिए तैयार मिले। - वह कैसे होगा? - हमें नए लड़के और लड़कियाँ पैदा करने होंगे। - सीरियसली बताओ। - हमारी कम्पनी इस काम के लिए लड़के लड़कियाँ रख रही है जो फ़र्ज़ी खाते बनाएँगे और दिनभर यही काम करेंगे। - हाउ इंट्रेस्टिंग इट इज़! - तो तुम भी यही कर लो। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता। मैं नौकरी छोड़ देना चाहता हूं। - तुम बहुत बोरिंग होते जा रहे हो। ”हाँ”, उसने कहा और फ़ोन काट दिया। उसने सोचा कि अब से वह हर हफ़्ते डिस्को जाया करेगा और कम सोचेगा। उसने ‘वी’ पर ‘क्लाउड’ नाम से एक नई आईडी बनाई।<br />
क्लाउड(09:38) – हाय लिप्स! कॉफी पीने चलोगी? लिप्स(09:41) – हू आर यू? क्लाउड(09:42) – जतिन लिप्स(09:44) – मैं किसी जतिन को नहीं जानती क्लाउड(09:46) – मैं भी किसी कनिका को नहीं जानता <br />
लिप्स(09:46) – कौन हो तुम? क्लाउड(09:48) – जतिन...और तुम्हारी आई डी की डीटेल्स में तुम्हारा नाम दिख रहा है...<br />
लिप्स(09:49) – ओह! मुझे लगा कि तुम मुझे जानते हो।<br />
क्लाउड(09:50) – कॉफ़ी पर जान भी लेंगे।<br />
लिप्स(09:52) – इतनी रात को?<br />
क्लाउड(09:53) – कहाँ रहती हो?<br />
लिप्स(09:54) – आई पी एक्सटेंशन<br />
क्लाउड(09:56) – हमममम<br />
लिप्स(09:58) – ?<br />
क्लाउड(09:59) – डू यू हेव अ बॉयफ्रेंड?<br />
लिप्स(10:00) – नहीं<br />
क्लाउड(10:02) – फिर तो हमें कॉफ़ी पीनी ही चाहिए<br />
लिप्स(10:04) – आज नहीं...फिर कभी<br />
क्लाउड(10:05) – फिर कब?<br />
लिप्स(10:06) – मैं सोचूंगी...<br />
क्लाउड(10:07) – यू आर ए रियल बिच<br />
लिप्स(10:08) – !!??<br />
क्लाउड(10:09) – मैं उदय हूं<br />
लिप्स(10:11) – हाँ, मुझे पता था।<br />
क्लाउड(10:12) – झूठी<br />
लिप्स(10:13) – तुम्हारी कसम <br />
लिप्स(10:14) – फ़ोन करो। <br />
- यह सब क्यूं? मेरी परीक्षा ले रहे थे? - जिसमें तुम फेल हो गई। - अब जैसा तुम्हें समझना है, समझो। - परीक्षा नहीं ले रहा था। नए लड़कों को यही ट्रेनिंग देने का काम मिला है मुझे। - ओहहो! हाउ इंट्रेस्टिंग! उसने फिर फ़ोन काट दिया। दो या तीन मिनट बाद फ़ोन बजा। कनिका ही थी। - तुम फ़ोन क्यूं काट देते हो? अगर मेरी कोई बात पसन्द नहीं आती तो बताओ ना कि क्यूं नहीं आती? - मैं तर्क नहीं करना चाहता। - असल में तुम्हारे पास कोई तर्क होता ही नहीं। - हाँ, मैं बेवकूफ़ हूँ। - मैंने ऐसा कब कहा? - नहीं, तुमने नहीं कहा लेकिन मैं मानता हूँ। - तुममें खालीपन आता जा रहा है... - हाँ लिप्स...आई एम टेरिबली अलोन। - मेरे रहते हुए भी? - शायद हाँ। - मैं आऊँ वहाँ? - साढ़े दस बज रहे हैं। - आई मिस यू। - उससे क्या फ़र्क पड़ता है? क्यों मुझे ज़रा भी बेहतर महसूस नहीं होता कनिका? - मुझे तुम्हारी फ़िक्र हो रही है बच्चे। तुम यहाँ आ जाओ। - आई पी एक्सटेंशन? - हाँ। - तुम्हारे हॉस्टल में रुकूंगा? - वापस चले जाना। - नहीं, मैं ठीक हूँ। - फ़ोन मत काटना। आई वांट टू बी विद यू। वह आधी रात के बाद तक जागता रहा। उसे अपने कॉलेज के दिन याद आए, जब वह रात भर जागकर फ़िल्में देखने के बाद दोस्तों के साथ बस स्टेंड के ढाबों पर चाय पीने जाया करता था। वह पहाड़ और मैदान की सीमा पर बसा एक छोटा सा हरा-भरा शहर था। वहाँ बहुत बारिश होती थी और हफ़्ते में कम से कम एक बार तो वह क्लास से लौटते हुए भीगता ही था। कुछ दिन बीते- दो या तीन दिन। एक शाम उसने एक सुपरहिट फ़िल्म भी देखी जो उसे बहुत बुरी लगी। चौथे दिन सुबह से बरसात हो रही थी। वह मरे हुए से कदमों से चलकर अपनी मैनेजर के पास गया। उसकी आँखें अपने लेपटॉप में गड़ी थीं और उदय को लगा कि वह अगले ही क्षण उसमें घुस जाती यदि वह उससे न बोलता। <br />
- प्रिया, बरसात हो रही है और अमूमन ऐसे मौसम में मुझे अपने घर और कॉलेज की याद आती है। - स्वूपर वाले काम की डेडलाइन आधे घंटे बाद ख़त्म हो रही है उदय। वह मुस्कुराकर बोली और उसे लगा कि बिल्कुल इसी तरह लॉर्ड क्लाइव अपने भारतीय मातहतों से बात करते होंगे। उसे लगता था कि प्रिया अपने आप को किसी अंग्रेज़ की औलाद समझना चाहती है और वह तीन मिनट की बात के बाद (या उससे भी कम) किसी भी अमेरिकन के साथ सो सकती है। उदय को सब गोरे लोग घृणित रूप से एक जैसे लगते थे। गोरी लड़कियाँ भी, लेकिन उन्हें वह भोगना चाहता था। - मेरा मन कर रहा है कि मैं बाहर सड़क पर कुछ देर घूम आऊँ। वह भरसक मुस्कुराकर बोला और उसकी आँखों में आँसू आ गए। - तुम पिछले महीने भी एक दिन इसी तरह पन्द्रह मिनट के लिए गए थे और तीन दिन बाद लौटे थे....और जहाँ तक मुझे याद आता है, उसके बाद भी कम से कम सात आठ बार तुम मुझसे ऐसा पूछ चुके हो। <br />
- क्योंकि मुझे लगता है कि पहाड़ और बारिश और यहाँ तक कि केंचुए भी इंटरनेट से ज़्यादा ज़रूरी हैं। - हाँ, लेकिन तुम्हें याद होना चाहिए कि हम लोगों को करीब लाने के महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं। यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है कि मैं बार बार तुम्हें यह याद दिलाऊँ। वह गुस्से में आ गई थी लेकिन मुस्कुराती रही। वह उठकर चल दिया। <br />
- अगर अगले बाईस मिनट में स्वूपर पूरा न हो तो मुझे मेल करके स्टेटस बताना। <br />
वह पीछे से बोली। सामने एक ख़ूबसूरत लड़की का पोस्टर लगा था, जो बहुत उत्साह से अपने कम्प्यूटर पर काम कर रही थी। वह ‘वी’ का प्रतीक पोस्टर था। अपनी सीट पर आकर उदय ने अपने साथ वाले लड़के को लगन से महानता की ओर कदम बढ़ाते हुए देखा और उसे लगा कि मैं दुनिया का सबसे नाकारा इंसान हूँ। काम के हर दिन के बाद उसका आत्मविश्वास पहले दिन से कुछ कम हो जाता था। कभी कभी उसे अपनी सब योग्यताएँ फ़र्ज़ी लगने लगती थी और वह अलमारी में से अपनी सब डिग्रियाँ निकाल निकालकर उन पर लगी मोहरों को सूरज की रोशनी में अलग अलग दिशाओं से देखा करता था। उसे लगता था कि वह सारी पढ़ाई भूल गया है और यह ऐसा ही है, जैसे वर्षों तक गुल्लक में सिक्के डालते रहने के बाद एक दिन उसे उठाकर हिलाओ तो कुछ भी न बजे। वह फटी फटी आँखों से आसमान को देखता रहता और हर महीने की पच्चीस तारीख को उसके खाते में आ जाने वाले पैंतीस हज़ार रुपए भी उसकी आँखें बन्द नहीं कर पाते थे। वह एक ऐसे समय और परिस्थितियों की पैदाइश था जिसमें पैंतीस हज़ार रुपयों का सीधा सा मतलब था खुशी। उसकी माँ का मानना था कि पैसा ख़ुदा नहीं है तो उससे कम भी नहीं है। उसे जुगुप्सा होती थी। एक शाम उसने अपने स्कूल के दिनों की एक दोस्त को फ़ोन किया जिसकी शादी हो चुकी थी। उन दिनों वह गर्भवती और व्यस्त थी। वह उसे कई दिनों से फ़ोन मिला रहा था, लेकिन वह हर रोज़ काट देती थी। उस शाम उसने फ़ोन उठाया और चहचहाकर बोली- कहाँ मर गए थे बन्दर? इतने दिन बाद याद किया। - मैं तुमसे एक सलाह लेना चाहता हूँ। - लड़की का चक्कर है क्या? शादी के बाद से वह उससे ऐसे बात करने लगी थी जैसे उसकी भाभी हो। फ़िक्रमन्द, समझदार और कुछ भी कहकर हँस देने का अधिकार रखने वाली। लक्ष्मण-सीता टाइप होता यह रिश्ता उसे काटने को दौड़ता था। - क्या तुम्हें लगता है कि मैं किसी और लड़की के बारे में तुमसे बात करना चाहूंगा जबकि तुम्हें वे दिन याद हैं जब मैं तुम्हारे प्यार में रात रात भर जगा करता था और जिस दिन तुमने मुझे पार्क के पिछले दरवाज़े की ओट में ऊपर से नीचे तक अपने आप से चिपका लिया था, मैं एक पेपर में फेल हो गया था... उसे बुरा लगा। वह गर्भवती थी और अपनी होने वाली संतान को संस्कारित बनाना चाहती थी। उसने फ़ोन काट दिया और अपने पूजाघर में जोत जलाने चली गई। <br />
वह सड़क पर निकल गया। उसने आठ-नौ साल के एक बच्चे से जीवन के उद्देश्य के बारे में बात छेड़ी। वह बच्चा उसे घूरता हुआ अपने घर की तरफ भाग गया। उसने सोचा कि यदि वह नौकरी छोड़ दे तो उसके पिता, माँ, भाई और बहनों की क्या प्रतिक्रिया होगी? उसने शहर की सड़कों की कठोर प्रतिक्रियाओं के बारे में भी सोचा और कुछ देर के लिए उसमें डर भर गया। वह किसी भी स्थिति में अपने कस्बे में नहीं लौटना चाहता था क्योंकि उसे लगने लगा था कि वहाँ के वायुमण्डल में कमर और आँखें झुका देने वाली गहरी निराशा तैरती है। वहाँ उसने दब्बू किस्म के बच्चों वाला स्कूली जीवन जिया था और उसे अपने बचपन को याद करना बुरा लगता था। उसकी सबसे सघन यादें वे थी जिनमें बड़ी कक्षाओं के लड़के स्कूल के अँधेरे कोनों में उसके गाल चूमते थे। उसने सोचा कि उसकी बहनें किन्हीं लड़कों के साथ भागकर शादी कर लें तो अच्छा हो। वह बार बार जेब से फ़ोन निकालकर देखता था। उसे लगता था कि उसके स्कूल की वही दोस्त, जिसने एक गर्म फरवरी में उससे प्यार किया था, फोन करेगी। वह एक शांत किस्म की लड़की थी, जो जल्दी सोकर उठ जाती थी। उसी ने उदय को बताया था कि उसे पायलट नहीं बनना चाहिए क्योंकि वह बहुत देर में निर्णय ले पाता था और पुलिस अफ़सर भी नहीं, क्योंकि उसे दया आती थी। संभोग के क्षणों में वह उन्मत्त बाघिन सी हो जाती थी और वह उसे और भी हिंसक देखना चाहता था। उसे काला रंग और सफेद चूहे पसन्द थे। उसकी जाँघें अमचूर की तरह खट्टी थीं। अगले दिन दफ़्तर में एक मीटिंग थी जिसमें उसके और प्रिया गुप्ता के अलावा आठ लोग और थे। वह एक नया मनोरंजक फ़ीचर जोड़ने के लिए तकनीकी और ऊबाऊ बहस थी, जिसमें से वह निकल भागना चाहता था। वह पूरा समय खिड़की के काँच में से बाहर देखता रहा। - तुम्हारा क्या कहना है उदय? बीच में प्रिया ने उसे टोका। - किस बारे में? - प्रोग्रेसिव नेचुरलाइजेशन ठीक रहेगा या प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन? - मुझे तो दोनों ही ठीक नहीं लगते। - क्या तुम हमें इन दोनों के बीच का अंतर समझा सकते हो? उसने दो रटी रटाई परिभाषाएँ बोल दी। प्रिया को अच्छा नहीं लगा।<br />
- तुम्हारा क्या ख़याल है रवि? - वही ठीक होगा प्रिया, जो तुम्हें ठीक लगता है। - नहीं। आप सब जानते हैं कि हमारे यहाँ चर्चाएँ होती हैं और वह हर विचार स्वीकार किया जाता है, जो इनोवेटिव हो। फिर चाहे वह आइडिया किसी का भी हो। - हाँ, हम सब जानते हैं। - हाँ, हम सब जानते हैं। उदय को छोड़कर सबने दोहराया। - आप सब अपनी अपनी स्वतंत्र राय दीजिए। सबने अलग अलग एक ही बात कही। जैसे बहुत ज़ोर देने पर रवि ने बहुत मुस्कुराते हुए अपनी टाई ठीक करते हुए कहा कि प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन बेहतर है क्योंकि वह भविष्य की तकनीक है और कम्पनी के सिद्धांतों के सर्वाधिक अनुकूल है। विनीता ने कहा कि प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन में लगातार चकित करते रहने वाली एकरसता है। उसे बीच में टोककर प्रिया ने कहा- तुमने असली पॉइंट पकड़ा है। विनीता आभार में मुस्कुराई। यह पंक्ति उसने सुबह अख़बार में किसी आध्यात्मिक लेख में ईश्वरीय सत्ता के बारे में पढ़ी थी। मनिन्दर ने कहा कि यह पुरानी तकनीक की खूबियों और नई ज़रूरतों के समाधानों का आदर्श मिश्रण है। इस पर तो हमें पेटेंट के लिए आवेदन करना चाहिए। सबने हाँ, हाँ कहकर उसका समर्थन किया।<br />
प्रिया गुप्ता प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन की मुख्य डिजाइनर थी। मीटिंग रूम से बाहर निकलते हुए, जिसका नाम सोच समझकर ब्रह्मपुत्र नदी के नाम पर रखा गया था, उदय ने अपने साथ वाले क्लीनशेव्ड लड़के से पूछा- क्या तुम्हें लगता है कि मानवजाति पचास और साल जी पाएगी? उसने आश्चर्य से उदय को देखा और प्रिया उनके पास से गुज़र रही थी, इसलिए वह उदय की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गया। आधे घंटे बाद प्रिया ने उसे अपने केबिन में बुलाकर कहा कि वह इस विषय पर उसकी जानकारी से प्रभावित है इसलिए वह चाहती है कि उदय आज शाम एक अतिरिक्त घंटा रुककर काम करे। उसकी मेज पर स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी का एक प्रतिरूप रखा था। उदय ने उससे पूछा कि वह पार्किंग में अपनी कार कहाँ खड़ी करती है? - जहाँ ग्लोब में उत्तरी अमेरिका है, वहाँ। - लेकिन ग्लोब गोल होता है और पार्किंग चौकोर है। - फिर जहाँ नक्शे में उत्तरी अमेरिका है, वहाँ।<br />
वह उसी समय पार्किंग में गया, यह देखने के लिए कि जहाँ भारत है, वहाँ किसकी कार है? उसने पाया कि भारत की जगह महिला शौचालय है और चीन की जगह पुरुष शौचालय। उसे लगा कि हर दिन पार्किंग का केन्द्र-बिन्दु प्रिया की कार की ओर खिसक रहा है, जैसे वहाँ से पूरी पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नियंत्रित होता हो। उसे लगा कि एक दिन आएगा, जब पूरी पार्किंग अमेरिका बन जाएगी और शौचालयों की ज़गह नक्शे के बाहर कहीं हवा में होगी। उसने अपनी आँखें मली और अपनी सीट पर लौट आया। उसके कम्प्यूटर पर प्रिया का एक मेल आया हुआ था, जिसमें तीसरी बार उससे सख़्त अनुरोध किया गया था कि वह चौड़ी आस्तीन की शर्टें पहनकर दफ़्तर न आया करे। कम्पनी का मानना था कि यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इससे उनकी कार्यक्षमता पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। उस शाम वह तीन अतिरिक्त घंटे रुका। एक घंटा काम करने के बाद उसने अपना कम्प्यूटर बन्द कर दिया और दो घंटे तक इधर उधर घूमता रहा। उस शाम उसे पहली बार पता चला कि हर मंजिल पर दो-दो आपातकालीन निकास द्वार हैं और कम्पनी के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के केबिन उन दरवाज़ों से सटे हुए हैं। उस शाम से उसने उन्नीस सौ इकत्तीस की मार्च का इंतज़ार करना शुरु कर दिया। वह दो हज़ार आठ का अगस्त था और उस शहर में हर दूसरे तीसरे दिन बरसात होती थी। वह एक बड़ा शहर था, जिसकी सड़कें टूटी हुई थीं और चूंकि स्ट्रीट लाइटें कहीं कहीं थीं, सात बजते बजते उन सड़कों के गड्ढ़े अँधेरे में डूबने लगते थे। वहाँ पक्षी नहीं थे और जिन्हें घोंसलों से प्रेम था, वे चिड़ियाघर जाते थे। हालांकि घोंसले वहाँ भी नहीं मिलते थे। उसे बार बार अपनी उसी स्कूल वाली दोस्त की याद आने लगी थी और यह उसने कनिका को भी बताया। इसका कारण उसे समझ में नहीं आता था। उसने कनिका से कहा कि वह उससे प्यार करना चाहता है और वह उसे खो देने पर बहुत दुखी नहीं होती, मगर उसे इस तरह खोना भी नहीं चाहती थी, इसलिए उसने कहा कि वह सप्ताहांत तक इंतज़ार करे। सप्ताहांत के रास्ते में शुक्रवार बचा था। वह उस दिन दफ़्तर नहीं गया और उसने देर तक बालकनी में खड़े होकर बादल गिने। वह कुछ दूर पैदल चला और दूध का पैकेट खरीदकर हाथों में उछालते हुए लौटा। उस सड़क पर ज़्यादातर कारें ही चलती थी और पैदल या साइकिल पर चलने वाले लोग साम्यवादी सजावट सी लगते थे। उसने उस दोपहर इंटरनेट पर लेनिन को ढूंढ़कर पढ़ा और भगतसिंह के बारे में सोचता रहा। उसे यह सोचकर अच्छा लगा कि उसने बहुत से शहरों में भगतसिंह चौक देखे हैं। कनिका ने उससे कहा था कि राजीव गाँधी और इन्दिरा गाँधी ही पिछली सदी के सच्चे महापुरुष हैं। कई बार ऐसा हुआ था कि एक ही शहर में तीन-चार इन्दिरा गाँधी मार्ग या राजीव चौक होने की वज़ह से वह घंटों तक रास्ता भटककर चक्कर काटता रहा था। यह अजीब था कि जिस दिन उसने छुट्टी ली, उस दिन कड़ाके की गर्मी पड़ी और वह दोपहर के बाद बाज़ार में ही घूमता रहा। वह बन्दूकों की एक दुकान पर गया और उन्होंने उसे बन्दूक या पिस्टल का लाइसेंस होने की ज़रूरत के बारे में विस्तार से समझाया। उसने कहा कि वह बिना लाइसेंस का एक रिवॉल्वर खरीदना चाहता है और ‘रिवॉल्वर’ बोलते हुए बचपन की गर्मियों में पढ़े हुए कई जासूसी उपन्यास उसकी स्मृति में से गुज़र गए। उसे अपनी माँ की याद आई जो चाहती थी कि वह दो-तीन बच्चे पैदा करे और उसे लगा कि शायद यह भी चाहती थी कि उसे चालीस की उम्र में डायबिटीज हो जाए और वह मोटा हो और सोते हुए खर्राटे ले। वह हँसा। दुकान वाले ने बिना लाइसेंस के हथियार बेचने से मना कर दिया। वह चला आया। उसे लगा कि उन्हें उसके आतंकवादी होने का शक हुआ है और कुछ दूर तक कोई उसका पीछा करता रहा है। वह मुड़ मुड़कर पीछे देखता रहा। वह घुमावदार रास्तों से आया और उसने दो ज़गह ढाबों में बैठकर चाय पी। <br />
उसका कॉलेज का दोस्त, जो बेरोज़गार था और बहुत व्यग्र था कि नौकरी करे, उससे मिलने आया। कॉलेज से निकलने के बाद वे पहली बार मिल रहे थे। उदय को लगा कि अचानक उनके बीच वह औपचारिकता आ गई है जो वह अपने पिता और घर में उनसे मिलने आने वाले उनके दोस्तों के बीच देखा करता था। कुछ देर के लिए उसे लगा कि वह अपना पिता हो गया है क्योंकि वे दोनों मौसम और महंगाई के बारे में बात करते रहे। उसे लगा कि उसका दोस्त उसकी हर बात को बहुत ध्यान से सुनता है और एक सम्मान देते रहने की कोशिश करता है। उसे शर्मिन्दगी हुई। दोस्त यह कहकर गया कि वह उसकी नौकरी कहीं लगवा दे तो उसका बहुत अहसान हो। उदय उसके गले लग गया और उसका जी हुआ कि अपनी सब डिग्रियों और बैंक की पासबुक को आग लगाकर कहीं चला जाए। दुख में से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि यह हमेशा रहेगा। ऐसा सुख में से गुज़रते हुए नहीं लगता। उसने कूलर बेच दिया। वे आठ सौ रुपए उसने अपनी अलमारी के अख़बार के नीचे अलग से सँभालकर रख दिए। कनिका शनिवार की सुबह ही आ गई। वह मीठी थी। उदय ने कहा कि हम चाय के साथ कुछ नमकीन खाएँगे। उन्होंने खाया भी। - यह सब जो अँधेरा है कमरे में, हम बस उसके बारे में बात करेंगे।<br />
कनिका ने उसके बहुत क़रीब आकर यह कहा। ऐसे, जैसे किसी की उपस्थिति में ही उसके ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचना पड़े, तब जितने नज़दीक जाकर हम फुसफुसाते हैं। वह चुप पड़ा रहा। - और थोड़ी सी बात तुम्हारे बालों के बारे में भी... वह हँसी। उदय ने पूछा- क्या यह अनैतिक होगा कि हम आग बुझाने के लिए उनके घर से पानी लाएँ, जो माचिसें बेचते हों? - यदि समय है कि नीति-अनीति के बारे में सोचा जा सके, तो शायद अनैतिक ही होगा। - और मानो कि समय नहीं है, तो? - तो सब माफ़ है। मेरा और तुम्हारा क़त्ल भी। - फिर भी...सोचेंगे कि समय है। तुम क्या कुछ पैसे मुझे उधार दे पाओगी? - कितने? - मैं लौटाऊँगा नहीं। - मैंने पूछा, कितने बाबा? - पाँच सौ। - बस? - हाँ बस। - ले लेना...लेकिन बदले में तुम्हें मुझे साझेदार बनाना पड़ेगा। - किसमें? - अपने अँधेरे में... - तुम जानती हो कनिका...कि मैं प्यार करता हूँ तुमसे। - तुम्हारी बातों से नहीं लगता। - मैं तुम्हें कभी कभी बहुत बेवकूफ़ समझता हूँ और तुम्हारे ऊपर हँसता भी हूँ...कभी कभी मैं तुमसे इतनी नफरत करता हूँ कि तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। - तुम गधे हो। - सब लड़कियों को जानवर ही क्यों अच्छे लगते हैं? वह करवट के बल उसकी ओर चेहरा करके लेटी थी। अब तुनककर सीधी लेट गई। - और किसे अच्छे लगते हैं? और किसने कहा कि तुम मुझे अच्छे लगते हो? - किसी को नहीं... - क्या तुम्हें तब भी वह याद आती है, जब मैं तुम्हारी टाँगों पर टाँगें रखकर तुम्हारे बिस्तर पर लेटी होती हूँ? - सिर्फ़ उसके कूल्हे याद आते हैं – उसने एक गहरी साँस ली – और आज हम तुम्हारे बालों के बारे में बात करने वाले थे ना? - नहीं, तुम्हारे बालों के बारे में बुद्धू...और अँधेरे के बारे में, जो तुम्हारी आँखों से कमरे तक फैला हुआ है। - तुम्हारी आवाज़ मुझे बदली बदली सी लग रही है। - मैं भी तुम्हें मार डालना चाहती हूँ उदय। ”मार डालो”, उसने धीरे से कहा और वे सो गए। वे तब तक सोते रहे, जब तक उन्हें बहुत तेज भूख नहीं लग गई। शाम के पाँच बज चुके थे। एक रेस्तराँ में खाने के बाद उसने कनिका से कहा कि अब उसे चले जाना चाहिए। हालांकि वह उसे एक दिन और रोकना चाहता था। वह चली गई। उसने पहुँचकर एस एम एस किया कि वह ठीक ठाक पहुँच गई है। उसने निश्चय किया कि वह कनिका से ज़रूर शादी करेगा। उसने अपनी माँ को फ़ोन किया और यह नहीं बताया क्योंकि एक तो वह माँ के साथ बहुत लम्बी बात नहीं करना चाहता था और दूसरे, माँ के इस भ्रम को भी नहीं तोड़ना चाहता था कि उसने होश सँभालने के बाद से पूरी स्त्री नहीं देखी। उसे अजीब लगता था कि वह जब माँ को याद करता है तो उसके हृदय में बिल्कुल भी कोमलता नहीं होती। वह बिजली के कुछ तार खरीदकर लाया और कुछ मैकेनिक वाला सामान, जिसमें चार तरह के पेंचकस थे। तभी से उसे अपनी महानता का अहसास होना शुरु हुआ। उसने सोचा कि वह उस दुकानदार से कितना अलग और ऊपर है, जिसने उसे ग्यारह सौ रुपए में यह सामान बेचा है। उसने घर लौटते हुए पच्चीस रुपए की एक आईसक्रीम खाई। उस रात उसने सोचा कि अब से वह हर रोज़ डायरी लिखा करेगा। लेकिन जब वह लिखने बैठा तो उसे लगभग सभी वे बातें महत्वहीन लगीं, जिन्हें वह लिखना चाहता था। जैसे उसे ये पंक्तियाँ लिखना बहुत हल्का लगा कि ‘मैंने आज बिजली के तार खरीदे’ या ‘कनिका जब बस में चढ़ रही थी तो मेरा मन किया कि मैं गन्ने का रस पियूँ’। वह नहीं चाहता था कि कल को कोई उसकी डायरी पढ़कर हँसे। उसका यह पक्का विश्वास था कि यदि कोई डायरी लिखी जाती है तो एक न एक दिन वह किसी और द्वारा ज़रूर पढ़ ली जाएगी। - तुम्हारी शादी हो चुकी है? उसने सोमवार को लंच के समय के दौरान मेन गेट पर खड़े गार्ड से पूछा। - जी नहीं। - तुम बिहार से हो? - जी। उदय मुस्कुराया। - आपको कैसे पता चला? - तुम्हारे चेहरे की चमक देखकर पता चलता है। गार्ड को उसका चेहरा याद हो गया। मंगलवार को जब कम्पनी में घुसते हुए उसके बैग की जाँच हो रही थी तो गार्ड उसे देखकर मुस्कुराया। <br />
उदय ने पूछा- क्या तुमने इतिहास पढ़ा है? - मैं तो दसवीं पढ़ा हूँ साहब। - कहीं से ढूंढ़कर तांत्या टोपे की पर्सनेलिटी के बारे में पढ़ना। तुम्हारा चलने और बोलने का ढंग वैसा ही है। वह तांत्या टोपे को नहीं जानता था, फिर भी वह लगभग गदगद हो गया। उस दिन उदय ने लंच नहीं किया और मेन गेट के पास खड़ा होकर उसी से बतियाता रहा। उसका नाम सुन्दरसिंह था। वह अपने गाँव की एक लड़की से प्रेम करता था, जिसकी एक बाबू से शादी हो गई थी। सबका एक साझा किस्सा था जिसमें कभी बाबू तो कभी इंजीनियर होते थे। बुधवार को उसकी तलाशी की औपचारिकता भर हुई और बृहस्पतिवार के बाद वह दफ़्तर में ऐसे दाख़िल होने लगा, जैसे बाहर के लोग डाकघर या बिजलीघर के किसी भी कमरे में बेहिचक घुस जाते हैं। इतिहास गवाह है कि दुनिया में कोई भी ऐसी क्रांति नहीं हुई जिसमें निर्दोष लोग न मारे गए हों। यह सोचकर उसे तसल्ली होती थी और बुरा भी लगता था। धीरे धीरे वह इस बुरा लगने से बाहर आता गया। यह ज़रूरी भी था। उसने गीता और विवेकानन्द को पढ़ा। उसने दूसरे विश्वयुद्ध की कहानियों पर बनी कुछ अंग्रेज़ी फ़िल्में देखी और उसे याद आया कि उसके बचपन में बच्चों के बीच यह डरावनी अफ़वाह फैली रहती थी कि जल्दी ही तीसरा विश्वयुद्ध होगा और उसमें पूरी दुनिया नष्ट हो जाएगी। कुछ दिनों तक वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक सुरंग बनाने की योजना बनाता रहा था। <br />
उसे कभी कभी बहुत डरावने सपने आते थे- खूंखार जादूगरों और चुड़ैलों के। किसी किसी सपने में तो उसकी माँ ही राक्षसी बनकर उसे खाने लगती थी। आधी रात में अक्सर वह चिल्लाकर जगता था। उन्हीं दिनों वह गीता पढ़ रहा था, जिसे उसने बीच में ही छोड़ दिया। उसे लगा कि यह सब वह पहले से ही जानता है। उसे तेज गुस्सा आता था और वह अपने कमरे की चीजें तोड़ते तोड़ते रुक जाता था। एक छुट्टी के दिन (शायद पन्द्रह अगस्त) उसे अहसास हुआ कि उसे कभी किसी ने तोहफ़ा नहीं दिया। उसने कनिका को फ़ोन करके कहा कि वह उसे भोगना चाहता है। इस पर कनिका को बहुत हँसी आई। - पागल.... – वह हँसते हँसते ही बोली – तुमने कहा नहीं। मैं आ जाती वहाँ। - नहीं, फ़ोन पर। - फ़ोन पर कैसे? - जैसे हम लोगों को क़रीब लाने के महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं... - तुमने पी रखी है? - ना.. - पर फ़ोन पर क्यूँ? - क्योंकि मुझे लगता है कि हम आमने-सामने उतने ईमानदार नहीं रह पाते। तुम जब आँखें खोले रखना चाहती हो, तब भी बन्द कर लेती हो। ....या यह मेरा बहाना ही है और मैं सिर्फ विद्रोह करना चाहता हूँ। - उदय...तुम्हारा यही पागलपन मुझे उत्तेजित करता है। - क्या पहना है तुमने? - समझो कि हवा। बीच में ही, जब वे उस तहखाने के आखिरी कमरे का ताला खोल रहे थे, उदय ने कहा कि वह उससे ज़िन्दगी के बारे में बात करना चाहता है। वह बोली कि यह तो ऐसा है, जैसे किसी ने उसे ख़ूबसूरत सी चोटी पर ले जाकर धक्का दे दिया हो। उदय बोला- मैं और तुम साथ में एक फ़िल्म देखेंगे, जिसके अंत में हीरो हीरोइन की शादी हो जाती हो। यह वादा था या जैसे सगाई की अँगूठी। वह ख़ुश हुई। उदय ने सोचा था कि एक अच्छी ज़िन्दगी होगी, जिसमें इज़्ज़त होगी और पवित्रता। यह उसने बहुत पहले सोचा था, जब वह पढ़ता था और इम्तिहान देता था। उसके कुछ समय बाद उसने समाज और दुखों के बारे में सोचा था।<br />
उसने वह कमरा खाली कर दिया। कुछ ख़ास सामान नहीं था। कुछ कपड़े, किताबें, दो चार बर्तन, बिस्तरबन्द और कम्प्यूटर। कम्प्यूटर बेचकर बाकी सामान उसने कम्पनी में ही काम करने वाले एक साथी लड़के के कमरे में रख दिया। वह लड़का हैरान था। उसने कुछ सामान्य सवाल पूछे, जिनका जवाब उदय ने नहीं दिया। उसने सिर्फ़ इतना ही कहा कि वह जा रहा है और ऐसे लौट आएगा, जैसे गया ही न हो। यह भटकाने वाला उत्तर था। ऐसे उत्तर के साथ रहकर संन्यासी या अपराधी हो जाने का डर था। वह एक मेहनती लड़का था और दस घंटे की नौकरी करने के साथ साथ पढ़ाई भी कर रहा था। उसने उदय की बातों पर अधिक ध्यान देना उचित नहीं समझा। वह भटकना नहीं चाहता था। उन दोनों को एक दूसरे के दर्शन पर तरस आता था। वे दोनों दोस्त नहीं थे और उससे पहले उन्होंने तीन या चार बार ही बात की होगी। अब, जबकि वह बेघर था तो थोड़ा खुलकर साँस लेता था और सोचता था कि कुछ करना होगा, कुछ करूँगा तो उसे लगने लगा कि उसका आक्रोश कम होने लगा है। वह बहुत दूर आ गया था और लौटना नहीं चाहता था। उसे लगा कि असुविधाएँ उसे कमज़ोर बना रही हैं। यह एक नया रहस्योद्घाटन था। एक छोटा समयांतराल था जिसमें उसमें रिक्तता भर गई। वह एक दिन रेलवे स्टेशन पर गया और उसने सामान्य कूपे में बैठकर देखा। उसे वहाँ भी घुटन सी हुई। उसे गरीबी से हमेशा से डर लगता रहा था और उससे ज़्यादा गरीबी से उपजने वाली अबौद्धिकता से। आलू पूड़ी और सस्ते पाउडर वाली औरतों के बीच से तेजी से निकलकर वह बाहर आ गया। बाहर, जहाँ धूप थी, पार्क था और कुछ बूढ़े थे। वह पेड़ की छाँव में बैठी एक सुन्दर अधेड़ औरत को कुछ देर तक देखता रहा और उसने सोचा कि मर जाना चाहिए। मगर यह विकल्प उसे ज़रा भी प्रभावित नहीं कर पाया और वह देर तक घास पर लेटा रहा। उसने सोचा कि दुनिया बेवकूफ़ लोगों से भरी पड़ी है जिनके पास बहुत सारा धन है। वह उन्हें मूर्ख बनाएगा और कभी गरीब नहीं होगा। उसे अपनी क़ाबिलियत पर फिर से यक़ीन होने लगा और उसने सोचा कि यह शनिवार है। <br />
बीच में कहानियाँ और भी थी जिनमें रेलगाड़ियों की सुखद या कष्टदायक यात्राएँ नहीं थी और गर्मी की लम्बी दोपहरों में बरामदे की चटाई के पीछे से झाँकती उदासियाँ थी। उसकी दो बहनें थी और माँ-पिता ने सोचा था कि एक और हुई तो वे कस्बा छोड़कर गाँव लौट जाएँगे। यह घर में सबको मालूम था और उन दिनों, जब उदय दस या ग्यारह साल का रहा होगा, वह प्रार्थना करता था कि उसकी माँ की बच्चा पैदा करने की शक्ति अब छीन ली जाए। वह शुरु से आखिर में ही था जैसे चार भाई-बहनों के बीच में दूसरे और तीसरे नम्बर के बच्चे अक्सर होते हैं। ईश्वर यदि था – और होगा ही, क्योंकि इसी इकलौती बात पर पूरा शहर एकमत था और वह अकेला बिना तर्क बेवकूफ़ – तो उसने उदय की गुहार कुछ इस तरह सुनी कि शादी के पाँच साल बाद तक भी उसकी भाभी को कोई संतान नहीं हुई। उसकी माँ ही कहती थी कि भाभी भी माँ जैसी ही है और उदय को लगता था कि यह ऐसा सोचने का ही नतीज़ा है। भाभी सुन्दर थी और वह उसे कभी माँ की नज़रों से नहीं देख पाया। उसने कभी चाहा भी नहीं। उसका भाई एक के बाद एक, कई काम करके छोड़ चुका था और फ़िलहाल खाली था। भाभी को देखकर उसे लगता था कि वह उसके भाई से ऊब चुकी है। वह दिन भर झल्लाई रहती थी और किसी से फ़ोन पर लम्बी लम्बी बातें किया करती थी। उसकी बहनें घर के सब कामों में कुशल थी और महीनों तक उसकी राह देखा करती थी। दोनों बहनों को छोड़कर पूरे घर से उसे कोफ़्त होती थी। पिता से उसे प्रेम था। नौकरी ऐसी थी कि उसके कम होते आक्रोश में एक नया सोमवार ही काफ़ी था। उस दिन, जब उसे गर्मियों के उदास कस्बे अच्छी तरह से याद थे, उसने प्रिया के केबिन में जाकर कहा कि वह नौकरी छोड़ना चाहता है। <br />
- तुम ठीक तो हो उदय? वह उस दिन ख़ुश लग रही थी। <br />
- हाँ, मैं बिल्कुल ठीक हूँ और जानता हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ... - कहीं स्वूपर के डर से तो नहीं? – वह ज़ोर से हँसी (उस पर) – वो काम किसी और को दे देते हैं। तुम डाटा हैंडलिंग या टेस्टिंग सँभाल लो। - मैं यह नौकरी छोड़ना चाहता हूँ और तुम लोगों के इस दो कौड़ी के काम के बारे में एक भी बात नहीं करना चाहता। - तुम बहुत कमज़ोर कर्मचारी रहे हो। ज़रा सा भी दबाव नहीं सह पाते। मुझे लगता है कि इस तरह तुम ज़िन्दगी में किसी भी क्षेत्र में बहुत आगे नहीं जा पाओगे। - और दुनिया बहुत बड़ी, मेहनती और चुस्त है। है ना? - हाँ... - तुम औरत नहीं होती तो मैं तुम्हें अभी एक गाली देना चाहता था। - शुक्र है कि ऐसे समय में भी तुमने अपने मूल्य बचा रखे हैं। - यह मूल्यों की बात नहीं है। वह गाली ही पुरुषों के लिए है। - तुम सोचते हो कि तुम बदतमीज़ी करोगे तो हम आसानी से तुम्हें निकाल देंगे? एक क्षण में ही वे सब मिलकर हम हो गए थे – उसके विरुद्ध ‘वी’। - ...तुम शायद भूल चुके हो कि तीन साल से पहले नौकरी छोड़ने पर तुम्हें कम्पनी को तीन लाख रुपए देने पड़ेंगे। एक अच्छी सुबह में तुमने ख़ुश होकर उन कागज़ों पर हस्ताक्षर किए थे। क्या मुझे वे कागज़ ढूंढ़ने पड़ेंगे? ये सब बातें वह अंग्रेज़ी में बोल रही थी। अंग्रेज़ी चमत्कारिक भाषा है जिसमें बहुत अश्लील बातें भी सभ्य लगती हैं। वह चुपचाप लौट आया। उसने शायद माफ़ी भी माँगी। वह जब लौटकर अपनी सीट पर आया तो उसके हाथ दो मोटी रस्सियों से बँधे हुए थे। उसे लगा कि ग़ुलामों से भरे हुए एक ट्रक में ठूँसकर उसे अफ़्रीका ले जाया जाएगा और वहाँ एक बड़े से चबूतरे पर उसकी नीलामी होगी। एक गोरी चमड़ी वाला सुदर्शन नवयुवक उस पर लगातार कोड़े बरसा रहा होगा। वहीं कहीं आसपास घंटाघर भी हो, ऐसा उसने चाहा। वह समय देखना चाहता था। अपनी ओमेगा की घड़ी उतारकर उसने कूड़ादान में फेंक दी। पिछले सोमवार को इसी समय उसने अपने कम्प्यूटर की पीठ थपथपाई थी, जब उसने पूरी इमारत के बिजली के कनेक्शन का नक्शा ढूंढ़ निकाला था। फिर हर दिन शाम को वह देर तक रुकता था। उस पूरे सर्किट को समझने में उसे तीन दिन लगे और क्या करना है, यह सोचने में तीन मिनट। रोज़ रात को आठ बजे सुरक्षा कर्मचारियों की ड्यूटी बदलती थी। पूरी बिल्डिंग में खुफिया कैमरे लगे थे, जिनकी लाइव रिकॉर्डिंग देखने के लिए एक आदमी नौकरी पर था। आठ बजे से जिसकी ड्यूटी लगती थी, साढ़े आठ के आसपास उसे गुटखे की तलब लगने लगती। धूम्रपान प्रतिबन्धित था लेकिन गुटखे के बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा था। उदय सोचता था कि अमेरिका में गुटखा नहीं खाया जाता होगा। इस बात के लिए वह पश्चिम का अहसानमन्द था। वह गार्ड साढ़े आठ बजे निकलकर बाहर सड़क पर लगे खोखे तक जाता, रजनीगन्धा का एक पाउच खरीदता, खोलकर हथेली पर रगड़ता, मुँह में रखता और धीमे धीमे कदमों से लौट आता। इस पूरे काम में पन्द्रह या बीस मिनट लगते थे। ऐसा सवा दस बजे के आसपास फिर से होता था। यानी उदय को हर दिन तीस या चालीस मिनट मिलते थे, जब खोजी कुत्तों की निगाहें कोने कोने पर नहीं होती थी। उसने ऐसे कोने ढूंढ़ निकाले थे जो उसके काम के थे और जहाँ बैठने वाले कर्मचारी कभी देर तक नहीं रुकते थे। पिछले पाँच दिनों में उसने उन्हें कोनों के बिजली के कनेक्शन में थोड़ी थोड़ी बड़ी छेड़छाड़ की थी। एक दिन का काम बाकी था। उसी के लिए उस सोमवार भी वह देर तक रुका। वह नौकरी छोड़ सकता तो उसी सुबह काम अधूरा छोड़कर चला जाता। <br />
मंगलवार एक अच्छा और पवित्र दिन था। उस दिन उसने दफ़्तर के फ़ोन से दो घंटे तक कनिका से बातें की। कनिका उस दोपहर सोना चाहती थी। जब दो घंटे पूरे हो गए तो उसने कनिका को गुडनाइट कहा और खुलकर चूमा। उसके सामने बैठने वाली एक औरत उसे ऐसा करते देख हँसी भी। उदय को उस औरत पर दया आई। वह उठकर उसकी सीट पर गया और उससे पूछा कि क्या उसने कभी किसी से प्यार किया है? वह हड़बड़ा गई और बोली कि वह गर्भवती है। एक क्षण के लिए उदय को लगा कि यह उसकी स्कूल की दोस्त है। लेकिन उस औरत के बाल लम्बे थे। उसे लगा कि चाहकर भी बालों को बहुत अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। फिर भी उसने उससे उसका नाम पूछा। उसका नाम नताशा था और उदय को अपनी याददाश्त पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी अपनी दोस्त का नाम याद नहीं आया। उसे लगा कि उन दोनों ने कभी एक दूसरे को नाम लेकर पुकारा ही नहीं था। उन दिनों वे पकड़े जाने से डरते थे इसलिए फ़ोन पर बात करते समय बार बार एक दूसरे का नाम लेकर मुसीबत नहीं बढ़ाना चाहते थे। उदय ने सोचा कि यदि उस समय उसे ज़रा भी आशंका होती कि वह उसका नाम भूल जाएगा तो वह कम से कम एक दो बार तो रोज़ बातों बातों में उसका नाम लेता ही। उसने उस औरत से पूछा कि क्या स्कूल में ऐसा कोई लड़का उसका दोस्त था, जो आई ए एस अफ़सर बनना चाहता था? उस औरत ने कहा, जो नताशा थी, कि हर स्कूल में ऐसे कई लड़के होते हैं और अभी उसे तीन ऐसे लड़के याद आ रहे हैं, जिनमें से दो तो आई ए एस अफसर बन भी चुके हैं। वह पछताया कि क्या बात छेड़ दी! उसने उस औरत से अनुरोध किया कि वह आज आधी छुट्टी लेकर चली जाए। वह गिड़गिड़ाया भी, लेकिन वह नहीं मानी। उसने कहा कि वह चला जाए और उसे काम करने दे, नहीं तो वह शिकायत कर देगी। उदय बोला कि एक स्विच है, लेकिन उसे नहीं सुना। वह बहरी हो गई। मृत्यु ऐसी ही होती है। <br />
वाकई एक स्विच था, एंकर का स्विच, जो उदय की मेज के नीचे लगा था और सोमवार की शाम से पहले जिससे एक दूधिया लाइट जलती थी और दबाने पर इमारत की हर मंजिल पर दो ज़गह शॉर्ट सर्किट होकर आग नहीं लगती थी। यह सोमवार की शाम से पहले था और आप जानते हैं कि उदय शिद्दत से चाहता था कि उसे नौकरी छोड़ देने दी जाए। सोमवार की सुबह वह प्रिया के पास गया भी था और जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ और वह भी अपने आप से कह चुका था कि उसे नौकरी छोड़ देने दी जाती तो वह कनेक्शन बदलने का काम बीच में ही छोड़कर चला जाता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक अठारह उन्नीस साल का लम्बा लड़का, जो हरियाणा के किसी गाँव से उस महानगर में आया था, बहुत से और कामों के साथ इस काम के लिए भी नौकरी पर रखा गया था कि हर शाम छ: बजे जो क्यूबिकल खाली हो जाएँ – उदय को क्यूबिकल हीरे की तरह चमकता हुआ शब्द लगता था – उनकी बड़ी लाइट ऑफ करके वह छोटी दूधिया लाइट जला दिया करे। ऐसा मन्दी के कारण था। वह बेचारा लड़का सिर झुकाकर ग़ुलामों वाला सलाम अच्छी तरह करता था और समय का पाबन्द था। उदय दोपहर बाद तीन बजे बिना किसी से कुछ पूछे निकल आया। बाहर निकलकर उसने सबसे पहले आसमान को देखा। बादल छा रहे थे और ठंडी तेज हवा चल रही थी। फिर उसने मुड़कर कम्पनी की विशालकाय इमारत देखी, जिस पर अंग्रेज़ी में लाल रंग से ‘वी’ लिखा था। उसने सोचा कि ‘हम’, ‘मैं’ से कहीं अधिक अहंकारी शब्द है क्योंकि इसमें शक्तिशाली होने का बोध भी है। काँच के पार सैंकड़ों लोग अपने अपने कम्प्यूटरों में नज़रें गड़ाकर फटाफट काम करते हुए दिख रहे थे और तब उसे शक्कर के दाने के लिए कतार में लगी चींटियों की याद आई और भेड़ों के उस झुंड की भी, जो हर शाम मैदान के ठीक बीच में से गुजरता था, जब वह बचपन में क्रिकेट खेलता था। वह बाहर निकलकर अन्दर आने वाले दरवाज़े की तरफ़ गया और सुन्दरसिंह से हाथ मिलाया। सुन्दरसिंह ने कहा, “मौसम बहुत अच्छा है साहब।“ “हाँ”, उसने कहा और चल दिया। एक टाटा सुमो उसे लगभग छूती हुई सी गुज़र गई। उसने मन में कोई गाली नहीं दी और वह मुस्कुराता रहा। कुछ दूर आगे जाकर वह सड़क किनारे लगे एक पत्थर पर बैठ गया और उसने अपनी माँ को फ़ोन करके कहा कि वह उससे बहुत प्यार करता है। यह उसने बार बार कहा। साथ ही उसने सोचा कि कैसे भी हो, शादी से पहले वह एक रात कनिका के गर्ल्स हॉस्टल में ज़रूर गुजारेगा।<br />
फिर उसने एक कंकर उठाया और हवा में उछाल फेंका। सच मानिए, मैं पूरे होश में हूँ और मुझे वह हवाई काल्पनिकता बिल्कुल भी पसन्द नहीं जो सच और सपने का भेद ही मिटा दे, लेकिन सड़क के दूसरी तरफ बैठी एक भूरी चिड़िया ने साफ साफ देखा कि आसमान में सूराख हो गया है।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-68447925366750391102010-06-21T11:29:00.003+05:302010-06-21T12:15:02.586+05:30एक बूढ़े की मौत- शशिभूषण द्विवेदीकहानी-प्रेमियो,<br />
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बहुत दिनों से हिन्द-युग्म का कहानी-कलश मंच अनियमित रूप से अपडेट होता रहा। लेकिन पिछले कुछ महीनों से हम आप सबके लिए कुछ ख़ास की तैयारी में थे। आज से हम हर सोमवार किसी युवा कथाकार की एक कहानी प्रकाशित करेंगे। इसके अंतर्गत हम चर्चित युवा कथाकारों की कहानियों के अलावा बिलकुल नये कहानीकारों की कहानियाँ भी प्रकाशित करेंगे।<br />
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शुरुआती कहानी के तौर पर प्रसिद्ध युवा कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की कहानी <b>'एक बूढ़े की मौत'</b> प्रकाशित कर रहे हैं।<br />
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<hr/><center><span style="font-weight:bold; font-size:140%; color:#8f134a;">एक बूढ़े की मौत</span></center><br />
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कहानी लिखने के लिए कहानी ढूँढऩी पड़ती है। पता नहीं, यह कितना सच है मगर अब तक हर कहानी लेखक ने मुझसे यही कहा है कि कहानी लिखना खासा मुश्किल काम है। कभी कभी मुझे भी ऐसा ही लगता है, कारण कि जो चीज हमारे सबसे ज्यादा निकट होती है वही इतनी दूर होती है कि हम उसके बारे में कोई निर्णय नहीं ले पाते। मगर यहाँ निर्णय किसे करना था? हम तो उस दिन एक अदद कहानी की तलाश में थे। एक ऐसी कहानी जो सिर्फ कहानी हो और कुछ नहीं...हाँ, कई बार ऐसा होता है कि कहानी उपन्यास भी हो जाती है, कविता भी और...खैर, जाने दीजिए, हम क्यों बेवजह कहानी का पुराण खोलें। सौ बात की एक बात यही कि कहानी कभी विशुद्ध कहानी नहीं होती, बहुत कुछ होती है। इस ‘बुहत कुछ’ के बीच ही हमें एक कहानी तलाशनी थी। कहानी का विषय था-‘एक बुड्ढा मर गया’। अब भला बताइए कि ये भी कोई विषय हुआ? बुड्ढे तो मरते ही रहते हैं। उनका क्या!<br />
मगर नहीं-बात इतनी आसानी से टालना उस वक्त हमारे बस में नहीं था। रह-रह कर एक ही बात दिमाग में आती कि आखिर बुड्ढा मरा क्यों? ‘बुड्ढे मरते ही क्यों हैं?’ जैसे मूर्खतापूर्ण सवाल भी तब हमारे जेहन में कौंध रहे थे। इस बीच बूढ़ों की मौत के संबंध में कई संभावनाएँ भी हमने ब्यौरेवार खोज निकालीं। मसलन-बुढ़ापा स्वयं में एक रोग है जो धीरे-धीरे शरीर और मन मस्तिष्क को क्षीण करता जाता है। अंतत: मौत की त्रासद नियति ही उसका सार्थक उपचार है। या बुढ़ापा जवानी की गलतियों का नतीजा होता है परिणामस्वरूप मौत उसका पलायन बिंदु...।<br />
एक संभावना और थी जो कि बंबइया हिंदी फिल्मों से उठाई गई थी यानी बुढ़ापे में आदमी नकारा हो जाता है, बच्चे उसे घर से निकाल देते हैं और वह आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठा लेता है। संभावनाएँ अपार थीं, उतनी ही जितनी कि आसमान में तारे होते हैं और हम इन तमाम संभावनाओं से रू-ब-रू होते हुए एक से एक शानदार बूढ़ों की जन्मपत्रियां खोल रहे थे। आप यकीन नहीं करेंगे-इस बीच हमने इतने बूढ़ों की जन्मपत्रियां खोलीं कि एकबारगी तो हमें शक ही हो गया कि हिंदुस्तान कहीं बूढ़ों का ही देश तो नहीं। एक ढूँढ़ो तो हजार मिलते हैं और फिर जवानी में बुढ़ापा और बुढ़ापे में जवानी के किस्से भी यहाँ कम नहीं।<br />
कुल मिलाकर कहानी लिखने के लिए सारे हालात कन्फ्यूजन पैदा करने वाले थे। ऐसे में बाबू जानकी प्रसाद सिंह से मिलना एक सुखद संयोग ही कहा जाएगा...हालाँकि यह दुखद भी कम नहीं था लेकिन वह दूसरा किस्सा है, फिलहाल छोड़िए उसे...।<br />
<div class="parichay"><span style="font-weight:bold; font-size:120%;">लेखक परिचय- शशिभूषण द्विवेदी</span><br />
<img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/vyaktitva/shashibhushan.jpg" align="left">शशिभूषण द्विवेदी हिन्दी कहानी के चर्चित युवा कथाकारों में से एक हैं। शशिभूषण का एकमात्र कहानी-संग्रह 'ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं। इसी संग्रह के लिए लेखक को युवा लेखकों को दिये जाने वाले सबसे प्रतिष्ठित सम्मान नवलेखन पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है।<br />
<b>संपर्क-</b> 405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/53, सेक्टर-5, राजेंद्रनगर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) फोन: 9582403770</div>तो जिस अस्पष्ट से बूढ़े की अब तक हमने कल्पना की थी, जानकी बाबू ठीक उससे विपरीत चुस्त-दुरुस्त और सुलझे हुए इंसान थे। फिर जैसी आज के बूढ़े से अपेक्षा की जाती है ठीक वैसे ही सूट-बूट की तमाम आधुनिकता से लैस जानकी बाबू सत्तर-पचहत्तर की उम्र में भी खासे जवान दिखते थे। जिस सधी हुई राजसी चाल से वे चलते उसे देखकर लगता जैसे पुराने राजवंशों का इतिहास एकाएक पलटी मारकर आज के उत्तर आधुनिक युग में पहुँच गया है। हालांकि यह बीसवीं सदी का अंत था और सारा देश इक्कीसवीं सदी में जाने को तैयार था तब भी सदी के अधिकतर बूढ़े अभी तक अठारहवीं सदी से आगे नहीं बढ़े थे। उनके चेहरों की झुर्रियां सदियों के फासले की गवाह थीं। ऐसे में जानकी बाबू झंडू च्वनप्रास के विज्ञापन के बूढ़े नायक की तरह हमारे सामने अवतरित हुए। अपने वंश और कुलगोत्र के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘विशुद्ध क्षत्रियों के कुल में जन्मा, वत्स गोत्र में उत्पन्न एक अविवाहित कुमार हूँ मैं...।’ अगर कुमार हैं तो अविवाहित होंगे ही मगर इन दो शब्दों पर उनके विशेष जोर ने हमारे सामने कई अनुत्तरित सवाल छोड़ दिए थे। उस वक्त हमने सोचा कि ठाकुर साहब अब शायद अपने अखंडित ब्रह्मचर्य की कथा कहेंगे। मगर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा...सिर्फ शून्य में ताकते रहे। यह जानकी बाबू की आदतों में शुमार था कि जरा-सा असहज होने पर वे झटपट विषयांतर कर देते या फिर शून्य में ताकने लगते। वे काफी पढ़े-लिखे थे और अच्छी अंग्रेजी बोल लेते थे। शायद इसीलिए जब कभी अपनी बात कहते तो बात में दम लाने के लिए किसी न किसी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक या लेखक का नाम जरूर लेते। ‘फलाँ लेखक ने भी यही कहा है’ वाला भाव उनकी बातचीत का स्थाई भाव था। वैसे जानकी बाबू बोलते कम ही थे, इतना कम कि कई बार तो लोग उन्हें गूंगा या बहरा तक समझ लेते।<br />
इतनी सब खासियतों के बावजूद जानकी बाबू अकेले थे। हालाँकि अपने अकेलेपन का दुखड़ा उन्होंने कभी किसी के सामने नहीं रोया फिर भी लोग मानते थे कि वे अकेले हैं और अकेलापन उन्हें सालता है। नाते रिश्तेदार और मित्रों से कटे जानकी बाबू की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू होती जब वे उठकर नहाते धोते, पूजा पाठ करते और फिर घूमने निकल जाते। प्रात: भ्रमण का यह शौक उन्हें कब से लगा, कोई नहीं जानता लेकिन हाँ, लोगों ने जब से उन्हें घूमते देखा है पीतल की मूँठ वाली खूबसूरत छड़ी हमेशा साथ देखी है। एक तरह से यह छड़ी जानकी बाबू की पहचान थी क्योंकि जानकी बाबू जिस सुबह अपने कमरे में मरे हुए पाये गए तब भी यह छड़ी उनके हाथ में ही थी।<br />
इस छड़ी का प्रयोग भी वे किसी तलवार की तरह ही करते थे। कभी कभी राह चलते कुत्ते जब उन्हें घेर लेते तो उन्हें लगता जैसे दुश्मनों ने उन पर हमला कर दिया हो और वे चक्रव्यूह में फँस गए हों...फौरन उनकी तलवार यानी पीतल की मूठ वाली छड़ी सक्रिय हो जाती। ऐसे अनेक किस्से जानकी बाबू के साथ जुड़े थे। इस तरह के किस्सों के पीछे मूल भाव यही था कि ठाकुर साहब आज भी खुद को मध्यकालीन राजवंशों का एक कुलदीपक ही मानते थे। हर वक्त उन्हें यही शक रहता कि कहीं न कहीं, कोई न कोई उनके खिलाफ षडयंत्र कर रहा है। हमारा खयाल है कि अपनी शादी भी उन्होंने इसीलिए नहीं की वरना जानकी बाबू में कमी क्या थी! खैर, यह हमारा एक कयास ही है। इस संबंध में हमारी उनसे कोई विशेष बात नहीं हुई।<br />
जानकी बाबू की मौत के ठीक एक दिन पहले मैं उनसे मिला था। गजब का उत्साह था उनमें उस दिन। शायद यह खबर उन तक पहुंच चुकी थी कि सुदूर अमेरिका के किसी भूभाग में एक विलक्षण चेतनाशील वैज्ञानिक ने मानव क्लोन का आविष्कार कर लिया है। क्लोनिंग की मोटी मोटी जानकारी भी अब तक जानकी बाबू को हस्तगत हो चुकी थी। अखबारों की कटिंग और पत्रिकाओं का पुलिंदा लिए जानकी बाबू उस दिन अपनी स्टडी में बैठे कुछ सोच रहे थे। सोच क्या रहे थे, शून्य में ताक रहे थे जैसी कि उनकी आदत थी। हमारे यूं अचानक पहुंच जाने से भी उनकी मुद्रा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। सिर्फ उनके हाथों ने कुछ हरकत की और एक तरह से हमें बैठने का इशारा कर दिया।<br />
याद नहीं हम कितनी देर तक यूं ही बैठे रहे...कभी मेज पर पड़े कागजों को उठाते, पढ़ते, कभी जानकी बाबू को देखते। हमने देखा कि उस वक्त जानकी बाबू के चेहरे पर एक गहरी उदासी छायी हुई थी। अचानक उनके मुख से कुछ अस्फुट से शब्द हवा में लहराने लगे। ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे...’ सूक्ति से उठने वाले आरोह-अवरोह के बीच उनकी आवाज जैसे काँप रही थी। चेहरे का भाव कुछ ऐसा था कि ढूँढऩे वाले उसमें करुणा भी ढूँढ़ लेते, भय भी, साहस भी...और किसी सीमा तक भविष्य भी।<br />
‘नाभिकीय अंतरण विधि के द्वारा शरीर की किसी कोशिका के नाभिक को यांत्रिक रूप से निकालकर तत्पश्चात नाभिक रहित अंडाणु में प्रतिस्थापित कर हल्की विद्युत तरंगे प्रवाहित करो। कोशिका तीव्र विभाजन होगा, फिर तीव्र विकसित अंडाणु को माँ के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दो। लो, तैयार हो गया क्लोन...।’ हल्की वेदनामय मुस्कान के साथ जानकी बाबू ने कहा। उन्हें जैसे यह अहसास ही नहीं था कि मैं भी वहां बैठा हूँ। उनकी नजरें शून्य में अटकी हुई थीं और पूरे राजसी अंदाज में जानकी बाबू की वाणी कमरे के कोने कोने में गूंज रही थी। उनके हाथों की गति वाणी की लयात्मकता के साथ जैसे एकाकार हो गई। मैं कुछ पूछना ही चाह रहा था कि जानकी बाबू अचानक फुर्ती से मेरी ओर मुड़े और एक जड़ नजर के साथ मुझे घूरने लगे। उनकी इस नजर में एक सम्मोहन था, एक जादू। मुझे लगा जैसे मेरे शरीर की त्वचा पारदर्शी हो चुकी है और जानकी बाबू की जड़ नजरें उसके आर-पार देख रहीं हैं। हृदय की धड़क़न एकाएक बढ़ गई और शरीर में रक्त का प्रवाह असंतुलित हो उठा। एक पल को तो लगा जैसे साँस ही रुक जाएगी मगर जल्द ही खुद को व्यवस्थित करते हुए मैंने जानकी बाबू से पूछ ही लिया कि आखिर उनकी बेचैनी का राज क्या है?<br />
‘राज!’ वे धीरे से मुस्कराए-‘जानते हो जिंदगी में मृत्यु का आना कितना जरूरी है...।’<br />
‘हूँ’ मैंने अनचाहे हामी भरी।<br />
‘नहीं, तुम कुछ नहीं जानते। उस फूल को देखो और मेरी बात ध्यान से सुनो।’ जानकी बाबू ने गमले में लगे एक गुलाब के फूल की ओर इशारा किया और एक गहरी साँस छोड़ी। (यहाँ जानकी बाबू ने शायद महाकवि टेनीसन का संदर्भ दिया था जिनका कहना था कि यदि मैं फूल को उसके स्वयं में जान जाऊँ तो जान जाऊंगा कि मनुष्य क्या है और ईश्वर क्या है।)<br />
जैसे कोई आदमी पहाड़ की चोटी से छलाँग लगाने को तैयार हो और अपनी बीती जिंदगी पर अफसोस कर रहा हो, ठीक वैसे ही जानकी बाबू की हर साँस जिंदगी के प्रति गहन प्रेम और विरक्ति की सूचना एक साथ थी। मैं उनकी ठहरी हुई जड़ आँखें देख रहा था और वे बोल रहे थे...लगातार।<br />
‘बचपन में हम एक किस्सा सुना करते थे। एक राजा था, एक रानी। उनकी सुंदर-सी एक बिटिया थी, बिल्कुल फूल जैसी कोमल। राजा धर्मात्मा था और प्रजा सुखी। प्रजा सुखी हो या दुखी, राजा तो हर हाल में दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो ही जाता है। मगर यहाँ राजा प्रसिद्ध था तो प्रजा भी सुखी थी। प्रजा और राजा के सुख का यह आलम था कि पड़ोसी राज्य का दुखी राजा इसी बात से दुखी रहता। होता है...ऐसा भी होता है। अक्सर लोग दूसरों के सुख से ही दुखी होते हैं। तो पड़ोसी राजा तमाम सुखों के बीच भी दुखी था। उसका यह दुख तब और घना हुआ जब उसने सुखी और प्रसिद्ध राजा की सुंदर फूल सी बिटिया को देखा। पड़ोसी और दु:खी राजा तमाम जुगत लगाकर भी जब सुखी राजा की फूल सी बिटिया को न पा सका तब उसने अपने दुख के चरम पर आकर आत्महत्या कर ली। दुखी राजा मर गया मगर उसका दुख जिंदा रहा और उसने एक राक्षस का अवतार लिया। यह राक्षस इतना तेज और ताकतवर था कि बड़ी बड़ी फौज भी उसका सामना करने से डरती थी। वह बार बार मारा जाता फिर बार बार जी जाता। उसके जीने-मरने की यह कहानी बरसों तक चलती रही। इस बीच वह सुखी राजा भी मर गया और उसकी फूल सी बिटिया भी। कहते हैं कि एक बार एक ऋषि से उसका झगड़ा हुआ और ऋषि ने उसे भस्म हो जाने का शाप दे दिया। राक्षस भस्म तो हो गया मगर उसकी आत्मा कलपती रही। यह कलपती आत्मा लंबे समय तक किसी शरीर में न रह पाने के लिए आज भी अभिशप्त है। मौत तो सबको आती है न बाबू, सो वह राक्षस हर रोज न जाने कहाँ-कहाँ मरता रहता है...मगर अब?’ जानकी बाबू एकाएक खामोश हो गए। उनकी यह अनर्गल सी बिना किसी संदर्भ की कहानी मुझे बड़ी अटपटी लगी। (हालाँकि यहाँ भी उन्होंने प्रसिद्ध दार्शनिक सात्र्र का संदर्भ दिया था और कहा था कि आदमी स्वतंत्र है किसी भी स्थिति में। वह अपना निर्माता और स्रष्टा स्वयं ही है।) मगर उस वक्त जानकी बाबू की इस कहानी में से मैं कुछ ठोस और भौतिक तत्व निकालना चाहता था, सो मैंने कि क्या कभी जानकी बाबू भी किसी फूल सी राजकुमारी को चाहते थे? हो सकता है कि वह राजकुमारी किसी कारणवश उन्हें न मिल पाई हो और उनका प्रेम किसी अंधे मोड़ पर आकर आत्महत्या कर बैठा हो। कुल मिलाकर उस वक्त यही अनुमान लगाया जा सकता था कि जानकी बाबू का मृत प्रेम उसके बाद विध्वंसक हो गया और राक्षस के प्रतीक में इस कहानी में जीने लगा। जो हो, जानकी बाबू अपनी रौ में बहे चले जा रहे थे। कहने लगे, ‘महाशय, जीवन के बाद पुनर्जीवन होता है या नहीं-मुझे नहीं मालूम, लेकिन इतना तो निश्चित है कि इस जीवन का खत्म होना जरूरी होता है।’<br />
‘क्यों?’ मैंने पूछा। फिर मुझे अपने ही सवाल पर शर्म भी आई, कारण कि कई बार नैराश्य के चरम क्षणों में मैं भी इस बात का हामी हुआ हूं कि इस जीवन का खत्म होना जरूरी है। लेकिन यह अच्छा ही हुआ कि जानकी बाबू ने मेरा ‘क्यों’ नहीं सुना वरना मुझे और जाने क्या क्या सुनना पड़ता।<br />
उस रात की बात का कुल लब्बोलुआब यही था कि जानकी बाबू अपने कथा नायक राक्षस के पुनर्जीवन की आशंका से व्यथित थे। यह तो हमें बाद में पता चला कि वह राक्षस कौन था और जानकी बाबू उसके पुनर्जीवन की आशंका से क्यों व्यथित थे? उस रात जब हम बिना कुछ समझे बूझे लौटने लगे तो जानकी बाबू ने हाथ पकडक़र रोक लिया और कहा,‘अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई, पता नहीं पूरी होगी भी या नहीं। फिलहाल ये डायरी तुम ले जाओ। पढ़ लोगे तो समझ जाओगे कि यह बूढ़ा मरने को इतना उतावला क्यों है?’<br />
मैंने डायरी ले ली और चुपचाप चला आया। सुबह उठा तो सुना कि जानकी बाबू अपने घर में मरे पाए गए। सचमुच यह खबर सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। कारण कि उस रात जानकी बाबू से मिलने वाला अंतिम व्यक्ति शायद मैं ही था। पुलिस कभी भी मेरा दरवाजा खटखटा सकती थी। इस कदर अफरातफरी मची कि खयाल ही नहीं रहा कि जानकी बाबू की डायरी मेरे पास पड़ी है। इस डायरी को पढऩे का समय भी हमें तब मिला जब हम तमाम पुलिसिया झंझटों से बरी हुए। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए क्या यह कहना पर्याप्त न होगा कि पुलिस को कइयों पर शक था। आस-पड़ोस से लेकर दूध वाला, धोबी, कामवाली बाई...कोई भी तो नहीं बचा था उन शक्की निगाहों से। मगर जब कुछ नहीं मिला तो हारकर जानकी बाबू की मौत को आत्महत्या मान लिया गया। हालांकि अंत तक पुलिस यह भी नहीं बता पाई कि अगर यह आत्महत्या ही थी तो आखिर हुई कैसे? न तो जानकी बाबू के शरीर पर कोई खरोंच का निशान था और न उन्होंने फांसी का फंदा ही लटकाया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट भी कुछ ऊलजुलूल सी बातों के सिवाय कुछ खास नहीं कर पाई। हालाँकि इन ऊलजुलूल सी बातों में ही जानकी बाबू की मौत के सूत्र थे तथापि पुलिस उन सूत्रों को पकडऩे में असफल रही या हो सकता है कि इन बेकार की बातों की जरूरत ही न समझी गई हो। खैर...<br />
जानकी बाबू की डायरी में एक क्रमवार कहानी थी और उस कहानी में थी एक क्रमवार डायरी। पिछले दो सालों से जानकी बाबू की मानसिक हालत का अंदाजा इस कहानीनुमा डायरी से लगाया जा सकता था। पहले पेज 1987 की कोई तारीख थी। लिखा था-‘आज अचानक सावित्री की याद आ गई। सड़क से गुजरते हुए खयाल आया कि पास की झाड़ी में एक अकेला फूल पड़ा है...चंपा का। स्मृति पचास साल पहले घिसटती चली गई जब चंपा के फूल की सफेदी मन में प्रेम की पवित्रता भर देती थी। सावित्री को देखकर चंपा की याद आती और चंपा को देखकर सावित्री की...श्वेत धवल बादलों पर मन मयूर उड़ा करता था तब।’<br />
इसके बाद डायरी के पांच पेज खाली थे। छठे पर लिखा था-‘पिछले पांच दिनों से अंदर की व्यथा लगातार गहरी होती जा रही है। बार-बार बचपन में सुनी दुखी राजा की कहानी याद आती है...राक्षस के पुनर्जीवन की आशंका व्यथित कर रही है। अब जीना संभव नहीं और मरना और भी मुश्किल। स्मृतियाँ लगातार पीछे मुड़ रही हैं...कैनवस पर बने चित्र खंड-खंड हो रहे हैं और जिंदगी को रेशा-रेशा बुनने की ताकत हाथों से चुकती जा रही है। यह क्या होता जा रहा है मुझे? क्या यह आने वाली मौत की धमक है या...। सावित्री कहा करती थी कि जिनमें जीने का जज्बा होता है वे कभी नहीं मरते मगर मरने की इच्छा ढोता यह अभिशप्त जीवन न जीने देता है, न मरने। एक-एक कर सब साथ छोड़ते जा रहे हैं...सारे मित्र, हितैषी, सारे सपने! बोलता हूँ तो लगता है कि शब्द पराए हैं। फिर बोलना, बोलना नहीं रहता, आत्मालाप हो जाता है। इस अंत समय में जब इच्छाओं का अंत हो जाना चाहिए, वे बढ़ती ही जा रही हैं। बीते जीवन को लेकर मन में नित नवीन संभावनाएं भी उठती हैं। बीते जीवन का रोना है-ऐसा न होता तो कैसा होता? काश कि वैसा होता। शादी कर ली होती तो आज जिंदगी क्या होती? सोचता हूँ तो मन भ्रमित हो जाता है। अब वैसा रोमांटिक भाव भी नहीं रहा। उस वक्त तो मन पर चरम आदर्श का मुलम्मा चढ़ा था। सपने थे कि आंखों के सामने दिन में भी लहराते हुए लगते। और फिर जब क्रांतियां जगहँसाई बन गईं तब भ्रम टूटा। क्षत्रिय कुल गोत्र में उत्पन्न जानकी प्रसाद सिंह तुम मान क्यों नहीं लेते कि पूर्वजों की कीर्ति पताका फहराने का जीवट तुममें नहीं था...तुम एक हारे हुए राजा की तरह आगे युद्ध न करने की कीमत पर महज पेंशनयाफ्ता होकर रह गए।...’<br />
फिर अगले पेज पर लाल रंग की स्याही से लिखा था-‘जीने के लिए कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए जो जीवन को प्रेरणा देता रहे...कोई सपना...कोई आदर्श। मगर देखता हूँ कि इधर हर चीज बिछलकर टूट रही है। जिस जवानी से कभी प्रेरणा लेता था, उसकी बातें भी अब समझ से बाहर होती जा रही हैं। रोज नए-नए शब्द जो कभी हमने सुने ही नहीं थे, आंखों के आगे छाते जा रहे हैं। मन जाने किस मायालोक में पहुँच गया...समझ नहीं आता।’ इस प्रकार पृष्ठ दर पृष्ठ जानकी प्रसाद सिंह की कहानी आगे बढ़ रही थी। यह एक ऐसी कहानी थी जिसमें कोई उतार-चढ़ाव नहीं था। सावित्री नामक जिस चरित्र का जगह-जगह जिक्र था, उसके बारे में भी कहानी में कोई पूर्व सूचना नहीं थी सिवाय इसके कि सावित्री के साथ जानकी बाबू ने एक बार संभोग किया था। कहानी में एक अजीब अंतर्विरोध यह भी था कि सावित्री के लिए जानकी बाबू घृणा और प्रेम का इजहार लगभग साथ-साथ कर रहे थे। ‘सावित्री जवान थी और मैं उससे प्रेरणा लेता था...’ जैसे वाक्य डायरी में कई जगह बिखरे हुए थे। सच पूछिए तो जानकी बाबू की यह प्रेरणास्रोत सावित्री एक वेश्या थी। वेश्या और प्रेरणास्रोत? बात कुछ अटपटी है लेकिन यह सच था क्योंकि सावित्री एक मंझी हुई वेश्या थी।<br />
यह उस समय की बात है जब जानकी बाबू किशोर वय के थे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे थे। डायरी में खोजबीन से पता चला कि उस समय जानकी बाबू कभी नेहरू की तरह बोलते तो कभी गांधी की तरह। बात-बात में राष्ट्र, स्वतंत्रता और स्वाभिमान उनके चिर-परिचित जुमले हो गए थे। घर पर एक बड़ी कोठी थी, जमीन-जायदाद थी, नौकर-चाकर और कारिंदों की तो खैर कोई कमी ही न थी। एक खास सामंती ठसक के बीच जानकी बाबू का बचपन बीता था। संस्कार थे कि छुड़ाये नहीं छूटते। खादी के वस्त्रों के बीच भी स्वर्णखचित अंगवस्त्रम का खयाल आता। उस समय भी उनके घर में एक हाथी था और पिता बताया करते थे कि दादा ने मरते वक्त घर पर पांच हाथी छोड़े थे। हाथी, घोड़े, तलवार और कोड़ों की दुनिया से निकलकर किस तरह से एक किशोर खादी की दुनिया में आया, यह एक लंबी कहानी है। उस संघर्ष के समय में ही शायद कभी जानकी बाबू की सावित्री से मुलाकात हुई होगी। जानकी बाबू द्वारा सुनाए उस मिथक के अनुसार यहां हम अटकलें ही लगा सकते हैं कि शायद सावित्री किसी बड़े घर की बिटिया रही हो, राजकुमारी सी लगती हो, फिर किसी कारणवश वेश्या बन गई हो। या हो सकता है कि वह वेश्या ही हो। अपने अहम की तुष्टि के लिए जानकी बाबू ने उसे राजकुमारी का दर्जा दे दिया हो। जो हो-इसमें एक शब्द कॉमन है-‘वेश्या’ जिसका जिक्र सावित्री के लिए जानकी बाबू कई बार अपनी डायरी में कर चुके थे। तो जानकी बाबू का सावित्री के साथ ठीक उसी दिन संभोग हुआ जिस दिन दिल्ली के वायसराय हाउस में वायसराय लार्ड इरविन ने प्रवेश किया था। (साभार: जानकी बाबू की डायरी)। पुराने जमाने में जब कोई राजा अपने नए महल में प्रवेश करता था तो जनता खुशियाँ मनाती थी। वायसराय लार्ड इरविन के गृह प्रवेश के समय जानकी बाबू खुशियाँ तो न मना सके...हाँ, सावित्री के साथ संभोग जरूर किया। इस घटना का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं-‘गुस्से से खून खौल रहा था। शिराओं में उत्तप्त रक्त का प्रवाह एक अजीब हलचल-भरी उत्तेजना पैदा कर रहा था। मन करता था कि एक झटके में सब नष्ट-भ्रष्ट कर दूँ। सावित्री को बाहों में लेकर जब मैंने उस विध्वंसक प्रक्रिया को जानना चाहा तो पाया कि मेरा गुस्सा नपुंसक है।’ इस नपुंसक गुस्से के साथ जानकी बाबू एक तरफ सावित्री में चंपा के फूल की धवल पवित्रता का पान करते तो दूसरी तरफ उसी शरीर भयानक दुर्गंध का अहसास भी उन्हें कचोटता रहता। मगर ये सब बातें गौण थीं। जानकी बाबू की मौत के असली कारण दूसरे थे।<br />
जानकी बाबू जब मरे तो उनके हाथ में एक छड़ी थी। जैसा कि कहा जाता है-‘अंधे की लाठी’(एकमात्र सहारा) ठीक उसी तरह यह छड़ी उनका एकमात्र सहारा थी। जवानी में यह कभी भांजने के काम आती थी। बुढ़ापे में तो हमने उसे सहारे के रूप में ही देखा। जानकी बाबू से बात करते समय लगता कि देश, दर्शन, समाज और संस्कृति सभी कुछ जैसे उनकी छड़ी के सहारे ही खड़े हैं। जब वह छड़ी हवा में घूमती तो लगता कि दुनिया शेषनाग के फन पर नहीं बल्कि जानकी बाबू की छड़ी के सहारे ही टिकी है। अपने बारे में इस तरह के जाने कितने भ्रम उन्होंने पाल रखे थे। डायरी के ही किसी पृष्ठ पर लिखा था कि वे सावित्री के प्रेम में जब पड़े तब सारी दुनिया उन्हें अपने आस-पास घूमती हुई सी लगती। सावित्री के बौद्धिक तेज से वे कई बार सम्मोहित भी हुए...कई बार आहत भी। एक वेश्या के बौद्धिक तेज ने उन्हें इस कदर अभिभूत कर रखा था कि बस, पूछिए मत! उसके शरीर से खेलते हुए भी उन्हें यही लगता जैसे वे किसी रहस्यमय डाकिनी के संसर्ग में हैं। वैसे, सावित्री कुछ थी भी ऐसी। उसका कमरा एक आम वेश्या की तरह इत्र-फुलेल से सराबोर नहीं रहता था और न ही ग्राहकों से ज्यादा लपड़-झपड़ होती थी। उसके कुछ खास ही ग्राहक थे जो उसके मुरीद भी थे। उसके इन ग्राहकों/मुरीदों के बारे में भी जानकी बाबू के बड़े दुरुस्त विचार थे। उन्होंने लिखा था-‘ये अक्खड़-फक्कड़ से लोग जब आते तब सावित्री खुशी से खिल जाती थी। ये अजीब लोग थे। न कभी दारू पीते, न प्यार-मोहब्बत की सस्ती बातें करते। ये हमेशा कुछ अल्लम-गल्लम बतियाते जो उस वक्त तक मेरी समझ में नहीं आता था।’<br />
एक बार जानकी बाबू ने सावित्री के कमरे में बारूद और कुछ तमंचे देखे थे। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और जब सावित्री से पूछा तो उसने हँसकर टाल दिया। सावित्री को चंपा के फूल बहुत पसंद थे और जानकी बाबू रोज उसके लिए चंपा के फूल की एक माला ले जाया करते थे। यह रोज का क्रम था। इसमें व्यवधान तब पड़ा जब एक दिन सावित्री ने जानकी बाबू से कमल के फूल की माँग कर डाली।<br />
यह भी एक पुराना तरीका था कि गुरुदक्षिणा में शिष्य वही कुछ देने को बाध्य होता जिसकी गुरु इच्छा करता। सो जानकी बाबू कमल के फूल की तलाश में निकल पड़े और चार दिन बाद जब जानकी बाबू को कमल का फूल मिला तब उन्होंने सावित्री के घर की राह पकड़ी। और लीजिए साहब, कहानी में यहाँ से एक नया मोड़ आ गया। जानकी बाबू के अनुसार जब वे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक चिह्न यानी कमल का फूल लिए हुए सावित्री के घर गए तो देखा कि बारूद के एक भयानक विस्फोट से सावित्री का शरीर तार-तार हो चला है। खून के धब्बे दीवारों पर उस हादसे का बयान दे रहे थे। जानकी बाबू ने किसी तरह खुद को संभाला और कहा,‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। उस वक्त उनके हाथ में कमल का फूल था और उसी से उन्होंने सावित्री को श्रद्धांजलि दी। इस घटना पर जानकी बाबू ने अपनी डायरी में लिखा, ‘कीचड़ में ही कमल खिलता है।’<br />
जो होना था, हो चुका। सावित्री मर गई और जानकी बाबू को पागल कर गई। जानकी बाबू पागल हो गए और शहर छोडक़र क्रांतिकारी हो गए। कभी इस शहर तो कभी उस शहर दर-दर भटकते जानकी बाबू ने उस दौर में कई खतरनाक कारनामे अंजाम दिए थे। गांधी जी से उनका मोहभंग हो चुका था और देश का एक बड़ा तबका जल्द से जल्द अपने सपनों को साकार करने की उतावली में था। जानकी बाबू ने एक कुशल योद्धा की तरह इस युद्ध में भाग लिया और बहुत जल्द अपने लोगों के बीच हीरो बन गए। एक नहीं, कई-कई बार जानकी बाबू मौत के मुँह से बाहर आए थे। मगर उनका गर्म खून था कि कभी हार ही न मानता। फिर देश स्वतंत्र हो गया। अपनी सरकारें आईं। एक लंबे समय तक जानकी बाबू गुमनाम रहे। शायद यह गुमनामी का वही दौर था जब जानकी बाबू दुनिया भर की किताबें चाटी थीं। उस समय सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के संबंध में सारे देश में एक भ्रम फैला हुआ था। लोग यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि सुभाष बोस मर भी सकते हैं। गली मोहल्लों में अक्सर यह बात उठती कि सुभाष बाबू मरे नहीं, बल्कि अंग्रेजी सरकार को चकमा देकर कहीं गायब हो गए हैं। सही समय पर वे वापस आएंगे और देश को अंग्रेजी पि_ुओं से बचाएँगे। सुभाष बाबू के बारे में यह अफवाह और जानकी बाबू का वह गुमनामी जीवन लगभग एक ही समय की दो प्रमुख घटनाएँ थीं। इन दोनों घटनाओं के बीच का सूत्र यह था कि जानकी बाबू की कद-काठी कुछ-कुछ सुभाष बाबू की तरह ही लगती थी और लोग उन्हें अक्सर सुभाष बाबू का ही रूप समझ लेते। उन दिनों जानकी बाबू अयोध्या में एक कुटिया बनाकर रहते थे। दाढ़ी बढ़ा ली थी और हमेशा एक रामनामी दुपट्टा ओढ़े रहते। जानकी बाबू लिखते हैं कि उन्होंने करीब बीस वर्ष तक लोगों की इस आशावादिता का सम्मान किया और अपने बारे में तमाम तरह की अफवाहें सुनते रहे।<br />
फिर एक दिन की बात-जानकी बाबू सरयू के किनारे खड़े थे। सूर्य अस्ताचल में था। चारों ओर एक अभूतपूर्व शांति बिखरी हुई थी, सिवाय एक बाँसुरी की धुन के जो रह-रहकर उनके कानों तक आती और लौट जाती। मंत्रमुग्ध से जानकी बाबू इस बांसुरी की धुन में खोए रहे। जब चेतना लौटी तो पाया कि उनके शांत पड़े खून में फिर से गरमी आ गई है। उन्होंने उस बाँसुरी वादक की खोज की तो पाया कि सरयू किनारे एक बुढिय़ा हाथ में बाँसुरी लिए अकेली बैठी है। जानकी बाबू को फिर अचानक सावित्री की याद आई और देखा कि उस बुढिय़ा के चेहरे में सावित्री का चेहरा लहलहा रहा है।<br />
बिना किसी सामान्य शिष्टाचार के जानकी बाबू ने जब उससे कहा कि बहन तुम्हारी बाँसुरी में पहली बार मुझे प्यार के नहीं, घृणा के स्वर सुनाई दिए तो बुढिय़ा बोली कि भैया, ये बाँसुरी एक युद्ध का तुमुलघोष है। जानकी बाबू हतप्रभ उसे देखते रहे और बुढ़िया अंतर्ध्यान हो गई। जानकी बाबू ने लिखा है कि इसके बाद उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और काशी आकर बाँसुरी बजाना सीखने लगे। वर्षों तक जानकी बाबू बाँसुरी सीखते रहे मगर कभी भी उन्हें वह स्वर पकड़ में नहीं आया जो उस बुढ़िया ने बजाया था। कहते हैं कि बाँसुरी की ईजाद कृष्ण ने की थी और इसके जरिए प्रेम का अपना संदेश दिया था। जानकी बाबू ने भी बाँसुरी का उपयोग किया और युद्ध का संदेश दिया।<br />
वे जब भी बाँसुरी बजाते तो उन्हें लगता कि दुनिया में कहीं न कहीं किसी न किसी कोने में विद्रोह का बिगुल बज उठा है। वे खुश होते और फिर दूने जोश से बाँसुरी बजाते। जानकी बाबू को अपने जीवन में दो चीजों से विशेष प्रेम था। एक तो पीतल की मूँठ वाली छड़ी, दूसरा उनकी बाँसुरी। छड़ी भीतर से खोखली थी और जानकी बाबू अपनी बाँसुरी को छड़ी के खोखल के भीतर ही छुपा कर रखते थे मानो वह कोई अवैध हथियार हो। (जानकी बाबू के अंतिम वक्त में भी यह बाँसुरी उनकी छड़ी के खोखल में ही थी)। जानकी बाबू ने लिखा कि ‘जब रोम जलता था तो नीरो बाँसुरी बजाता था। मैं भी बजाता हूँ क्योंकि दुनिया में कहीं न कहीं तो यह आग जलनी ही चाहिए।’ तो इस तरह अपनी अंतिम साँस तक जानकी बाबू बाँसुरी बजाते रहे और जलते हुए रोम को अपना आशीर्वाद देते रहे। जानकी बाबू ने लिखा कि ‘दुनिया जैसी है उसे वैसे ही नहीं होना है। चीजों को बदलना होगा। चीजें बदलती भी हैं। मगर सवाल बदलाव के हथियारों का है। सारी दुनिया अपने-अपने हथियारों के लिए लड़ रही है।’ इस लड़ाई में जानकी बाबू अपने हथियार को कितना सुरक्षित रखते थे, यह तो जाहिर हो ही गया। अब दूसरी बात कि लड़ते हुए जानकी बाबू ने आत्महत्या क्यों की और किस तरह की? तो जानकी बाबू की हत्या या आत्महत्या का किस्सा कुछ इस तरह है:<br />
उस रात जब जानकी बाबू मानव क्लोन के आविष्कार से हतप्रभ थे और निराशा के उस दौर में मुझे दु:खी राजा की कहानी सुना रहे थे, ठीक और ठीक उसी रात एक घटना घटी। जानकी बाबू अपने कमरे में बैठे जीवन और मृत्यु की संभावनाओं पर विचार कर रहे थे। उनके हाथ में जापानी यौगिक क्रियाओं की एक पुस्तक थी। अपने गुमनामी के दौर में जानकी बाबू ने इस तरह की यौगिक क्रियाओं का खासा अध्ययन किया था और उनका व्यावहारिक प्रयोग भी। सिर्फ एक हाराकीरी ही थी जिसका उन्होंने कभी कोई प्रयोग नहीं किया, हमेशा विचार ही करते रहे। उन्होंने सुना था कि हाराकीरी करने वाला आदमी मरता नहीं, सिर्फ शरीर छोड़ता है। अपने तमाम कर्मों की स्मृति के साथ सही समय पर वह नए शरीर में प्रवेश करता है। उसकी यात्रा फिर वहीं से शुरू होती है जहां से उसने छोड़ी थी। जानकी बाबू ने लिखा-‘मैं कर्म बंधन से मुक्ति नहीं चाहता। अभी मुझे बाँसुरी के उस स्वर को पकड़ऩा है जो उस बुढ़िया ने सरयू किनारे बजाया था।’ और फिर जानकी बाबू उस छड़ी के खोखल से अपनी बांसुरी निकाल कर बजाने लगे जो उनके हाथ में थी। यह रात के नौ बजे का समय था। लोग अपने अपने घरों में दुबक चुके थे। जानकी बाबू की बाँसुरी की धुन ने जैसे उन सबको एकाएक सोते से जगा दिया। कुछ खीझे, कुछ बौखलाए, कुछ ने शराब का सहारा लिया तो कुछ टीवी की हाई वाल्यूम पर सब कुछ भूलने का प्रयास करने लगे। कुछ ऐसे भी थे जो गुस्से से झींकते जानकी बाबू का दरवाजा पीटने लगे। जानकी बाबू ने उस वक्त लिखा-‘लगता है मानव क्लोन आ गए हैं। लड़ाई अब अपने अंतिम दौर में है।’ <br />
दरवाजा पीटते लोगों का शोर जब ज्यादा बढ़ गया तब जानकी बाबू उठे। दरवाजा खोला तो देखा कि बीसियों तमतमाए चेहरे उनका स्वागत कर रहे हैं। जानकी बाबू को उन सब चेहरों में धुँधलाता हुआ सावित्री का चेहरा भी दिखाई दिया। जानकी बाबू इससे पहले कुछ कहते कि लोगों ने उनके हाथों से बाँसुरी छीन ली और उसके दो टुकड़े कर दिए। काफी देर तक लोग बड़बड़ाते रहे और जब बड़बड़ाते हुए गए तब जानकी बाबू ने टूटी हुई बांसुरी के टुकड़े उठाए और फिर उन्हें अपनी छड़ी के खोखल में सहेज कर रख लिया। इस बार उन्होंने उसे किसी हथियार के रूप में नहीं बल्कि किसी पुरातात्विक स्मृति चिह्न के रूप में सहेजा था।<br />
मैं शायद इस घटना के बाद ही उनसे मिला था। अपनी डायरी में उन्होंने जो अंतिम बात लिखी उसका कुल सार यही था कि क्या आदमी को अपनी जान लेने का अधिकार है? यह एक गंभीर दार्शनिक सवाल था जिसे वे मानव क्लोनों की मायावी दुनिया के बीच से पूछ रहे थे। उन्होंने लिखा कि क्लोन भी लड़ाई का एक हथियार होगा जो अंतत: दुनिया की तमाम तमाम बाँसुरियों को तोड़ देगा। फिर न जलता हुआ रोम होगा, न बाँसुरी बजाने वाला नीरो...।<br />
जानकी बाबू ने उस रात अपने नाभि प्रदेश के नीचे किसी निश्चित बिंदु पर सुई चुभोकर हाराकीरी की थी। अंतिम समय तक उनका यह विश्वास बरकरार रहा कि उन्हें फिर आना है मानव क्लोनों की इस दुनिया में और बाँसुरी की उस धुन को पकडऩा है जो बुढ़िया ने सरयू के किनारे बजाई थी। इसके बाद जानकी बाबू ने कांट का वह प्रसिद्ध वाक्य लिखा कि ‘वस्तु स्वलक्षण अज्ञेय है।’<br />
जानकी बाबू मर गए मगर हम सबको एक गहरा अपराधबोध दे गए। मैं आज भी सोचता हूँ कि उनकी इस हत्या या आत्महत्या का जिम्मेदार कौन है? इधर सुनने में आया है कि सरकार सुभाष बाबू की अस्थियाँ जापान से अपने देश लाने की तैयारियां कर रही है। अब सचमुच सुभाष बाबू के बारे में प्रचलित वे तमाम अफवाहें खत्म हो चली हैं जिनमें यह विश्वास था कि सुभाष बाबू मर नहीं सकते। वे छिपे हैं। सही समय पर वे फिर आएँगे और...।<br />
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405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/५3, सेक्टर-५, राजेंद्रनगर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) फोन: 9५७24037६0नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-45867562177802384362010-05-12T15:28:00.002+05:302010-05-12T15:29:45.035+05:30क्रास रोड्स- प्रताप सहगल<div class="parichay"><span style="font-weight:bold;">लेखक परिचय</span>- प्रताप सहगल<br />
<img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/vyaktitva/pratap_sehgal.jpg" align="left">10 मई 1945, झंग, पश्चिम पंजाब (अब पाकिस्तान में) में जन्मे प्रताप सहगल हिन्दी के चर्चित कवि, नाटकार, कहानीकार और आलोचक हैं। लेखक के कई कविता-संग्रह, नाटक, आलोचना-पुस्तकें, एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। प्रताप सहगल ने बहुत सी पुस्तकों का संपादन भी किया है। प्रताप सहगल के नाटकों पर आधारित बहुत सी रेडियो धारावाहिकों का प्रसारण हुआ है। वर्तमान में ज़ाकिर हुसैन स्नातकोत्तर (सांध्य) महाविद्यालय (दि॰वि॰) के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं।<br />
सम्पर्क: एफ-101, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली-110027, फोन- 011-25100565, 9810638563,<br />
ईमेल- partapsehgal@gmail.com</div>मेज पर सामने रखे मोबाइल की ‘टिऊँ टिऊँ’ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। आदत के मुताबिक अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए मैंने अपने हाथ के अखबार को एक तरफ़ रखा और मोबाइल पर आया संदेश खोलकर पढ़ने लगा। यह एक आकस्मिक धक्का देने वाला संदेश था। मोबाइल पर अक्सर बैंक, निवेश करवाने वाली वंपनियाँ, रियल एस्टेट या फिर नए साल या दीवाली के मौके संदेश आते हैं। यह जानते हुए भी कि ज्यादातर आने वाले संदेश हमारे लिए व्यर्थ होते हैं, हम उन्हें बिना पढ़े अपने मोबाइल पटल से नहीं हटाते लेकिन यह संदेश परेशान करने वाला था। मोबाइल के संदेश पटल पर 'मि॰ वेंकटरमण पासेस अवे ... क्रिमेशन एट थ्री पी॰ एम॰ एट निगम बोध घाट' पढ़कर धक्का इसीलिए लगा कि मैं इस संदेश की उम्मीद नहीं कर रहा था। संदेश मेरी एक महिला सहकर्मी संजना कौल ने भेजा था।<br />
मेरा मन था कि मैं क्रिमेशन में शामिल होऊँ, लेकिन दाएँ पाँव के टखने की हड्डी टूट जाने की वजह से प्लास्टर चढ़ा हुआ था और डॉक्टर ने छह हफ्तों के लिए पूरे आराम की सख्त हिदायत दे रखी थी। मन विचलित होने लगा। वेंकटरमण मेरे पुराने सहकर्मी थे, लेकिन उससे पहले वे मेरे शिक्षक भी रहे थे। यूँ अब वो रिटायर्ड ज़िदगी जी रहे थे, लेकिन कभी-कभी फोन पर या कॉलेज के किसी समारोह में उनसे बात होती रहती थी। यह बात सभी जानते थे कि उनका मुझ पर बड़ा स्नेह था और मैं भी उनसे एक आदर भाव वाला रिश्ता रखता था। इसलिए क्रिमेशन ग्राउंड में मेरी अनुपस्थिति का नोटिस लिया जाएगा। पर मैं क्या करता। कॉलेज में यह भी तो सभी जानते थे न कि मैं लंबी मैडिकल लीव पर हूँ।<br />
मैंने संजना को फोन मिलाया। दो घंटी बजने के बाद उधर से मधुर आवाज़ सुनाई दी - "हलो"<br />
"अंजना! मैं अरुण ... आपका मैसेज ... कुछ पता है यह कैसे ..."<br />
"हाँ, कुछ ... कुछ ... दरअसल मुझे तो मि॰ अमरनाथ का फोन आया था, उन्होंने बताया कि ही हैज़ कमिटेड सुएसाइड"<br />
यह मेरे लिए दूसरा धक्का था। अप्रत्याशित और पहले धक्के से भी तेज़ -"क्या आत्महत्या ... लेकिन वे तो ऐसे न थे ... आत्महत्या की कोई वजह ...."<br />
"यह तो मुझे पता नहीं .... बस इतना पता है कि वे सुबह ही घूमने निकले और फिर सनराइज़ के साथ ही उनकी कटी हुई बाडी मिली रेल की पटरी पर ...."<br />
"सो सैड ...."<br />
"पर मि॰ अमरनाथ शायद कुछ बता सकें" उधर से संजना ने कहा। <br />
"ओ॰ के॰ करता हूँ उनसे बात" कहकर मैंने फ़ोन बंद कर दिया।<br />
मि॰ अमरनाथ और वेंकटरमण दोनों ही अंग्रेजी विभाग में थे। दोनों ने लगभग एक साथ कालिज में नौकरी शुरू की थी और साथ-साथ ही सेवा-निवृत्त भी हुए थे। दोनों को पढ़ने का खूब शौक था और गप्पबाज़ी का भी। दोनों घनिष्ठ मित्र बने और जीवन-पर्यंत उनमें गहरी छनती रही। मेरे मन में परेशानकुन उत्सुकता तैर रही थी। मैंने मि॰ अमरनाथ को फ़ोन मिलाया। उधर से ‘हलो’ बहुत धीरे से सुनाई दी।<br />
"मैं अरुण बोल रहा हूँ"<br />
"अच्छा ...." दो-चार क्षण का अंतराल और फिर आवाज़ थोड़ी तेज़ हुई ... हाँ.... पता चला होगा"<br />
"जी, इसीलिए ... संजना का मैसेज था .... पर यह सब हुआ कैसे?"<br />
"अब कैसे तो पता नहीं, बट ही वाज़ फ़ीलिंग डिस्टर्ब फार दि लास्ट सो मैनी डेज़"<br />
"आत्महत्या की कोई तो वजह होगी न"<br />
"मि॰ अरुण" अमरनाथ ने बात करने की अपनी आदत के मुताबिक एक छोटा सा पाज़ लिया और फिर कहा "वज़ह तो होगी ... पर क्या .... कई बार होता है न कि बेवजह ही कुछ या फिर आपको जो वजह लगती है, वह दूसरे को नहीं लगती या फिर बेवजह में से कोई वजह ढूँढ़ने की कोशिश की जाती है ... यू नो ... सब अपना-अपना माइन्डसैट है"<br />
"जी, कोई सुएसाइड नोट?" मैंने अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की।<br />
"एक नहीं, कई पखचयाँ मिली हैं उनकी पैंट की जेब से ... लगता है वे कई दिनों से तैयारी कर रहे थे", अमरनाथ ने कहा। <br />
"क्या लिखा है उन पखचयों में" मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई थी।<br />
"आई डोन्ट नो, वो सब उनके बेटे के पास हैं ... या शायद पुलिस के पास ... आई रीयली डोन्ट नो ... अब ही वाज़ डिस्टर्ब ... एक्चुअली ही वाज़ नाट हैप्पी विद दि मैरिज ऑफ हिज़ सन .... यू नो .... इन्टरकास्ट मैरिज तो थी बट ... वो समझते थे कि उनकी बहू सुंदर नहीं है .... एकदम ब्लैक ... यू नो ...." अमरनाथ बता रहे थे।<br />
"मि॰ वेंकटरमण एण्ड सो कलर काँशस .... पर वे तो जाति, रंग, नस्ल इन सब बातों का विरोध करते थे न" यह कहने के साथ मेरे सामने स्टाफ रूम में होती गप्पबाशी के दृश्य तैरने लगे।<br />
स्टाफ रूम के एक हिस्से में वेंकटरमण, अमरनाथ, शाम मोहन, समनानी और सोहन शर्मा बैठे थे। सोहन शर्मा को छोड़ सभी अंग्रेज़ी विभाग में ही पढ़ाते थे। सोहन शर्मा पढ़ाते तो संस्कृत थे, लेकिन संस्कृत की अपेक्षा उनकी रुचि अंग्रेज़ी, इतिहास आदि दूसरे विषयों में ज्यादा थी। अंग्रेज़ी भाषा पर वे अतिरिक्त रूप से मुग्ध रहते, इसलिए अंग्रेज़ी पढ़ा रहे शिक्षकों के साथ उनकी गहरी छनती। अंग्रेज़ी में आई नई से नई किताब पढ़ना, किसी शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर लंबी बहसें करना उनका शगल था। मैं भी कभी-कभी उनकी सोहबत का मज़ा लेता और लाभ भी।<br />
आज मि॰ वेंकटरमण के निधन की खबर पाते ही न जाने कितने-कितने स्मृति-खण्ड फ्रेम-दर-फ्रेम आँखों के सामने नाचने लगे और अंततः मन एक स्मृति-खण्ड पर आकर केंद्रित हो गया।<br />
बहस इधर-उधर चक्कर काटती हुई आत्महत्या जैसे गंभीर मसले पर केंद्रित हो गई थी। मुझे अपनी ओर आते देखकर मि॰ वेंकटरमण ने ‘आओ’ कहकर सीधा प्रश्न मेरी ओर दागा -"व्हाट डू यू थिंक आफ सुएसाइड अरुण?"<br />
मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। मि॰ वेंकटरमण से बात करना मुझे अच्छा तो लगता था, लेकिन एक शिष्यत्व-नुमा संकोच भी मन को घेर लेता था। मि॰ वेंकटरमण फर्राटेदार अंग्रेज़ी इतनी तेज़ रफ्तार के साथ बोलते थे कि जब तक आप पहला शब्द पकड़ें, वे दसवें शब्द पर होते थे। हॉकी की कमेंट्री सुनते हुए मैंने तेज हिंदी या अंग्रेज़ी बोलते कमेंटेटरों को सुना था, लेकिन मि॰ वेंकटरमण की अंग्रेज़ी बोलने की स्पीड को जस्टीफाई करने के लिए हॉकी या फुटबाल से भी कोई तेज़ रफ़्तार खेल का आविष्कार करने की ज़रूरत थी। उनकी इसी अंग्रेज़ी का मुझ पर अपने छात्र-जीवन से रौब ग़ालिब होता। वे भी मुझे स्नेह के साथ हमेशा अंग्रेज़ी में ही एम॰ए॰ करने की सलाह देते और मैं एम॰ए॰ कर बैठा हिंदी में। वे कुछ वक्त मुझसे खफा भी रहे, लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया और अब मैं उन्हीं का सहकर्मी था।<br />
मैंने उनके सामने ही पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा- "नो वे ...."<br />
हालाँकि मैं एक बार गहरे डिप्रैशन का शिकार हो चुका था। मेरे सामने शिमला-यात्रा का स्मृति-खंड तेज़ी से तैर गया। गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए मैंने शिमला से थोड़ा पहले ही तारादेवी में एक गैस्ट हाउस बुक करवा लिया था। मैं, मेरी पत्नी और हमारा एक बच्चा। पूरा एक महीना वहीं बिताने का कार्यक्रम था लेकिन तीसरे दिन ही एक्पोज़र ने ऐसा पकड़ा कि ठण्ड लगने के साथ ही नीचे से झरना फूट गया। तब तक मैंने हिल डायरिया का नाम भी नहीं सुना था। अगले दो दिनों में मेरी तबियत इतनी बिगड़ी कि पहाड़ से नीचे उतरना ही ठीक लगा। हिल डायरिया मैदानी आदमी को हो जाए तो फिर पता नहीं वह ठीक होने में कितना वक्त लेगा। वही मेरे साथ हुआ। इतना भयानक कि मैं धीरे-धीरे गहरे डिप्रैशन में चला गया और मुक्ति के लिए बार बार-बार आत्महत्या करने की ही सोचने लगा। यहाँ होम्योपैथी काम आई और कुछ दिनों में ही स्वस्थ होकर आज मैं यह कहने योग्य हो गया था- "आत्महत्या कायरता है"<br />
"व्हाट आर यू टाकिंग- इट नीड्स लाट ऑफ करेज टू कमिट सुएसाइड" ऐसा शाम मोहन ने कहा। <br />
"नो.... नो... आई विल गो विद अरुण" मि॰ वेंकटरमण बोल रहे थे- "एण्ड आई विल आलसो गो विद जान स्टुअर्ट मिल वैन ही सेश दैट सुएसाइड विल डिप्राइव अ पर्सन टू मेक फरदर चाएसेस ... सो इन माई व्यू टू कमिट सुएसाइट शुड बी प्रीवेन्टेड रादर दैन बी ग्लोरीफाईड"<br />
"अरे कौन कमबख्त ज़िन्दा रहना चाहता है आज के जमाने में ... सो मच ऑफ ह्यूमिलेशन वन हैज़ टू फेस ..... " शाम मोहन ने बात आगे बढ़ाई। <br />
"इसका मतलब तो यही हुआ न कि आज ज़िंदा रहने के लिए कहीं ज़्यादा साहस और हिम्मत की ज़रूरत है" अरुण ने कहा। <br />
"मैं तो सोचता हूँ कि लाइफ अगर अनलिवेबल हो जाए तो इट्स बैटर टू एण्ड इट" यह हल्का-सा स्वर मि॰ अमरनाथ का था।<br />
"यानी आप कोई बीच का रास्ता निकाल रहे हैं, पर मि॰ अमरनाथ, किसकी लाइफ कितनी अनलिवेबल हो गई है ... हू वुड डिसाइड दैट" अरुण ने कहा । <br />
"यस ... यस .... दैट इज़ दि पाइन्ट .... एन्डयोरैन्स लेवल ...."<br />
"सभी के अलग-अलग हैं" बात काटते हुए मि॰ सोहन शर्मा बोले- "जिसकी लाइफ है, उसी को सोचने दो न, उसने उसके साथ क्या बर्ताव करना है।"<br />
"दैन व्हाट अबाउट सोशल रिपान्सिबिलिटी" अभी तक खामोश बैठे समनानी ने अपनी उपस्थिति दर्ज की- "लिसन वैन कान्ट आर्गयूज़ दैट ही हू कंटैम्पलेट्स सुएसाइड शुड आस्क हिमसैल्फ वैदर हिज़ एक्शन कैन बी कंसिसटैन्ट विद दि आइडिया ऑफ ह्यूमैनिटि एज़ एन एण्ड इटसैल्फ"<br />
"मुझे तो सुएसाइड का आइडिया ही एब्सर्ड लगता है" मि॰ अमरनाथ बोले<br />
"है, क्या हमारी लाइफ ही एब्सर्ड नहीं है?" शाम मोहन ने कहा <br />
अब सोहन शर्मा की बारी थी- "देखिए अब लाइफ एब्सर्ड है, यह मानकर ही लोग यथार्थ को भ्रम में बदल देते हैं या धर्म की शरण लेते हैं, या जंगलों में भाग जाते हैं ... यह तो कोई तरीका नहीं है ज़िंदगी की एब्सर्डिटी को फेस करने का ... आई मीन आप लाईफ को पेशनिटिली गले लागकर उसे एक मीनिंग भी दे सकते हैं"<br />
"व्हाट मीनिंग ... माई फुट ... अरे जिए जा रहे है कि हम मर नहीं सकते ... बस .. " शाम मोहन के स्वर में थोड़ी तुर्शी आ गई थी। मि॰ वेंकटरमण बोले- "बट आई थिंक अवर इंडियन फिलासिकी गिव्स अस दि आंसर यह ज़िंदगी हमें ईश्वर ने दी है, वही उसे ले सकता है ... हमें क्या हक है उसे खत्म करने का ... आत्महत्या पाप है, यही बात है जो दुनिया को बचाकर रखती है"<br />
सोहन शर्मा- "यह पाप-पुण्य तो बाद की बात है, पहली बात है आदमी की जिजीविषा ... अपने अहं का विस्तार देखने की अद्दम्य ललक ...."<br />
इसी तरह से अपनी-अपनी राय देने के लिए कोई रूसो का, कोई डेविड ह्यूम का, कोई कामू और सार्त्रा का तो कोई वेदान्त और गीता का सहारा ले रहा था। इसी बहस के अंत में मि॰ वेंकटरमण ने ही तो कहा था "टू कमिट सुएसाइड, आई विल हैव टू गो मैड"<br />
इस जुमले का ध्यान आते ही मैं अपने वर्तमान में लौट आया और खुद से पूछने लगा कि क्या मि॰ वेंकटरमण सचमुच पागल हो गए थे? क्या मैं अपने डिप्रैशन के दिनों में पागल होता-होता बचा था? इन सवालों के जवाब मेरे पास ही नहीं थे तो किसी ओर के पास कैसे हो सकते थे। लेकिन यह सवाल बार-बार मेरे मन को मथने लगा कि अगर कार्य-कारण शृंखला का कोई संबंध है तो फिर इस आत्महत्या का कोई कारण तो होना चाहिए।<br />
कारण? सोचकर मेरे मन में और ही तरह-तरह की उथल पुथल होने लगी। किसी घटना-दुर्घटना का कारण जो हम देख या समझ रहे होते हैं, क्या सचमुच वही कारण होता है। दृश्य कारण के पीछे छिपे अदृश्य कारण क्या कभी हमारी पकड़ में आता है? न आए लेकिन एक दृश्य कारण तो पकड़ में आना चाहिए। ज़रूरी भी है ... तभी न हम उस कारण को कारण मानकर मन पर अपनी जिज्ञासा के जवाब की चादर डालकर तब तक संतुष्ट रहते हैं, जब तक कोई और झकझोर देने वाली घटना-दुर्घटना न हो जाए।<br />
इस सारी उहापोह के बीच ही मन बार-बार विचलित होकर मि॰ वेंकटरमण की जेब से निकली पर्चियों की इबारतों को पढ़ना चाहता था।<br />
दो दिन बाद मैंने फिर मि॰ अमरनाथ को फोन मिलाया। उधर से वही परिचित हल्की आवाज़ - हलो<br />
"हलो सर, अरुण हेयर"<br />
"हाँ, बोलो अरुण"<br />
"सर दो दिन से परेशान हूँ मैं ... कोई वजह पता चली"<br />
"हाँ, कुछ-कुछ, दरअसल दो दिन हम पुलिस के चक्कर ही काटते रहे, बड़ी मुश्किल से केस बंद करवाया है।"<br />
"वो कैसे?"<br />
"एक एक्सीडेंट यू नो ... मेरा एक दोस्त है डी सी पी ... मुश्किल तो हुई ... बट ... हो गया" फिर एक पाज़ के बाद "हाउ इज़ योर फुट?"<br />
"मैं तो बैड पर ही हूँ ... क्रिमेशन में भी नहीं आ सका।"<br />
"डज़न्ट मैटर ... दरअसल मि॰ वेंकटरमण ... यू नो ... थोड़े अल्ट्रा सेंसेटिव पर्सन थे वो अपने बेटे की शादी से खुश नहीं थे।"<br />
"हाँ, आपने पहले भी बताया"<br />
"पर उनकी बहू को बच्चा होने वाला था न ... तो पता नहीं उन्हें क्या डर सता रहा था। कहते थे उसका काम्प्लैक्शन भी फेयर नहीं होगा।"<br />
"सो ... सो, व्हाट ... वो खुद भी कोई बहुत फेयर नहीं थे"<br />
"हाँ, पर पता नहीं उनके मन में यह एक डर बुरी तरह से पसर गया था"<br />
"इतनी मामूली सी बात आत्महत्या की वजह तो नहीं बन सकती"<br />
"यस आई डू एग्री विद यू अरुण? पर कहीं एक-एक करके कई बातें जुड़ती चली जाती हैं ... अपनी डाटर-इन-लॉ से भी कुछ परेशान रहते थे ... बेटा भी शायद ध्यान नहीं रखता होगा ... अब क्या पता किसी के घर में रोज-रोज क्या घट रहा है ... यू नो ... एक आदमी को मामूली लगने वाली बात दूसरे के लिए बहुत ही इम्पार्टटेन्ट हो जाती है ... यू नो ... लास्ट ईयर हमारे कालिज में ही एक लड़की ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि उसके ब्वाय-प्रेंफड ने उसे गुस्से में कह दिया था ‘मरना है तो मर जा, मेरा पीछा छोड़’ अब यह भी कोई वजह है मरने की ... यू नो बस हो जाता है।"<br />
"पर आपने बताया का कई पखचयाँ थीं उनका जेब में"<br />
"हाँ थी तो, पर वह सब पूछना मुझे ठीक नहीं लगा, उनका बेटा एकदम चुप है ... आई रियली डोन्ट नो ... बट जो इम्पार्टेन्ट रीज़न मुझे लगा, वही ..."<br />
"अच्छा नहीं लगा, यह बड़ी ग़लत मिसाल पेश की है उन्होंने"<br />
"व्हाट शुड आई से, डिप्रैशन में भी थे वो, यू नो दो-तीन साल से इलाज भी करवा रहे थे ... उस इलाज से भी वे तंग आ चुके थे।"<br />
मैंने भी कुछ दिन सायक्रियाट्रिस्ट के चक्कर काटे थे और उनकी दवाओं ने मुझे करीब-करीब अधमरा-सा कर दिया था, उनके प्रति मेरे मन में गहरी वितृष्णा भरी हुई थी। उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने कहा- <br />
"यह सायकियाट्रिस्ट भी न ... पूछिए मत ... पर वे तो कुछ पूजा-पाठ भी करते थे न ..."<br />
"सब करते थे ... कहीं भी चैन नहीं ... गीता के बड़े भक्त, पर वो भी काम नहीं आई"<br />
"मैं बहुत डिस्टर्ब हूँ"<br />
"ओ कम आन अरुण! यू आर यंग, एनर्जेटिक, थिंकिंग माइंड, डोन्ट गैट डिस्टर्ब"<br />
"जी... राइट सर, फोन रखता हूँ" कहकर मैंने फोन बंद कर दिया।<br />
प्लास्टर चढ़े पाँव को देखा। पिछले तीन हफ्तों से मैं बिस्तर पर ही था। जीवन में सक्रियता का स्थान निष्क्रियता ने ले लिया था। शरीर निष्क्रिय हो जाए तो अक्सर मन अतिरिक्त रूप से सक्रिय हो जाता है। वही मेरे साथ हो रहा था, पिछले दिनों की कुछ तकलीफदेह बातों ने एक बाड़े का रूप ले लिया और उस बाड़े में बंद घूम रहा था मन। कितनी ज़िल्लत, अपमान झेलना पड़ा था मुझे, जब मैं वो सब करते हुए पकड़ा गया, जो करते हुए मुझे पकड़ा नहीं जाना चाहिए था। बाड़े में घूमती बातें किरचों की तरह चुभ रही थीं। अंतश्चेतना के गह्वर तक को काटती हुईं। मि॰ वेंकटरमण की आत्महत्या ने मेरे सामने डिप्रैशन के द्वार फिर से खोल दिए थे। मैं फिर एक बार डिप्रैशन की चपेट में आ रहा था। मि॰ वेंकटरमण ने ठीक किया या ग़लत, इस सवाल से ज़्यादा मुझे यह बातें परेशान कर रही थीं कि यहाँ से मेरे पाँव किस ओर उठेंगे और उन पखचयों की इबारतें क्या थीं? उन्हीं से खुल सकता था उनकी आत्महत्या का रहस्य तो क्या मैं खुद आत्महत्या करने की कोई वजह गढ़ रहा था? मैंने चाहा उनके बेटे से बात करूँ लेकिन आशंकित करने वाला कोई अदृश्य हाथ मुझे रोकता था। रोकता रहा और मैंने फोन मिला कर बिना बात किये काट दिया।<br />
<br />
तभी मन के किसी कोने से एक और महीन सी रेखा शक्ल अख्तियार करने लगी। दो स्थितियाँ कभी भी एक सी नहीं हो सकतीं ... तब मैं मि॰ वेंकटरमण के हालात को अपने पर क्यों ओढ़ रहा हूँ ... मुझे तो अपना जीवन जीना है, अपनी तरह से जीना है। अपमान ज़िल्लत तो मन की स्थितियाँ होती हैं - कभी ओढ़ी हुईं, कभी गढ़ी हुईं ... अब्सोल्यूट टर्म्स में वे स्थितियाँ क्या हैं? आज से दस-बीस या पचास बरस बाद ही उनका कोई महत्त्व भी होगा? तब क्यों बनूँ हाइपर सेंसेटिव, जीवन तो जीने के लिए है। जीने के बहुत कारण हैं मेरे पास। मरने के लिए उनसे कोई बड़ा कारण होना चाहिए। सोचते-सोचते मैं दार्शनिकता के खोल में घुसने लगा - क्या जीवन का अर्थ मृत्यु है? जीवन तो विकास है ... मृत्यु जीवन कैसे हो सकती है ... तो क्या मृत्यु एक विराम है, अर्द्धविराम या पूर्ण विराम। सभी पदार्थों का विखंडित हो जाना, उनका फिर किसी रूपाकार में परिवर्तित हो जाना - यही तो है विकास। मृत्यु का विकास तो हो ही नहीं सकता। विकास तो जीवन का ही है। मैं हूँ, जीवन है। मैं नहीं हूँ - तब भी जीवन है - तब मैं हूँ या नहीं? यह प्रश्न ही निरर्थक हो जाता है। तब क्या आत्महंता और अन्यों में कोई अंतर नहीं? आत्महंता होना साहस है तो फिर सभी साहसी क्यों न बनें? तब जीवन? तब यह समाज? तब मैं?<br />
मुझे अपने सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे। अपने लिए ही नहीं तो दूसरों के सवालों के जवाब में कैसे तैयार कर सकता हूँ, लेकिन बार-बार मन के किसी कोने से मुझे यही सुनाई देता है कि आत्महत्या संघर्षों से मुक्ति का आसान रास्ता है। संघर्षों का सामना न कर पाना कायरता है ... तब आत्महत्या क्या है? शायद वो कायरता का ही शिखर-बिंदु है। अपमान, ज़लालत कहीं न कहीं, किसी न किसी शक्ल में, सबका इनसे सामना होता है - इसके बावजूद लड़ना, संघर्ष करना, जीवन जीने के लिए कहीं ज्यादा साहस की ज़रूरत है, बजाय मरने के। इसलिए अपने मन में बार-बार आत्महत्या करने का विचार आने के बावजूद मैंने फिलहाल जिंदा रहने का ही फैसला किया है- टू मेक फर्दर चाएसेस ... शायद।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-81664368543089808672010-04-22T09:45:00.001+05:302010-04-22T09:45:47.519+05:30संवेदनासतीश (विजय से): क्या बात है? बड़े दिन से ऑफ़िस नहीं आया?<br />
विजय: यार मेरे बेटे की तबियत काफ़ी खराब चल रही है। डॉक्टरों के चक्कर और बड़े अस्पतालों के बिल भर भर के मैं परेशान हो चुका हूँ।<br />
सतीश: ओह! अब कैसी तबियत है? पैसे की कमी हो तो कहना। जितना बन पड़ेगा सब दोस्त मिल कर करेंगे।<br />
विजय: कैसी बात कर रहे हो भाई! आज कल मैडीक्लेम का जमाना है। सारा पैसा वही कम्पनी तो भर रही है। साठ हजार तक तो कम्पनी दे ही चुकी है। आराम से बड़े अस्पताल में इलाज करवा रहा हूँ।<br />
सतीश: अरे वाह! कमाल है यार... पैसे की चिन्ता ही नहीं। और अस्पताल वाले भी तो मैडीक्लेम के नाम पर मुँह माँगा पैसा माँगते हैं। चलो बढ़िया है.. ध्यान रखना अपने बेटे का.. चलता हूँ..<br />
विजय: ठीक है भाई...<br />
<br />
कुछ दिनों बाद....<br />
<br />
सतीश: यार विजय.. वो अपना अमित है न? उसके घर में नौकरानी की बेटी को कैंसर बता दिया है... <br />
विजय: अच्छा!! तो अब?<br />
सतीश: अमित कह रहा है कि यदि अभी ठीक नहीं हुआ तो शायद न बच पाये। इलाज के लिये दस हजार चाहिएँ। इसलिये सभी से थोड़ा बहुत जो बन पाये वो इकट्ठा कर रहा है...चाहें पचास रूपये ही क्यों न हों।<br />
विजय: यार ये क्या बेकार के पचड़े में पड़ जाते हो तुम लोग भी... सब बेकार की बातें...मैं चलता हूँ।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-76906374410618251612010-04-14T09:37:00.003+05:302010-04-14T10:39:21.935+05:30अम्बेडकर होटल- रामजी यादव<span style="font-style:italic;">आज हम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की 119वीं जयंती पर युवा कहानीकार रामजी यादव की कहानी 'अम्बेडकर होटल' प्रकाशित कर हैं। यह कहानी कथादेश के फरवरी 2010 अंक में भी प्रकाशित है----</span><br /><br /><div class="parichay"><span style="font-weight:bold;">लेखक परिचय</span>- रामजी यादव<br /><img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/Ramjee_Yadav.jpg" align="left">जन्म: 13 अगस्त 1963, बनारस (चमांव)<br />लम्बे समय तक राजनीतिक कार्यकर्ता। 1997 से दिल्ली में सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।<br />कृतियाँ: वृत्तचित्र निर्माण/निर्देशन गाँव का आदमी, दी कास्ट मैटर्स, एक औरत की अपनी कसम, दिल्ली के हीरो, खिड़कियाँ हैं, बैल चाहिए, तथा सफरनामा समेत दो दर्जन से अधिक वृत्तचित्र। भूमिका में स्त्री (कविता-संग्रह),अथ कथा-इतिहास (उपन्यास)खेलने के दिन (कहानी-संग्रह) कुछ साहित्य कुछ साहित्येत्तर (लेख-संग्रह) अति शीघ्र प्रकाश्य।<br />सम्प्रति: पुस्तक-वार्ता में सह संपादक।<br />सम्पर्क: ई-47/7ओखला, औद्यौगिक क्षेत्र फेज-2, नयी दिल्ली-20<br />ईमेल- yadav.ramji2@gmail.com</div>शायद यह रात भर की दबी हुई उत्तेजना थी या बरसों से दबे हुए गौरव की पहचान कि रामा प्रसाद की नींद ढाई बजे ही खुल गयी। रोज की तरह उन्हें आलस्य झटकने के लिए आँखें मलनी नहीं पड़ीं। बिना किसी प्रयास के आलस्य अपने आप भाग गया था गोया रामा प्रसाद की साफ और चमकती आँखों में उसके लिए कोई खतरा था। उन्होंने नीम अंधेरे में ही घड़ी की सुइयाँ देखीं। लगा जैसे वे अपनी रोजमर्रा की गति से नहीं चल रही हैं। उन्होंने सोचा कि अभी इतनी रात बाकी है एक घंटा और सो लेता हूँ। वे फिर लेट गए और आँखें मूंद लीं लेकिन तुरंत ही आँखें स्वतः ही खुल गयीं। रामा प्रसाद वैसे ही लेटे रहे लेकिन उनका मन आज काबू में नहीं था। अनेक ऐसी स्मृतियाँ थीं जो उमड़-घुमड़ रही थीं। और अंततः उनसे और लेटे न रहा गया। उठकर कमरे में ही टहलने लगे। एक बार फिर घड़ी देखी तो पौने तीन बजने वाले थे। अंततः उनसे और न रहा गया और उन्होंने होटल पर जाने का निर्णय लिया। बाथरूम में घुसे और हाथ मुँह धोते बीच-बीच में गुनगुनाते जाते, क्या मथुरा का द्वारका का कासी हरद्वार...<br /><br />दरअसल रात में ही उनका मन घर आने का नहीं था। छोटे भाई सामा प्रसाद तीन दिन के लिए गाँव गए हुए थे और घर में उनके अलावा दूसरा कोई पुरुष न होने से ही घर आना जरूरी था अन्यथा वे घर कम आते थे। एक तो इसलिए कि होटल के कामों में ही वे रम गए थे और लगभग बहरासू हो गए थे। दूसरे इसलिए कि उनकी घरवाली और एकमात्र बेटे की मौत के बरसों बाद उनके लिए घर का अर्थ जीवन गुजारना भर रह गया था। वैसे भी होटल उनके लिए घर से कम नहीं था और सभी कारीगर एवं नौकर उनके अपने घर के लोग थे।<br /><br />"बबीता!", उन्होंने सामा की पत्नी को आवाज लगायी- "मैं होटल जा रहा हूँ।"<br />और वे घर से निकल पड़े। गेट को उढ़का दिया। बीस-पच्चीस कदम दूर जाने पर गेट की कुंडी खड़कती सुनाई पड़ी।<br />अभी वे होटल से पाँच-छह किलोमीटर दूर अपनी कॉलोनी में ही थे लेकिन उन्हें लगता कि होटल सामने ही है। मुख्य मार्ग पर निकलकर उन्होंने स्टेशन जाने वाला एक तिपहिया पकड़ा। उस समय टूंडला, इलाहाबाद और लखनऊ जाने वाले अनेक लोग स्टेशन के लिए निकल पड़ते थे और उन्हें सबसे जल्दी पहुँचाने वाले तिपहिया चालक मुस्तैद रहते थे।<br /><br />रामा प्रसाद बहुत मेहनती और दिलचस्प आदमी थे। यूँ दूर से वे साधारण दिखते लेकिन एक बार बात करने पर लगता था कि वे कितने हँसलोल और रसवादी थे। उनके बारे में प्रदीप के माध्यम से जानकारी मिलती थी और अब वे हमारे परिचित हो गए थे। रामा के घर में क्या पक रहा है और उनके मन में क्या है यह उनके मुँह से निकलकर प्रदीप के जरिये हमारी मंडली के कानों तक पहुँच जाता था। प्रदीप अब उनके घर के सदस्य की तरह था।<br /><br />प्रदीप हमारी मंडली का अनिवार्य हिस्सा था। वह फतेहपुर जिले से यहाँ पढ़ने आया था और विशाल के घर में रहता था। विशाल ने उसे सोने की जगह दे दी थी और मौके बे मौके खाना भी वह वहीं खाता था। हमारी मंडली जमती ही विशाल के घर में थी इसलिए खाने या चाय का प्रबंध भी अमूमन वही करता था। प्रदीप के पिता एक मामूली किसान थे और अपने इकलौते पुत्र के लिए जितना रुपया भेजते उनमें से आधे किताबों पर खर्च कर देता। फिर अधिकांश दिन फाकामस्ती में गुजारता। बेशक वह हमसे घुला-मिला था लेकिन उधार माँगने से बचता था। कभी तिवारी ढाबा कभी यादव होटल में वह उधार खा लेता लेकिन तीन-चार दिन में दोनों तगादा कर देते। पैसे न होने पर प्रदीप रास्ता बदलकर निकलता था लेकिन उसके मन में इससे एक गहरा अपराधबोध पैदा होने लगा। फिर जहाँ इक्का-दुक्का ही विकल्प थे वहाँ यह गुण विशेष उपयोगी था भी नहीं।<br /><br />इन्हीं कठिन और बदहवास दिनों में उधार खाते पर खाने के लिए ही वह रामा प्रसाद के होटल पर गया। उन्होंने यह जानने पर कि वह यहीं फेथफलगंज का निवासी है उसे एक महीने का समय दिया। प्रदीप खा तो रहा था लेकिन उसे उम्मीद नहीं थी कि वह पैसा चुका पाएगा।<br />देखा जाएगा। प्रदीप ने सोचा और महीने लगने पर तीन सौ की जगह साठ रुपये लेकर गया और बोला, "भाई साहब यही है जो है सो!"<br />रामा ने रुपये छीन लिये। गिना और प्रदीप को ऊपर से नीचे तक देखा। बोले, "हैं! इतने ही! आप तो कह रहे थे महीने पर ठीक तारीख को पूरा देंगे!"<br />प्रदीप चुप रहा। रामा ने कहा, "हूँ तो बोलिये!"<br />"अगर नौकरी होती तो तीन सौ की क्या बात थी हजार रुपये भी बिना मांगे मिल जाते।"<br />"तो क्या बाकी रुपये पाँच महीने में चुकाओगे? और खाओगे कहाँ?"<br />प्रदीप ने कुछ नहीं कहा। बस एक बार उनकी ओर देखा। जैसे कह रहा हो, चुका दूँगा।<br />"अच्छा अभी खा लो। कोई उपाय देखता हूँ।"<br />वह अनिच्छा से बैठ गया लेकिन खाने में जैसे कोई स्वाद ही न था। अलबत्ता लोग दाल-सब्जी के लिए हड़बोंग मचाये हुए थे।<br />यह होटल हमेशा आदमियों से भरा रहता। जंक्शन होने के कारण बहुत से यात्री यहाँ से गाड़ी बदलते थे। रोजमर्रा के लोग कुली मजदूर रिक्शे-तांगे वाले ड्राइवर आदि यहाँ खाते थे। यहाँ तीन ही होटल थे इसलिए हमेशा लोगों का रेला जमा रहता। वैसे प्रदीप के अनुसार और दोनों के मुकाबले रामा प्रसाद के होटल का खाना उम्दा होता था और जो भी एक बार यहाँ आता तो अक्सर यहीं खाता। दाम तीनों के बराबर थे और तीनों ही इस बात पर दृढ़ थे कि होटल में कोई शराब नहीं पी सकता। रामा प्रसाद खासतौर से सफाई और स्वाद पर ध्यान रखते थे। हर दिन कई मन सब्जियाँ और दाल खप जातीं।<br />प्रदीप ने हाथ धोये और रामा के पास जाकर खड़ा हो गया। "अब बोलिये!"<br />रामा प्रसाद ने उसे साठ रुपये लौटाते हुए कहा, "इसे ले जाओ। खाने का कोई पैसा नहीं लूँगा। रोज खाओ। मेरे बच्चों को पढ़ा दिया करो लेकिन... और बोला कितना रुपया लोगे?"<br />"अरे! मैं क्या बताऊँ?" प्रदीप ने विस्मय से कहा। उसके पास पूरी शामें खाली थीं। दो-तीन घंटे तो आराम से निकाल सकता था।<br />"तो क्या तीन सौ ठीक रहेंगे?" रामा प्रसाद ने कहा- "तीन बच्चे हैं। जो भी समय लगाओ मन से पढ़ाओ लेकिन।"<br />"ठीक है कल से पढ़ा दूंगा।" प्रदीप के लिए वह बिन माँगी मुराद थी। ट्यूशन की कोशिश तो उसने पहले भी की थी परंतु प्रायः महीने भर पढ़ाने पर आधा-तिहाई रुपये ही मिल पाते थे। अक्सर लोग ट्यूटर को मजूर समझते जिससे काम तो कसकर लेते लेकिन मेहनताना देने में तकलीफ महसूस करते थे। यह लोकेलटी का भी असर था। प्रदीप ने खिन्न होकर ट्यूशन छोड़ दिये। रामा प्रसाद की बात से उसे लगा कि खाने के साथ पैसे भी नियमित मिला करेंगे।<br />"तो कल से पढ़ाओगे?"<br />"हाँ।"<br />"कल ठीक समय से आना। मैं पता बता दूँगा।"<br />"जी।"<br />दूसरे दिन प्रदीप ठीक समय से पहुँचा तो रामा प्रसाद ने उसे अपने घर का पता लिखवा दिया और रास्ते के बारे में बताया। जब प्रदीप चलने लगा तो उन्होंने पूछा, "कैसे जाओगे लेकिन?"<br />प्रदीप ने उसकी ओर देखा और बोला, "तिपहिये से जा निकलूँगा।"<br />रामा प्रसाद ने कोने में खड़ी साइकिल की ओर इशारा किया, "इसे ले जाओ।"<br />प्रदीप ने साइकिल ली और उनके घर की ओर चल पड़ा।<br /><br />नये मास्टर साहब का स्वागत गर्मजोशी से हुआ। चाय के साथ कुछ खाने की चीजें भी थीं। इतनी कि प्रदीप संकुचित होने लगा। सामा प्रसाद की दो लड़कियाँ और एक लड़का आये। लड़का लहुरा था। घर में दुलरुआ होने के कारण वह अपेक्षा करता था कि उसकी सभी बातों पर तवज्जो दी जाये। इसलिए प्रदीप के साथ थोड़ी अकड़ और थोड़े लाड़ से उसने बातचीत शुरू की। महोदय कक्षा दो में पढ़ते थे लेकिन अक्षरों और मात्राओं का जोड़ बिठाकर शब्द बनाना और पढ़ पाना उनके लिए कठिन था। फिर भी अंग्रेजी और हिन्दी की किताबों के चित्र देखकर वे पूरी की पूरी कविता सुना देते। और आश्चर्य यह कि पंक्ति दर पंक्ति सही सुना देते। बड़ी लड़की पढ़ने में होशियार थी और गणित के प्रति अधिक सचेत थी। उसने प्रदीप को न समझ में आने वाले सवाल समझाने को कहा। प्रदीप कई उदाहरणों और प्रविधियों से उसे समझाता और वह तन्मय होकर सुनती लेकिन कोई हल निकलने से पहले ही वह उत्तेजना से चीखने लगती 'मुझे समझ में आ गया। मैं कर लूँगी।' और कॉपी छीनकर बाकी सवाल हल करने लगती।<br />मझली लड़की अन्तर्मुखी थी। पहले ही दिन प्रदीप ने समझ लिया कि उसकी मूल समस्या होमवर्क पूरा करने की है। दर्जन भर विषयों की कॉपियाँ भरते-भरते वह बेचारी रुआंसी हो उठती। कोई सहायक नहीं था। प्रदीप ने जब पूछा कि तुम्हारे स्कूल में क्या पढ़ाया जाता है तो वह बताते-बताते रोने लगी कि मैडम केवल होमवर्क दे देती हैं। कक्षा में केवल कॉपियाँ चेक करते हुए समय बीत जाता है और कभी पाठ सुनने और समझने का मौका हाथ नहीं आता। प्रदीप ने उसे दिलासा दी कि जल्दी ही वह उसे कक्षा में सबसे तेज बना देगा तो वह मुस्कुराने लगी। गरज यह कि दो घंटों में उनके बीच दोस्ताना हो गया।<br />होटल लौटकर प्रदीप ने साइकिल वापस रख दी और वापस चला गया।<br /><br />प्रदीप जल्दी ही उस घर से घुल-मिल गया। सामा प्रसाद और बबीता देवी भी उससे बहुत स्नेह करते थे। बबीता जी तो बड़ी जीवंत और धार्मिक महिला थीं। वे प्रायः व्रत-उपवास रखतीं और पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनतीं। पूरी बैठक और उनका अपना कमरा देवी-देवताओं के चित्रों से भरा रहता था। जब साल के बासी कलेंडर उतारे जाते तो वे सामा प्रसाद को ताकीद करतीं कि वे या तो उन्हें गंगा में बहा आयें या आग के हवाले कर दें। वे ढेर सारे किस्से और व्रतकथाएँ जानती थीं और मंदिर तथा नहान जाती थीं। प्रदीप जब घर का काफी आत्मीय हो गया तो उसके अंदर यह जिज्ञासा पैदा होने लगी कि ये लोग कौन हैं और कहाँ से आये हैं! धीरे-धीरे वह यह जान गया कि ये लोग इलाहाबाद के एक गाँव के मूल निवासी हैं और गाँव में इनकी जमीन और घर अभी भी हैं। लंबा-चौड़ा परिवार है और सभी लोग मेहनत-मजदूरी खेती किसानी करके पेट पाल रहे थे।<br />लेकिन प्रदीप का आशय उनकी जाति से था। उसे किसी प्रकार उनकी जाति मालूम नहीं हो पा रही थी। वह चाहता तो किसी से भी पूछ सकता था लेकिन पूछने का कोई संदर्भ और बहाना ही नहीं था। वह कई बार मंडली में इस सवाल पर उजबक की तरह देखने लगता। बेशक हममें से कोई भी जाति के कारण किसी से घृणा नहीं करता था लेकिन पता नहीं क्यों हम भी प्रदीप से सामा प्रसाद और उनकी पत्नी-बच्चों के रंग-रूपचाल-ढाल पहनावा और बात-व्यवहार के बारे में दरयाफ्त करने लगे थे। हमारे आदर्श का लबादा क्षमा और सहानुभूति की बैसाखियों पर टंग गया था। हम कयास लगाते कि वे लोग कौन हो सकते हैं? सवर्ण या पिछड़ी जाति या ....... नहीं नहीं। एक दिन जब प्रदीप ने बताया कि सामा प्रसाद जनेऊ पहनते हैं तो आदित्य बेसाख्ता बोल पड़ा कि कुनबी हो सकते हैं। इधर बीच हमने सामाजिक परिवर्तन की अनेक कहानियाँ पढ़ी थीं और यह हमारे लिए दिलचस्प था कि गैर सवर्ण अपने सम्मान के लिए क्या चिन्ह अपना रहे हैं। विशाल के दादा आर्य समाजी थे और उसके घर में भी ऐसे अनेक व्यवहार प्रचलित थे जो पहले सवर्ण और कुलीन ही करते थे। लेकिन सारी कयावद के बावजूद हमें ठीक-ठाक नहीं पता चल पाया कि सामा प्रसाद की जाति क्या है!<br /><br />यह एक ऐसा प्रश्न था जो हमारे विवेक पर साँप की तरह कुंडली मारे बैठा था। हमारी दिनचर्या कस्बाई थी और हम छोटे शहर के आधुनिक लोग थे। हम लगभग इतने ठस हो चुके थे कि बड़ी से बड़ी घटना भी हमें उत्तेजित नहीं कर पाती थी। बल्कि हम उसे तथ्य के रूप में चर्चा में इस्तेमाल करते थे। शायद इसीलिए हम जाति-धर्म के मामलों में उदासीन हो चुके थे और इस तरह हम जाति-धर्म निरपेक्ष थे। शायद इसीलिए हम रामा प्रसाद और सामा प्रसाद की जाति के बारे में जिज्ञासु होकर भी ठंडे थे। परन्तु जैसे ही प्रदीप हमारे बीच आता वैसे ही हमारे विवेक पर कुंडली मारे बैठा साँप फनफनाने लगता था। हम प्रदीप से खोद-खोदकर पूछते, यार और कोई नयी बात बताओ?<br /><br />एक दिन प्रदीप को सबकुछ पता चल गया।<br />पता नहीं यह कब हो गया था लेकिन उसकी नजर उसी दिन पड़ी। उसने देखा कि बैठक की दीवारों पर टंगे देवी-देवताओं के सारे चित्र गायब थे। उससे भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि सामने की दीवार पर शीशे में मढ़ी डॉ. अम्बेडकर की तस्वीर लटक रही थी। बगल में ही महात्मा फुले और संत रैदास की भी तस्वीरें थीं। अरे! प्रदीप के मुँह से जोर से निकल पड़ता यदि उसने अपने आपको जबरन रोका न होता। वह उठकर खड़ा हो गया और तुरंत बाथरूम में घुस गया। उसने मुँह में पानी डालकर देर तक गुलगुलाया और फिर कुल्ला किया। धीरे-धीरे उसका विस्मय कम हुआ तो वह लौट आया। तो यह बात है! उसने दस-ग्यारह महीने के व्यवहार की छानबीन की। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या हो गया! क्या ये लोग....! लेकिन हर्ज क्या है? अब तो वह बबीता देवी को चाची कहता था और तीनों बच्चों का भाई बन चुका था।<br />उसके मन में कोई दुर्भावना नहीं थी। न ही वह छुआछूत मानता था। लेकिन वह बीच रिश्ते में किसी ऐसी सच्चाई के प्रकट होने का क्षोभ था जो अब तक गाँठ बन चुकी थी और बाहर निकलते-निकलते दिल-दिमाग में सुराख बना गई थी।<br />वह शाम को साइकिल वापस करने होटल पर गया तो गद्दी पर सामा प्रसाद मौजूद थे और रामा प्रसाद बाहर खड़े थे। जैसे वे उसी की राह देख रहे थे। बोले, "आओ प्रदीप मास्टर! कैसे हो?"<br />प्रदीप ने मुस्कुराकर कहा, "ठीक हूँ।"<br />"मुझे आपसे कुछ बात करनी है.", जब रामा प्रसाद ने कहा तो प्रदीप कुछ चौंक गया क्योंकि ट्यूशन शुरू करने के दस-पन्द्रह दिन बाद से ही वे उसे तुम कहने लगे और कभी आप नहीं कहा। आज जब उन्होंने उसे आप कहा तो प्रदीप को लगा वे तस्वीरों के मामले में सफाई देना चाहते हैं।<br />वह उनके पास पहुँच गया और बोला, "जी!"<br />"चलिये जरा टहल आते हैं।", उन्होंने कहा और स्टेशन की ओर बढ़ गये। प्रदीप भी पीछे हो लिया। वे लोग प्लेटफार्म नं. 8 पर जा पहुँचे। यहाँ गाड़ियों का शोर और लोगों की भीड़ कम थी। रामा प्रसाद कुछ देर इधर-उधर देखते रहे फिर बोले- "तब!?"<br />प्रदीप के भीतर जैसे जवाब तैयार था। उसने तुरंत कह दिया, "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर मुझे पहले भी मालूम होता तो बुरा थोड़े मानता।"<br />इस जवाब पर रामा प्रसाद ने विस्मय से प्रदीप की ओर देखा। उन्हें एकदम से उसकी बात समझ में न आयी। वे आँखें सिकोड़कर अकनते रहे। काफी देर बाद उनकी समझ में बात आयी तो वे ठहाका मार कर हँसे। इस ठहाके से प्रदीप झेंप गया। उसे लगा जैसे उन्होंने उसके मन के चोर को देख लिया है। उसकी हिम्मत रामा प्रसाद को देखने की न हुई।<br />हँस चुकने के बाद उन्होंने प्रदीप का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसे दबाते हुए बोले, "नौजवान! मैं तो समझता था तुम लोग नये जमाने के लोग हो। इन बातों से तुम्हें क्या मतलब। जब मन में बात थी तो पहले ही पूछ लेते लेकिन।"<br />प्रदीप एक बार फिर झेंप गया। बोला, "माफी चाहता हूँ चचा, लेकिन मेरा वह मतलब...."<br />रामा प्रसाद ने कहा, "छोड़ो यार! मैं यहाँ कुछ और बतियाने आया हूँ।"<br />प्रदीप की आँखें शर्म से पानी-पानी हो आयीं। दोनों कुछ देर चुपचाप इधर-उधर देखते रहे। फिर रामा प्रसाद बोले "या फिर रहने दो फिर कभी बता दूँगा।"<br />प्रदीप ने कहा, "नहीं! आज ही बता दीजिये।"<br />वे बोले, "यार बहुत पहले बाबा साहेब हुए हैं। ये जो देश का संविधान है उन्होंने ही लिखा है। वे हमारे अपने ही कुल खानदान के आदमी थे। उन्ने बहुत बड़ी-बड़ी बातें कही हैं। बेचारे कितना दुख झेले। हर आदमी ने उनका अपमान किया।समाज के कमजोर लोगों के लिए वे जीवन भर लड़े लेकिन।"<br />प्रदीप उन्हें एकटक देखता रहा था। रामाप्रसाद अनपढ़ थे। उनका घरेलू व्यवहार कड़ी मेहनत और संवेदना ही उनकी सफलता के आधार थे। इतना जरूर था कि उन्होंने अपने भतीजों का दाखिला अच्छे स्कूल में करवाया था लेकिन स्वयं कभी पढ़ाई-लिखाई की कोई बात न की थी। आज वे नयी बातें बोल रहे थे। प्रदीप इस पर चकित था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उनकी बात का क्या तात्पर्य समझे?!<br />रामा प्रसाद बोले, "यार प्रदीप! तुम मुझे भी पढ़ना-लिखना सिखा दोगे? बोलो कितना लोगे?"<br />प्रदीप चुप रहा तो उन्होंने फिर कहा, "सोचते होगे कि बुढ़ऊ क्या पढ़ेंगे? मजाक नहीं लेकिन। मैं पढ़ना चाहता हूँ। बाबा साहब की किताबें अपने आप पढ़ना चाहता हूँ। जितना कहोगे दे दूँगा। तीन.....चार.....पाँच सौ हर महीना।"<br />प्रदीप बोल पड़ा, "नहीं चचा। आपने कम पैसा मुझे नहीं दिया है। मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि मैं आपका क्या कहूँ?"<br />"चचा छोड़कर चेलवा कह दो लेकिन पढ़ाओ जरूर।", उनकी बात पर दोनों देर तक हँसते रहे। चलते समय रामा प्रसाद ने कहा, "साइकिल ठीक से चल रही है कि नहीं। आज उसे ले जाओ और ओवर हालिंग करा लो। शहर में कब तक पैदल चलोगे।"<br />शाम को प्रदीप मंडली में आया और सबको पता चला कि रामा प्रसाद का पूरा नाम रामा प्रसाद अहिरवार है। बरसों पहले मिल में काम करने इस शहर में आये थे। कुछ पैसा जमा हो गया तो उन्होंने स्टेशन के पास एक ढाबा खोल लिया और धीरे-धीरे वह चल निकला। उनके छोटे भाई सामा प्रसाद अहिरवार भी कुछ समय बाद पत्नी समेत गाँव से आये। दोनो भाइयों के परिश्रम सच्चाई और सफाई से ढाबा बहुत अच्छा चला और उन्होंने बहुत पाँश कॉलोनी में घर बनवा लिया। ब्राह्मणों बनियों से भरी इस कॉलोनी में एक से एक धार्मिक गतिविधियाँ चलती थीं जिनका प्रभाव उनके परिवार पर भी पड़ा चूँकि घर में पर्याप्त पैसा था इसलिए दान-पुण्य का सिलसिला तेजी से चला। रामा प्रसाद प्रायः होटल में ही रहते थे। घर में सामा प्रसाद का ही परिवार रहता था और कुछ ले देकर उन्हीं का था ही। वे देखते थे कि आस-पास सभी हिन्दू हैं तो उन्होंने कभी अपनी जाति के बारे में कोई जिक्र नहीं किया। अकसर वे जगजीवन राम को मिलने वाली गालियों में भी अपना ऊँचा सुर मिला देते थे। लोग उनको और उनके परिवार को सम्मान देते थे इसलिए इस स्थिति को बनाये रखने के लिए वे जनेऊ पहनने लगे तथा उनकी पत्नी प्रायः मंदिर जाती थीं।<br />इन्हीं दिनों जब प्रदीप उनके घर पढ़ाने आता था तो रामा प्रसाद के होटल पर अम्बेडकर मिशन के कुछ कार्यकर्ता आने लगे थे। उन्हीं से उनको अम्बेडकर और फुले के बारे में जानकारी हुई। वे लोग ही रामा प्रसाद को संत रैदास, फुले और अम्बेडकर की तस्वीरें और कुछ किताब दे गए। लेकिन उन्हें पढ़ना तो आता ही नहीं था। हर महीने आने वाले कार्यकर्ताओं का असर यह पड़ा कि घर से देवी-देवताओं की फोटो उतर गयीं और इन महापुरुषों की तस्वीर लग गयीं। पहले-पहल घर के लोगों को बड़ा बुरा लगा। सबसे ज्यादा तकलीफ तो बबीता देवी को हुई। वे रोने लगीं और कई दिन तक खाना नहीं खाया। देवी-देवताओं का यह अपमान देखकर उनके मन में अनिष्ट की सैकड़ों आशंकाएँ घुमड़ने लगीं, लेकिन रामा प्रसाद घर में सबसे बड़े थे और होटल तथा घर के बड़े मालिक थे इसलिए उनका विरोध संभव नहीं था। फिर भी रामा प्रसाद ने एहतियातन बैठक का बाहरी दरवाजा बन्द कर दिया ताकि कोई अड़ोसी-पड़ोसी सीधे न घुस जाये।<br />घर में परिवर्तन की आंधी आ गई थी। रामा प्रसाद के मन में पढ़ाई की भूख जाग गई थी। बहुत दिनों तक वितृष्णा से मुँह बिचकाये बबीता देवी धीरे-धीरे पुराने देवी-देवताओं को भूलने लगी थीं। अब फुले और अम्बेडकर की तस्वीरों को देखती तो श्रद्धा उमड़ने लगती। जैसे वे उनके सगे बाबा हों। बैठक में जाते ही वे अनजाने में अपना पल्लू सिर पर रख लेतीं। धीरे-धीरे वे उन तस्वीरों के पास अगरबत्ती सुलगाने और उनके भजन गाने लगीं। उन्होंने अपने बच्चों को यह बताया कि ये बाबा साहब (अम्बेडकर) और नाना (फुले) हैं।<br />यह सब सुनकर मंडली के लोग भी कम चकित न हुए। सुनील ने कहा, "मैं तो पहले से ही सोचता था कि ये वही लोग हैं।"<br />विशाल जल भुनकर बोला, "जी हुजूर, आकाशवाणी हुई थी न।"<br />मैं कुछ कहता इसके पहले ही प्रदीप बोल पड़ा, "लेकिन यह देखो न कि अम्बेडकर इतनी बड़ी बात है कि साठ-पैंसठ साल का एक आदमी भी अब पढ़ना-लिखना चाहता है।"<br />सभी चुप रह गए। सचमुच सोचने वाली बात थी। फिर भी सुनील से न रहा गया, "साठ-पैंसठ क्या मरने के किनारे पहुँचे बहुत से बूढ़े पढ़ने लगते हैं।"<br />प्रदीप को इस पर ताव आ गया। बोला, "अबे यह क्यों भूलता है कि इस आदमी ने अपने घर से देवी-देवताओं को निकाल दिया। और किसी बूढ़े में है हिम्मत?"<br />ऐसी कठहुज्जत होती रही और चाय पीकर हम अपने घर लौट आये।<br /><br />रामा प्रसाद की पढ़ाई तेजी से चली। कुछ ही दिनों में उन्होंने अक्षर और मात्राएँ जोड़कर पढ़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वे विजय कुमार पुजारी लिखित अम्बेडकर की जीवनी पढ़ गए। उनके भीतर रोमांच और उत्साह का रेला उमड़ पड़ा था। उनकी किताबों की संख्या बढ़ रही थी।<br />इसी बीच एक अच्छी खबर यह कि प्रदीप को सरकारी नौकरी मिल गयी। वह अंतिम विदा लेने आया तो सामा प्रसाद का परिवार बहुत विह्नल हो गया था। उसके लिए नये कपड़े बनवाये गए। चलते हुए उसने चाची के पांव छुए तो वह लगभग रो पड़ी। रामाप्रसाद ने उसे देर तक गले लगाये रखा। गाड़ी में बिठाने आये और प्रदीप के मना करने पर भी उसकी जेब में दो हजार रुपये रख दिये। सामा प्रसाद ने उसे एक जोड़ी जूते तथा सूटकेस दिया। जब मंडली उसे विदा करने आयी तो स्टेशन पर काफी कारुणिक माहौल बन गया। विशाल ने प्रदीप के कान में जोर से कहा, "जाओ बेटी नैहर किसी का घर नहीं होता।"<br />प्रदीप,सुनील,देवेश, मैं और रामा प्रसाद हँस पड़े लेकिन विशाल को रुलाई फूट पड़ी।<br /><br />बहुत दिन बीत गये। इसी बीच हजारों अम्बेडकर गाँव बने। महात्मा फुले के नाम पर मेले लगे। उत्तर भारत में सत्ता का समीकरण बदल गया और दलितों का उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ बना कानून लागू करना प्रशासन की विवशता होने लगी। लोकतंत्र की बयार नगरों से होते कस्बों, गाँवों और दूर देहातों तक बहने लगी। अनेक ऐंठे हुए लोग ढीले पड़ते। धौंस, धमकी और गाली मार में विश्वास करने वालों के विश्वास कमजोर पड़ने लगे। लोग मुहावरों और भाषा की नाजुकी पर ध्यान देने लगे। साधारण जन और भी साधारण जनों को सरकारी दामाद कहने लगे। लेकिन दूसरों का मल-मूत्र ढोकर जीवन गुजार देने वालों में अपने काम को प्रति जुगुप्सा पैदा हुई। एक आदमी की तरह सोच पैदा हुई तो वे पूरी व्यवस्था के प्रति घृणा से भर उठे। इन सबके खिलाफ अनेक जघन्य प्रतिक्रियाएँ होने लगीं और अनेक स्त्रियां बलात्कार और बेहुरमती का शिकार हुईं। लगता था इस रोजमर्रा के युद्ध में आजाद भारत में सबसे बुनियादी श्रम करने वाले अपनी आजादी के लिए आहुंतियाँ दे रहे हैं। औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के पैंतालीस वर्षों बाद भारत की राजनीति के वोट बैंक की दिशा बदल रही थी। केवल मुसलमानों को रिझाना अब बीते जमाने की बात हो गई थी। अब दलितों और पिछड़ों के ऊपर ही भारत की सत्ता का दारोमदार था। कोई भी संसदीय पार्टी अब उनके बगैर अनाथ थी। सभी के एजेंडे बदल रहे थे।<br />बहुत कुछ बदल रहा था। जितनी पूरे योरोप की आबादी थी उससे भी ज्यादा भारत में खरीदार हो रहे थे। दुनिया भर की कम्पनियाँ भारत में पैठ रही थीं। दुनिया के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं आया था। अपना सामान बेचने के लिए बाजार बड़ी विनम्रता से लोगों के घरों में घुस रहा था। अमूनन लोग आराम के क्षणों में टेलीविजन देखते रहते और ब्रेक के दौरान टेलीविजन से निकलकर बाजार चुपचाप उनके जेहन में बस जाता था। यहाँ तक कि लोग बातचीत करते तो बाजार वहाँ चला आता। प्रेम, व्यवहार, दाम्पत्य, प्रतिबद्धता, पुण्य और मनुष्यता हर कहीं बाजार पहुँच रहा था। कविताएँ और कहानियाँ बिना बाजार के बासी लगतीं। यही वह समय था जब रामा प्रसाद के होटल की ओर बाजार ने रुख किया।<br />गर्मी के दिनों में सभी ढाबों और होटलों पर लस्सी, शरबत और शीतल पेय मिलते थे। लेकिन जैसे-जैसे नदियों और कुओं का शीतल जल प्रदूषित होकर तेजी से सूखने लगा वैसे-वैसे लोगों की प्यास और पेट में जलन बढ़ने लगी थी। मिनरल वाटर और शीतल पेय कम्पनियों ने तुरन्त इसका फायदा उठाने की मुहिम तेज कर दी। इन्हीं दिनों पेप्सी ने होटलों, रेस्तरां, ढाबों और जरनल स्टोरों पर बड़े-बड़े बैनर-होर्डिंग लगाना शुरू किया। गरज यह कि लोगों को दूर से ही पता चल जाये कि वहाँ पेप्सी बिकता है। एक दिन रामा प्रसाद के यहाँ भी पेप्सी कम्पनी के लोग आये और उससे होर्डिंग पर लिखने के लिए होटल का नाम पूछा। अभी तक यह होटल बिना नाम का था। केवल व्यवहार और उम्दा स्वाद के कारण लोग इसे जानते थे।<br /><br />इसीलिए जब लोगों ने होटल का नाम पूछा तो रामा प्रसाद सोच में पड़ गए। सामा प्रसाद थे नहीं कि उनसे पूछते। उन्हें लगा कि वे अपनी माँ के नाम पर होटल का नाम रखें लेकिन तुरंत ही बाद उन्हें समझ में आया कि पिता का स्थान स्वर्ग से ऊँचा होता है। वे काफी सोचते रहे और फिर तय किया कि 'दो भाई' नाम ठीक रहेगा। परंतु यह भी नहीं जँचा। अपने नाम पर रख सकते थे लेकिन इससे सामा प्रसाद को बुरा लगता। फिर...<br />बहुत देर तक उन्हें कुछ समझ में नहीं आया और वे सोचते रहे। और जब समझ में आया तो एक पर्ची पर नाम लिखकर लड़कों के आगे बढ़ाया। कम्पनी के लड़कों ने नाम पढ़ा और विस्मय से मुस्कराए। वे जब चले गए तब रामा प्रसाद देर तक इस नाम पर सोचते रहे। वे अनेक भावों से भरे हुए थे। भावनाएँ इतनी प्रबल थीं कि कई बार अनायास आँखें छलछलायीं। न जाने आज गाँव बहुत याद आ रहा था। माई बिल्कुल सामने खड़ी थी और बाऊ बीड़ी पीते हुए खावां बांध रहे थे। अपनी माँ के साथ राधे भी अभी याद आया था। राम प्रसाद बार-बार थूक घोंटते और सोचते कि सामा प्रसाद भला क्या सोचेंगे, लेकिन हर बार यही लगता कि उन्होंने बहुत बड़ा फैसला लिया है।<br /><br />दूसरे दिन रात में ग्यारह बजे के आस-पास होर्डिंग होटल पर लग गई। रामा प्रसाद ने उसे बड़े प्यार और उत्तेजना से छूकर देखा। उन्हें गरिमा और बराबरी की अनुभूति हुई। लेकिन तुरंत उन्होंने उसका अनावरण नहीं किया। यह काम सुबह की बेला में ही ठीक रहेगा। सामा प्रसाद अभी कल लौटने वाले थे और रामा प्रसाद को आज भी घर जाना था। वे बेमन से ही घर गए।<br /><br />होटल तक पहुँचते-पहुँचते रामा प्रसाद ने एक बार फिर घड़ी देखी। साढ़े तीन बज रहे थे। इस समय तक होटल के कारीगर और सहायक जाग गए थे और नित्य क्रिया से फारिग होकर रोजमर्रा के कामों में लग गए थे।<br /><br />रामा प्रसाद ने होटल में घुसकर सबसे पहले होर्डिंग का स्विच दबा दिया। ट्यूब लाइटें दरबे में बंद कबूतर की तरह फड़फड़ायीं और जल उठीं। काँपते हाथों से उन्होंने होर्डिंग पर लगाया गया कपड़ा हटा दिया। पेप्सी की बोतल झटकती तारिका से भी ज्यादा चमकता होटल का नाम दिखा- 'अम्बेडकर होटल'। रामा प्रसाद रोमांच से भर उठे। वे बाहर सामने दो-तीन सौ कदम दूर गए और मुड़कर देखा तो नाम दूर से चमक रहा था।<br /><br />अब तब ढेर सारे लोग जाग चुके थे। यादव जी आँख मलते हुए दीवार पर पेशाब कर रहे थे। मुड़े तो सहसा रामा प्रसाद के होटल पर उनकी नजर पड़ी और जब उन्होंने ध्यान से देखा तो एकदम से सनाका खा गए, "हैं!अरे! ई सरवा तो.....अरे...कितना साल हो गया...." वे दौड़ते हुए तिवारी के यहाँ पहुँचे और धीमी आवाज में चिल्लाते हुए बोले, "तिवारी जी तिवारी जी! तनिक हियाँ देखो। निकलो बाहर।"<br />तिवारी जी बड़ी जल्दी बाहर निकल आए और बोले- "का हो! का रमझल्ला भवा?"<br />"अरे ई देखा तनि सामने!"<br />तिवारी जी ने सामने की ओर देखा- 'अम्बेडकर होटल'। वे यादव जी का मुँह देखने लगे। कुछ देर बाद बोले, "या द्याखो! हम का समझत रहेन। का निकला।"<br />यादव जी ने कहा, "समझे तो हमहू नाहीं। बाकी पता नाहीं काहे मन गवाही न दिया कि ई भी बिरादर होगा।"<br />"कवि कहे हैं कि जात, बरन, मुसुक, बूइक्श न बंधि है। कभी न कभी खुलिहैं जरूर। अब द्याखो सबेरे का हाल। अम्बेडकर होटल बचे नाहीं। दूय चार दिना मा बोरिया बिस्तर बांधि के रामा सामा चलि जइहैं गाँव। ", तिवारी जी ने मुस्कराते हुए भविष्यवाणी की।<br />यादव जी तुरंत ही अपने होटल पर आये और अपने नौकर से बोले, अरे बोतला सारे जा जल्दी से बोड लिखवा के लिया- 'आदर्श हिन्दू होटल' लिखवाये, 'शुद्ध शाकाहारी।'<br /><br />सुबह तक काफी कुछ बदल चुका था। हर नियमित ग्राहक अम्बेडकर होटल के पास तक जाकर लौट रहा था। यहाँ तक कि रिक्शे-तांगे वाले भी यादव जी के 'आदर्श हिन्दू होटल' और 'सनातनी तिवारी ढाबा' की ओर लपक रहे थे।<br /><br />अम्बेडकर होटल की सारी रसद खाने वालों का इंतजार कर रही थी। दिन चढ़ने पर रामा प्रसाद ने होर्डिंग का स्विच ऑफ कर दिया था लेकिन नाम वैसे ही चमक रहा था। बारह बजे तक सामा प्रसाद गाँव से लौट आये। जब उन्होंने यह नजारा देखा तो माथा पीट लिया और कलेजा थामकर धम्म से बैठ गए। आँखों के आगे अंधेरा छा गया। बहुत देर बाद वे रामा के पास पहुँचे और पूछा-"भइया! यह आपने क्या किया?"<br />रामा प्रसाद ने उन्हें स्नेह से देखा लेकिन कुछ बोले नहीं तो उन्होंने फिर पूछा- "भईया, आपको अपनी इज्जत का कुछ खियाल न रहा तो बच्चों को भविष्य भी नहीं दिखा?"<br />रामा प्रसाद चुप न रहे। बोले- "बाल बच्चे भीख न माँगेंगे सामा। हमने मेहनत से जिया है। वे भी मेहनत से जिएंगे। और तुमको क्या बाबा साहब बेइज्जती लगते हैं!?"<br />सामा ने कुछ न कहा। वे हमेशा बड़े भाई का सम्मान करते रहे। उस बड़े भाई का जिन्होंने सबकुछ उन्हीं के लिए किया है।हताश सामा ने मन मसोसकर जैसे अपने आप से कहा- "पता नहीं अब इस होटल में कोई कैसे आएगा।"<br />रामा जोर से बोले-"खाना वहीं नहीं खाते सामा, जिनकी जात होती है। खाना इंसान भी खाते हैं।"<br />सामा से कुछ कहते नहीं बना। लेकिन मन में क्षोभ इतना था कि कोई ढाँढ़स बंधाता तो रुलाई फूट पड़ती!<br /><br />तभी दो रिक्शों में दो शहरी जोड़े उन दोनों होटलों की हौच-पौंच देखकर आगे बढ़े और अम्बेडकर होटल के सामने उतर कर अंदर जा बैठे।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-63013085454082555362010-04-13T19:26:00.001+05:302010-04-13T19:26:29.479+05:30नाच- हरे प्रकाश उपाध्याय<div class="parichay"><span style="font-weight:bold;">लेखक परिचय</span>- हरे प्रकाश उपाध्याय<br /><img src="http://i773.photobucket.com/albums/yy11/hindyugm/vyaktitva/hpupadhyay.jpg" align="left">5 जनवरी 1981 को भोजपुर बिहार के गाँव 'बैसाडीह' में जन्मे हरे प्रकाश ने जैसे-तैसे बी॰ए॰ की पढ़ाई पूरी की है। वर्तमान में एक मीडिया संस्थान में छोटी सी नौकरी कर रहे हैं और साहिबाबाद (ग़ाजियाबाद, उ॰प्र॰) में निवास रहे हैं। <span style="font-weight:bold;">'अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार'</span> से सम्मानित हैं। कवि का एक कविता-संग्रह <span style="font-weight:bold;">'<a href="http://kavita.hindyugm.com/search/label/Khiladi%20Dost%20tatha%20anya%20Kavitayen">खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ</a>'</span> (2009) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। <a href="http://kavita.hindyugm.com/search/label/Hare%20Prakash%20Upadhyay">हरेप्रकाश उपाध्याय</a> युवा कवियों में सबसे अधिक पसंद किये जाने वाले कवि हैं। हरे प्रकाश उपाध्याय कहानियाँ भी लिखते हैं।<br />संपर्क- hpupadhyay@gmail.com</div>आज पचमा मास्साब के बेटे की बारात जा रही थी और उन्होंने जिले की सबसे नामी पार्टी का लौंडा नाच किया था। बारात के पहले जितनी दौड़-भाग करनी थी कर ली थी। आज उन्होंने अपने बहनोई को सारी जिम्मेदारी सौंप अपनी बैठक शामियाने में जमा ली। नाच शुरू होने के पहले अंग्रेजी दारू का पौआ भी चढ़ा लिया। अब सामने चार लौंडे थे। नाच शुरू करने के पहले वे एक साथ देवी वंदना प्रस्तुत कर रहे थे, ‘‘रखो भवानी लाज, आज पड़ा है भारी काज। रखो दुर्गा देवी लाज। मां शारदे काली सब बाधा दूर करो। आज का गाना तुम मसहूर करो। मां भवानी...।’’<br />पचमा मास्साब भावुक हो गए, ‘‘क्या रूप दिया है दईब ने। और जीभ पर सरसती विराज रही है। पहिला जनम में कौनो पाप किए होंगे कि लवंडा हुए...।’’<br />लडक़ा का मामा बोला, ‘‘चुप ना रहिए पाहुन। आप भी न। दारू भीतर जाते मेहरारू हो जाते हैं। कमर देखिए कमर...माल टूटेगा?’’<br />‘‘चुप न रहो बहिनचोदा। दीदीया का कमर न देखतो हो। वो सब तुम्हारे दीदीया न लगेंगे।’’<br />उधर सामने की चौकी पर चोली में दो टमाटर लिए और घाघरा पहने लौंडा, ‘‘गौने की रात बीती जाइहो...सइयां हिले ना डोले।’’ और शामियाने के लोग बेकाबू होने लगे, ‘‘जीव..जीव रे झरेला। चल चल धन लिखी तोरा मतारी के..चल..’’ <br />‘‘जीव..जीव..’’ ‘‘चल लिख दी टोपरा चल चल...।’’<br />दूसरा लौंडा भी आ गया गोगल्स लगाए। जिंस टॉप में। गाना बदल गया...‘‘चल चल तोरा माई से कहतानी...चल चल... आग लागो राजा तोहरा जवानी में...हमरा के धइल खरीहानी में...’’ सीटियां बजा उठा हर नचदेखवा..।<br />दो ताल नाच हुआ फिर तीसरा लौंडा आया। वह उससे भी सेक्सी। गाना का बोल निकाला...‘‘गोली चली जी गोली चली...आ राजा गोली चली...’’ और सचमुच गोली चली और जा लगी इस तिसरे लौंडे को। शोर करना छोड़ लोग भागने लगे। एक के ऊपर एक। एक बूढ़ा गिर गया और उसके ऊपर से छह मुस्टंड गुजर गए। वह अधमरा हो गया...।<br />थोड़ी दूर पर खड़ी थी पुलिस की जीप। नाच में बवाल न हो इसलिए उन्हें न्यौता देकर बुलाया गया था। पर वे तो गांजा पी रहे थे जीप के बगल में गमछा बिछाकर। हल्ला सुनकर वे जीप में बैठ गए और अपना-अपना बंदूक सम्हाल लिया जो यकीनन जरूरत पड़ती तो न छूटती न उन्हें छोडऩा आता। इसलिए वे हनुमान चालिसा पढऩे लगे...भूत प्रेत निकट नहीं आवे हनुमान जब नाव सुनावे...। दारोगा ने धीरे से सिपाहियों से पूछा, ‘‘आज जान तो नहीं जाएगी भाइयो।’’ एक सिपाही ने भुनभुनाकर कहा, ‘‘बहिनचो तुम पूड़ी-जलेबी के लिए एक दिन हमारी जनानियों की मांग धुलवाओगे।’’<br />लोग भाग गए तो पचमा मास्साब थर-थर कांपते पहुंचे पुलिस के जीप के पास और हाथ जोडक़र हकलाने लगे, ‘‘आ..आ..आप लोग कुछ करिए...’’<br />दारोगा जान गया कि गए लोग। इसलिए अकडक़र बोला, ‘‘ऐ मास्टर हमसे पूछ के किए थे नाच? अब जाओगे भीतर। वहीं करना तुम समधी मिलन। अगर लवंडा मर गया होगा तो हम क्या हमारा बाप भी नहीं बचाएगा तुमको...।’’ वह गुस्से से तमतमा गया और पचमा मास्साब के गाल पर अपना तमाचा दे बैठा।<br />और मौका होता तो अपना गाल पोंछते हुए पचमा मास्साब कहते, ‘अपना औकात मत भूलिए दरोगा जी। कौनो मास्टरे से पढक़र बने होंगे दरोगा आप।’ पर अभी तो उनकी सचमुच घिग्घी बंधी थी। बोलते कैसे?<br />दारोगा पचमा मास्साब का कालर पकडक़र शामियाने की ओर चला। जैसे किसी रंगबाज ने किसी पाकेटमार को पकड़ लिया हो। पीछे-पीछे सिपाही भी पूरी अकड़ में जैसे कोई वीरता का अवार्ड लेने जा रहे हों। शामियाने में पचमा मास्साब के परिवार और बेहद करीबी रिश्ते के ही कुछ लोग बचे थे और लौंडे को घेरे हुए खड़े थे। गोली नहीं लगी थी उसे। गोली छूते हुए निकल गई थी। वह बेहोश हो गया था। एक आदमी हवा कर रहा था गमछे से और एक आदमी पानी के छींटे मार रहा था उसके चेहरे पर। बाकी के लोग बाकी के लौंडों से सटने के लिए धक्का-मुक्की कर रहे थे। जिस चौकी पर नाच हो रहा था। उस पर नाच का जोकर चढक़र माइक के सामने भाषण देने लगा था। वह गुस्से में लगता था। वह कह रहा था, ‘‘सांस्किरतिक महफील का जिनको सहूर नहीं उन समाजविरोधी ताकतों को नहीं आना-जाना चाहिए कहीं। अभी नाच चलता तो सबको मजा आता। अंडा देती मुरगी को हलाल करनेवालों को सोचना चाहिए कि मुरगी मर गई तो फिर अंडा खाने का सवाद कइसे मिलेगा...।’’ वह अपनी रौ में था कि पीछे से एक मरियल सिपाही ने दिया पूरी ताकत लगाकर उसके चूतड़ पर एक लात। वह संतुलन खोकर जमीन से जा लगा। लौंडे को जिंदा पाकर दारोगा जी में देखने वाली तेजी से उत्साह का संचार हुआ। वे सबको हडक़ाने लगे। नाच पार्टी के मालिक ने पैर पकड़ लिया। लोग बीच-बचाव करने लगे। बारात में कुछ नेता टाइप प्रभावी आदमी भी थे। दारोगा उन्हें पहचानता था। वे एक किनारे ले गए दारोगा को। वह पांच हजार की जिद कर रहा था। कुछ देर में ना-नुकुर के बाद दो हजार पर मान गया। पचमा मास्साब से दो हजार लेने के बाद वह कहने लगा, ‘‘मास्साब आप इज्जतदार आदमी हैं। जाइए, आगे से ध्यान रखिएगा। लंठ-लबार को नहीं न लाना चाहिए बारात में। अब गोली आप ही के आदमी ने न चलाई होगी। कोई मर जाता तो आप नहीं जानते हैं बहिनचो कितना टेंसन हो जाता। आज कल के जो नएका नेता सब है, जानते नहीं हैं.।’’ दारोगा एक लौंडे को लेकर अपनी टीम के साथ जीप की ओर चला गया। नाच पार्टी दुख, करुणा और असहायता के अनेक भावों से घिरी अपना साजो-सामान समेटने लगी।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-17493197293299310932009-12-21T12:28:00.001+05:302009-12-21T12:28:33.605+05:30औरांग उटांग- धीरेन्द्र अस्थानायह तो वह समय था न, जब आप दौड़ना छोड़ चुके होते हैं। तो फिर? मैं सोच रहा हूं और दौड़ रहा हूं, एक द्वार से दूसरे द्वार तक। लेकिन आश्चर्य कि हर द्वार जैसे मेरे ही लिए बंद। हर दुःस्वप्न जैसे मेरे ही लिए छोड़ दिया गया। घृणा और दुश्मनी का एक-एक कतरा जैसे मेरे ही विरुद्ध तना हुआ। किनाराकशी की हर मुद्रा जैसे मेरे ही खाते में। <br /><br />यह तो घटना-विहीन, उत्सुकता से खाली और उबा देनेवाली शांत-सी जीवन-स्थितियों वाला समय था न। तो फिर?<br />तो फिर? एक चीखता हुआ सा आश्चर्य मेरी चेतना पर ‘धप्प‘ से आ गिरा है।<br /><br />समने चांदनी चैक को जाती लंबी संड़क है-एकदम ठसाठस। दौड़ती हुई, सिर ही सिर, मैं लाल किले के सामने वाले कई बस स्टाॅप में से एक पर बैठ गया हूं। यूं ही, समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? सब जगह तो जा आया हूं।<br />बगल में देर से एक अधेड़ आदमी बैठा आती हुई बसों के नंबर पढ़ रहा था। सोचा मेरी मदद कोई नहीं कर रहा है तो क्या? मैं तो किसी की मदद के लिए आगे बढूं।<br /><br />‘कहां जायेंगे भाई साहब?‘ मेरे स्वर में अतिशय नम्रता है। सहानुभूति की आर्द्रता में रची-बसी।<br />‘कौन मैं?‘ बगलवाला अधेड़ चैंक-सा पड़ा। ‘क्यों? कहीं नहीं जाना है।‘<br />कहीं नहीं जाना है? मुझे धक्का-सा लगा। यह भी उन्हीं में से है। याद आया। लाल किले में गाइड का काम करनेवाला मेरा एक बचपन का दोस्त (बचपन में यह कहां पता था कि इसकी नियति गाइड बन जाना होगी) एक बार मुझसे इसी स्टाॅप पर टकरा गया था-एकाएक।<br />‘तुम? आप? नमस्ते जी! पहचाना? मैं? देहरादून।‘ उसने एक-दूसरे से असंबद्ध इतने शब्द एक साथ बोले। और वह भी इतनी मुद्राओं में कि जब मैंने उसे पहचाना तो वह लगभग रो-सा पड़ा।<br />यह मेरे बचपन का दोस्त था, जिसके साथ मैंने बहुत-से दुख देखे थे। फिर बीच में पंद्रह साल का अंतराल था जिन्होंने उसे याचक और मुझे दाता के दायरे में खड़ा कर दिया था।<br />‘मैं पांच साल से यहीं हूं साहब जी!‘<br />‘पांच साल से?‘ मैं बुदबुदाया था फिर नकली क्रोध में भरकर बोला था, ‘यह साहब जी-साहब जी क्या लगा रखी है प्रेम!‘ प्रेम कहते हुए मैं बेहद आत्मीय हो गया था। सच बात तसो यह है कि मुझे काफी देर बाद उसका नाम याद आया था।<br />‘आप यहां कैसे?‘ वह बोला था। ‘कोई बस लेनी है?‘<br />‘बस?‘ मुझे दुख हुआ था, कुछ-कुछ क्षोभ भी। दुख इसलिए कि वक्त प्रेम को बस से आगे सोचने की कल्पना भी नहीं दे सका और क्षोभ इसलिए कि इसने मेरे संदर्भ में भी बस की कल्पना की। <br />‘नहीं, बस नहीं।‘ मैं खिसियाकर बोला। मानो मेरे आभिजात्य पर चोट लगी हो। ‘मैं इतनी भीड़-भरी बसों में नहीं चल पाता।‘ मैंने सफाई-सी दी। ‘मैं आॅटो के इंतजार में हूं। तुम यहां कैसे?‘<br />मैं लाल किले में चपरासी हूं। प्रेम के चहेरे पर कोई पछतावा नहीं था। बल्कि एक तरह का वैसा सुख था जैसा आत्मनिर्भर आदमी के मन में होता है। वह आगे बोला, ‘मैं अधिकारियों की आंख बचाकर कभी-कभी किसी मोटी पार्टी का गाइड भी बन जाता हूं।‘<br />‘अच्छा-अच्छा।‘ मैंने लापरवाही से कहा, ‘तो यहां खड़े क्या कर रहे थे?‘<br />‘यह मेरा शौक है।‘ प्रेम ने रहस्योद्घाटन-सा किया। ‘मैं वक्त निकालकर अक्सर यहां आ जाता हूं और बस स्टाॅप पर बैठे या खड़े लोगों के चेहरे पढ़ा करता हूं।‘<br />‘अच्छा?‘ मैं अचरज से भर उठा था।<br />‘ये बस स्टॉप न होते तो बहुत-से लोग मारे जाते।‘ प्रेम ने दूसरा रहस्योद्घाटन किया था।<br />‘वह क्यों?‘ मेरा अचरज उत्सुकता में ढल रहा था। <br />‘क्यों क्या? वक्त काटने की इससे अच्छी जगह क्या हो सकती है भला! इन स्टाॅपों पर बीसियों लोग ऐसे बैठे रहते हैं जिन्हें कहीं नहीं जाना होता। वे यहां सुबह आ जाते हैं और रात तक बैठे रहते हैं।‘<br />‘क्या?‘ मैं लगभग चीख ही तो पड़ा था।<br />‘यह तो कुछ भी नहीं है।‘ प्रेम मेरी अज्ञानता पर रस लेने लगा था। ‘यहां बैठे-बैठे कई धंधे भी होते रहते हैं।‘<br />धंधों की फेहरिस्त में जाने का समय नहीं था तब। मैंने अपने दफ्तर और घर का पता उसे दिया था और कभी आने का निमंत्रण देकर वहां से चला आया था।<br />और अब बगल में बैठे अधेड़ ने जब चैंककर बताया था कि उसे कहीं नहीं जाना है, तो मुझे प्रेम से अपनी वह अचानक हुई मुलाकात याद हो आयी है।<br />तो मैं क्यों हूं यहां? मैंने सोचा। मुझे कहां जाना है? क्या मैं भी वक्त काट रहा हूं? मैं और वक्त काट रहा हूं? हे भगवान, जिस शख्स के पास एक क्षण की फुर्सत नहीं होती थी वह यहां, लाल किले के स्टाॅप पर खड़ा वक्त काट रहा है? औरांग उटांग क्या इसी को कहते हैं?<br />सहसा मेरी आत्मा के निस्तब्ध अंधेरे में पसरा शोकाकुल मौन चीख ही तो पड़ा - वध करो! वध करो! वध करो उन सबका, जो शामिल हैं तुम्हारी हत्या के जश्न में।<br />मैं मारा जा चुका हूं क्या? मैंने सोचा और डर गया। तभी बगल वाले अधेड़ ने गहरी सहानुभूति में भरकर पूछा, ‘तुम्हें भी कहीं नहीं जाना है न?‘<br />‘मैं घर जाऊंगा।‘ मैंने कुछ इस तरह जवाब दिया मानो मुझसे प्रश्न पूछता वह अजनबी मेरा न्यायाधीश हो।<br />‘घर जाओगे?‘ मेरा वह न्यायाधीश जैसे आहत हो गया। ‘भाग्यशाली हो।‘ उसने बुदबुदाकर कहा, ‘तो फिर निकल लो। अंधेरा होने को है।‘<br />मैंने पाया, अंधेरा आसमान से गिरने को ही था और हवा ने ठंडी खुनक के साथ धीरे-धीरे बहना शुरू कर दिया था।<br />मैंने हवा से पूछा, औरांग उटांग माने क्या? हवा ने सुना। ठिठकी। मुस्करायी और किनारा कर गयी।<br />किनारा तो ऐसे-ऐसे लोगों ने कर लिया था कि कलेजा मुंह को आ लगा था। मुहावरे अपनी उपस्थिति किस तरह प्रकट करते हैं, यह इन्हीं दिनों जाना था मैंने। पैंतीस की उम्र में जब कनपटियों पर के बाल कहीं-कहीं से सफेद पड़ने लगे हैं। और आंखों के नीचे स्याह धब्बे उतरने को ही हैं।<br />पैंतीस की उम्र। ईश्वर, मृत्यु और अध्यात्म के सवालों पर लौटने फिसलने का मन करता है न पैंतीस की उम्र में? <br />तो फिर? किसी बद्दुआ की तरह यह बेराजगारी कैसे सामने आ गयी पैंतीस की उम्र में?<br />एक भीड़-भरी बस में धंस गया हूं और सरकता हुआ एक कोने में जा लगा हूं - शर्म की तरह छिपता हुआ। आॅटो वाले दिन सीने में जख्म-से रिसने लगे हैं। <br />यह तो बहुत निरापद और श्लथ समय था न! यह तो वह समय था जब पब्लिक स्कूल में पढ़ते हुए बच्चे स्कूल की तरफ से कभी आगरा, कभी बंबई और कभी गोवा के टूर पर जाते रहते हैं और आप माथे पर बिना कोई शिकन लाये दो सौ, तीन सौ या पांच सौ रुपये चुपचाप उन्हें थमाते रहते हैं - कुछ-कुछ इस अहसास के साथ मानो अपने खुद के वंचित और बुरे बचपन की स्मृति से बदला चुका रहे हों।<br />उफ! किसी ने पांव कुचल दिया है।<br />यह तो वह समय था न जब आप बिना सोचे थ्री व्हीलर पर सवार हो जाते हैं, जब पैसे से ज्यादा कीमती वक्त हो जाता है।<br />‘वक्त बहुत बड़ी चीज है गुरु।‘ बस के किसी यात्री ने अपने साथी से कहा है, ‘वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ नहीं मिलता।‘<br />मेरे माथे पर शिकन पड़ गयी है। सुबह घर से निकलते समय पत्नी ने कहा था, ‘तुम पर शनि की साढ़े साती है। इसका निदान ढूंढ़ो।‘<br />औरांग उटांग माने क्या? मैं सोच रहा हूं। यही न! हो जाना बेरोजगार पैंतीस की उम्र में?<br />पैंतीस की उम्र और सहसा जाती रही नौकरी का कोई अंतर्संबंध नहीं समझ पा रहा हूं मैं। यह तो बहुत लापरवाह और कुछ-कुछ दंभी समय था न! ऐसे समय में नौकरी का चले जाना ही क्या औरांग उटांग है?<br />घर के सामने खड़ा हूं मैं और बेल बजाने से डर रहा हूं। पत्नी का पहला सवाल होगा, नौकरी मिली? कैसा मजाक है? जो शख्स नौकरी दिया और दिलाया करता था, वह नौकरी ढूंढ़ रहा है! एक नास्तिक के घर में भाग्य ने डेरा डाला है।<br />बेल बजा दी है और इस तरह खड़ा हो गया हूं जैसे किसी भिखारी की याचना।<br /><br />×××<br /><br />पत्नी को हर समय गुस्सा आता रहता है। एक दिन मारे गुस्से के रो ही पड़ी। कातर आवाज में बोली, ‘क्या ऐसा भी हो सकता है कि अब तुम्हें नौकरी मिले ही न?‘<br /> सवाल पर जोर से हंस पड़ने का मन हुआ। इतना लंबा अनुभव अध्ययन, शोहरत और इज्जत, इस सबके बावजूद नौकरी नहीं मिलेगी? लेकिन रात होते-होते मैं डर गया।<br /> मेरी आत्मा के जंगल में एक ही सवाल सिर पटकता रहा-कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच अब नौकरी मिले ही न?<br /> और यह जो अनुभव, ज्ञान, शोहरत, इज्जत है-नौकरी की राह में कहीं यही चार बाधाएं तो नहीं खड़ी हैं?<br />आशंका पर हंस पड़ने का मन हुआ, पर आश्चर्य कि दोनों आंखें रो रही थीं।<br />पैंतीस रुपये महीने से शुरू होकर साढ़े तीन हजार रुपये तक पहुंचा था मैं और फिर सड़क पर आ गया था-जाहिर है कि एक बार फिर से शुरू होने का समय खोकर।<br />‘यह तो गनीमत हुई कि छोटे ही सही, पर दो कमरों के अपने मकान में तो हैं।‘ एक दिन पत्नी ने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहा था, ‘वरना तो...‘<br />‘वरना तो‘ के बाद वह चुप हो गयी थी और मैंने मजे-ले-लेकर सोचा था, वरना तो औरांग उटांग हो जाता। <br />इस समय वह एकदम चित पड़ी है-छत पर आंखें गड़ाये। शायद उस समय को कोस रही होगी जब उसने अपना भाग्य मेरे जैसे हतभाग्य के साथ बांधा। सहसा वह पलटी और दार्शनिक अंदाज में बोली, ‘सब लोग कायदे से नौकरी कर रहे हैं, एक तुम्हारी ही नौकरी क्यों चली गयी?‘<br />मैं ‘तड़‘ से पड़े इस तमाचे पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता, उससे पहले ही मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला -‘औरांग उटांग।‘<br />‘छिः‘ उसने करवट बदल ली और आंखें बंद कर लीं।<br /><br />×××<br /><br />मैं पढ़ रहा हूं। सच यह है कि पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूं। छोटा बेटा आ गया है। बोला, ‘पापा, जब आपको नौकरी मिल जायेगी तो मेरे लिए स्पाइडर मैन के स्टिकर ला दोगे?‘<br />बेटे के सवाल से दिमाग कई जगह से तड़का है शायद। तभी न कंपकंपी-सी छूट गयी। जेब से दो रुपये निकालकर उसे दिये और आहिस्ता से बोला, ‘अपने पापा का इस तरह अपमान नहीं करते बेटा। जाओ और स्टिकर ले आओ।‘<br />अब तो पढ़ने में एकदम मन नहीं लग रहा है। उठूं और चलूं। लेकिन कहां? लाल किले के स्टाॅप पर? नहीं, लाल किले के भीतर। प्रेम के पास। बता रहा था कि उसे आठ सौ पचास वेतन मिलता है। प्रेम भी तो पैंतीस का ही है। उसका-मेरा जन्मदिन, पंद्रह दिन आगे-पीछे ही तो पड़ता था। उसी से पूछता हूं कि बिना अपने मकान के, आठ सौ पचास में कैसे चलता है जीवन, पैंतीस की उम्र में!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">---<a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/05/us-dhoosar-sannate-mein.html">धीरेन्द्र अस्थाना</a></span>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-89992908961995673472009-11-07T11:08:00.001+05:302009-11-07T11:09:01.766+05:30आकांक्षा पारे- तीन सहेलियां, तीन प्रेमी<div class="parichay"><span style="font-weight:bold;">लेखक परिचय</span>- आकांक्षा पारे<br /><img src="http://s173.photobucket.com/albums/w76/bharatwasi001/Akanksha_Pare.jpg" align="left">18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।</div>'और बता क्या हाल है?' <br />'अपना तो कमरा है, हाल कहां है?' <br />'ये मसखरी की आदत नहीं छोड़ सकती क्या?' <br />'क्या करूं आदत है, बुढ़ापे में क्या छोड़ूं? साढ़े पांच बज गए मेघना नहीं आई?' <br />'बुढ़ऊ झिला रहा होगा।' <br />'तू तो ऐसे बोल रही है, जैसे तेरे वाले की जवानी फूटी पड़ रही हो।'<br />'वो तो फूट ही रही है, तुम जल क्यों रही हो?' <br />'मैं क्यों जलूंगी भला। हम तीनों में से कौन है, जो जवान से प्रेम कर रहा है। तीनों ही तो प्रेमी हाफ सेंचुरी तक या तो पहुंचने वाले हैं या पहुंच गए हैं।' <br />'ले, मेघू आ गई।' <br />'हाय।'<br />'क्या है बे किस बात पर बहस कर रहे हो?' <br />'ये बे-बे क्या बोलती है रे तू?' <br />'और तुम ये तू-तू क्या करती रहती हो?'<br />'अरे हमारे इंदौर में ऐसे ही बोलते हैं, तू। जब पुच्ची करने का मन करता है न सामने वाले को तो तू ही बोलते हैं।' <br />'क्यों आज तेरे हीरो ने पुच्ची नहीं दी क्या, जो मुझे देख कर 'तू' बोलने का मन कर रहा है। स्नेहा, मुझे इस धारा 377 से बचाओ।'<br />'अब तू भी बता ही दे, ये बे क्या होता है रे?'<br />'फिर तू?'<br />'अच्छा बाबा, तुम-तुम ठीक।' <br />'हां तो मैं कह रही थी। ये बे है न मेरे वाले की सिग्नेचर ट्यून का जवाब है। वह फोन पर मार डालने वाले अंदाज में कहता है, 'हाय बेबी'। और बदले में मैं हमेशा कहती हूं, 'क्या है बे?'<br />'अच्छा अब ये दिल पर हाथ रख कर गिर पडऩे की एकटिंग अपने कमरे में जा कर करना। पहले बताओ रविवार कैसा बीता?' <br />'गिर कौन रहा है डॉर्लिंग, मुझे तो बस उसका 'हाय बेबी' याद आ गया।'<br />'तो जल्दी बता कल तू कहां गई थी।' <br />'आभा, फिर तू। ठीक से बोलो यार। प्लीज।' <br />'ओके बाबा। अब मैं तुम्हारे लखनवी अंदाज में कहूंगी, हुजूर आप। ठीक?'<br />'अच्छा लेकिन पहले मैं नहीं बताऊंगी कि कल क्या हुआ था। पहले ही तय हो गया था कि हम तीनों जब भी अपने रविवारी प्रेमियों से मिलेंगे, तब स्नेहा सबसे पहले बताएगी कि रविवार का उद्धार कैसे हुआ?'<br />'पिछले छः महीने से हम प्रेम में हैं। तुम्हें लगता है हमारे जीवन में कुछ नया होने वाला है। मुझे लगता है हम ऐसे ही सप्ताह में एक अपने प्रेमी से मिल कर अधूरी इच्छाओं के साथ मर जाएंगे।'<br />'वाऊ मेरे मन में क्या आयडिया आया है। हम रविवार के दिन मरेंगे। मौत भी आई तो उस दिन जो सनम का दिन था... वाह-वाह। तुम लोग भी चाहो तो दाद दे दो।' <br />'आभा, हम यहां तुम्हारी सड़ी शायरी सुनने नहीं इकट्ठा हुए हैं।'<br />'तो इसमें दही भी कभी छाछ था कि बुरी औरत की तरह मुँह बना कर बोलने की क्या बात है। आराम से कह दो। क्योंकि तुम इतनी भी अच्छी एकटिंग नहीं कर रहीं कि कोई तुम्हें रोल दे दे।'<br />'मैं यहीं पर तुम्हारा सर तोड़ दूंगी।'<br />'अब तुम भी कुछ न कुछ तोड़ ही दो। कल उसने दिल तोड़ा, आज सुबह मैंने मर्तबान तोड़ा अब तुम सर तोड़ दो।'<br />'अगर आप दोनों के डायलॉग का आदान-प्रदान हो गया हो तो क्या हम लोग कुछ बातें कर लें।'<br />'जी स्नेहा जी। मैं आपको अध्यक्ष मनोनीत करती हूं और आप बकना शुरू करें। बोलने लायक तो हमारे पास कुछ बचा नहीं।'<br />'तुम लोगों को नहीं लगता कि हम तीनों ही दो बच्चों के बाप से प्यार कर रही हैं। हम तीनों ही जानती हैं कि हमारा कोई भविष्य नहीं, फिर भी...।'<br />'बहन फिलॉस्फी नहीं, स्टोरी। आई वांट स्टोरी।' <br />'ओए ये स्टोरी का चूजा अपने दफ्तर में ही रख कर आया कर। हम दोनों को पता है कि तू एक नामी-गिरामी अखबार के कुछ पन्ने गोदती है।' <br />'हाय राम तुम दोनों कितनी खराब लड़कियां मेरा मतलब औरतें हो। क्या मैं कभी कहती हूं कि तुम अपने कथक के तोड़े और तुम अपने बेकार के नाटक की एकटिंग वहीं छोड़ कर आया करो। बूहू-हू-हू, सुबुक-सुबुक, सुड़-सुड़...!'<br />'अब यह बूहू-हू क्या है?'<br />'बैकग्राउंड म्यूजिक रानी। बिना इसके डायलॉग में मजा नहीं आता न। रोना न आए तो म्यूजिक से ही काम चलाना पड़ता है।'<br />'साली, थियेटर में मैं काम करती हूं और हाथ नचा-नचा कर एकटिंग तू करती है।'<br />'अब तेरी नौटंकी कंपनी तुझे नहीं पूछती तो मैं क्या करूं। आई एम बॉर्न एक्ट्रेस।'<br />'रुक अभी बताती हूं। तेरी चुटिया कहां है?'<br />'स्नेहा, आभा प्लीज यार। तुम दोनों कभी सीरियस क्यों नहीं होती हो यार?' <br />'सीरियस होने जैसा अभी भी हमारी जिंदगी में कुछ बचा है क्या मेघा? तुम्हें लगता है कि हमें जहां सीरियस होना चाहिए वहां भी हम ऐसे ही हैं, अगंभीर? क्या बताएं यार हर हफ्ते आ कर? वही की पूरा दिन उसके फ्लैट पर रहे, हर पल यह सोचते हुए कि कोई आ न जाए। यह सोचते हुए कि वो इस बार तो कहे कि वो तलाक ले लेगा। और क्या बताएं एक-दूसरे को की जब कभी उसे बाहों में भर कर प्यार करने का मन किया, उसी वक्त उसकी पत्नी का फोन आ गया। या मैं तुम्हें यह बताऊं कि उसके होंठ अब मखमली नहीं लगते, जलते अंगारे लगते हैं।'<br />'हां, शायद हम सब का वही हाल है। तुम दोनों के प्रेमी की बीवीयां तो दूसरे शहर में रहती हैं। इसलिए तुम दोनों उसके घर जाती हो। लेकिन मेरे वाले की तो इसी शहर में रहती है। वह मेरे घर आता है, तो जान सांसत में रहती है। मकान मालकिन जिस दिन उसे देखेगी, उसके कुछ घंटों में निकाल बाहर करेगी। तुम दोनों से ही छुपा नहीं है कि वह क्या चाहता है। और तुम दोनों ही जानती हो कि शादी से पहले मैं वह सब नहीं करूंगी। इस बात पर एक बार फिर बहस हुई।'<br />'मेरा वाला भी इसी बात पर अड़ा है। कहता है, 'मुझमें 'पवित्रता बोध ज्यादा है।' <br />'वह मुझे कहता है, मुझमें, 'सांस्कृतिक जड़ता' है।'<br />'आभा, हम तीनों में से तुम ही सबसे ज्यादा बोल्ड हो। तुम कैसे इस चक्कर में फंस गईं? तुम्हें तो कोई भी लड़का आसानी से...' <br />'मिल सकता था, यही न? आसानी से मर्द मिलते हैं रानी, लड़के नहीं। मर्द भी शादीशुदा, दो बच्चों के बाप। कुंआरे नहीं।'<br />'तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?' <br />'मुझे क्या लगता है, हमारी उम्र की किसी भी कुंआरी लड़की से पूछ लो। सभी को ऐसा ही लगता है।'<br />'पर ऐसा होता क्यों है? जब लड़के शादी की उम्र में होते हैं, शादी नहीं करते। जब वही लड़के मर्द बन जाते हैं, तो कहते हैं, पहले क्यों नहीं मिलीं?'<br />'क्योंकि शादी के बाद वे जानते हैं कि हम उनसे किसी कमिटमेंट की आशा नहीं रख सकते।'<br />'लेकिन मेरा वाला कहता है कि वह तलाक ले लेगा और मुझ से शादी करेगा?'<br />'कब? कब उठाएगा वह ऐसा वीरोचित कदम? सुनूं तो जरा'<br />'पांच साल बाद।'<br />'इतनी धीमी आवाज में क्यों बोल रही हो। यदि तुम्हें यकीन है तो इस बात को तुम्हें बुलंद आवाज में कहना चाहिए था। लेकिन मुझे पता है तुम्हारी आवाज ही तुम्हारा यकीन दिखा रहा है।'<br />'उसके बच्चे छोटे हैं अभी इसलिए...'<br />'हम दोनों वाले के तो बच्चे भी बड़े हैं, फिर भी ऐसा कुछ नहीं होगा हम दोनों ही जानती हैं। क्यों स्नेहा?'<br />'हूं।'<br />'समझने की कोशिश करो बच्ची, हम जिंदगी मांग रही हैं। उनकी जिंदगी। सामाजिक जिंदगी, आर्थिक जिंदगी, इज्जत की जिंदगी। वह जिंदगी हमें कोई नहीं देगा। इसलिए नहीं कि हम काबिल नहीं हैं, इसलिए कि हमें आसानी से भावनात्मक रूप से बेवकूफ बनाया जा सकता है। वो तीनों जो हमसे चाहते हैं वह शायद हम कभी नहीं कर पाएंगी। हम उनका न हिस्सा बन सकती हैं न ही हिस्सेदार। अगर ऐसा हो जाए तो हम तीनों ही किसी मैटरनिटी होम में बैठ कर बाप के नाम की जगह या तो मुंह ताक रही होतीं या अरमानों के लाल कतरे नाली में बह जाने का इंतजार कर रही होतीं।'<br />'तुम बोलते वक्त इतनी कड़वी क्यों हो जाती हो?' <br />'मिठास का स्रोत सूख गया है न।' <br />'तो इस नमकीन दरिया को क्यों वक्त-बेवक्त बहाया करती हो?' <br />'मैं थक गईं हूं। सच में। मैं उसके साथ रहना चाहती हूं, किसी भी कीमत पर।'<br />'वो हम तीनों में से कौन नहीं चाहता? पर वो बिकाऊ नहीं हैं न तो हम कीमत क्या लगाएं?' <br />'लेकिन हम उनकी तानाशाही के बाद भी क्यों हर बार उनकी बाहों में समाने को दौड़ पड़ते हैं?'<br />'क्योंकि हमारी प्रॉब्लम अकेलापन है।'<br />'मुझे लगता है हम तीनों की प्रॉब्लम ज्यादा इनवॉल्वमेंट है।' <br />'ऊंह हूं, हम तीनों की प्रॉब्लम प्यार है...।' <br />'हम लोग उम्र के उस दौर में हैं, जहां हमारे पास थोड़ी प्रतिष्ठा भी है, थोड़ा पैसा भी है। बस नहीं है तो प्यार। जब हम कोरी स्लेट थे तो हमारे सपने बड़े थे। उस वक्त जो इबारत हम पर लिखी जाती हम उसे वैसा ही स्वीकार लेते। लेकिन अब... अब स्थिति बदल गई है। हमने दुनिया देख ली है। हमें पता चल गया है कि हम सिर्फ भोग्या नहीं हैं। हम भी भोग सकती हैं।'<br />'कुंआरे लड़के हमें तेज समझते हैं। लेकिन शादीशुदा मर्दों को इतने दिन में पता चल जाता है कि पत्नी की प्रतिष्ठा और पैसे की भी कीमत होती है। काम के बोझ में फंसे मर्दों को पता चल जाता है कि कामकाजी लड़कियां नाक बहते बच्चों को भी सभाल सकती हैं और बाहर जा कर पैसा भी कमा सकती हैं। लेकिन जब तक वह सोचते हैं तब तक देर हो चुकी होती है।'<br />'पर देर क्यों हो जाती है?'<br />'जब दिन होते हैं, तो वे बाइक पर किसी कमसिन को बिठा कर घूमना पसंद करते हैं। तब करियर की बात करने वाली लड़कियां अच्छी लगती हैं। साधारण नैन-नक्श पर भी प्यार आता है, लेकिन जैसे ही बात शादी की आती है, लड़के अपनी मां की शरण में पहुंच जाते हैं। तब बीवी तो खूबसूरत और घरेलू ही चाहिए होती है। तब अपनी क्षमता पर घमंड होता है। हम काम करेंगे और बीवी को रानी की तरह रखेंगे। बच्चे रहे-सहे प्रेम को भी कपूर बना देते हैं। महंगाई बढ़ती है और दफ्तर की आत्मविश्वासी लड़की देख कर एक बार फिर दिल डोल जाता है। और हमारी तरह बेवकूफ लड़कियों की भी कमी नहीं जो उनकी तारीफ के झांसों में आ जाती हैं और फिर वही बीवी बनने के सपने देखने लगती हैं, जिससे भाग कर वे मर्द हमारी झोली में गिरे थे!'<br />'फिर हम क्या करें?'<br />'अपनी शर्तों पर जिओ, अपनी शर्तों पर प्रेम करो। जो करने का मन नहीं उसके लिए इनकार करना सीखो, जो पाना चाहती हो, उसके लिए अधिकार से लड़ो।'<br />'पर वो हमारी शर्तों पर प्रेम क्यों करने लगे भला?'<br />'क्योंकि हम उनकी शर्तों पर ऐसा कर रही हैं। कोई भी अधिकार लिए बिना, हमारे कारण उन्हें वह सुकून का रविवार मिलता है।'<br />'फिर?'<br />'फिर कुछ नहीं मेरी शेरनियों, जाओ फतह हासिल करो। अगला रविवार तुम्हारा है...।'नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-67607062682705440322009-10-30T14:14:00.001+05:302009-10-30T14:15:23.401+05:30शहतूत- मनोज कुमार पाण्डेयतुम्हारे पास बहुत सारी स्मृतियां हैं। तुम स्मृतियों में सिर से पैर तक डूबे हुए हो पर ये स्मृतियां तुमने खोज-खोजकर इकट्ठा की हैं सो तुम नहीं जानते कि इनमें से कितनी चीजें वास्तव में तुम्हारे साथ घटी थीं और कितनी दूसरों की स्मृति का हिस्सा हैं! या वे कौन-सी घटनाएँ हैं जो वास्तव में कभी घटी ही नहीं, किसी के भी जीवन में पर तुरन्त ही तुम्हें खयाल आता है कि तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि ये घटनाएँ किसी की भी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं याकि किसी के भी जीवन में सचमुच नहीं घटीं। क्या तुम दुनिया भर के लोगों को जानते हो?<br /><br /> तो वहाँ एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें मैं पढ़ता हूं स्कूल की इमारत में सिर्फ तीन कमरे और एक बरामदा है। बरामदा सामने है। बरामदे के पीछे एक कमरा है। बरामदे के आजू-बाजू दो कमरे हैं जो सामने की तरफ एक अंडाकार उभार लिये हुए हैं। इन तीन कमरों में से सिर्फ एक में दरवाजा है और एक खिड़की भी, जिसकी चैखट कोई उखाड़ ले गया है। इस कमरे की दूसरी खिड़कियों में ईंटें चुनवा दी गयी हैं। बाकी दोनों कमरों की खिड़कियां इतनी बड़ी हो गयी हैं कि सोचना पड़ता है कि उन कमरों में दरवाजे से जाया जाए या खिड़कियों से। जिस एक कमरे में दरवाजा है और जिसकी एक खिड़की की चैखट कोई उखाड़ ले गया है, उसमें सिर्फ लोहे की चैखानेदार पत्तियाँ भर बची हैं। इन पत्तियों के बाहर से मैं इस कमरे में बहुत देर तक झाँकता रहता हूं। इस कमरे में दो साबुत कुर्सियाँ हैं, एक मेज, तीन लकड़ी की आलमारियां, एक झूला कुर्सी, एक काठ का घोड़ा, एक सरकसीढ़ी, कुछ नयी पुरानी किताबें, दो जंग खाये बक्से और उनके ऊपर बेतरतीब ढंग से रखी हुई परीक्षा वाली कॉपियां। इस कमरे में हमेशा ताला बंद रहता है। यह सुबह के दस साढ़े दस बजे खुलता है और इसके भीतर की दोनों कुर्सियां निकाली जाती हैं। एक मिसिर मास्टर के लिए और एक बालगोविन्न मास्टर के लिए। शाम को फिर ताला खुलता है- दोनों कुर्सियां फिर से इसी कमरे में रख दी जाती हैं और फिर से ताला बन्द कर दिया जाता है। एक बार कई दिनों तक इस कमरे की चाबी मेरे पास भी रही थी पर मुझे खिड़की से झाँकना ज्यादा अच्छा लगता है।<br /> स्कूल, स्कूल में नहीं स्कूल के पश्चिम के बाग में चलता है। आम के पेड़ों की हरी छाया में। पेड़ खूब बड़े-बड़े हैं इसलिए पेड़ हमारी पहुंच में नहीं हैं। बस उनकी छाया ही हमारी पहुंच में है। स्कूल चलते-चलते बाग की सतह चिकनी और समतल हो गयी है। इसी बाग में कोई पाँच पेड़ छाँट लिये जाते हैं और उन पाँच पेड़ों के नीचे पाँच कक्षाएं चलती हैं। कक्षाओं का मुंह पेड़ की तरफ होता है जहां पेड़ की बगल में एक कुर्सी आ जाती है। मिसिर मास्टर और बालगोविन्न मास्टर जब एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते हैं तो उनके साथ उनकी कुर्सियां भी जाती हैं। मास्टर पहले पहुंच जाते हैं और खड़े रहते हैं फिर पीछे-पीछे कुर्सी पहुंचती है। मास्टर कुर्सी पर बैठ जाते हैं। हम सब बच्चे भी बैठ जाते हैं। हम जमीन पर बैठते हैं। हम अपने बैठने के लिए घर से बोरियां लेकर आते हैं और लौटते समय बोरी अपने झोले में भर लेते हैं। झोला भी बोरी से बना होता है और कई बार कई लड़कों के कपड़े भी। ये बोरियाँ जाड़े में हमारे दोहरे काम आती हैं स्कूल से लौटते हुए हम इसमें आग तापने के लिए सूखी पत्तियां बटोरकर घर ले जाते हैं।<br /> स्कूल के पूरब की तरफ एक पुराना-सा कुआं है। जब स्कूल खुला रहता है तो उसकी जगत पर एक रस्सी-बाल्टी रखी रहती है। हमें खूब प्यास लगती है। हम जितना पानी पीते हैं उससे ज्यादा गिराते हैं। कुएं का पानी खूब ऊपर तक है। हम इसे जादुई कुआं कहते हैं। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है इसका पानी ठंडा होता चला जाता है और जैसे-जैसे जाड़ा आता है इसका पानी गर्म होता चला आता है। कुएं के पूरब में मेहंदी के कई झाड़ थे जिन पर हम झूला झूलते थे। एक बार मैं इस पर झूल रहा था कि मिसिर मास्टर आते दिखाई पड़े। मैं जल्दी से उतरने लगा और नीचे आ गिरा। मिसिर मास्टर ने मुझे कई डंडे मारे पर मैं उठ नहीं पाया। थोड़ी देर में मेरा पैर ऐसे सूज आया जैसे मुझे हाथीपांव हो गया हो। मिसिर मास्टर ने चारपाई मंगवाई और मुझे घर भिजवा दिया। हफ्ते भर बाद जब मैं फिर से स्कूल आया तो वहां मेहंदी का एक भी पेड़ नहीं बचा था। उनकी जगह पर कुछ चीखती हुई खूंटियां भर थीं। तब भी जब मैं उधर से गुजरता हूं तो कभी स्याही गिर जाती है तो कभी कलम। कितना भी ढूंढ़ो, वहां गुम हुई चीजें दोबारा कभी नहीं मिलती। खूंटियों के आगे जाने की हमें मनाही है। आगे जंगल शुरू हो जाता है।<br /> स्कूल में दो ही मास्टर हैं। एक मिसिर मास्टर, एक बालगोविन्न मास्टर। दोनों कुर्ता पहनते हैं। बालगोविन्न मास्टर की तोंद बहुत बड़ी है। जब वह चलतें हैं तो उनकी तोंद आगे-पीछे होती हुई बहुत मजेदार लगती है। बालगोविन्न मास्टर छड़ी लेकर चलते हैं पर हमें मारने के लिए उन्हें बांस की पतली-पतली टहनियां पसन्द हैं जो चमड़े को चूमती हैं तो एक शाइस्ता-सी सटाक की आवाज होती है और जिस्म में पतली-पतली लाल रेखाएं बन जाती हैं जो थोड़ी देर बाद जिस्म के नक्शे पर उभरी लाल पगडंडियों-सी दिखाई देने लगती हैं बालगोविन्न मास्टर इन पगडंडियों पर बिना छड़ी लिये ही चलते हैं।<br /> मिसिर मास्टर खूब काले हैं और काली-काली मूंछे रखते हैं। उनका घर स्कूल के पश्चिम के बाग के पश्चिम में है। वह अपनी मिसिराइन को खूब पीटते हैंं। कई बार जब वह मिसिराइन को पीट रहे होते हैं तो उनकी चीखें हम तक पहुंच जाती हैं। पीटने के दृश्य हम तक पहुंच जाते हैं। जिस दिन भी ऐसा होता है हम दिन भर डरे रहते हैं। क्या हमारा पिटना मिसिराइन को दिखता होगा तो वे भी ऐसे ही डर जाती होंगी? मिसिर मास्टर की मेरे पिता से खूब जमती है। मेरे पिता भी मास्टर हैं सुबह मेरे पिता मिसिर मास्टर के यहां जाते हैं तो शाम को मिसिर मास्टर मेरे यहां आ जाते हैं। मैं पिता से भी डरता हूं और मिसिर मास्टर से भी। मिसिर मास्टर कक्षा में जब कभी इम्तहान लेते हैं सारे बच्चों की कॉपियां मुझसे जंचवाते हैं और मेरी कॉपी खुद जांचते हैं। इससे क्लास में मेरा रूतबा थोड़ा बढ़ जाता है और मैं चाहता हूं कि ये स्थिति हमेशा कायम रहे।<br /> मेरी कक्षा में एक लड़का है ‘अशोक कुमार निर्मल’। उसका घर का नाम बितानू है। हम भी उसे बितानू कहते हैं और अपनी स्याहियां उसके कपड़े या झोले पर पोंछ देते हैं। वह शिकायत करता है तो मिसिर मास्टर हंसने लगते हैं। कहते हैं कि ‘‘तू क्यों रोता है बे ! तेरी माई जैसे इतने लोगों का धोती है वैसे ही तेरा भी धो देगी।’’ पूरी कक्षा फिसिर-फिसिर करने लगती है और बितानू का चेहरा तमतमा उठता है। अब धीरे-धीरे उसने शिकायत करनी बन्द कर दी है। हम उसके साथ बदमाशी करते हैं तो वह जलती आंखों से हमें देखता है और न जाने क्या-क्या बुदबुदानेे लगता है! इधर उसका बुदबुदाना बढ़ता जा रहा है पर हम उसकी बुदबुदाहट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि मिसिर मास्टर और कक्षा की बहुसंख्या हमारे साथ होती है। मैं अपनी कक्षा में पढ़ने में सबसे अच्छा हूं। मुझे अधिकतर सवालों के जवाब आते हैं। पर एक दिन ऐसा हुआ कि मिसिर मास्टर ने जो सवाल दिये उनमें से पाँच में से तीन मुझे नहीं आते थे। पूरा दम लगाकर भी मैं गणित के उन सवालों को हल नहीं कर पाया। मुझे मिसिर मास्टर से डर लगा। ऐसे किसी भी मौके पर मिसिर मास्टर दूसरों की अपेक्षा मुझे ज्यादा पीटते थे। कहते, ससुर बाभन का लड़का होकर तुम्हारा ये हाल है।’’ या “पढ़ोगे नहीं ससुर तौ का निर्मलवा की तरह गदहा चराओगे?” लड़कियों के लिए कहते, “इन ससुरिन को, क्या करना है! घर में रहेंगी, चूल्हा-चैका करेंगी और लड़िका जनेंगी।” ऐसा कोई भी प्रसंग पूरी कक्षा पर भारी गुजरता है। मैं या जो भी उनके कोप का भाजन बनता है पिट-पिटकर चकनाचूर हो जाता है और दूसरों के चेहरे बिना पिटे ही सहम जाते हैं लड़कियाँ पानी-पानी हो जाती हैं। पर बितानू कुछ दूसरी तरह का है। उसकी आंखें लाल हो जाती हैं और वहां आग दहकने लगती है। इसीलिए वह सबसे ज्यादा मार खाता है।<br /> तोे उस दिन इसी बितानू ने पाँच के पाँचों सवालों के जवाब सही-सही दिये थे और मैं पाँच में से तीन का जवाब नहीं दे पाया था, पर मेरी कॉपी तो मिसिर मास्टर सबके बाद में जाँचते हैं पहले तो मैं ही बाकी कॉपियां जाँचता हूं तो उस दिन मैंने जान-बूझकर बितानू के तीन सवालों को गलत काट दिया। मेरी कॉपी मिसिर मास्टर ने देखी। तीन सवाल तो मैंने किये ही नही थे। सबके साथ-साथ मेरी भी पिटाई अच्छे से हुई बल्कि मेरी कुछ ज्यादा ही अच्छे से, क्योंकि बाभन होने की वजह से और पिता के साथ दोस्ताना सम्बन्धों की वजह से मिसिर मास्टर मेरे प्रति कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारी महसूस करते हैं। तो मिसिर मास्टर ने मेरे बदन का भूगोल बदल दिया। कहीं नदियां निकल आयीं तो कहीं छोटे-छोटे पहाड़। पर इतना जैसे कम था।<br /> बितानू उठा और अपनी कॉपी लेकर मिसिर मास्टर के पास पहुंच गया। बोला, “मास्साब मेरे ये सवाल सही हैं, फिर भी राजकरन ने गलत काट दिया।”<br /> मिसिर मास्टर ने उसे उपहास के भाव से देखा और बोले, “तौ अब धोबी-धुर्रा बाभन में गलती निकालेंगे?” फिर पता नहीं क्या सोचकर बोले, ‘‘ला कापी इधर ला।<br />मैं तो सच पहले से ही जानता था। मिसिर मास्टर ने मेरी तरफ देखा और मैं मशीन की तरह उठकर उनके पास जा पहूंचा। बस चार डंडे की सजा मिली पर दूसरे दिन बितानू ज्यादा पिटा क्योंकि ‘निर्मल’ होने के बावजूद वह गन्दे कपड़े पहनकर आया था। उस दिन के बाद से बितानू ने स्कूल आना छोड़ दिया। कक्षा में एक जगह खाली हो गयी और मेरे भीतर भी। मुझे लगा कि अगर उस दिन मैंने उसके सवाल गलत नहीं काटे होते तो बितानू स्कूल नहीं छोड़ता, पर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया।<br /> हुआ यह कि मिसिर मास्टर के बेटे की तिलक थी। पिता गये हुए थे। मैं भी उनके साथ गया था। खूब चहल-पहल थी। अचानक पता नहीं क्या सूझा कि मैंने बायें हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर एक गोल घेरा बनाया और उसमें दायें हाथ की तर्जनी बार-बार डालने निकालने लगा। मैं यह काम पूरी तल्लीनता से कर रहा था। दो लड़के मुझे देखकर हँस रहे थे और कुछ इशारे कर रहे थे। पिता की निगाह मुझ पर गयी तो उनका चेहरा कस उठा। उन्होंने मुझे बुलाया, कसकर कान उमेठा और घर जाने के लिए कहा। मैं मुंह बनाता और कान सहलाता घर चला आया।<br /> पिता रात में घर आये तब तक मैं सो गया था। उन्होंने मुझे बुलाने के लिए कहा तो दीदी गयी और मुझे जगा लायी। पिता ने मुझे इतनी जोर का थप्पड़ मारा कि मैं जमीन पर लोट गया। इसके बाद पिता ने कहा कि कल से स्कूल जाना बन्द। मैं बहुत देर तक जमीन पर वैसे ही मुर्दे की तरह पड़ा रहा। फिर दीदी मुझे उठाने आयी। मैंने उसका हाथ झटक दिया। खुद उठा और बिस्तर पर पहुंच गया। पूरी रात मुझे नींद नहीं आयी। मैं पूरी रात इस बारे में सोचता रहा कि पिता ने मुझे क्यों मारा! पर मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। अगले कई दिनों तक स्कूल जाना बन्द ही रहा। पर मैं दिन में दो बार मैदान जाने का डिब्बा उठाता और स्कूल के पूरब तरफ जंगल में पहुंच जाता। वहां बैठे-बैठे मैं स्कूल की तरफ ताका करता।<br />एक दिन मैं ऐसे ही वहां छुपा बैठा था और स्कूल की तरफ ताक रहा था कि बालगोविन्न मास्टर लोटा लेकर अन्दर आते दिखाई पड़े। बालगोविन्न मास्टर थोड़ा-सा अन्दर आये, एक जगह आड़ तलाशी और धोती खोलकर बैठ गये। बालगोविन्न मास्टर मुझे देख न लें इस डर से में पीछे खिसकता चला गया। जब तक वह धोती खोल बैठे रहे, डर के मारे मेरी घिग्घी बंधी रही। वह उठने ही वाले थे कि एक बड़ा-सा ढेला आकर उनकी पीठ पर पड़ा। बालगोविन्न मास्टर हकबकाकर आगे रखे लोटे पर गिर गये। लोटे का सारा पानी गिर गया। बालगोविन्न मास्टर कांखते हुए चिल्लाये, ‘‘कौन है ससुर?’’ किसी तरफ से कोई जवाब नहीं आया। मैं डर के मारे जमीन पर लेट-सा गया। बालगोविन्न मास्टर बहुत देर तक इधर-उधर देखते रहे, फिर उन्होंने बगल से लसोढ़े की पत्तियां तोड़ी और उससे अपना पिछवाड़ा साफ किया, इधर-उधर देखते हुए धोती पहनी और बाहर निकल गये।<br /> बालगोविन्न मास्टर बाहर निकल गये तो मुझे डर लगा। मैं उठकर खड़ा हो गया और अनायास ही चारों तरफ देखा। चारों तरफ पेड़, झाड़ियां, फूल ही फूल। आम, महुआ, लसोढ़ा, बेर, करौंदा, कैथा, सेमल, नीम, बबूल, जंगलजलेबी, मकोय, ढिठोरी, चिलबिल और भी न जाने क्या-क्या जिनके मैं नाम तक नहीं जानता। पेड़ों के ऊपर घनी लताएं फैली हुई थीं। इतनी कि कई पेड़ दिख ही नहीं रहे थे, सिर्फ लताएं दिख रही थीं। कुछ जगहों पर लताएं भी नहीं दिख रही थीं, सिर्फ नीले-पीले फूल दिख रहे थे।<br /> मुझे सब कुछ जादू-जादू-सा लगा। मेरा डर उड़नछू हो गया। जैसे किसी सम्मोहन की कैद में मैं जंगल के भीतर की तरफ बढ़ने लगा। अन्दर एक तालाब था जिसके किनारे-किनारे काई फैैली हुई थी। उसमें बैगनी रंग के गुच्छेदार फूल खिले हुए थे और अन्दर की तरफ कमल के बड़े-बड़े पत्ते पानी की सतह पर हरे धब्बों की तरह तैर रहे थे और चारों तरफ खूब कमल ओर कुमुदिनी के फूल खिले हुए थे। मैंने इसके पहले सचमुच का कमल नहीं देखा था। मेरे घर के ओसारे में दरवाजे के ऊपर तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें टंगी हुई हैं, उन सबमें कमल के फूल हैं। एक ब्रह्माजी की तस्वीर है जिसमें वह कमल के फूल पर बैठे हुए हैं, दूसरी सरस्वती की तस्वीर है जिसमें उनके एक हाथ में कमल का फूल लटका हुआ है। ऐसे ही एक कुबेर-लक्ष्मी की तस्वीर है जिसमें दोनों एक हाथी पर बैठे हुए हैं और हाथी अपनी सूंड़ से एक कमल का फूल तोड़ रहा है। तो मेरे ध्यान में कमल के फूल से जुड़े जितने भी प्रसंग थे सब देवताओं से जुडे़ हुए थे, इसीलिए जब मैंने तालाब में कमल खिले देखे तो तालाब मुझे पवित्र किस्म का लगा। मुझे लगा कि रात में जरूर यहां परियाँ उतरती होंगी। मेरा मन हुआ कि मैं एक कमल का फूल तोड़ूं पर कमल तालाब में काफी अन्दर खिले हुए थे। तालाब गहरा हो सकता था और मुझे तैरना नहीं आता।<br /> तभी मैंने देखा कि एक तरफ से धुआं उठ रहा है। मैं धीरे-धीरे वहां पहुंचा तो देखा कि ओमप्रकाश और बितानू आग में से कुछ निकाल रहे हैं ओमप्रकाश मुझसे एक कक्षा आगे पाँचवी में पढ़ता है। मैं उन दोनों तक पहुंचता उसके पहले ही बितानू ने मुझे देख लिया और उठकर खड़ा हो गया।<br /> मुझे लगा कि दोनों मुझे देखकर सकपका से गये। पर बितानू ने कहा, ’’वहां क्यों खड़े हो पंडित? यहां आओ।‘‘<br /> मैं असमंजस में रहा! फिर धीरे-धीरे चलकर उनके पास जाकर खड़ा हो गया। सामने गणित की रफ कॉपी का पन्ना पड़ा हुआ था। उस पर तीन भुनी मछलियां रखी हुईं थीं। कागज पर एक कोने में थोड़ा सा पिसा नमक रखा था। बितानू ने पूछा, ‘‘खाओगे पंडित?’’<br /> मैंने कहा, ‘‘छिः तुम लोग पापी हो।’’<br /> ओमप्रकाश हंसने लगा। उसने कहा, ‘‘अच्छा पंडित जी हम लोग तो पापी हैं ही पर मछली तो आज आपको भी खानी पड़ेगी। नहीं तो मैं बालगोविन्न मास्टर को बता दूंगा कि उनको ढेला तुमने मारा था।’’<br />मैं चैंक गया। “इसका मतलब उनको ढेला तुम लोगो ने मारा था।” मैंने कहा।<br /> ‘‘तो क्या हुआ! हम दो हैं और तुम अकेले। दो की बात में ज्यादा दम होता है।’’ ये बितानू था।<br />उसके दो वाले तर्क से मैं गड़बड़ा गया। फिर भी मैंने कहा, ‘‘मैं यह भी बताऊंगा कि तुम दोनों यहां यह सब करते हो।’’<br /> बितानू बोला, ‘‘देख बे पंडित, जा बता दे। मैं तो पहले से ही स्कूल नहीं आता, तेरा मास्टर मेरा क्या उखाड़ेगा!’’<br /> दोनों तनकर खड़े हो गये। मुझमें वह हिम्मत नहीं बची कि मैं उन दोनों की शिकायत करने के बारे में सोचता। दोनों मुझसे ज्यादा ताकतवर। और शिकायत करके भी क्या होगा, सही बात है कि बितानू तो पहले से ही स्कूल छोड़ चुका है और फिर पिता ने मुझे भी तो स्कूल आने से मना किया है। पिता पूछेंगे कि तुम वहां क्या कर रहे थे तो मैं क्या जवाब दूंगा! अब बचा ओमप्रकाश, वह तो स्कूल भी जाता है, ऊपर से मुझसे ऊपर की कक्षा में पढ़ता है। अगर उसने मेरी शिकायत कर दी तो.........<br /> तो मैंने कहा, ‘‘देखो तुम लोग मेरे बारे में कुछ मत बताना। मैं भी तुम दोनों के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।’’<br /> बितानू बोला, ‘‘हम तो बताएंगे।’’ शायद वह मेरे डर को भांप गया था।<br /> मैं बहुत देर तक न-नुकुर करता रहा। वे दोनों मुझे धमकाते रहे।<br /> आखिरकार मैंने मिनमिनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा थोड़ी-सी दो। अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं खाऊंगा।’’<br /> ओमप्रकाश ने मछली का एक टुकड़ा निकाला, उसमें नमक छुवाया और मेरे मुंह में डाल दिया। मुझे उबकाई-सी आयी। आंखों में आंसू आने को हुए, पर मैं उबकाई और आंसू दोनों पी गया। देर तक वह टुकड़ा मेरे मुंह में वैसे का वैसे ही पड़ा रहा। फिर उसका नमक मेरे मुंह में घुला। उसमें एक अजीब-सी महक थी। मेरे रोयें सन्न भाव से खड़े हो गये जैसे किसी अनपेक्षित का इन्तजार कर रहे हों। फिर मछली का टुकड़ा मेरे मुंह में बिखर गया। मैं दम साधे उसे महसूस करने की कोशिश कर रहा था। टुकड़ा और घुला। थोड़ा और। और। फिर मैंने उससे एक टुकड़ा और मांगा।<br /> बितानू बोला, ‘‘शाबास पंडित, मजा आया न !’’<br /> मैं हंसने लगा। इसके बाद मैं भी उनका साझीदार हो गया।<br /> अगले कई दिनों तक मैं रोज मैदान जाने का डिब्बा लेकर वहां पहुंचता रहा। ओमप्रकाश अपने साथ मछली फांसने वाली कटिया लेकर आता। कटिया चार-पाँच मीटर लम्बे ताँत के तार की बनी होती, जिसके एक छोर पर वह वहीं छुपायी गयी बांस की टहनी लगा देता। दूसरे छोर पर एक पतला-सा लोहे का तार नुमा बंसी लगी होती जिसका अगला हिस्सा हुक की तरह मुड़ा होता। वह वहीं तालाब के किनारे की नमी से केंचुए इकट्ठा करता और हुक में केंचुए फंसा देता। वह कई-कई कटिया लगाकर स्कूल चला जाता। जब इंटरवल होता तो वह तालाब की तरफ लपकता। मैं पहले से ही वहां पहुंचा होता।<br /> वहीं पर मैंने पहली बार अंडे खाये। बीड़ी का सुट्टा मारा। फिर एक दिन अम्मा ने कहा कि मैं पिता के स्कूल के लिए निकल जाने के बाद स्कूल चला जाया करूं। इसमें कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि पिता का स्कूल दूर था और वह पहले ही निकल जाते थे। मेरा स्कूल घर के सामने ही था सो मैं आराम से बाद में जा सकता था। अम्मा ने जरूर पिता की सहमति से ही ऐसा किया होगा। अम्मा न बताती तब भी उन्हें तो मिसिर मास्टर से पता चल ही जाना था।<br />कितना अच्छा होता कि स्कूल घर से दूर होता। कितना अच्छा होता कि स्कूल के मिसिर मास्टर, बालगोविन्न मास्टर और पिता एक दूसरे को जानते न होते। हम घर में भी पिटते और स्कूल में भी। दोनों जगहों पर हम संदिग्ध थे और हमें ठोंक-पीटकर अच्छा बनाने का पवित्र अभियान चलाया जा रहा था।<br />मैं स्कूल जाने लगा तो धीरे-धीरे मेरी दोस्ती ओमप्रकाश और बितानू से बढ़ती गयी। स्कूल में मेरा वक्त ओमप्रकाश के साथ बीतता और इंटरवल में बितानू हम दोनों का तालाब पर इन्तजार करता कभी मछली, कभी चिड़िया के अंडे, कभी आलू कभी कुमुदिनी की जड़ तो कभी अरहर और मटर की फलियों के साथ।<br /> ओमप्रकाश के साथ उसकी बहन भी स्कूल आती थी। वह मुझे बहुत सुन्दर लगती थी। उसके बायें गाल पर चवन्नी बराबर एक बड़ा-सा तिल था। तिल मुझे बहुत अच्छा लगता था और मुझे उसकी तरफ खींचता था। मेरा मन उसे छूने का करता। मैं उसे देर-देर तक चुपके-चुपके निहारता था। मैंने एक दिन ओमप्रकाश से कह ही दिया,<br />‘‘ओम भाई, तुम्हारी बहन मुझे बहुुत अच्छी लगती है।’’<br />उसने कहा, ‘‘मुझे भी तुम्हारी दीदी बहुत अच्छी लगती है। चलो बदल लेते हैं। तुम अपनी दीदी मुझे दे दो और मेरी बहन ले लो।’’<br /> दीदी वहीं बगल के मिडिल स्कूल में आठवीं में पढ़ती थी। वह न जाने कहां पीछे दुबकी थी और हमारी बातें सुन रही थी। दीदी अचानक प्रकट हुई और इसके पहले कि हम कुछ समझ पाते उसने मेरे और ओमप्रकाश के सिरों को पकड़कर आपस में लड़ा दिया। हम दोनों की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। दीदी ने हम दोनों की खूब ताबड़तोड़ ढंग से पिटाई की। हम दोनों पस्त होकर वहीं पड़े रहे और दीदी ने घर जाकर सब कुछ बता दिया।<br /> घर पहुंचा तो दादी डंडा लिए मेरा इन्तजार कर रही थी। खूब पिटाई हुई। दूसरे दिन स्कूल में भी मेरी और ओमप्रकाश की जमकर पिटाई हुई। कई दिनों बाद दादी ने प्यार से समझाया कि उसका क्या जाता! मान लो ऐसा हो जाय तो बाभन की लड़की पाकर उसकी तो इज्जत बढ़ जाएगी पर तुम्हारे तो पूरे खानदान की नाक कट जाएगी कि तुम्हारी बहन किसी सूद-बहरी के साथ चली गयी। अरे ऐसी बातों पर तो गर्दन तक कट जाती हैं अैार तू है कि....... कुल का कलंक बनकर पैदा हुआ है।<br /> इसके बाद हम पर स्कूल में नजर रखी जाने लगी। घर पर लगातार सुनने को मिलता कि अच्छे लड़के सूद-बहरी की संगत नहीं किया करते। ऐसा करने से उनका मन गन्दा हो जाता है और उनके भीतर तमाम गन्दी आदतें आ जाती हैं। स्कूल में भी मिसिर मास्टर की निगाहों में आने से बचना होता था। सो हमारे मिलने की एकमात्र जगह जंगल था।<br /> ओमप्रकाश इस बीच बेवजह पिटने लगा था। कई बार मिसिर मास्टर उसके नाम को लेकर उसकी फजीहत करते। ‘‘ससुर अंधेरे की औलाद नाम ओम प्रकाश!’’ फिर एक दिन उसे मिसिर मास्टर ने कुएं पर जाने और रस्सी-बाल्टी छूने से मना कर दिया। ओमप्रकाश नहीं माना तो मिसिर मास्टर ने उसे जमीन पर गिराकर लातों और डंडों से खूब पीटा। ओमप्रकाश की समझ में जब कुछ नही आया तो उसने मिसिर मास्टर की कलाई में दांत गड़ा दिया। मिसिर मास्टर ने चिल्लाकर उसे छोड़ दिया। ओमप्रकाश थोड़ा दूर गया और वहां से ईंट का एक टुकड़ा उठाकर मिसिर मास्टर के सिर पर दे मारा। मिसिर मास्टर सिर थाम कर बैठ गये तो ओमप्रकाश ने उन्हें मां की गाली दी और घर भाग गया। दूसरे दिन ओमप्रकाश के घर वाले आकर सरेआम मिसिर मास्टर की मां बहन कर गये। इसके बाद ओमप्रकाश और उसकी बहन दोनों का स्कूल आना बन्द हो गया।<br /> पन्द्रह-बीस दिन बाद एक दिन कुएं में मरा हुआ कुत्ता तैरता दिखा। दो दिन तक लगातार कुएं का पानी निकलवाया गया। मिसिर मास्टर ने घर से लाकर गंगाजल डाला पर दस दिन बाद ही कुएं में मरा हुआ बछड़ा पाया गया। इसके बाद कुएं में एक बदबू फैल गयी जो बढ़ती ही गयी। इसके बावजूद छोटे-छोटे बच्चेे जाते और उसमें ईंट के टुकड़े उछालते तो एक छपाक की आवाज होती और पानी के कुछ छींटे बाहर आ जाते। पानी में कीड़े पड़ गये थे। कई बार पानी के साथ कीड़े भी बाहर आ जाते। बाद में इस कुएं में कूड़ा फेंका जाने लगा। धीरे-धीरे पानी गायब हो गया और बजबजाता हुआ कीचड़ भर बचा जिसमें घिनौने कीड़े रेंगते जोंकें कई बार ऊपर तक चली आतीं और कुएं की जगत पर फिसलती दिखाईं देतीं। कुएं के ऊपर से जो हवा गुजरती उसमें एक जहरीली बदबू फैल जाती। एक-एक कर कुएं में कई ऐसे बच्चे पाये गये जिनकी नाल तक नहीं काटी गयी थी। इनके बारे में पता ही तब चलता है जब कुएं के ऊपर कौव्वे या गिद्ध मंडराने लगते हैं।<br /> ओमप्रकाश के जाने के बाद बितानू ने भी तालाब पर आना बन्द कर दिया। मैं अकेला पड़ गया हूं। मिसिर मास्टर लगभग रोज मुझे पीटते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ओमप्रकाश और उसके घरवालों से गाली उन्होंने मेरी वजह से खायी। मैं अकेला पड़ गया हूं पर इस बीच मुझे वर्जित का चस्का लग चुका है। मैं पेड़ पर नहीं चढ़ पाता। मैं मछली नहीं फंसा पाता। बीड़ी पिये भी बहुत दिन हो गये हैं पर मैं जंगल में अकेले ही भटका करता हूं। पूरे जंगल का स्वाद मुझे पता है। मछली न सही इमली, अमोला, करौंदा, कैथा, झरबेरी या बढ़हल की फुलौरियों का स्वाद मंुह में पानी ला देता है। जब इमली में फलियां नहीं लगी होती हैं तो कई बार मैं इमली की नरम-नवेली पत्तियां खाता हूं। उनमें भी इमली जैसा ताजा खट्टापन होता है। मैंने एक घास भी खोज निकाली है जो तालाब के किनारे की नम जगहों पर पनपती है। इसकी गुच्छेदार पत्तियां इमली से भी ज्यादा खट्टी होती हैं। उनको खाने से कई बार दांत इतने खट्टे हो जाते हैं कि रोटी चबाना तक मुश्किल होता है। पर सबसे ज्यादा फिदा मैं शहतूतों पर हुआ हूं। तालाब के किनारे-किनारे शहतूतों का एक जंगल जैसा है। यहां शहतूतों के बीसियों पेड़ उगे हैं जब उन पर फल आते हैं तो ये फल इतने हरे होते हैं कि उन्हें पत्तियों से अलग देख पाना भी मुश्किल होता है। फिर उन फलों पर एक लाली उतरने लगती है। उधर लाली दिखी नहीं कि मेरे मुंह में पानी आना शुरू हो जाता है और काले फलों के दिखाई देते ही मैं उस पर बेसब्री से टूट पड़ता हूं छोटे-छोटे फल जीभ के जरा-सा दबाव पर ही मुंह में घुल जाते हैं खाते-खाते जीभ लाल हो जाती है। कई बार कपड़ों पर भी दाग पड़ जाते हैं जिन्हें बितानू की माई छुड़ाती है।<br /><br /> ऐसे ही धीरे-धीरे तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारी दुनिया के समान्तर स्मृतियों की भी एक जीती-जागती दुनिया है जहां तुम बितानू, ओमप्रकाश और मछलियों की तलाश में भटकते हो। तुम मानते हो कि वहां एक सचमुच का स्कूल है जिसमें मिसिर मास्टर ओर बालगोविन्न मास्टर पढ़ाते हैं और जहां से तुम भागे हुए हो। तुम्हें पता नहीं कि कुएं की दुर्गन्ध शहतूतों में समा चुकी है इसीलिए तुम्हें अभी भी लगता है कि शहतूत दुनिया के सबसे स्वादिष्ट फल हैं।<br /> तुम महानगर में रहते हो। महानगर में आजकल तपती हुई गर्मी पड़ रही है। तुम कई दिनों से एक बाबू से मिलने जा रहे हो जिसने तुम्हारा काम लटका रखा है। धूप और गर्मी बर्दाश्त नहीं होती तो जल्दी पहुंचने के लिए अपनी जेब सहलाते हुए तुम रिक्शा करते हो। तुम ओमप्रकाश की याद में इतने डूबे हुए हो कि तुम्हें पता भी नहीं चल पाता कि जिस रिक्शे पर तुम बैठे हुए हो उसे ओमप्रकाश चला रहा है। रिक्शे से उतरकर तुम आॅफिस जाते हो तो तुम्हें पता चलता है कि जिस बाबू ने तुम्हारा काम रोक रखा है उसका तबादला हो गाया है और उसकी जगह पर अशोक कुमार निर्मल बैठा हुआ है। तुम उसे देखकर खुश हो जाते हो पर वह तुम्हारी यादों में इतना डूबा हुआ है कि तुम्हें पहचान ही नहीं पाता। तुम्हे लगता है कि यह दुनिया एक जंगल है। तब तुम तालाब खोजने लगते हो। तुम्हें तालाब नहीं मिलता, तुम्हें एक नल मिलता है। नल का पानी इतना गर्म है कि तुम्हारे हाथों पर छाले पड़ जाते हैं और तुम्हारा चेहरा शहतूतों की तरह काला पड़ जाता है। तुम्हें शहतूतों की याद आती है। तभी तुम देखते हो कि नल का पानी जहां जाकर इकट्ठा होता है उसके बगल में शहतूत का एक पेड़ है जो फलों से लदा हुआ है। तुम उसके नजदीक जाते हो तो पेड़ तुम्हें अपने घेरे में ले लेता है और तुम्हें छाँट-छाँटकर अपने सबसे मीठे फल देने लगता है। अब तुम बड़े हो गये हो। तुम फलों को घर लाओगे, उन्हें धोओगे तब खाओगे पर तुम ऐसा नहीं करते। पता नहीं एक बचपना तुम्हारे भीतर बचा हुआ है या पेड़ ही बेसब्र हो उठता है कि वह तुम्हारी अंजुरी शहतूतों से भर देता है। तुम एक साथ सारे शहतूत अपने मुंह में भर लेते हो। अचानक तुम्हें जोर की उबकाई आती है। तुम्हें लगता है कि तुमने अपने मुह में रोंयेदार गुजगुजे कीड़े भर लिये हैं। पेड़ तुम्हारा माथा सहलाना चाहता है पर तुम बाहर भागते हो। तुम फिर से नल पर जाओगे और कुल्ला करोगे और आज के बाद शहतूतों की तरफ पलटकर भी नहीं देखोगे। आगे हो सकता है कि तुम किसी ऐसे जंगल में जाकर बस जाओ जहां शहतूत क्या मछली, मेहंदी, इमली, बढ़हल या कमल जैसी चीजें सपनों में भी तुम तक न पहुँच सकें।<br /> मैं इसी बात से तो डरता हूँ।<br /><br /><span class="Apple-style-span" style="color:#666600;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">मनोज कुमार पाण्डेय</span></b></span>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-32299781822378897342009-07-27T16:25:00.001+05:302009-07-27T16:26:54.469+05:30नींद के बाहर- धीरेन्द्र अस्थाना की सबसे लम्बी कहानीइन दिनों हर माह हम वरिष्ठ कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना की कहानियाँ प्रकाशित कर चुके हैं। अब तक आप <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/05/us-dhoosar-sannate-mein.html">'उस धूसर सन्नाटे में'</a> और <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/06/us-raat-ki-gandh-story-dhirendra.html">'उस रात की गंध'</a> कहानियाँ पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए धीरेन्द्र अस्थाना की सबसे लम्बी कहानी जो एक समय में काफी चर्चित भी हुई थी।<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">नींद के बाहर</span></strong></center><br /><br />छह दिसंबर के आठ साल बाद, छह दिसंबर को ही, धनराज चौधरी की बाबरी मस्जिद भी ढह गई, लेकिन इस बार न कहीं दंगा हुआ न ही बम-विस्फोट। सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर धनराज चैधरी, जो लकदक दोस्तों की चकमक दुनिया में धनराज के नाम से मशहूर था, ने जेब से रूमाल निकालकर अपना चश्मा साफ किया, वापस आंखों पर चढ़ाया और खड़ा हो गया। ऑफिस से मिली हुई कार की चाबी और मोबाइल उसने पर्सनल डायरेक्टर को पकड़ाए और जाने के लिए मुड़ा।<br /><br />‘जस्ट ए मिनट।‘ पर्सनल डायरेक्टर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फीकी मुस्कान के साथ बोला, ‘ऑल द बेस्ट। यू नो वी ऑल आर इन द सेम बोट। जाना सभी को है। किसी को पहले, किसी को बाद में। मार्केट में सम्राट समूह का खाता बन्द हो रहा है।‘<br /><br />‘जी!‘ धनराज ने अस्फुट स्वरों में कहा और पर्सनल डायरेक्टर के केबिन से बाहर आ गया।<br /><br />यह तो बहुत भीषण चूतियापा हो गया गुरु। धनराज ने सोचा, अभी तो रिटायर होने में पूरे पंद्रह बरस बाकी हैं। वह सुस्त कदमों के साथ अपने केबिन में घुसा तो वहां सहायक कैशियर उसके इंतजार में था। <br /><br />‘सर, यह रहा आपके वी. आर. एस. का चेक।‘ सहायक कैशियर ने धनराज को उसका हिसाब समझाया, ‘दस वर्ष की नौकरी का कंपनसेशन बीस महीने की सेलरी चार लाख रुपये। पांच महीने की ग्रेच्युटी एक लाख रुपये। इनकम टैक्स एक लाख रुपये। यह रहा आपका चेक चार लाख रुपये। ओ.के. सर?‘<br /><br />‘कितने लोग इस स्कीम के तहत निकाले गए हैं मिस्टर सिन्हा?‘ धनराज ने पूछा। <br /><br />‘फिलहाल चालीस।‘ सहायक कैशियर ने बताया, ‘लेकिन मार्च तक साठ और जाएंगे।‘<br /><br />‘ओ. के. ऑल द बेस्ट।‘ धनराज हंसा। लेकिन सिन्हा के जाते ही उसे लगा उसके भीतर कहीं जोरदार दंगा हो गया है।<br /><br />चेक को लिफाफे में रख उसने ब्रीफकेस में डाला, दराजों से अपना छोटा-मोटा निजी सामान उठाया। ब्रीफकेस बंद कर बड़ी हसरत से अपने केबिन का मुआयना किया और बुझे मन से बाहर आ गया।<br /><br />ये ग्लोबलाइजेशन के उत्थान पर पहुंच रहे दिन थे। कंप्यूटर क्रांति घर कर चुकी थी। पूरी दुनिया एक गांव में बदल रही थी। गली-गली में साइबर कैफे खुल गए थे। जवान लड़के-लड़कियां नेट सर्फिंग के जरिये अपने जीवन साथी तलाश रहे थे। सौंदर्य प्रतियोगिता बाजार तय कर रहा था। विश्व सुंदरी का ताज हर वर्ष भारतीय लड़की के माथे पर दमकने पर मजबूर था, क्योंकि पूरी दुनिया की निगाहें अब भारतीय बाजार पर थीं। लगभग हर कंपनी में वी आर एस लागू कर कर्मचारियों को घर बिठाया जा रहा था। तमाम सरकारी उपक्रम निजी हाथों में जा रहे थे या जानेवाले थे। कोकाकोला और पेप्सी में जंग जारी थी। अपने जमाने के सुपरस्टार ने पूरे देश को विशाल जुआघर में बदल डाला था और तमाम टीवी चैनलों के दर्शक छीन लिए थे। वह देश के आम लोगों को करोड़पति बनाने पर तुला था और उस गेम शो से प्राप्त पारिश्रमिक से अपने सिर पर चढ़ा करोड़ों का कर्जा उतार रहा था। रितिक रोशन का खुशनुमा जमाना था। <br /><br />इन्हीं खुशनुमा दिनों में धनराज चैधरी पूरे पैंतालीस बरस की उम्र में सड़क पर आ गया था और टैक्सी के इंतजार में था।<br />बाहर सब कुछ पूर्ववत था। लोग-बाग सड़क पार कर रहे थे। डोसा-इडली, बड़ा-पाव खा रहे थे। बसें पकड़ रहे थे और घर जा रहे थे। नरीमन पॉइंट के समुद्र में रात चमक रही थी। ओबेराय होटल के टैरेस पर मखमली अंधेरा उतर रहा था। नरीमन पॉइंट की बिल्डिंगें सिर ताने खड़ी थीं। उसी नरीमन पॉइंट की अटलांटा बिल्डिंग के भीतर कुछ ही देर पहले धनराज की दुनिया ढहा दी गई थी और सब चुप थे-निर्वाक। <br /><br />चमकती हुई रात के उस नाचते हुए अंधेरे में धनराज की रीढ़ की हड्डी में एक तेज सिहरन-सी उठी। उसने टैक्सी की खिड़की का शीशा आधा गिरा दिया। समुद्री हवा का एक ठंडा टुकड़ा टैक्सी के भीतर आकर सिर उठाने लगा। धनराज को मलेरिया जैसी कंपकंपी अपने बदन पर रेंगती अनुभव हुई। यह कैसी कंपकंपी है, धनराज ने सोचा और ठंडी हवाओं को भीतर आने दिया। बाहर कई लड़कियां कम वस्त्रों में जॉगिंग कर रही थीं। <br /><br />माना कि वह दिसंबर की रात थी लेकिन वह मुंबई का दिसंबर था, जो दिल्ली की तरह कटखना नहीं होता। टैक्सी के बाहर मायावी और दिलकश मरीन ड्राइव पर वैभव की एक चमकदार धूल धारासार बरस रही थी। धनराज ने टैक्सी को ‘लोटस‘ की तरफ मुड़वा दिया। <br /><br />‘लोटस‘ में हमेशा की तरह शहर की सबसे सुंदर, सबसे जवान और सबसे उत्तेजक लड़कियां नाच रही थीं, अंडरवल्र्ड के सबसे बड़े डॉन के सबसे खतरनाक गुंडे उन लड़कियों की हिफाजत में चाकुओं की तरह तने थे। अपनी पसंदीदा मेज पर बैठते ही धनराज को याद आया कि अब वह सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर नहीं है और किसी बड़े अखबार के बड़े पत्रकार को कंपनी के हित में पटाने यहां नहीं आया है। अपनी पसंदीदा मेज और पसंदीदा लड़की को छूटी हुई जगह की तरह ताकते हुए वह ‘लोटस‘ से बाहर आ गया। एक समय था, जब महीने की बीस रातें धनराज ‘लोटस‘ में ही बिताता था-नींद के बावजूद।<br /><br />लेकिन आज धनराज अकेला था और नींद के बाहर था। पूरे दस वर्ष से धनराज नींद के एक तिलिस्मी बाजार में बैठा जाग रहा था। नींद के भीतर इस तिलिस्मी दुनिया में बड़े लोग, बड़े व्यापार, बड़ी पार्टियां, बड़ी सुंदरता और बड़ी मारकाट थी। इस दुनिया में बड़ी सफलता के साथ धनराज ने अपना होना सिद्ध किया हुआ था। इसीलिए वह समझ नहीं पा रहा था कि नींद के बाहर की जिस लगभग अजनबी हो चुकी दुनिया में उसे अचानक उठाकर फेंक दिया गया है, वहां वह खुद को कैसे साबित करेगा?<br /><br />‘लोटस‘ के बाहर बारिश हो रही थी, बेमौसम बरसात? धनराज ने सोचा और सिहर गया। उसने उस बारिश में विपत्तियों को बरसते देख लिया था।<br /><br />पैडर रोड की वाईन शॉप के किनारे टैक्सी रुकवाकर धनराज ने ड्राइवर को सौ का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘एक ओल्ड मौंक का क्वार्टर और बिसलरी की बॉटल पकड़ लो तो।‘ ड्राइवर ने बड़े अचरज के साथ धनराज को ताका तो धनराज के मुंह से ‘सॉरी‘ निकल गया। असल में वह फिर भूल गया था कि वह कंपनी की गाड़ी में, कंपनी के ड्राइवर के साथ नहीं, टैक्सी में बैठा है। खुद बाहर जाकर उसने अपना सामान लिया और वापस टैक्सी में आ बैठा। बिसलरी का थोड़ा पानी पीकर उसने रम का क्र्वाटर बचे हुए पानी में मिला दिया और एक चुस्की लेकर सिगरेट जला ली।<br /><br />सिद्धि विनायक मंदिर जा रहा था। धनराज ने गर्दन झुका दी। उसने तो गर्दन झुकाए-झुकाए ही काम किया था, तो फिर वी आर एस की गाज उसके सिर पर क्यों गिरी? बहुत मेहनत की थी धनराज ने सम्राट समूह में। सुबह आठ बजे तैयार होकर वह अपनी कार में बैठ जाता था और पौने दस तक दफ्तर ‘टच‘ कर लेता था। शाम सात बजे तक दफ्तर में रहने के बाद वह जन संपर्क अभियान पर निकलता था। रात दस-साढ़े दस पर घर के लिए रवाना होकर बारह-सवा बारह तक घर पहुंचता था। घर पर जाते ही वह खाना खाता था और सो जाता था। सुबह छह बजे उठकर फिर तैयार होने लगता था। घर, बाजार, कॉलोनी, बच्चा सब कुछ उसकी पत्नी सरिता ने संभाला हुआ था। <br /><br />तो फिर? धनराज ने सोचा और एक लंबा घूंट भरा, अब इसका वह क्या कर सकता था कि सम्राट समूह का एक महत्वाकांक्षी प्रोडक्ट ‘सम्राट नमक‘ बाजार में पिट गया। बाजार देखना तो मार्केटिंग का काम है। वह जो कर सकता था, उसने किया। पत्रकारों के एक दल को लेकर वह नमक का प्लांट दिखाने पालघर ले गया था। कई अखबारों ने उस नमक की तारीफ में लेख भी छापे थे। एक अखबार के पत्रकार को तो उसने पालघर के एक होटल में काॅलगर्ल भी मुहैया करवाई थी।<br />‘रीजेंसी‘ जा रहा था। इस होटल से वह सरिता के लिए पहाड़ी कबाब और बेटे के लिए ड्राईचिली पनीर पार्सल कराता था। जाने दो। धनराज ने सोचा और ‘रीजेंसी‘ को टैक्सी के भीतर से ही हाथ हिला दिया।<br /><br />मीरा-भायंदर रोड की एक सुनसान जगह पर टैक्सी रुकवाकर उसने पेशाब किया और खाली बोतलें झाड़ियों में फेंक दीं। दस मिनट के बाद टैक्सी उसके घर के नीचे थी। टैक्सीवाले को चार सौ रुपये देकर उसने सिगरेट सुलगा ली और घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। उसका फ्लैट पहले माले पर था। गेट के बाहर उसकी नेमप्लेट चमक रही थी। धनराज ने घंटी बजा दी, अपने विशेष अंदाज में। रात के दस बज रहे थे। <br /><br />‘इतनी जल्दी‘, सरिता ने दरवाजा खोलते ही पूछा। <br /><br />धनराज ने ब्रीफकेस मेज पर रखा और सोफे पर बैठकर सिगरेट एश ट्रे में मसल दी। फिर उसने चश्मा उतारा और तिपाई पर रख दिया। फिर वह घड़ी उतारने लगा।<br /><br />‘अरे? आज ड्राइवर ऊपर तक नहीं आया?‘ सरिता चैंक गई, ‘और मोबाइल किधर है, खो दिया क्या?‘<br /><br />धनराज दो-तीन मोबाइल खो चुका था और उसका ड्राइवर ब्रीफकेस उठाकर कमरे के भीतर तक आता था। एक गिलास पानी पीकर वह सुबह आने का समय पूछ कर तब जाता था।<br /><br />‘गाड़ी खराब है और मोबाइल दफ्तर में छूट गया।‘ धनराज झूठ बोल गया, ‘रोहित कहां है?‘ उसने बेटे की जानकारी ली।<br />‘रोहित इस समय तक कहां आता है? अभी तो ट्रेन में होगा। तुम आज जल्दी आ गए हो। सब ठीक तो है न?‘ सरिता आशंकित-सी हो गई।<br /><br />‘हां।‘ धनराज संक्षिप्त हो गया, ‘कुछ सलाद वगैरह मिलेगा?‘<br /><br />सरिता किचन में चली गई। धनराज ने अपनी बहुत बड़ी वाॅल यूनिट में बने छोटे-से बार को खोल अपने लिए रम का एक पैग बनाया और फ्रिज में से पानी निकालकर गिलास में मिला दिया। गिलास को तिपाई पर रखकर वह मुंह-हाथ धोने चला गया। तब तक सरिता एक प्लेट में चिकन के दो टुकड़े रख गई।<br /><br />धनराज ने गिलास हाथ में लिया और घूमकर पूरे घर का मुआयना-सा करने लगा। <br /><br />घर में टीवी था, वीसीआर था, फ्रिज था, म्यूजिक सिस्टम था, वाशिंग मंशीन थी, एसी था, सोफा था, वॉल यूनिट थी, डबल बेड था, डाइनिंग टेबल थी, ड्रेसिंग टेबल थी, सेंटर टेबल थी, वार्डरोब था, फोन था, कंप्यूटर था, इंटरनेट कनेक्शन था, प्रिंटर था, स्कैनर था, फैक्स मशीन थी, बर्तन थे, बिस्तर थे, कपड़े थे, बीवी थी, बेटा था और बीते दिनों की यादें थीं।<br /><br />और? और तुम्हें क्या चाहिए धनराज? धनराज ने सोचा और रम का बड़ा घूंट लिया। <br /><br />सरिता सलाद लेकर आई तो धनराज की आंखें नम थीं। तभी घंटी बजी, रोहित था। धनराज ने ध्यान से देखा, रोहित मूंछवाला होने के पायदान पर था। सुबह वह जा रहा होता था तो रोहित सोता होता था। रात को जब लौटता था तो रोहित सो चुका होता था। उसका वीकली ऑफ संडे होता था और रोहित शनिवार रात अपने दोस्तों के साथ वीकएंड की पार्टियों में चला जाता था। रोहित इतवार की रात दस-ग्यारह बजे खाना खाकर लौटता था, तब तक धनराज सो चुका होता था। इतवार को धनराज पूरे हफ्ते की नींद चुरा लेता था। <br /><br />‘पापा ऽऽ‘, रोहित धनराज से चिपट गया।<br /><br />‘बेटा ऽऽ‘, धनराज ने प्रश्न किया, ‘हमारा नमक क्यों पिट गया?‘<br /><br />‘पिट गया?‘ रोहित ने लापरवाही से कहा, फिर लापरवाही में थोड़ा-सा व्यंग्य मिलाकर बोला, ‘पिटना ही था। अपना सब कुछ पिटने ही वाला है।‘<br /><br />अरे बाप रे! धनराज चकित रह गया। ये स्साला तो खासा बड़ा और समझदार हो गया है।<br /><br />‘तेरे वेब मीडिया के क्या हाल हैं?‘ धनराज ने पिताओं जैसी उत्सुकता जताने की कोशिश की।<br /><br />अपने कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करने के बाद रोहित वेब मीडिया नाम की कंपनी में ट्रेनी ग्राफिक डिजाइनर हो गया था।<br /><br />‘उसको छोड़े तो तीन महीने हो गए पापा, आपको कुछ पता भी रहता है।‘ रोहित ने तनिक गर्व से बताया, ‘इन दिनों मैं एक अमेरिकी कंपनी में प्रोबेशन पर चल रहा हूं।‘<br /><br />‘अरे वाह!‘ धनराज थोड़ा मुदित हुआ, ‘पैसे?‘<br /><br />‘मिलते हैं न। प्रोबेशन तक छह हजार, उसके बाद आठ हजार लेकिन मैं चक्कर में हूं कि कहीं और निकल जाऊं।‘ रोहित मुस्कराया।<br /><br />‘लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी नौकरी बदलना क्यो?‘ धनराज चिंतित-सा हुआ। <br /><br />‘नौकरी नहीं पापा, जॉब...जॉब।‘ रोहित खिलखिलाने लगा, ‘हमारी जेनरेशन एक जगह बंधकर नहीं रहती आप लोगों की तरह...जहां ज्यादा पगार वहीं पर काम। हम प्रोफेशनल लोग हैं। हमें आपकी तरह थोड़े ही रहना है, साल में ढाई तीन सौ रुपये का एक इनक्रीमेंट...हमें एक साल में तीन हजार का इनक्रीमेंट चाहिए वरना तो अपने को परवड़ेगा नहीं।‘ रोहित तेजी से हिंदी, मराठी, अंग्रेजी में बोलकर बेडरूम में चला गया।<br /><br />बहुत दिनों या शायद महीनों या फिर सालों बाद तीनों एक साथ खाना खाने बैठे। रोहित अपनी कंपनी, अपने जाॅब, अपने नाम आनेवाली ई-मेल और अपनी गर्ल फ्रेंड्स की दुनिया में मगन था। जब वह चुप होता तो सरिता काॅलोनी में गुजरती अपनी दिनचर्या की गठरी खोल देती थी। धनराज को लगा, अपनी जा चुकी नौकरी की सूचना इस समय देना परिवार की खुशियों के ऊपर बम विस्फोट करने जैसा हो जाएगा। वह चुपचाप मां-बेटे के उल्लास के बीच भीगता रहा। <br />फिर हमेशा की तरह सुबह छह बजे का अलार्म लगाकर वह सोने चला गया। <br /><br />×××<br /><br />धनराज सोता ही रह जाता और चीखते हुए चारों तरफ के शोर में, अपनी नींद में ही बेआवाज मर जाता, अगर सम्राट समूह में मीडिया डायरेक्टर वाली उसकी नौकरी बनी रहती। <br /><br />बहुत-बहुत बुरे दिनों की बहुत बदहाल और कमजोर सीढ़ियों पर कदम जमा-जमाकर ऊपर चढ़ा था धनराज। उम्र के पैंतीस वर्ष उसने हालात से पिटते और सपना देखते हुए काटे थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की, देहरादून और फिर एकदम जोधपुर में उसका जीवन कटा था। और फिर एकाएक वह मुंबई आ गया था-सम्राट समूह में मीडिया मैनेजर होकर। दो साल के भीतर वह समूह का मीडिया डायरेक्टर हो गया था। एक सुखी जीवन उसका अंतिम सपना था। इस सुखी जीवन की गोद में पहुंचते ही वह प्राणपण से उसे संवारने और बटोरने में लग गया।<br /><br />सम्राट समूह ने उसे निचोड़ा भी बहुत, लेकिन इसका उसे कोई गिला नहीं रहा। वह अपनी नींद में यह सोचते हुए जीता रहा कि उसके सुख शाश्वत हैं। नींद से बाहर की एक बड़ी दुनिया से असंपृक्त वह घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की यात्रा में मुसलसल मुब्तिला रहा। वह यह याद ही नहीं रख पाया कि उसका एक अतीत भी है, जिसमें बहुत बुरे दिन रहते हैं। <br />इसीलिए नौकरी चले जाने के बाद जब नींद से बाहर की दुनिया से उसकी मुठभेड़ हुई तो वह हक्का-बक्का रह गया। वह सोचता था कि जिस कठिन जीवन को वह बहुत पीछे छोड़ आया है, उस जीवन से अब कम से कम उसका कोई लेन-देन बाकी नहीं रहा है। लेकिन यह लेन-देन न सिर्फ बाकी था, बल्कि चक्रवृद्धि ब्याज सहित उसके सिर पर सवार हो गया था। <br />इस ज्ञान ने धनराज की नींद उड़ा दी।<br /><br />सिलसिला यूं शुरू हुआ। <br />नौकरी जाने के अगले रोज धनराज रोज की तरह दफ्तर जाने के लिए तैयार हुआ और मीरा रोड स्टेशन पहुंचा। सुबह के साढ़े आठ बजे थे। टिकट खिड़की पर खड़ी लंबी कतारों को देख धनराज के पसीने छूट गए। आधा घंटा कतार में खड़े रहने के बाद उसने चर्चगेट का द्वितीय श्रेणी का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर आ गया। उसका कलेजा थरथरा रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि प्लेटफार्म पर जो भीड़ है, वह उसे मधुमक्खियों के छत्ते सरीखी क्यों लग रही है? इस छत्ते में धनराज ने सिर्फ दो काम किए। चर्चगेट ले जानेवाली ट्रेन के करीब पहुंचा और धक्के मार-मारकर दूर धकेल दिया गया। लोग दरवाजों पर ही नहीं, खिड़कियों पर भी लटके हुए थे। एक घंटे के भीतर सात ट्रेनें निकल गईं और धनराज किसी भी ट्रेन में नहीं चढ़ पाया। असल में धनराज को लोकल ट्रेन का अभ्यास ही नहीं था। आखिरकार जब ट्रेन पकड़ने के चक्कर में वह पिट-पिटकर अधमरा हो गया तो मुचड़े हुए कपड़ों, टूटे हुए जिस्म और गिर चुके महंगे चश्मे का गम संभाले खराम-खरामा चलता हुआ अपने घर लौट आया। <br /><br />घर पर रोहित अपने दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा था। सरिता रोहित का टिफिन तैयार कर रही थी। <br /><br />धनराज को वापस घर आया देख दोनों ने एक साथ पूछा, ‘क्या हुआ?‘ <br /><br />धनराज खिसिया गया। फिर उसने लगभग रुआंसे स्वर में बताया कि लोकल में तो वह चढ़ ही नहीं पाया, उसने अपना गोल्डन फ्रेम का चश्मा भी गंवा दिया है। <br /><br />रोहित हा...हा...कर हंसने लगा, ‘मीरा रोड से कैसे चढ़ोगे पापा? मीरा रोड से विरार जाने का, फिर वहां से बननेवाली ट्रेन में चढ़कर आने का। क्या समझे?‘<br /><br />धनराज कुछ नहीं समझा।<br /><br />फिर सरिता ने चकित होकर पूछा, ‘मगर गाड़ी खराब होने पर तो तुम टैक्सी से जाते हो...आज लोकल की सनक किसलिए?‘ इसके बाद उसने धनराज को याद दिलाया कि उसके चश्मे का फ्रेम दो हजार का था।<br /><br />इस बीच रोहित ‘बाय‘ बोलकर निकलने लगा तो धनराज ने पीछे से पुकार कर पूछा, ‘अरे, तू कैसे जाएगा?‘<br /><br />‘पापा, मैं रोज ट्रेन में ही जाता हूं।‘ रोहित फर्राटे से निकल गया। <br /><br />अरे? धनराज विस्मित रह गया।<br /><br />‘अब बताओ, चक्कर क्या है?‘ सरिता उसके लिए एक कप चाय ले आई और उसके सामने हेडमास्टर की-सी मुद्रा में खड़ी हो गई। <br /><br />‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। <br /><br />‘तो इसमें शहीद होने की क्या बात? क्या यह पहली बार हुआ है? सम्राट समूह से पहले भी तुम्हारी नौकरियां आती-जाती रही हैं। तब तो हम इतने अच्छे दिनों में भी नहीं रहते थे।‘ सरिता ने उसे ढांढस बंधाया तो धनराज विस्मित रह गया। <br />फिर कई दिनों तक धनराज विस्मित ही होता रहा।<br /><br />उसने पाया कि हर समय व्यस्त रहनेवाला उसका फोन मृतकों की तरह दुनिया से बाहर चला गया है। वह रिसीवर उठाकर देखता तो डायल टोन मौजूद मिलती। एक बार उसने अपने एक खास दोस्त अश्विनी पाराशर को फोन किया। अश्विनी की सेक्रेटरी ने पूछा कि वह कौन बोल रहा है, कहां से बोल रहा है और उसे किस बारे में बात करनी है? धनराज ने चिढ़कर कहा कि वह अश्विनी का दोस्त है तो सेक्रेटरी ने विनम्रता के साथ बताया कि साहब मीटिंग में हैं, वह अपना फोन नंबर बता दे, धनराज ने नंबर बताकर फोन रख दिया और अश्विनी के फोन का इंतजार करने लगा। मगर अश्विनी का फोन नहीं आया। <br /><br />उसने एक और दोस्त को फोन किया। वह भी मीटिंग में था। तीसरे दोस्त की आन्सरिंग मशीन पर उसने मैसेज रिकॉर्ड कराया, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। <br /><br />‘बिल और ब्लडप्रेशर मत बढ़ाओ।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘सम्राट समूह के दिनों में तुम भी या तो मीटिंग में होते थे या टाॅयलेट में।‘<br /><br />‘पापा, जो सामने है, उसे एक्सेप्ट करो।‘ रोहित ने सलाह दी, ‘आप ही तो बताते थे कि आपने बहुत बुरे दिन देखे हैं। ये तो अच्छे दिन हैं, एनज्वॉय करो।‘ <br /><br />एनज्वॉय? अच्छे दिन? लेकिन कितने दिन? पांच-सात लाख रुपयों के सहारे कितने दिन टिकेंगे अच्छे दिन? धनराज ने सोचा और चिंतित हो गया। <br /><br />सरिता ने धनराज की दिनचर्या बता दी। सुबह छह बजे जागकर चाय पीना, फ्रेश होना और एक घंटे तक पार्क में टहलना। पार्क से लौटकर अखबार पढ़ना और नाश्ता लेना। नाश्ते के बाद नहाना-धोना और भायंदर की लायब्रेरी जाकर किताबें पढ़ने की कोशिश करना, लौटकर खाना खाना और सो जाना। शाम को उठकर चाय पीना और मार्केटिंग करना। लौटकर टीवी देखना, रात का खाना खाना और सो जाना। किताबों की सूची भी सरिता ने ही तैयार कर दी।<br /><br />धनराज के माथे पर त्यौरियां चढ़ गईं। वह चिढ़कर बोला, ‘मैं क्या रिटायर हो गया हूं?‘<br /><br />‘रिटायर हुए नहीं हो, रिटायर कर दिए गए हो।‘ रोहित ने समझाया, ‘आप तो पैंतालीस वर्ष के हो। इस काॅलोनी में पैंतीस-छत्तीस के आदमी भी बेकार घूमते हैं। उनकी भी कंपनियां बंद हो गई हैं।‘<br /><br />चिंतित और बदहवास धनराज ने इसके बावजूद दोस्तों की दुनिया पर निगाह डालनी बंद नहीं की। लगातार निराश होने के बाद अंततः उसने स्वीकार कर लिया कि वह नींद के बाहर का आदमी है और उसकी आवाज नींद के भीतर की दुनिया से टकराकर लौटने को अभिशप्त है। <br /><br />नींद के भीतर की दुनिया बहुत विराट थी। उस नींद के भीतर एक महानींद थी। उस महानींद की दुनिया महाविराट थी। उस दुनिया में नींद के बाहर पड़े हुए लोगों का प्रवेश वर्जित था। उस दुनिया में कोई किसी का दोस्त नहीं था। वहां संबंध नहीं कारोबार टिकता था। वहां एक महाबाजार लगा हुआ था, जिसमें लोग या तो उपभोक्ता थे या विक्रेता। इस दुनिया के सारे रास्ते बाजार की तरफ जाते थे। और इस बाजार में धनराज की कोई जरूरत नहीं थी। <br />धनराज चिंतित नहीं, विचलित हुआ।<br /><br />कॉलोनी के लोगों से उसका दुआ सलाम होने लगा था। <br />तभी एक हादसा हुआ।<br />सकीना नाम की एक जवान लड़की ने चूहों को मारने वाला जहर ‘रैटोल‘ खाकर आत्महत्या कर ली।<br />सकीना उस कॉलोनी में रहनेवाले एक टेलर याकूब की इकलौती बेटी थी और बारहवीं में पढ़ती थी। सरिता से बहुत हिली-मिली थी सकीना इसलिए इस मौत से सरिता अंदर तक हिल गई। अस्पताल से लौटकर बताया उसने, वह कुछ बताना चाहती थी, लेकिन बता नहीं पाई। शायद उस लड़की को उसके कॉलेज के कुछ गुंडे लड़कों का गैंग परेशान कर रहा था। <br /><br />‘तुमको याद नहीं है।‘ बताया सरिता ने, ‘ये लोग चारकोप में भी हमारे पड़ोसी थे, इसके पापा की वहां भी मार्केट में दर्जी की दुकान थी। दिसंबर के दंगों में उनका घर और दुकान जला दिए गए थे।‘<br /><br />‘अरे?‘ धनराज चैंक गया, ‘बेचारा उस बस्ती में भी बरबाद हुआ और इस कॉलोनी में भी।‘<br /><br />धनराज को याद आया।<br />दिसंबर के दंगोंवाले दिनों में वह भी कांदिवली की एक निम्न मध्यवर्गीय बस्ती चारकोप में किराए पर रहता था। वह बुरे दिनों से अच्छे दिनों में जाने का संक्रमण काल था।<br /><br />‘इसमें कॉलोनी का क्या दोष है?‘ सरिता तुनक गई, ‘पूरी कॉलोनी के लोग अस्पताल में हैं। लाश को लेकर आ रहे हैं।‘<br /><br />धनराज ने छह दिसंबर में जाकर देखा-रात के दस बजे थे। बंबई ने अभी जागने के लिए अंगड़ाई ली थी। धनराज का डाॅक्टर दोस्त जयेश और उसकी खूबसूरत युवा पत्नी सोनाली रात भर रुकने का कार्यक्रम बनाकर धनराज के घर आए थे। सरिता ने दहीवाला चिकन बनाया था और मछलियां फ्राई की थीं। उसका बेटा रोहित अपने एक मुस्लिम दोस्त के घर मालवणी गया हुआ था और रात को वहीं रुकनेवाला था। <br /><br />शराब पीते हुए और मछलियां खाते हुए धनराज ने टीवी के पर्दे पर देखा-बंबई से हजारों किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर में एक मस्जिद गिराई जा रही थी। धनराज डर गया। गिलास समेटकर वह अस्फुट स्वरों में बोला, ‘गुरु निकल लो। तुम्हारे साथ एक सुंदर औरत है...बेहतर होगा कि तुरंत निकल जाओ।‘<br /><br />छह दिसंबर की उस रात डॉक्टर दंपत्ति चारकोप से चार बंगला अपने घर सुरक्षित पहुंच गए और मालवणी की मुस्लिम बस्ती में गया धनराज का बेटा रोहित भी घर लौट आया। इसके बाद सड़कों पर एक वहशी प्रेत अपनी बांहें फैलाए हा हा हू हू करता हुआ कहर ढाने निकला।<br /><br />अगली सुबह या शायद उससे अगली सुबह धनराज नींद में था कि सरिता ने उसे झकझोर दिया, ‘उठो, ऐसे कैसे सो सकते हो तुम? देखो, अपने जले हुए घर की दुर्दशा देखने आई नजमा को बस्ती के कुछ आवारा लड़कों ने पकड़ लिया है। कुछ भी हो, ऑफ्टर आल नजमा हमारे रोहित की टीचर है। उसे बचाओ।‘ <br /><br />‘पुलिस? पुलिस कहां है?‘ धनराज बड़बड़ाया था और अपनी बगल में सोए रोहित पर हाथ फिराकर फिर नींद में चला गया था।<br /><br />पुलिस कस्टडी में जब तक नजमा पहुंची तब तक उसकी छातियों से गालों तक के हिस्से में पचपन घाव दर्ज हो चुके थे, और उसकी जांघों के बीच से रक्त का परनाला बह रहा था।<br /><br />धनराज उस दिन दफ्तर नहीं जा पाया। तब तक उसे कंपनी की कार नहीं मिली थी। कांदिवली रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए भी ऑटो उपलब्ध नहीं था। हालांकि ऑटो की तलाश में वह लगभग एक किलोमीटर दूर मछली मार्केट तक पैदल चला गया था। <br /><br />मछली मार्केट श्मशान की तरह भुतैला और डरावना था। मछली, मुर्गे और मटन बेचनेवाले के बाकड़े और दड़बे जले पड़े थे। लकी ड्राईक्लीनर, जहां धनराज के कपड़े धुलते और प्रेस होते थे, नष्ट हो चुका था। उसके जले हुए कपड़ों की ढेर सारी राख के बीच से एक जख्मी हाहाकार झांक रहा था। लकी ड्राईक्लीनर का मालिक अनवर अपनी पत्नी और दो बच्चों सहित खुली सड़क पर तंदूरी चिकन की तरह भून दिया गया था। <br /><br />सहमा-थका सा धनराज घर वापस लौटा तो सरिता सिर ढांप कर लेटी थी और फोन घनघना रहा था, दूसरी तरफ जोगेश्वरी में रहने वाला उसका एक कांट्रेक्टर दोस्त साजिद था। वह पूछ रहा था, ‘क्यों मियां? हमारी ही मस्जिद गिरा दी और हमको ही मारा-काटा जा रहा है। यह लोकतंत्र है या दादागिरी?‘<br /><br />‘मुझे इस पचड़े में मत फंसाओ यार।‘ धनराज ने हताश होकर कहा था और फोन रख दिया था। तभी दरवाजे की घंटी बजी थी।<br /><br />दरवाजे पर कॉलोनी के कुछ लोग थे। उनके पीछे लंपट किस्म के कुछ छोकरों का समूह था। धनराज उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। वह आधी रात वाली दुनिया का नागरिक था, उस दुनिया का, जिसमें पड़ोसियों से परिचय रखने की रस्म नहीं होती। शोर जैसा सुनकर सरिता भी दरवाजे तक चली आई थी। सरिता को देखते ही भीड़ का चेहरा खिल उठा था। उनमें से तीन-चार लोग ‘भाभी जी नमस्ते‘ कहते हुए कमरे के भीतर चले आए। बाकी दरवाजे पर खड़े-खड़े कमरे के भीतर रखे सामान का मुआयना करने लगे। इस भीड़ के कुछ चहरों को पिछली ही रात धनराज ने गली के कोने पर रहनेवाले डॉ. हबीबुल्लाह का सामान उठाकर भागते देखा था। <br /><br />‘आज रात बहुत चौकस रहना है भाभीजी।‘ उनमें से एक बहुत रहस्यमय अंदाज में बोला था, ‘हमें पक्की खबर मिली है कि नागपाड़ा से एक ट्रक भरकर लोग इस तरफ आएंगे... हम भी तैयार हैं लेकिन...‘<br /><br />‘हमें क्या करना होगा?‘ सरिता घबराई-सी आवाज में बोली थी। <br /><br />‘आपको क्या करना है, बस जागते रहना है। रात को कोई लड़का पुलिस से बचकर भागता हुआ आए तो उसे छुपा लेना है...हमारा कोड वर्ड है भालू आया। वैसे हमारे लड़के तो रात भर जागेंगे हीं...‘ दूसरे ने विस्तार से समझाया था फिर मुस्कराते हुए बोला था, ‘लड़कों का जागरण चन्दा तो मिलेगा न?‘<br /><br />‘हां, हां।‘ सरिता तुरंत भीतर गई और सौ-सौ के दो नोट लाकर बोली, ‘हम लड़ नहीं सकते...यही हमारा योगदान है।‘<br />वे शोर मचाते हुए लौट गए।<br /><br />रात की शराब का चंदा बटोरा जा रहा था। शायद शराब पीने के बाद जिस्मों पर घाव बनाने में ज्यादा मजा आता हो या लूट-मार करने की अतिरिक्त ताकत मिलती हो।<br /><br />उनके जाते ही धनराज बिफर उठा था, ‘यह कैसा तमाशा है? कैसे कैसे लुच्चों से संबंध रखती हो तुम?‘<br /><br />‘लुच्चे नहीं हैं ये।‘ सरिता ने उल्टा उसे ही डांट दिया था, ‘यही लोग छह दिसंबर की रात तुम्हारे बेटे को मालवणी से सुरक्षित निकाल लाए थे...कुछ मालूम भी है तुम्हें, मालवणी में हमारे कितने लोग काट दिए गए...उन्होंने लोगों की पैंटें उतरवाईं, चेक किया और जितने भी हमारे लोग थे, सबको गाजर-मूली की तरह काट डाला।‘ सरिता के चेहरे पर दहशत और क्रोध एक साथ बरस था, ‘तुम ला सकते थे अपने बेटे को वहां से?‘<br /><br />धनराज को आश्चर्य हुआ। क्या यह वही सरिता है, जो नजमा को बचा लेने की पवित्र करुणा से भरी हुई थी। और तब उसे अपने बेटे रोहित का खयाल आया।<br /><br />‘रोहित को मैंने अपनी मम्मी के घर भेज दिया है।‘ सरिता ने जानकारी दी। <br /><br />सरिता की मां कांदिवली में ही रहती थी, लेकिन फ्लैट में। दंगों में फ्लैट अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते हैं। ठीक उसी समय धनराज के मन में यह इच्छा जिद की तरह उठी थी कि कैसे भी करके अपना एक फ्लैट खरीदना है।<br /><br />नागपाड़ा से तो कोई ट्रक नहीं आया, लेकिन उसी रात बस्ती के बचे हुए बंद घरों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। उन जलने वाले घरों में एक घर सकीना का भी था। <br /><br />सकीना के जनाजे में धनराज भी शामिल हुआ।<br />जनाजे में सकीना के बाप याकूब के अलावा सब के सब हिंदू थे। यह गणित धनराज को समझ नहीं आया। जो लोग चारकोप में सकीना का घर जला रहे थे, वो और जो लोग सकीना के जनाजे में शामिल हैं वो, दोनों की जात में क्या फर्क है?<br /><br />‘क्या धनराज साब।‘ रास्ते में कॉलोनी के टीएल प्रसाद ने पूछा, ‘सुना है, आपकी नौकरी चली गई?‘<br /><br />‘हां, चली गई है।‘ धनराज ने रुखे लहजे में जवाब दिया। <br /><br />‘अब क्या करेंगे?‘<br /><br />‘बड़ा-पाव का ठेला लगाऊंगा।‘ धनराज इतने ठंडे स्वर में बोला कि प्रसाद दूसरे व्यक्ति के साथ लग गया, प्रसाद एक मल्टी नेशनल कंपनी में टीवी इंजीनियर था।<br /><br />लौटते समय बूंदा-बांदी होने लगी। धनराज याकूब की बगल में आ गया। <br /><br />‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने सहानुभूति से पूछा।<br /><br />‘हैदराबाद चला जाऊंगा।‘ याकूब ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, ‘वैसे भी यहां अकेला रहकर क्या करूंगा। हैदराबाद में मामू हैं, पापा हैं और तीसरी बार बर्बाद होने की मुझमें ताकत भी नहीं।‘ याकूब बाकायदा सिसकने लगा, ‘इस बार तो मुझे मेरे लोगों ने बर्बाद किया है।‘<br /><br />‘मतलब?‘ धनराज चैंक गया।<br /><br />‘कॉलेज के जिन चार लड़कों ने सकीना की इज्जत लूटी है, वे हमारी ही जात के हैं।‘ याकूब ने रहस्योद्घाटन-सा किया तो धनराज थर्रा गया।<br /><br />‘तो तुम पुलिस में क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें सकीना ने बताया था यह सब?‘ धनराज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।<br /><br />‘बिन मां की बच्ची और किसे बताती?‘ याकूब ने हिचकी ली, ‘मैं एक गरीब दर्जी...कौन सुनेगा मेरी? वे चारों लड़के नेताओं के शहजादे हैं...सकीना बताती रहती थी उनकी बदमाशियों के बारे में... पर मैं सोचता था कि किसी तरह वह यहां अपनी बारहवीं पास कर ले तो उसे लेकर हैदराबाद चला जाऊं...क्या पता था कि इतनी जल्दी ऐसा हो जाएगा।‘<br /><br />‘हे भगवान!‘ धनराज का दिमाग कलाबाजियां खाने लगा, ‘ये किस दुनिया में आ गया हूं मैं?‘ फिर वह बहुत उदास हो गया।<br /><br />×××<br /><br />उदासी के उन्हीं दिनों में जोधपुर से धनराज का छोटा भाई बिना पूर्व सूचना के अचानक उसके घर आया-पहली बार।<br />धनराज बहुत खुश हुआ, लेकिन वापस उदास हो गया। <br />छोटा भाई उससे पांच साल छोटा था, लेकिन उसके सिर के ज्यादातर बाल उड़ गए थे। बचे हुए बालों को सफेदी खा गई थी। उसके गाल पिचके हुए थे और वह थोड़ा झुककर चलता था।<br /><br />‘दस साल बाद मिल रहे हैं हम।‘ धनराज ने भाई को गले से लगा लिया। ‘लेकिन ये क्या हालत बना ली है तूने?‘<br /><br />‘कोई नहीं बनना चाहता ऐसा!‘ धनराज का छोटा भाई राकेश चौधरी हंसा, एक विषादग्रस्त हंसी, ‘आपने भी कहां सुध ली हमारी...केवल अड़तीस सौ रुपये की नौकरी में अपने बीवी-बच्चों के साथ मां, भाई और बहन को पालता रहा हूं मैं। ऐसा तो होना ही था।‘ भाई धनराज के गले से अलग होकर बोला और फ्लैट में बसे ऐश्वर्य को ताकने लगा।<br /><br />‘मैं तो अभी भी नहीं आता...‘ भाई ने गर्दन झुका ली, ‘लेकिन मां ने जबरन भेज दिया। बोली अगर धनराज अपने फर्ज भुला बैठा है तो क्या? बंबई जा और बहन का हक छीनकर ला।‘<br /><br />‘मतलब?‘ धनराज सन्न रह गया, ‘तू यहां लड़ाई-झगड़ा करने आया है?‘<br /><br />‘नहीं भाई साहब। बिल्कुल नहीं। मां की भाषा है वो। एक थक चुकी मां की भाषा। आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी, जो इन दस वर्षों में चैबीस बरस की हो गई है। उसकी शादी करनी है। मैंने एक लड़का देखा है।‘<br /><br />‘चैबीस बरस की?‘ धनराज सोफे पर ढह गया।<br /><br />'आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी।‘ एक हथौड़ा उठा और धनराज की खोपड़ी पर बजा। उसे याद आया-हर साल राखी पर एक मुड़ा-तुड़ा लिफाफा आता था जोधपुर से, बिला नागा, जिसका जवाब उसने कभी नहीं दिया। बारह बजकर पांच मिनट पर एक फोन आता था जोधपुर से ही, उसके जन्म दिन पर, उसके दूसरे भाई बबलू का। तीन-चार साल बाद वह फोन आना भी बंद हो गया। <br /><br />‘मैं रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हूं, लेकिन मेरे अपने घर में फ्रिज नहीं है।‘ भाई ने भाभी को बताया और हंसने लगा।<br />अपराध-बोध के बीच टहलती सरिता ने देवर के लिए दहीवाला चिकन बनाया और धनराज ने रम की बोतल खोली, ‘पीता है न?‘<br /><br />‘मुफ्त की मिल जाए तो।‘ भाई फिर हंसने लगा।<br />आधी रात बीतने तक कुछ-कुछ हताशा, कुछ-कुछ क्रोध और कुछ-कुछ गर्व के साथ रोकश चैधरी बीते हुए दस वर्षों में खड़े अपने संघर्षों के बारे में बताता रहा। धनराज और सरिता किसी अपराधी की तरह सब सुनते रहे। <br /><br />‘बबलू क्या करता है?‘ बीच बहस में धनराज को बबलू याद आ गया। <br /><br />‘वो गुंडा बन गया है।‘ राकेश चैधरी ने सूचना दी। <br /><br />‘क्या बात कर रहा है?‘ धनराज उत्तेजित हो गया, ‘गुंडा मतलब?‘<br /><br />‘क्या मालूम? उसके कुछ दोस्त लोग ही ऐसा बताते हैं। पता नहीं जोधपुर से बाहर कहां-कहां जाता रहता है। दो-एक बार मैंने उसकी अटैची में रिवॉल्वर देखी तो डर गया। सीधे मुंह बात भी कहां करता है?‘ राकेश के चेहरे पर पुनः बीता हुआ दुःख उतर आया।<br /><br />‘अरे?‘ धनराज के दुःख बढ़ते ही जा रहे थे।<br /><br />‘पूरे चार साल इंतजार किया उसने आपका, फिर अंधेरी गलियों में उतर गया। तीन साल से तो अपने घर को पूरी तरह छोड़ दिया है। कभी-कभी ही आता है। अपना एक कांटेक्ट नंबर दिया है उसने मां को। वहां मैसेज देने पर उसे मिल जाता है।‘ राकेश चैधरी ने अपना गिलास उलटा कर दिया।<br /><br />‘क्या नंबर है उसका?‘ धनराज ने पूछा। <br /><br />‘वो भी बस मां को ही पता है। कभी फोन करना हो तो मां ही करती है।‘<br />धनराज को याद आया। उसने घर छोड़ते समय बबलू से वादा किया था कि बंबई में सैटिल होते ही वह उसे बंबई बुला लेगा और फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने का मौका देगा। बबलू को नाटक वगैरह करने का शौक था और दस साल पहले वह बीस वर्ष का था।<br /><br />‘मैं तो बहुत बुरा आदमी निकला।‘ बिस्तर पर लेटते ही धनराज के दुखों में नये आयाम जुड़ने लगे।<br /><br />×××<br /><br />उस रात बहुत-बहुत दिनों के बाद धनराज अपने कठिन दिनों में लौटा। <br />वहां एक घर था। छोटा-सा दो कमरों का घर, जो पिता के आखिरी अरमान और आखिरी सामान की तरह बचा रह गया था। इस मकान के बन जाने के कुछ ही समय बाद बीच नौकरी में ही पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु से एक-दो महीने पहले ही धनराज देहरादून में अपनी नौकरी गंवाकर सरिता और छोटे रोहित के साथ जोधपुर बसने पहुंचा था, पिता के ही घर में। राकेश उन दिनों शहर की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान में रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक के रूप में लगा हुआ था। उसी दौलत इलेक्ट्रॉनिक्स में धनराज भी बतौर चीफ कैशियर नियुक्त हुआ। पिता की मृत्यु हुई तो धनराज ने भाग-दौड़ करके राकेश को पिता के बदले उन्हीं के दफ्तर में लगवा दिया। पूरा परिवार प्रसन्न था कि घर का एक सदस्य सरकारी मुलाजिम हुआ। सरिता को एक छोटे-से स्कूल में पढ़ाने का काम मिला हुआ था। छोटी-सी ही सही लेकिन एक बंधी हुई राशि मां को पेंशन के रूप में मिलने लगी थी। इन्हीं दिनों में जीते हुए धनराज पिता को कृतज्ञता की तरह याद करता था कि उन्होंने एक घर बनवा दिया था, वरना तो पूरा कुनबा सड़क पर ही आ जाता। जैसे-तैसे समय बीत रहा था।<br /><br />उन्हीं दिनों बंबई जाते रहने वाले धनराज के एक दोस्त किशोर ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह पच्चीस हजार खर्च करे तो किशोर उसे बंबई के सम्राट समूह में घुसवा सकता है। सम्राट समूह बंबई की नामी कंपनी थी। प्रस्ताव खासा आकर्षक था। यह प्रस्ताव धनराज के स्वप्नों को पंख देता था, लेकिन पच्चीस हजार बड़ी राशि थी। धनराज को लगा कि वह जोधपुर में ही सड़ जाएगा। उन दिनों सबके पैसे मां के पास जाते थे- धनराज के, राकेश के, सरिता के, पेंशन के। उस सामूहिक आय से कुनबा चलता था। साझे दुखों और साझे सुखों का आत्मीय जमाना था। मां को भनक मिली तो उसने अपना मंगल सूत्र बेच दिया। सरिता ने भी अपने कड़े उतार दिए। पांच हजार रुपये राकेश ने भी मिलाए।<br />और इस तरह धनराज बंबई आ पहुंचा। तब तक राकेश की शादी नहीं हुई थी।<br /><br />किशोर ने उस पैसे का क्या किया, यह धनराज नहीं जानता। उसे बस इतना याद है कि किशोर ने उसे सम्राट समूह के पर्सनल डायरेक्टर से मिलवाया। डायरेक्टर ने उससे एक एप्लीकेशन ली, बायोडाटा के साथ और सातवें दिन वह चकित-मुदित आंखों से अपने एपाइंटमेंट लेटर को देख रहा था। छह महीने के प्रोबेशन पीरियड के साथ धनराज चैधरी सम्राट समूह का मीडिया मैनेजर हो गया था।<br /><br />बाद की सफलताएं धनराज ने खुद अर्जित की थीं। <br />इसके बाद धनराज आगे नहीं सोच पाया। कमरे में उसके खर्राटे गूंजने लगे थे। <br />सुबह राकेश चैधरी ने बताया, ‘मैं कल तीन बजे दोपहर की ट्रेन से लौट जाऊंगा।‘<br />‘इतनी जल्दी?‘ सरिता ने टोका, ‘दो चार दिन मुंबई तो घूम लेते।‘<br />‘घूमने की अय्याशी मेरे भाग्य में नहीं है भाभी।‘ राकेश बोला, ‘मैं सरकारी नौकरी में जरूर हूं, लेकिन मेरा काम ऐसा है कि ज्यादा छुट्टियां नहीं मिलतीं। मुझे सैनिक अधिकारियों के घर फ्रिज ठीक करने जाना होता है न!‘ <br />‘आपको मां का मंगलसूत्र लौटाना है।‘ अचानक राकेश ने याद दिलाया तो धनराज हड़बड़ा गया।<br />‘शादी डेढ़ लाख में हो रही है।‘ राकेश ने ब्यौरे देने शुरू किए, ‘ममता की शादी में पचास हजार मैं लगा रहा हूं। पच्चीस हजार बबलू भी देगा। बाकी पिचहत्तर हजार रुपये आपको देने हैं।‘<br />‘और ममता के गहने?‘ सरिता ने पूछा।<br />‘दस साल पहले मां का मंगल सूत्र दस हजार का था, ऐसा मां ने बताया है।‘ राकेश ने सूचना दी, ‘बाकी आप लोगों की श्रद्धा, मैं तो पचास हजार भी कर्जे पर उठा रहा हूं। मैंने दस वर्ष तक सबको पाला है। इसके बाद मेरा दम निकल जाएगा।‘ राकेश ने बेचारगी से कहा, ‘मेरी भी दो बेटियां हैं।‘<br />हड़बड़ाए हुए धनराज चैधरी ने बड़ी कातर दृष्टि से सरिता को देखा। सरिता ने आंख के इशारे से कहा, हां कह दो।<br />‘ठीक है।‘ धनराज ने एक लंबी सांस छोड़ी, ‘मां के मंगलसूत्र को जाने दो। ममता के लिए हाथ, कान और गले के गहने हम देंगे। पिचहत्तर हजार का चैक चलेगा?‘<br />‘हां।‘ राकेश ने राहत की सांस ली और सोचा, इतना बुरा भी नहीं है उसका भाई। राकेश को उम्मीद नहीं थी कि भाई इतनी आसानी से हां कर देगा। <br />‘अब मैं भी तुझे एक खबर दे ही दूं।‘ धनराज ने मुस्कराने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘मेरी नौकरी छूट गई है।‘<br />‘यह तो अच्छी खबर नहीं है। पर क्या कर सकते हैं?‘ राकेश को सचमुच दुःख हुआ।<br />थोड़ी ही देर में दोस्तों के साथ वीकएंड मनाकर रोहित भी घर आ गया और इतने वर्षों के बाद अपने चच्चू को देख उछल पड़ा। <br />‘अबे, तू तो बहुत बड़ा हो गया।‘ राकेश ने रोहित को गले लगा लिया, ‘इतना बड़ा भतीजा भी चच्चू को चिट्ठी नहीं लिखता।‘ राकेश ने उलाहना दिया।<br />‘चिट्ठी का जमाना चला गया चच्चू। तू अपना ई-मेल एड्रेस बना ले फिर देख मैं तुझे रोज एक ई-मेल करूंगा।‘ रोहित ने राकेश के उलाहने को मजाक में बदल दिया। फिर वह अपने चच्चू को लेकर बिल्डिंग के टैरेस पर चला गया।<br />राकेश को विदा करने स्टेशन तक रोहित ही गया। रोहित बहुत खुश था कि ममता बुआ की शादी में जोधपुर जाएगा। चच्चू की शादी में भी वह जोधपुर नहीं गया था, क्योंकि उन दिनों धनराज की सम्राट समूह में नयी-नयी नौकरी लगी थी और वह खुद इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अकेले ही जोधपुर चला जाता। धनराज उन दिनों सम्राट समूह में दिन-रात एक किए हुए था। उसे समूह में खुद को प्रमाणित करना था। <br />‘खुद को प्रमाणित करते-करते तुम चूतिया बन गए गुरु।‘ धनराज ने सोचा और नम आंखों के साथ भाई को विदा किया। <br />उस रात देर रात तक नींद नहीं आई।<br /><br />दो<br /><br />पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों नींद नहीं आती। देर रात तक वह अपनी विशाल कॉलोनी में जहां-तहां घूमता रहता। पहले जीवन नाक की सीध में चलता था, इसलिए वह काॅलोनी तो क्या अपनी सोसायटी तक के लोगों से अपरिचित था, मगर अब तो वह पूरी कॉलोनी के ही रहस्यों से दो-चार होने लगा था। <br />पता नहीं क्या सोचकर बिल्डर ने कॉलोनी का नाम गोल्डन नेस्ट रखा था। डाल-डाल और पात-पात तो क्या, वहां कहीं भी कोई सोने की चिड़िया बसेरा नहीं करती थी। इस सुनहरे घोंसले को बिल्डर ने इस तरह बनाया था कि उसमें सभी आय वर्ग के लोग रह सकें। ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरी उस कॉलोनी का विशाल मेन गेट बंद होते ही वह पूरी तरह से बंद, सुरक्षित किले जैसी हो जाती थी। गेट के भीतर की तरफ खुलते ही बीचों-बीच दूर तक चली गई सड़क के दोनों ओर बाजार था। सड़क के पहले दाएं मोड़ पर वन रूम किचन के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-एक था। दूसरे दाएं मोड़ पर वन बेड रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-दो था। सड़क के पहले बाएं मोड़ पर टू बेड रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-तीन था और दूसरे बाएं मोड़ पर सेक्टर-चार था। सड़क जहां समाप्त होती थी वहां बंगलेनुमा पचास रो हाउसेज थे। यह सेक्टर-पांच कहलाता था। इस कॉलोनी के भीतर एक बहुत बड़ा पार्क, स्वीमिंग पुल, अस्पताल, ब्यूटी पार्लर, पोस्ट ऑफिस, सिनेमा हॉल, स्कूल, हेल्थ क्लब और बैंक भी था। सेक्टर पांच यानी रो हाउसेज आधे से ज्यादा खाली थे, बाकी किराए पर उठे हुए थे। इनमें अधिकतर निजी नर्सिंग होम, कोचिंग क्लासेज, ब्यूटी पार्लर, अंग्रेजी के प्राइमरी स्कूल, कंप्यूटर सेंटर, फेमिली रेस्त्रां, साइबर कैफे और कम्युनिकेशन सेंटर खुल हुए थे। सड़क के दोनों ओर बने बाजार सभी तरह की दुकानों से भरे हुए थे। जरूरत का हर सामान वहां मौजूद था। कॉलोनी में दो मंदिर भी थे-एक गणपति का, दूसरा शिरडी के साईंबाबा का। हां, मस्जिद वहां एक भी नहीं थी। वह कॉलोनी के बाहर, हाईवे के उस तरफ, स्टेशन जाने वाली सड़क पर बसे नया नगर इलाके में थी। <br />यह छह दिसंबर के बाद हुए दंगों का ध्रुवीकरण था कि ज्यादातर मुसलमान हाईवे के उस तरफ और हिंदू हाईवे के इस तरफ सिमट गए थे। नया नगर का पूरा इलाका लगभग मुस्लिम परिवारों का था। मीरा रोड के हिंदू नया नगर को मिनी पाकिस्तान कहते थे। हाईवे के उस पार भी काफी परिवार हिंदुओं के थे लेकिन ज्यादा आबादी मुस्लिमों की ही थी। वहां भी जब जिसको मौका मिलता, अपना घर बेचकर गोल्डन नेस्ट आ जाता था। गोल्डन नेस्ट में मुसलमानों के सात-आठ परिवार ही थे, लेकिन वे सभी वहां किराएदार थे, मकान मालिक नहीं। उन्हीं में से एक टेलर मास्टर याकूब भी था, जिसकी लड़की सकीना ने चूहे मारनेवाला जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। वह सेक्टर-एक में किराएदार ही था और अब हैदराबाद चला गया था। <br />धनराज का घर सेक्टर-दो में था।<br />सेक्टर-दो में ज्यादातर लोग सरकारी या गैर सरकारी कंपनियों में काम करनेवाले कर्मचारी थे, जिन्होंने इधर-उधर से कर्ज लेकर चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपने फ्लैट बना लिए थे। सेक्टर-एक में निम्न-मध्यवर्गीय लोग रहते थे। इनमें छोटे-मोटे अध्यापक, लोअर डिवीजनल क्लर्क, ऑटो टैक्सी चलानेवाले, फिल्मों और सीरियलों में काम पाने के लिए स्ट्रगल कर रहे भविष्य के अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार-संगीतकार निवास करते थे। सेक्टर तीन और चार साहबों की दुनिया थी। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, छोटे-बड़े प्रोड्यूसर, शेयर मार्केट के ब्रोकर, बैंकों के अधिकारी, मल्टीनेशनल कंपनियों के कर्मचारी, टीवी चैनलों के कार्यक्रम अधिकारी, कालबा देवी के छोटे व्यापारी, मेडिकल स्टोरों के मालिक, अखबारों के संवाददाता, वकील और प्रोफेसर रहा करते थे।<br />सेक्टर तीन और चार के नागरिक सेक्टर एक और दो की तरफ जाना तो दूर झांकना भी पसंद नहीं करते थे। यह अलग बात है कि बाजार ने उनकी निजी पहचान मिटा दी थी। सेक्टर एक और दो के लोग भी अपनी-अपनी विशिष्टता कायम रखने का प्रयत्न करते थे लेकिन उनकी संपन्नता में दस बाई पंद्रह के सिर्फ एक कमरे का फर्क था, इसलिए उन दो सेक्टरों में आवाजाही चलती रहती थी। <br />सेक्टर एक और दो के ही नहीं, मुख्य बाजार के भी काफी लोग, सेक्टर-दो के ताजा-ताजा बेरोजगार हुए धनराज चैधरी को नाम और शक्ल से पहचानने लगे थे। वाइन शॉपवाला बिना मांगे ओल्ड मौंक रम देता था, सिगरेटरवाला विल्स का पैकेट। मटन शॉपवाला चांप और गर्दन का गोश्त देता था, साथ में मछली हड्डी। सब्जीवालों को पता था कि उसे करेला, कटहल, पालक, टिंडा, मटर और शलगम-गाजर पसंद हैं। चिकन की उसकी अपनी पसंदीदा दुकान थी और मछली की अपनी। घर का राशन पानी अस्मिता सुपर मार्केट से आता था और बाल लकी हेयर कटिंग सैलून में कटते थे। मेडिकल स्टोरवाला धनराज को देखते ही नारमेस फाइव एम जी का पत्ता पकड़ा देता था। शीतल नॉनवेज का मालिक उसे नाम से बुलाता था और उसे देखते ही वेटर को पहाड़ी या रेशमी कबाब पार्सल करने का हुक्म सुना देता था। <br />वह मोलभाव करने और सब्जियां खरीदने में पारंगत हो गया था। कॉलोनी और उसके बीच जो अपरिचय का विंध्याचल था, वह क्रमशः गलने लगा।<br />धनराज ने देखा कि दैनंदिन जीवन जीते, संघर्षरत लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन, कहां, क्या काम कर रहा है या नहीं कर रहा है। वे सिर्फ इस बात पर नजर रखते थे कि किसके किचन में क्या पका, किसके घर कौन-सा नया सामान आया, किसने किसके जन्मदिन पर क्या दिया या किस घर की लड़की या लड़का किससे फंसा हुआ है। रोजगार उनके लिए सिर्फ माध्यम था, ताकत या घमंड का प्रतीक नहीं। उनके दुःख इस विषय में लिपटे थे कि सुबह पानी समय पर नहीं आया और उन्हें बिना नहाए काम पर जाना पड़ा। समय पर ट्रेन पकड़ लेना उनके लिए सबसे बड़ी जंग थी। फोन के खराब हो जाने पर वे घंटों बहस कर सकते थे और बिजली चले जाने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम कर सकते थे। <br />धनराज ने पाया कि कॉलोनी की औरतें उससे बात करने लगी हैं और बच्चे नमस्ते अंकल कहने लगे हैं। वाचमैन उससे अपनी तकलीफें शेयर करने लगे हैं और दुकानदार लगातार गिरते बाजार का रोना रोने लगे हैं। इतने सारे लोगों में किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि धनराज की नौकरी चली गई है। उन्हें लगता था कि ऐसे लोगों की नौकरियां लगती-छूटती रहती हैं।<br />‘भाई साहब, हमारा एक काम करेंगे क्या?‘ एक दिन रास्ते में उसे देविका ने टोक दिया।<br />‘क्या?‘ धनराज ने देविका को जांचा।<br />वह ऊंची, भरी-पूरी, शानदार महिला थी। अगर उसके पास अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप और कामचलाऊ जेवर होते, तो वह सेक्टर एक और दो की हेमा मालिनी बन सकती थी। वह सेक्टर-एक में रहती थी और धनराज समेत सेक्टर-दो के कई घरों में उसका आना-जाना था। <br />‘इनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है आपसे बात करने की।‘ उसने अपने पति का पक्ष सामने रखा, ‘ये लेडीज के अंडर गार्मेंट्स बेचने वाली कंपनी के सेल्समैन हैं। टूर से लौटकर इन्हें अपनी रिपोर्ट देनी पड़ती है। लेकिन ये अंग्रेजी नहीं जानते। क्या आप इनकी हिंदी रिपोर्ट को अंग्रेजी में बना देंगे?‘<br />‘ठीक है।‘ उसने गर्दन हिला दी। <br />‘धन्यवाद भाई साहब।‘ देविका गदगद हो गई। रात के भोजन पर सरिता ने बताया, ‘देविका के घर से तुम्हारे लिए मिर्ची का अचार और गट्टे की भाजी आई है।‘<br />लेकिन देविका के पति रतन केड़िया की मार्केट रिपोर्ट्स ने धनराज को विचलित कर दिया।<br />रतन केड़िया की रिपोर्टें देसी रोजगार का मर्सिया थीं। जयपुर हो या जोधपुर, गोवा हो या नागपुर, सातारा हो या सांगली, अजमेर हो या कोल्हापुर, पुणे हो या नासिक, रत्नागिरी हो या इंदौर-हर जगह स्त्रियों के अंतःवस्त्रों पर नामी ब्रेंड हावी थे। बड़े शहरों में स्त्रियों के तन विदेशी ब्रेंड ढक रहे थे। ऐसे में रतन केड़िया की लोकल कंपनी कहां ठहर सकती थी?<br />कुछ ही समय बाद रतन केड़िया की रिपोर्टें आनी बंद हो गईं।<br />रतन केड़िया ने बताया कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और हंसने लगा। <br />नौकरी चले जाने पर ये लोग हंसते क्यों हैं? धनराज ने सोचा लेकिन उसे जवाब नहीं मिला।<br />उन्हीं दिनों एक रात वह थैले में सब्जियां, अंडे और शराब लेकर लौट रहा था कि उसने सेक्टर दो के सेक्रेटरी हिमांशु शाह को उसके फ्लैट के नीचे खड़े सिगरेट पीते देखा। <br />‘नीचे क्यों खड़े हो?‘ धनराज ने यूं ही सवाल उछाल दिया।<br />शाह ने नयी सिगरेट सुलगा ली, ‘आज मुझे नौकरी से हटा दिया गया है।‘ शाह खिसिया कर बोला, ‘समझ नहीं आ रहा है कि यह बात ऊपर जाकर हर्षिता को कैसे बताऊं?‘<br />हर्षिता हिमांशु की पत्नी का नाम था। <br />हिमांशु अपोलो टायर में काम करता था। बीस दिन पहले ही उसने अपनी बेटी का पहला जन्म दिन मनाया था और पूरे सेक्टर-दो को चिकन बिरयानी की दावत दी थी। धनराज के लिए उसने विशेष इंतजाम किया था। लोगों की नजरें बचाकर वह धनराज को अपने बेडरूम में छोड़ आया था, जहां रॉयल चैलेंज की एक बाॅटल तीन-चार सोडों के साथ पड़ी थी। <br />धनराज तीन पैग पीकर वापस टैरेस पर चलती पार्टी में शरीक हो गया था।<br />‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने पूछा।<br />‘देखते हैं।‘ हिमांशु बोला, ‘कुछ नहीं हुआ, तो घर-बार बेचकर गांव चले जाएंगे।‘ हिमांशु अपने फ्लैट की सीढ़ियां चढ़ने लगा। <br />गांव? धनराज की हलक में कांटे-से गड़ने लगे। गांव के नाम पर उसे सुबह ही पढ़ी गई एक खबर याद आ गई। वह मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के बरानांद गांव की खबर थी।<br />शताब्दी के सबसे भीषण सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों में स्थितियां विकट हो गई थीं। गांव के लोग पेड़ों की छाल पीसकर खा रहे थे। फसलें तबाह हो गई थीं। जिन लोगों के पास किराए लायक पैसे थे, वे काम की तलाश में निकट के शहरों को निकल गए थे। जिनके पास नहीं थे, वे गांव में भूखे-प्यासे मर रहे थे। <br />और यह केवल बरानांद गांव की कहानी नहीं थी। <br />गांव-दर-गांव भूख-प्यास का प्रेत मंडराता फिर रहा था। कुटीर उद्योग तबाह हो गए थे। रोजगार उपलब्ध नहीं थे। ऐसी कोई कंपनी नहीं बची थी, जहां दस, बीस या तीस प्रतिशत कर्मचारी छंटनी के शिकार नहीं हो रहे थे।<br />ऐसे में धनराज का जन्म दिन आया।<br />सुबह-सुबह जगाकर सरिता और रोहित ने धनराज को विश किया, फिर सरिता ने ताना जैसा मारा, ‘आज कोई पार्टी-वार्टी नहीं हो रही?‘<br />धनराज ने नींद की दुनिया में जाकर देखा - <br />वह एक तीन सितारा होटल का पार्टी रूम था, जहां उसके जन्मदिन की पार्टी प्रायोजित की गई थी। शहर के करीब पचास लोग उस पार्टी में शरीक थे। उनमें एक टीवी चैनल का कार्यक्रम प्रमुख था। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेकेदार थे, कुछ होलसेल विक्रेता थे। दो बैंकों के डिप्टी मैनेजर थे। अनेक बिजनेस समूहों के मीडिया मैनेजर थे। कुछ पी आर ओ और कुछ सरकारी अधिकारी थे। एक इंटरनेट कंपनी का कंसलटेंट एडीटर था और थीं कुछ उदीयमान मॉडल। सब-के-सब कोई-न-कोई तोहफा लेकर आए थे और अपने-अपने ड्रिंक्स के साथ अपने-अपने जुगाड़ में व्यस्त थे। एक फोटोग्राफर इस खुशगवार मौके को कैमरे में कैद कर रहा था। वेटर पनीर टिक्का, चिकन टिक्का और सीख कबाब सर्व करने में तल्लीन थे। दुखों की सूचनाओं तक से दूर जगर मगर करता एक बाजार वहां बिछा पड़ा था। <br />जन्मदिन वाले रोज धनराज सुबह-सुबह तैयार होकर फोन के पास बैठ जाता था। उस दिन वह दफ्तर से छुट्टी लेता था। कई वर्षों से यही नियम था। हर बरस वह गिनती करता था कि जन्म दिन की बधाई देने वालों में कितने लोगों की घट-बढ़ हुई। यह उसका प्रिय शगल था। बधाई देनेवालों में से कुछ को वह शाम को होनेवाली पार्टी में निमंत्रित करता था। सम्राट समूह से कोई कांट्रेक्ट हासिल करने का इच्छुक व्यापारी यह पार्टी आयोजित करता था। इस पार्टी में सौदों का लेन-देन भी होता था। ऐसी अनेक पार्टियों के फोटो एलबम धनराज की वॉल यूनिट की शोभा बढ़ा रहे थे। <br />लेकिन इस बार धनराज देर तक सोता रहा। पत्नी के ताने पर वह मुस्करा भर दिया। दिन भर में कुल मिलाकर तीन फोन आए। एक उसके भाई राकेश चैधरी का, एक उसकी सास का और तीसरा उसके फैमिली डॉक्टर राणावत का। <br />शाम सात बजे चौथा फोन आया उसके पड़ोसी हिमांशु शाह और उसकी पत्नी हर्षिता का। उसे याद आया-एक जन्मदिन के भव्य आयोजन में उसने शाह दंपत्ति को भी निमंत्रित किया था।<br />‘तुम्हारा फोन आने से सचमुच अच्छा लगा हिमांशु।‘ धनराज द्रवित हो गया। <br />‘क्या बात करते हैं धनराज जी।‘ हिमांशु ने गर्मजोशी से कहा, ‘आज आपके जन्मदिन की पार्टी हमारी तरफ से हमारे घर में है। आप भाभी और रोहित के साथ आठ बजे तक पहुंच जाइए।‘<br />धनराज बेआवाज बिखर गया।<br />निष्कपट जीवन नींद के बाहर ही है धनराज, धनराज ने सोचा। तुमने व्यर्थ ही अपना जीवन यों सुखा डाला। पैसे कमाने के बजाय अगर तुमने रिश्ते कमाए होते, तो जीवन का रंग आज कुछ और ही होता। और पैसे भी क्या कमाए? एक छोटा-सा फ्लैट, जरा-सा बैंक बैलेंस और वह भी अपनी नींदें बेचकर? मां जैसे दुनिया के सबसे कीमती रिश्ते की अकारण नाराजगी मोल लेकर। <br />धनराज को अपनी मां याद आ गई।<br />बचपन वाली मां।<br />मां धनराज का जन्मदिन मना रही थी।<br />वह मुजफ्फरनगर का सड़क किनारे बना एक सीलन भरा कमरा था, जिसके बाहर बने बड़े से नाले से कीचड़ और मल-मूत्र लगातार बहता रहता था। उन दिनों पिता का ट्रांसफर जोशीमठ में हो गया था और पिता ने परिवार को यहां रखा हुआ था क्योंकि जोशीमठ में परिवार को साथ रखने की अनुमति नहीं थी।<br />मुजफ्फरनगर के उस किराए के कमरे में माथे पर टीका लगाकर मिठाई के नाम पर गुड़ खाया था धनराज ने और गुल्ली-डंडा खेलने मैदान में चला गया था। तब तक बबलू और ममता पैदा नहीं हुए थे, लेकिन उनके पैदा होने के बाद भी घर में सिर्फ धनराज का ही जन्म दिन मनाया जाता रहा। पता नहीं क्यों?<br /><br />×××<br /><br />पता नहीं धनराज को इन दिनों बहुत अजीब और बेहूदा-बेहूदा खयाल आते रहते और वह चिंता से भर जाता। पढ़-लिखकर या पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए सेक्टर-एक के जवान छोकरों को धनराज पार्क की बेंचों, चायघरों या पान की दुकानों के बाहर खाली बैठे देखता और उसे लगता इनमें से कुछ लड़के जल्दी ही अरुण गवली या दाउद इब्राहिम के गैंग में शामिल हो जाएंगे। वह उन्हें अपनी कल्पना में सेक्टर-चार के लोेगों को शूट करते देखता और पसीने-पसीने हो जाता। वह देखता कि रोहित की कंपनी भी बंद हो गई है और वह गोल्डन नेस्ट के बाहर उबले हुए अंडे बेचने लगा है। कभी वह देखता कि उसने अपना मकान बेचकर सेक्टर-एक में वन रूम किचन ले लिया है और आॅटो चलाने लगा है। कभी उसे दिखाई देता कि उसने बबलू को फोन किया है और बबलू ने मुंबई आकर सम्राट समूह के चेयरमैन का भेजा भून दिया है। <br />जब कभी वह मार्केट में खरीदारी के लिए निकलता, तो एक-एक दुकान को गौर से देखता और सोचता कि वह किस चीज की दुकान खोल ले, ताकि व्यस्त भी रहे और चार पैसे भी कमाए। लेकिन हर दुकान का मालिक उसे बताता कि उसका धंधा मंदा चल रहा है। दुकानें उठ रही हैं। व्यवसाय बैठ रहे हैं। अपहरण, डकैती और हत्याएं बढ़ रही हैं। <br />धनराज जब-जब एटीएम मशीन से पैसे निकालने जाता, अपना बैलेंस देख कर चिंताग्रस्त हो जाता। बैंक में पैसे जमा नहीं हो रहे थे, सिर्फ निकलते जा रहे थे। अगले महीने ममता की शादी थी। हाथ, गले और कान के जेवरों का उसने जो वादा किया था, उनका एस्टीमेंट पैंतीस हजार बैठ रहा था। कम से कम दस हजार आने-जाने-रहने में खर्च होनेवाले थे। <br />अभी तक धनराज ने रोहित की तनख्वाह पर नजर नहीं डाली थी, लेकिन अब उसे रोहित के खर्च खटकने लगे। उसने पाया कि रोहित ने अब तक जो भी कमाया था, वह सब का सब महंगी कमीज-पैंटों, वीकएंड पार्टियों, सिनेमा और जूतों पर उड़ा दिया था, अब उसे जीन्स और टॉप पहनकर कभी-कभी घर चली आनेवाली रोहित की गर्ल फ्रेंड्स भी अखरने लगी थीं।<br />‘तू मोबाइल और बाइक कब लेगा यार?‘ लड़कियां धनराज के सामने ही रोहित को नये खर्चों के लिए उकसातीं और धनराज कुढ़ता रहता।<br />इसी कुढ़न में एक दिन धनराज ने अपना एसी और वीसीआर बेच दिया और पैसे बैंक में जमा कर दिए। उसका तर्क था कि मुंबई में एसी की कोई जरूरत नहीं है और वीसीआर गए जमाने की चीज हो गई है। इतने सारे चैनल हैं, चैबीस घंटे चलती फिल्में हैं, ऐसे में वीसीआर की कोई उपयोगिता नहीं है। कुछ दिनों के बाद उसने एक साइबर कैफे को अपना कंप्यूटर, प्रिंटर, स्कैनर मय कंप्यूटर टेबल के बेच दिया। उसका कहना था कि अब रोहित पूरे दिन दफ्तर में व्यस्त रहता है और शामों को कंप्यूटर के नये कोर्स की कक्षाओं में। इसलिए घर में फालतू सामानों की भीड़ बढ़ाने की कोई तुक नहीं है। कुछ दिनों के बाद धनराज अपनी फैक्स मशीन भी बेच आया। उसका कहना था कि जब नौकरी ही नहीं है तो फैक्स किसके आएंगे?<br />सरिता और रोहित आदर्श पत्नी और आज्ञाकारी बेटे की तरह जीते आए थे, इसलिए उन्होंने धनराज की हरकतों का सीधा विरोध तो नहीं किया, लेकिन अब वे दोनों भी चिंतित हो गए। दोनों को एक साथ लगा कि धनराज कहीं उन्हें मुंबई के पहलेवाले दिनों में तो नहीं ले जाना चाहता है! दोनों को लगा कि समय रहते जाग जाना चाहिए। <br />एक रात दो पैग पी लेने के बाद धनराज का सामना रोहित से हो गया। उसने टीवी बंद किया और रोहित को अपने सामने बिठा लिया। रोहित चैकन्ना हो गया।<br />‘देखो, मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है। तुम्हारी खुशियों का दुश्मन नहीं हूं मैं। लेकिन तुम खुद बताओ...‘ धनराज ने तीसरा पैग बनाया, ‘अब जब तुम्हारा बाप बेरोजगार है, ऐसे में क्या तुम्हें शोभा देता है कि तुम अपनी पगार वेनह्यूजन की पैंटों, चिरागदीन की शर्टों और दो-दो हजार के जूते खरीदने में खर्च करो...वीकएंड की पार्टियों में हजार-पांच सौ का कंट्रीब्यूशन करो...मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए रोहित, तुम्हें छह हजार रुपये मिलते हैं। एक हजार रुपये अपने खर्चे के लिए रखो और पांच हजार रुपये बैंक में जमा करा दो। एक साल में साठ हजार रुपये...यू नो, ये पैसा एक दिन तुम्हें बहुत ताकत देगा।‘ धनराज ने तीसरा पैग समाप्त कर दिया।<br />‘मैं ऐसा नहीं सोचता पापा...मैं कमाने और खर्च करने में यकीन रखता हूं। रोहित ने पहली बार अपने पिता के साथ बहस की, ‘आप देखते ही हैं कि डी गैंग के शूटर बिल्डरों, प्रोड्यूसरों, डाॅक्टरों को गोलियों से भून देते हैं और उनका पैसा यहीं पर रह जाता है। पिछले दिनों सेक्टर चार में रहने वाला मेरा एक दोस्त मकरंद जोगेश्वरी में एक खंभे से टकराकर ट्रेन से गिरा था। वह अब तक कोमा में है। मकरंद एक मल्टीनेशनल कंपनी में वेब डिजाइनर था।‘<br />‘अरे वाह!‘ धनराज तालियां बजाने लगा, ‘तुम तो बहुत समझदार हो गए हो।‘ धनराज हसंने लगा, ‘वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि सेक्टर-चार के लड़कों के साथ तुम्हारी दोस्ती बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं।‘<br />‘तो क्या मैं सेक्टर-एक के टपोरी लड़कों के साथ रहा करूं?‘ रोहित ने तिलमिला कर जवाब दिया।<br />धनराज चुप हो गया। वह खुद भी यह कहां चाहता था कि उसका बेटा सेक्टर-एक के लड़कों जैसा हो जाए। तो फिर?<br />क्या चाहता है धनराज? धनराज ने सोचा और चैथा पैग बनाने लगा। <br />‘अब बस करो।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘लड़के की तनख्वाह पर आंख गड़ाने से बेहतर है कि तुम शराब पीना छोड़ दो।‘<br />‘क्या?‘ धनराज आहत हो गया, ‘तुम भी? ओ.के. छोड़ देता हूं।‘ धनराज ने कहा और रम की बची हुई बॉटल को खिड़की से बाहर फेंक दिया।<br />रात के अंधेरे और सन्नाटे में फ्लैट के पिछवाड़े गिरने के बावजूद बॉटल के टूटने ने खासा शोर किया। वाचमैन की सीटियां गूंजने लगीं। दो-तीन लोगों ने अपनी-अपनी खिड़िकियों से झांककर भी देखा। धनराज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसकी आंखें एक अजीब-से अचंभे में पहुंचकर स्थिर हो गई थीं, फिर वह सोफे पर ही पसर गया। <br />बहुत दिनों के बाद धनराज बिना खाना खाए सो गया।<br />‘साॅरी पापा।‘ सोते हुए धनराज के माथे पर किस किया रोहित ने, ‘मैं आपकी तकलीफ को समझता हूं।‘<br />सरिता की आंख में बड़े दिनों के बाद कुछ आंसू आए। वह धनराज के जूते उतारने लगी। देर तक बेडरूम की खिड़की से बाहर के अंधेरे को ताकती हुई वह सोचती रही कि उनकी गृहस्थी को किसका शाप लगा है। <br />उस रात दिल्ली के एक महंगे इलाके में एक धन पशु कॉलेज की एक लड़की से बलात्कार करने के बाद उसे काट-काटकर तंदूर में भून रहा था और मुंबई के कुछ होटलों में बीवियां बदलने का खेल चल रहा था। <br /><br />×××<br /><br /><br />गोल्डन नेस्ट के बाहर हाईवे पर शेयर ऑटो मिलते थे। हैरान परेशान धनराज ने शेयर ऑटो किया और पांच रुपये में भायंदर स्टेशन पहुंच गया। पुल पार करके वह भायंदर पश्चिम पहुंचा और उसने भगत सिंह पुस्तकालय की सदस्यता ले ली। <br />इस पुस्तकालय में होनेवाली एक छोटी-मोटी-सी कवि गोष्ठी में एक बार वह मुख्य अतिथि बनकर आया था।<br />‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी‘ नाम की किताब इशु कराकर वह पुस्तकालय की मेज के एक कोने पर चला गया। उसे किताब के नाम ने आकर्षित किया था। लेकिन जल्दी ही वह ऊब गया। उसने किताब वापस कर दी और बाहर आ गया। <br />रेल की पटरियों के पास एक बड़ी-सी खुली जमीन, जिस पर लकड़ी के मोटे-मोटे स्लीपर पड़े थे, पर धनराज ने बहुत सारे बूढ़ों को देखा। उसे लगा, बूढे़ लोगों की कोई सभा है। उन बूढ़ों के पास से गुजरता हुआ धनराज वापस पुल पर आ गया और पुल पर चढ़ती-उतरती भीड़ को देखने लगा।<br />बहुत भीड़ हो गई है। उसने सोचा और खुद भी भीड़ का हिस्सा बन कर सीढ़ियां उतरने लगा। पूर्व में आकर वह शालीमार फर्नीचर के उपाध्याय जी के पास बैठ गया। धनराज के घर का ज्यादातर फर्नीचर शालीमार से ही गया था। उन्होंने धनराज के लिए कॉफी मंगवा ली। <br />‘बड़े दिनों के बाद आना हुआ?‘ उपाध्याय जी ने पूछा, ‘क्या चाहिए?‘<br />‘अब घर में जगह ही कहां बची है।‘ धनराज ने जवाब दिया, ‘सब कुछ तो है।‘<br />‘सो तो है।‘ उपाध्याय जी खिसियाकर बोले, ‘इस धन्धे में भी बहुत मंदी आ गई है। कई-कई दिन बीत जाते हैं कोई कुछ खरीदने ही नहीं आता। लगता है सब लोग सब कुछ खरीद चुके हैं। अब तो दुकान का किराया निकालना भी भारी पड़ रहा है।‘ उपाध्याय जी ने अपनी विशाल दुकान को निहारते हुए ठंडी सांस ली।<br />धनराज ने बूढ़ों के बारे में पूछा, ‘वे कौन लोग हैं?‘<br />उन्हें उनके बेटे-बहुओं या दामाद-बेटियों ने घर से निकाल दिया है। इसलिए दिन भर पटरियों पर टाइम पास करते हैं।<br />‘क्यों?‘ धनराज थोड़ा-सा चकित हुआ और थोड़ा-सा उदास, ‘घर से क्यों निकाल दिया है?‘<br />‘क्या है कि लोग एक-एक कमरे के घरों में रहते हैं। बेटा या दामाद काम पर चले जाते हैं तो बेटी-बहुओं के बीच एक कमरे में कैसे रहेंगे? इन्हें सुबह निकाल दिया जाता है और रात को वापस ले लिया जाता है।‘ उपाध्याय जी ने समझाया। <br />इसका मतलब अपने सेक्टर-एक के भी कुछ बूढ़ों का जीवन यही होगा। धनराज ने सोचा और पूछा, ‘और इनका खाना?‘ वह बूढ़ों को लेकर चिंतित हो गया। <br />‘खाना, रात को मिलता है न! दिन में बड़ा पाव वगैरह खा लेते होंगे।‘ उपाध्याय जी ने लापरवाही से कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है। मैं कुछ ऐसे बूढ़ों को जानता हूं, जिन्हें उनके बेटों ने विरार से चर्चगेट का पास बनवा दिया है। बूढ़े सुबह विरार ट्रेन में जाकर बैठ जाते हैं और रात को उसी ट्रेन से उतरकर अपने घर चले जाते हैं।‘<br />‘और लैटरीन-बाथरूम?‘ धनराज पूछ बैठा।<br />‘उसके लिए स्टेशन हैं न!‘ उपाध्याय जी को धनराज की अज्ञानता पर चिढ़-सी मची, ‘और बताइए क्या चल रहा है?‘<br />‘चलना क्या है?‘ धनराज मुस्कराया और वापस शेयर ऑटो में बैठकर घर लौट आया।<br />धनराज का घर!<br />रात को जब धनराज ने बिना शराब पिए खाना खा लिया तो सरिता खुश होने के बजाय दुखी हो गई। उसके भीतर एक खरा पश्चाताप उग आया, ‘इतनी कठोर बात नहीं करनी चाहिए थी इस आदमी से, जिसने परिवार को सारे सुख दिए। क्यों औरतें पति और बेटे में से किसी एक के साथ खड़ी नहीं रह पातीं?‘ सरिता ने सोचा और डबडबाई आंख लिए किचन में चली गई।<br />ग्यारह बजे के करीब रोहित घर में घुसा। उसने धनराज को सोफे पर पड़े देखा तो इशारों से सरिता से पूछा। सरिता ने उस चुप रहने का इशारा किया और रोहित चुपचाप बेडरूम में आ कपड़े बदलने लगा।<br /> खाना खाकर रोहित हॉल में आया और बोला, ‘पापा, लाइट बंद कर दूं?‘ <br />‘नहीं।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली। फिर पूरी रात धनराज ने दो ही काम किए-दाएं से बाएं करवट ली और बाएं से दाएं। <br />उसकी करवटों को देर रात तक महसूस किया रोहित और सरिता ने।<br />अगली सुबह फ्रेश होकर धनराज वापस भगतसिंह पुस्तकालय चला गया। उसने अल्मारियों में लगी बहुत-सी किताबों को देखा-क्राइम एंड पनिशमेंट, अन्ना कैरेनिना, राम की शक्ति पूजा, मुक्ति बोध रचनावली, उखड़े हुए लोग, मां, सारा आकाश, आदि विद्रोही, कुरू कुरू स्वाहा, एक चिथड़ा सुख, अपने-अपने अजनबी, मित्रो मरजानी, भागो नहीं दुनिया को बदलो, पूंजी, रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूशन, हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड, आधी रात की संतानें, तमस, काला जल, कव्वे और काला पानी, दर्शन दिग्दर्शन, कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो, कसप, अंधेरे बंद कमरे, ठुमरी, गोदान, कनुप्रिया, अंधा युग, मुर्दाघर, बेदी समग्र, मंटोनामा, दादर पुल के बच्चे। <br />फिर वह थक गया। किताबों से उसका वास्ता बीए पास करने तक का ही रहा था। उसे लगा यह दुनिया उसकी नहीं है। बहुत-बहुत हताश होकर वह वापस मेज पर बैठ गया। देर तक बैठा रहा फिर थके कदमों से बाहर निकल आया।<br />बाहर जीवन युद्धरत था। लोग हाथों में ब्रीफकेस लिए, कंधे पर झोला लटकाए, सिर पर बोझ उठाए ट्रेन पकड़ने के लिए भागे जा रहे थे। टिकट विंडों की लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे, रेलवे स्टॉल पर खड़े-खड़े बड़ा पाव, पाव समोसा, कचैरी खा रहे थे, कोक पी रहे थे, कानों से मोबाइल चिपकाए संदेश सुन रहे थे, भागकर ट्रेन के पायदान पर लटक रहे थे। किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी। भीड़ को देख अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कौन काम पर जा रहा है और कौन काम से निकाला जाकर लौट रहा है। किसके पास पैसा है और किसके पास पैसा नहीं है। सबके चेहरों में सिर्फ एक ही समानता थी कि सबके चेहरे खामोश, चिंताग्रस्त और खोए-खोए से नजर आते थे-फिर चाहे वे चेहरे स्त्रियों के हों या पुरुषों के। <br />धनराज पुल पार करके भायंदर पूर्व की तरफ आ रहा था कि एक ठीक-ठाक से दिखते लड़के ने उसे सीढ़ियों पर टोक दिया, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘ धनराज अचकचा गया और तेजी से बोला ‘हां हैं, क्यों?‘<br />‘मुझे दीजिए न!‘ लड़के ने आग्रह किया।<br />‘क्यों भई!‘ धनराज ने पूछा। लड़का कहीं से भी भिखारी जैसा नहीं लगता था।<br />‘बड़ा पाव खाना है।‘ लड़के ने गर्दन झुका दी।<br />‘घर से भागकर आए हो?‘ धनराज ने पूछा।<br />‘हां।‘ लड़के ने स्पष्ट जवाब दिया। <br />‘कहां से?‘ धनराज की उत्सुकता में इजाफा हुआ।<br />‘बिहार से।‘ लड़का मासूमियत से बोला। <br />‘क्यों?‘ धनराज के तेवर आक्रामक हुए।<br />‘काम की तलाश में।‘ लड़का सहमा-सा बोला।<br />‘तो काम करो। भीख क्यों मांगते हो?‘ धनराज ने उसे नसीहत और तीन रुपये एक साथ दिए।<br />‘लाइए काम।‘ लड़का तत्परता से बोला, ‘मैं काम करने को तैयार हूं। सब बोलते हैं, काम करो, पर काम देता कोई नहीं है।‘<br />‘कहां-कहां काम ढूंढा? पढ़े-लिखे हो?‘ धनराज के भीतर लड़के को लेकर दिलचस्पी पैदा होनी शुरू हुई। यूं भी वह खाली ही तो था, अच्छा टाइम पास हो रहा था।<br />‘कालबा देवी के बाजारों से लेकर भायंदर के बाजारों तक घूमा हूं। दसवीं पास हूं पर सब बोलते हैं कि किसी जान-पहचान वाले को लाओ।‘ लड़का व्यथित था।<br />‘मुबई आने की सलाह किसने दी?‘ धनराज ने पूछा।<br />‘किसी ने नहीं।‘ लड़का सहजता से बोला, ‘बिहार के लड़के भाग कर या तो मुंबई आते हैं या कलकत्ता जाते हैं।‘<br />‘तुम्हारे लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकता मैं।‘ धनराज गहरी उदासी में डूबकर बोला और उसने लड़के को जेब से एक बीस रुपये का नोट निकालकर दे दिया। <br />धनराज रेलवे स्टाॅल पर खड़ा इडली सांभर खा रहा था, जब उसने उसी लड़के को एक दूसरे आदमी से पूछते देखा, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘<br />‘तो भीख मांगने का यह आधुनिक तरीका है?‘ धनराज ने सोचा और खुद को छला गया महसूस किया। पैसे चुकाकर वह स्टेशन के बाहर निकल रहा था कि एकदम अचानक उसे अपने पिता की याद आई। उसने देखा स्टेशन के बाहर, टिकट विंडो के सामने एक 40-45 साल का थका-थका-सा आदमी बांसुरी पर गा रहा था- <br /> ‘चुपके-चुपके रोनेवाले<br />रखना छुपा के दिल के छाले...<br />ये पत्थर का देस है पगले<br />कोई न तेरा होय।‘<br /> धनराज रुक गया। कई लोग रुके हुए थे। वह आदमी भीख नहीं मांग रहा था, सिर्फ गाना गा रहा था। लेकिन उसकी आवाज में इतनी करुणा, इतना विलाप और दर्द था कि लोग खुद-ब-खुद उसे एक रुपया, आठ आना, दो रुपया दिए जा रहे थे। धनराज ने भी एक दो रुपये का सिक्का उसे दिया और सोचा, बिहार से आए उस लड़के को इस आदमी के सामने केवल खड़ा कर देना चाहिए।<br /> रखना छुपा के दिल के छाले...धनराज ने दोहराया और पिता की याद गहरी हो गई।<br /> मृत्यु से कुछ समय पहले तक पिता बिस्तर में लेटे-लेटे यही गाना गाया करते थे-<br /> पिंजरे के पंछी रे <br /> तेरा दर्द न जाने कोय...<br /> मृत्यु की तरफ जाते पिता देख रहे थे कि जीवन भर के जी तोड़ संघर्ष के बावजूद घर उनसे संभल नहीं पाया था। अपने अंतिम दिनों में वह बहुत हताश थे और आंखें बंद कर के गाते रहते थे -<br /> रखना छुपा के दिल के छाले रे...<br /> यह तब की बात है, जब धनराज बी.ए. करने के बाद जोधपुर में नौकरी के लिए मारा-मारा घूम रहा था और राकेश एक बिजली की दुकान में पढ़ाई छोड़कर रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हो गया था। बाद में उसी दुकान पर धनराज भी लगा, लेकिन तब तक पिता के छाले फूट गए थे और उन छालों को उन्होंने हमेशा के लिए छुपा लिया था। <br />घर पहुंचकर धनराज लेटने के लिए चला गया। सरिता ने खाने के लिए पूछा, तो उसने मना कर दिया। सरिता ने बताया कि वह सेक्टर चार जा रही है।<br />‘सेक्टर चार। क्यों?‘ धनराज हैरान रह गया।<br />‘सेक्टर चार के पब्लिक स्कूल में मैथ की टीचर चाहिए। सोचती हूं एप्लाई कर आऊं।‘ सरिता ने बताया।<br />‘ओह।‘ धनराज के होंठ गोल हो गए। सरिता गणित की अच्छी जानकार थी।<br />‘ठीक है।‘ धनराज ने एक ठंडी सांस भरी और गुनगुनाने लगा-रखना छुपा के दिल के छाले रे...<br />शाम चार बजे धनराज बैठा अपने ब्रीफकेस की सफाई कर रहा था कि उसे एक कार्ड मिला-अयूबी सिक्योरिटीज। धनराज को याद आया कि जिन दिनों सम्राट समूह का पालघर वाला प्लांट लग रहा था, उन दिनों अयूबी सिक्योरिटीज के मालिक महमूद अयूबी ने उससे प्रार्थना की थी कि वह उसे काम दिलाए। फिल्मों में विलेन बनने आए महमूद अयूबी ने लंबे संघर्ष से ऊबकर छोटे स्तर पर सिक्योरिटी गाड्र्स का धंधा अपना लिया था। अयूबी चारकोप में उसका पड़ोसी था। बाप का तंबाकू का व्यवसाय था, जो उसे रास नहीं आया। वह मुंबई में प्राण या प्रेम चोपड़ा या फिर अमजद खान बनने आया था, लेकिन निर्माताओं ने उसे मौका ही नहीं दिया। वापस घर लौटने में हेठी होती थी, इसलिए उसने इस धंधे में उतरने की सोची। उसने चारकोप में अपने बाजू में एक और घर किराए पर लिया और अपने शहर अलीगढ़ से जांबाज किस्म के एक दर्जन बेकार युवकों को बुलाकर उस घर में रख दिया। घर के बाहर उसने बोर्ड टांगा ‘अयूबी सिक्योरिटीज‘ और धंधे की तलाश में निकल पड़ा।<br />उन्हीं दिनों धनराज ने उसके बारह में से छह गबरू जवानों को अपने पालघर के प्लांट में रखवाया था। अयूबी ने कहा था, ‘यह मुसलमान की जुबान है धनराज सेठ। आपने हमारी मदद की। कभी हमको भी आजमा कर देखना।‘ बाद के दिनों में धनराज को पता चलता रहा कि महमूद अयूबी चारकोप की पतरेवाली बैठी चाल से निकलकर एक दो कमरोंवाले फ्लैट में शिफ्ट हो गया है। उसका धंधा चल निकला है और उसकी सिक्योरिटी सर्विस में अब पचास से ज्यादा लोग हैं। सबके सब अलीगढ़, सहारनपुर, नजीबाबाद और मेरठ के मुसलमान नौजवान, जो बिना रोजगार के अपने-अपने शहरों में बेकार भटक रहे थे। मुंबई जैसे शहर में अयूबी पचास से ज्यादा लड़ाकू नौजवानों का माई-बाप था। यह छोटी बात नहीं थी। लोग उन लड़कों को अयूबी के फंटर बोलते थे। <br />घटाटोप अंधेरे में जैसे एकाएक टॉर्च जलकर बुझ जाए। धनराज उछल पड़ा। उसे लगा, मुसलमान की जुबान को जांचने का मौका आ पहुंचा है।<br />समस्या यह थी कि उसके पास अयूबी का नया पता-ठिकाना नहीं था। उसने तय किया कि अयूबी के पुराने घर चारकोप चलता है। फटाफट तैयार होकर धनराज घर से निकल पड़ा। मीरा रोड पहुंच कर उसने बोरीवली का टिकट लिया और प्लेटफार्म पर आ गया। शाम के छह बज रहे थे। चर्चगेट से आनेवाली गाड़ियां थके-टूटे-झल्लाए, भुनभुनाते और भन्नाए लोगों को प्लेटफार्म पर फेंक रही थीं। व्यस्त घंटे शुरू हो गए थे। उस तरफ के प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ टिड्डी दल की तरह बिछी पड़ी थी। सिर ही सिर। न उभरी हुई छातियों का आकर्षण, न उत्तेजक नितंबों को लेकर कोई सिसकारी। जैसे वीतरागियों का हड़बड़ाया हुआ समूह मायालोक से निकलकर मुक्ति के रास्तों पर भागा जा रहा हो। <br />हालांकि चर्चगेट जानेवाली गाड़ियां खाली थीं, फिर भी एहतियातन धनराज ने प्रथम श्रेणी का ही टिकट लिया था। बोरीवली तक ही तो जाना था। ट्रेन आई तो वह आराम से चढ़ गया और गेट पर खड़ा होकर हवा खाने लगा। वह दहिसर और बोरीवली के बीच बसी झोंपड़पट्टी और उनमें रहते हुए लोगों का मुआयना-सा करने लगा।<br />दो-तीन लोग पास में डिब्बा या बोतल रखकर पूरे जमाने से निरपेक्ष होकर पटरियों पर बेफिक्री के साथ निपट रहे थे। कुछ औरतें अपनी झोपड़ियों के बाहर बैठी परात में आटा गूंथ रही थीं। झोंपड़पट्टी से थोड़ा हटकर एक मैदान जैसी जगह में कुछ छोटे लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। चार जवान छोकरे और दो अधेड़ ताश खेल रहे थे और किसी बात पर ठहाके लगाकर हंसते जा रहे थे। एक बच्चा घुटनों-घुटनों सरकता हुआ पास बहते गंदे नाले में जा गिरा था, जिसे बचाने के लिए एक औरत झोपड़ी से निकल नाले की तरफ चिल्लाती हुई भागी जा रही थी। इस बीच ट्रेन आगे बढ़ गई।<br />यह जीवन पहले भी था धनराज। धनराज के भीतर कोई बुदबुदाया, बल्कि इससे भी ज्यादा बदतर और बेमानी। जरा सोचो क्या तुम इस जीवन के भीतर दो-पांच दिन के लिए भी सांस ले सकते हो। उसमें रहकर ठहाके लगा सकते हो। झिलमिल करती, मदमस्त मुंबई का चकाचैंध करने वाला स्वर्ग इस जीवन के नरक पर ही टिका हुआ है। इस जीवन से ताकत लो धनराज।<br />धनराज बौखला गया। ऐसा उसके जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। यह कौन उसके भीतर छुपा उसे पुकार रहा है?<br />बोरीवली उतर धनराज वेस्ट में आ गया। चारकोप के ऑटो में बैठकर उसने सिगरेट जला ली।<br />चरकोप का चेहरा बदल गया था। चारकोप बस डिपो से गोराई जानेवाली खाड़ी के जिस मोड़ तक धनराज कभी रात में गुजरने की सोच भी नहीं सकता था, वह पूरा इलाका लकदक बाजारों, छोटे बंगलों और हाउसिंग सोसायटी के फ्लैटों से जगर-मगर हो गया था। इस नये चारकोप के भीतर से पुराने चारकोप को तलाशना खासा कठिन था। धनराज अपने घर ले जानेवाली गली को भूल गया। धनराज आठ बरस के बाद चारकोप लौट रहा था। उसने आॅटो मेन रोड पर छोड़ दिया और बस डिपो के बगल में बनी पहली गली और उस गली के नुक्कड़ पर बने साईंबाबा के मंदिर को खोज निकाला। मंदिर पहले से ज्यादा बड़ा और भव्य हो गया था। उसने मंदिर के सामने खड़े होकर हाथ जोड़े और गर्दन झुका दी। इसी गली के अंतिम सिरे पर वो मैदान था, जिसमें दिसंबर के दंगों में मुसलमानों का सामान जलाया गया था। वहां एक सात मंजिला इमारत खड़ी थी। उस इमारत को पार कर धनराज आगे बढ़ गया। आखिर वह रुका और उसने एक पानवाले से पूछा, ‘क्यों बॉस, सेक्टर चार में डॉ. लवंगारे वाली गली कौन-सी है?‘<br />डॉ. लवंगारे का क्लीनिक उस गली के मोड़ पर एकदम शुरू में था, जिस गली में कभी धनराज रहा करता था। डॉ. लवंगारे अपने मरीजों को इतनी गोलियां देता था कि उनसे पेट भर जाए। इसीलिए सरिता उसे घोड़ों का डॉक्टर कहती थी। <br />लवंगारे वाली गली वही थी, जिसके सामने कभी मैदान और अब सात मंजिला इमारत खड़ी थी। धनराज उस गली में आगे बढ़ गया, आखिर, रोड पर ही बनी 440/41 नंबर वाली पतरे की चाल के सामने वह रुक गया। यह था उसका अपना घर। <br />उसने बंद घर के बाहर लगी बेल बजा दी।<br />दवाजा खुला और धनराज एलिस के आश्चर्यलोक में जा गिरा।<br />वही थी, एकदम वही। सपना सारस्वत। मालाड के चांदनी बार की उसकी पसंदीदा डांसर, बीते दिनों में एंटरटेनमेंट के वाउचर बना-बनाकर बहुत पैसे लुटाए थे उसने सपना सारस्वत पर।<br />‘तुम? दोनों के मुंह से एक साथ निकल पड़ा।<br />‘आओ। भीतर आओ।‘ सपना ने मुस्करा कर कहा, कितने बरसों बाद आए हो...लेकिन ध्यान रखना मेरे निकलने का टाइम हो गया है। सपना ने अपनी घड़ी दिखाई।<br />धनराज भीतर आ गया। वह सपना को भूल उस घर को घूम-घूमकर देखने लगा। <br />‘पुलिस में भर्ती हो गए हो क्या?‘ सपना खिलखिलाई।<br />‘पागल। इस घर में कभी मैं रहता था।‘ धनराज ने सपना के गालों को थपथपा दिया। कितने जमाने के बाद उसके जीवन में एक मचलता हुआ उल्लास लौट रहा था। <br />‘क्या बात करते हो?‘ सपना दंग रह गई, ‘तो क्या मैं तुम्हारे घर में रहती हूं?‘<br />‘नहीं रे।‘ धनराज उसी उल्लास के बीच खड़ा-खड़ा बोला, ‘बंबई में घर इतनी आसानी से नहीं बनते। तुम तो वैसी की वैसी हो...एकदम चकाचक।‘ अब वह सपना को निहारने लगा।<br />‘हमको चकाचक रहना पड़ता है धनराज। हमारा पेशा है यह।‘ सपना की आवाज उखड़ने लगी।<br />‘उखड़ो मत, उखड़ो मत।‘ धनराज ने अचानक गार्जियन की भूमिका संभाल ली, ‘धंधे का टाइम हो रहा है तुम्हारे। अभी भी चांदनी बार में ही नाचती हो?‘ <br />‘नहीं। अभी मैं लोटस में हूं।‘ सपना ने इतराकर कहा।<br />‘अरे बाप रे? लोटस तक पहुंच गईं तुम?‘ धनराज चकित हो गया, ‘अगली छलांग कहां की है, दुबई की?‘<br />लड़कियां श्रीदेवी और रेखा बनने बंबई आती थीं और बारों में नाचने लगती थीं। बारों में नाचते-नाचते उनका सपना अभिनेत्री बनने के बजाय ‘लोटस‘ पहुंच जाने का हो जाता था। लोटस में नाचते-नाचते वे दुबई पहुंच जाती थीं-शेखों के दरबार में। पांच-सात साल दुबई में गुजारकर वे वापस मुंबई लौटती थीं-ढेर सारे हीरे-जवाहरात, मोटे बैंक बैलेंस, निचुड़े हुए सीनों और गंभीर बीमारियों के साथ। मुंबई की किसी अच्छी जगह पर अपना फ्लैट खरीदतीं और उसी फ्लैट में खाते-पीते और मुटाते हुए एक दिन मर जाती थीं। <br />‘मुझे नहीं जाना दुबई।‘ सपना सिहर गई।<br />‘दुबई तो तुमको जाना ही पड़ेगा रानी।‘ धनराज हंसने लगा। ‘लोटस‘ के शब्दकोश में ‘न‘ अक्षर छपा ही नहीं है। तुम इतनी सुंदर हो कि तुम्हें दुबई जाना ही पड़ेगा।‘<br />सपना लजा गईं फिर बाहर निकल ताला बंद करने लगी। खाली जाते आॅटो को रोक वह उसमें बैठती हुई बोली, ‘दुनिया बहुत छोटी है, शायद हम फिर मिल जाएं। वैसे तुमने मेरा घर, साॅरी अपना घर तो देखा ही हुआ है।‘<br />‘बाय।‘ धनराज ने हाथ हिला दिया, फिर वह घर के बाहर बनी दीवार की रेलिंग पर बैठ गया।<br />दो लड़कियां सामने से गुजरीं। उन्होंने धनराज को उड़ती नजर से देखा, फिर उनमें से एक एकाएक ठिठक गई?<br />‘आप धनराज अंकल हैं?‘ वह बोली, ‘रोहित के पप्पा?‘<br />‘हां!‘ धनराज ने कुछ याद करने की कोशिश की, ‘तुम?‘<br />‘अंकल मैं डॉली हूं। डॉली काकड़े।‘ लड़की पास चली आई।<br />‘अरे? आप इत्ते बड़े हो गए?‘ धनराज को याद आ गया। यह विनोद काकड़े की बेटी थी, जो कभी-कभी अपने घर से उसके लिए फिश फ्राई लाती थी। विनोद काकड़े इसी सोसायटी में अंदर रहता था और बेस्ट में ड्राइवर था।<br />‘घर चलिए न अंकल।‘ लड़की मचलने लगी।<br />‘अभी नहीं बेटे।‘ धनराज ने मना कर दिया, ‘मुझे तुम यह बताओ कि सामने वाली सोसायटी में जो अयूबी अंकल रहते थे, उनका पता कहां से मिलेगा?‘ <br />‘पानबुड़े भाभी से पूछिए न।‘ लड़की ने सलाह दी और बोली, ‘आंटी को बोलिए न, कभी इधर भी आएं।‘<br />‘जरूर।‘ धनराज ने जवाब दिया और पानबुड़े भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगा।<br />पानबुड़े भाभी अपने घर के बाहर दुकान लगाती थीं और अयूबी का वहां सिगरेट-सोडे-नमकीन का खाता चलता था। पानबुड़े भाभी का पति अच्छा गायक था, लेकिन फिल्मों में मौका न मिल पाने के कारण शराब पी-पीकर मर गया था, वह इस गली की जगत भाभी थीं। <br />चारकोप के दिनोंवाली दूसरी होली में धनराज ने भाभी के स्तनों पर रंग मल दिया था। भाभी गुर्राने लगी थीं, फिर कमरे में जाकर चापर निकाल लाई थीं। धनराज ने माफी मांग ली थी। वह थोड़ा मुटा गई थीं, लेकिन हंसती अभी भी उसी अंदाज में थीं, जिसे देख आदमी फिसलने-फिसलने को हो जाए।<br />‘अयूबी अब्भी बहुत बड़ा सेठ है।‘ भाभी ने बताया, ‘अब्भी इदर एक सेक्टर छह बन गएला है गोराई के बाजू में, कोई भी आॅटो में बैठ जाओ, अयूबी तक पहुंचा देगा। कोई खास बात?‘<br />‘नहीं भाभी। बस यूं ही। सोचा मिल लेता हूं। फिर आता हूं।‘ धनराज भाभी से विदा लेकर खाली जाते आॅटो में बैठ गया और बोला, ‘सेक्टर छह। अयूबी के दफ्तर।‘<br />आॅटो वाले ने धनराज का सिर से पांव तक मुआयना किया और बोला, ‘आॅफिस नजीक ही है, पन पचास रुपया लगेंगा। और अपुन ऑफिस के सामने नई छोड़ेंगा। दूर से दिखा के चला आएंगा, चलेगा?‘<br />‘चलेगा।‘ धनराज ने जवाब दिया।<br />सेक्टर-छह की पुलिस चैकी के पास ऑटोवाले ने धनराज को उतार दिया और बताया, ‘वो सामने काले कांच के दरवाजों वाली बिल्डिंग अयूबी सेठ की है।‘<br />धनराज ने चुपचाप पचास रुपये दे दिए। ऑटो मुश्किल से दस मिनट चला होगा।<br />धनराज को याद आ गया। यह वही रास्ता है जो गोराई बीच ले जाने वाले तट पर जाता है। तट से बोट लेकर उस पार उतरते हैं, फिर तांगे में बैठकर गोराई बीच जाते हैं। चारकोप वाले दिनों में वह सरिता और रोहित के साथ कई बार इस रास्ते से गोराई बीच जा चुका है। लेकिन तब यह रास्ता सुनसान रहता था। बिल्डिंग और रो हाउस तो क्या चाय की एक गुमटी भी यहां नजर नहीं आती थी। लगातार मुंबई आ रहे लोग एक दिन इसकी एक-एक इंच जगह पर खड़े हो जाएंगे। धनराज ने कल्पना की। <br />काले कांच के दरवाजों के बाहर धनराज को दो सशस्त्र वाचमैनों ने रोक लिया, ‘किससे मिलने का है?‘<br />‘अयूबी से।‘ धनराज ने उत्तर दिया।<br />‘कार्ड?‘ एक वाचमैन ने हाथ आगे बढ़ाया।<br />धनराज ने पर्स निकाला। संयोग से सम्राट समूह के मीडिया डायरेक्टरवाले दो-तीन विजिटिंग कार्ड उसमें मौजूद थे। उसने एक कार्ड पकड़ा दिया और देखा-बिल्डिंग के गेट पर सुनहरे अक्षरों में अयूबी सिक्योरिटीज ही लिखा था। वह थोड़ा-सा आश्वस्त हुआ। उनमें से एक वाचमैन भीतर गया और करीब तीन मिनट बाद वापस आया, ‘जाइए।‘<br />धनराज ने काले कांच का दरवाजा भीतर की तरफ धकेल दिया और एसी की ठंडी फुहार से प्रफुल्ल हो गया। <br />‘सॉरी सर।‘ एक महिला ऑपरेटर बोली और उसने अपने सामने की बेंच पर बैठे कुछ सादी वर्दीवालों को इशारा किया। तत्काल दो लोग उठे और उन्होंने धनराज को सिर से पांव तक मय ब्रीफकेस के जांच लिया। इसके बाद उनमें से एक ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। धनराज चल पड़ा, एक गलियारा पार करने के बाद साथ आए आदमी ने एक कमरे का दरवाजा खोला और बोला, ‘जाइए।‘<br />भीतर अयूबी था।<br />वह अयूबी नहीं, जिसकी धनराज ने कभी मदद की थी।<br />यह चमकते लेकिन खिंचे हुए कटावदार चेहरे वाला वह अयूबी था, जैसा वह फिल्मों में बनने आया था, सुनहरे पर्दे पर उसे यह मौका नहीं मिला तो वास्तविक जीवन को उसने इस दिशा में मोड़ लिया। वह कीमती शेरवानी में था। उसके बाएं हाथ में राडो घड़ी और दाएं हाथ में सोने का ब्रेसलेट था। गले में काफी मोटी सोने की चेन डाले एक बड़ी-सी मेज के पीछे वह रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा था।<br />धनराज के प्रवेश करते ही वहां मौजूद तीन-चार लोग कमरे से बाहर निकल गए।<br />‘वेलकम धनराज सेठ।‘ अयूबी ने खड़े होकर अपनी बांहें फैला दीं, ‘बहुत दिनों के बाद अपनु को याद किया।‘<br />अयूबी से गले मिलकर धनराज उसके सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गया। वह समझ नहीं पाया कि बात का सिरा किधर से थामे। चुप रहकर वह इस बात का अंदाजा लगाने में भी व्यस्त था कि ‘अयूबी सिक्योरिटीज‘ में उसे उसके लायक क्या काम मिल सकता है।<br />‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज तत्काल मुद्दे पर आ गया। <br />‘अपुन को क्या करने का है?‘ अयूबी ने पूछा, ‘अपुन ने तुमको जुबान दिया था सेठ। बोलो, अपुन तुम्हारे वास्ते क्या कर सकता है?‘<br />‘मुझे तुम्हारे यहां नौकरी मिल सकती है?‘ धनराज ने सीधे ही पूछ लिया। <br />उसके सवाल पर अयूबी की हंसी छूट गई। हंसते-हंसते उसकी आंखों में पानी आ गया। थोड़ा संभलकर वह बोला, ‘मजा आ गया धनराज सेठ। तुम बिल्कुल नहीं बदले...अभी भी एकदम वैसे ही हो...सिर झुका कर कोल्हू के बैल का माफिक डगर-डगर करते हुए। अच्छा टाइम पास हुआ आज।‘ फिर उसने इंटरकाॅम उठाकर ऑपरेटर से कहा, ‘सलीम लंगड़े को भेजो तो।‘<br />भरे-पूरे बदन और शातिर-सी आंखोंवाले, दोनों पैरों पर चलकर आनेवाले जिस आदमी ने भीतर आकर अयूबी से ‘यस बाॅस‘ कहा उसे देख धनराज अचरज में पड़ गया, ‘इसका नाम लंगड़ा क्यों है?‘ <br />‘लंगड़े!‘ अयूबी फिर हंसने लगा, ‘यह धनराज सेठ है...अपने शरीफ दिनों का शरीफ दोस्त। अपन को उठाने में इसने बहुत मदद किया था। अभी इसको मदद का जरूरत है। अपुन लोग इसके वास्ते क्या कर सकता है?‘<br />‘किस टाइप का मदद बॉस?‘ सलीम लंगड़े ने अदब के साथ पूछा।<br />‘इसका सेठ इसको नौकरी से निकाल दिया है।‘ अयूबी ने बुदबुदा कर कहा।<br />‘सेठ को खल्लास करने का है?‘ लंगड़े ने तत्परता से पूछा।<br />‘नहीं।‘ धनराज डर गया और सहम कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।<br />‘बैठ जाओ धनराज सेठ। दस साल के बच्चे का माफिक डरो मत। अपुन तुम्हारी समस्या पर डिस्कस कर रेला ऐ।‘ अयूबी ने धनराज को कंधे पकड़कर वापस बैठा दिया। फिर उसने अपने दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में मिला लिया। फिर वह कुछ-कुछ संजीदगी और कुछ-कुछ हताशा की-सी स्थिति में बोला, ‘अयूबी की जुबान झूठा पड़ गया धनराज। तुम शरीफ आदमी हो, अपुन तुमको अपने यहां काम नहीं दे सकता। अपुन का धंधा अभी बदल गएला है।‘<br />‘तो मैं चलूं?‘ धनराज उठने लगा।<br />‘पचास हजार या लाख जो बोलो, ब्रीफकेस में रखवा दूं?‘<br />अयूबी की सदाशयता को देख धनराज विस्मित रह गया। लाख-पचास हजार की बात अयूबी इस तरह कर रहा था, जैसे सौ पचास रुपये देने हों।<br />‘नहीं, धन्यवाद। मैं चलता हूं।‘ धनराज पूरी तरह खड़ा हो गया।<br />‘ठीक है।‘ अयूबी भी खड़ा हो गया, ‘मेरे को गलत मत समझना। क्या है कि ये काम तुमको परवड़ेगा नईं।‘<br />धनराज चुपचाप बाहर आ गया।<br />बाहर दूर-दूर तक कोई ऑटो नहीं था। धनराज पैदल-पैदल चलता मेन रोड पर आ गया। ऑटो में बैठकर वह थका-थका-सा बोला, ‘मुझे घर ले चलो।‘<br />‘घर?‘ ऑटोवाला चकरा गया।<br />‘बोरीवली स्टेशन छोड़ दो।‘ धनराज ने लगभग बुदबुदाते हुए कहा और सिगरेट जलाने लगा।<br />घर खोजने, घर बनाने, घर संवारने, घर संभालने और घर बचाने में ही जीवन बीत गया है धनराज। अब घर से थोड़ा ऊपर उठो। वरना पता चलेगा कि घर भी नहीं बचा और जीवन भी गया। धनराज का मस्तिष्क सहसा दार्शनिक किस्म की बातें सोचने लगा।<br />बोरीवली स्टेशन के बाहर पटरियों के किनारे बसे गरीबों के घर टूट रहे थे। मनपा का तोड़ू दस्ता पुलिस के संरक्षण में लोगों के घर उजाड़ रहा था और लोग अपना छोटा-मोटा सामान बचाने में जुटे थे। धनराज उन टूटे हुए घरों को देखता हुआ पुल पर चढ़ा और बोरीवली पूर्व की तरफ उतरने लगा। गजब है इनका जीवन। धनराज सोच रहा था। दो दिन बाद ये लोग फिर यहां घर खड़ा कर लेंगे, आखिर, बंबई आने के बाद कोई यहां से जाता थोड़े ही है। घर रहे या न रहे! प्लेटफॉर्मों पर खड़ी भीड़ उन्मत्त और आक्रामक थी। धनराज ने मान लिया कि उससे ट्रेन नहीं पकड़ी जाएगी। रात के नौ बज रहे थे। इस वक्त बोरीवली से विरार की ट्रेन पकड़ना असाधारण वीरों का ही काम है। सीढ़ियां उतरकर खोमचों, ठेलों और दुकानों को निरुद्देश्य ताकता हुआ वह भायंदर जानेवाली बस के स्टॉप पर आ गया।<br />बस समय जरूर ज्यादा लेती थी, लेकिन ठीक गोल्डन नेस्ट के दरवाजे के बाहर उतारती थी।<br />दरवाजे के बाहर खासी भीड़ थी। पांचों सेक्टरों की मिली-जुली भीड़। कुछ पुलिसवाले भी इधर-उधर टहल रहे थे। उस भीड़ को चीरते हुए धनराज राजकुमार पान बीड़ी शॉप पर चला गया, उसकी सिगरेट खरीदने की नियमित दुकान। दुकान के मालिक राजकुमार ने रहस्यमय अंदाज में रस ले-लेकर बताया, सेक्टर-पांच के सोना ब्यूटी पार्लर पर पुलिस की धाड़ पड़ी है। कॉलेज की पांच लड़कियां पांच अधेड़ पुरुषों के साथ अश्लील हरकतें करती पकड़ी गई हैं। पकड़े गए पुरुषों में एक वर्मा साहब भी हैं, सेक्टर-चार के वर्मा साहब, जिनकी गोरेगांव पश्चिम में बहुत बड़ी रेडीमेड कपड़ों की दुकान है और जिनका बेटा फोर्ट की एक कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर है।<br />‘वर्मा साहब ने सेक्टर-चार की इज्जत का कचरा कर दिया है।‘ राजकुमार हंसने लगा, ‘इस उमर में तो आदमी पालक हो जाता है, मेरे को लगता है कि चुसवा रहे होंगे।‘ राजकुमार फिर हंसा...‘हा...हा...हा...अब उनकी बेटी इस रोड पर से कैसे गुजरेगी? हा...हा...हा...!‘<br /><br />×××<br /><br />बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की कोख से पैदा हुआ उत्तर आधुनिक समय हंस रहा था। शहर के अखबार और बाजार डॉट कॉम कंपनियों के विज्ञापनों से अटे पड़े थे। जुहू की गलियों में चोरी-छिपे चलनेवाला देह व्यापार का धंधा पिछड़ रहा था। महंगे और बड़े कॉलेजों की बिंदास किशोरियां चिपकी हुई जींस और टॉप के साथ कॉलेजों से बाहर निकलकर केवल एक रात के डिस्को जीवन और डिनर विद बीयर के सौदे पर लेन-देन कर रही थीं। इंटरनेट पर पोर्नो साईट सबसे ज्यादा पैसा पीट रही थीं। पूरी दुनिया की हजारों नंगी लड़कियों को करोड़ों बाप-बेटे कंप्यूटर के मॉनीटर्स पर देखने में मशगूल थे। सरकारें अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही थीं। मल्टीनेशनल कंपनियों का अजगर बाजार को लीलता हुआ घुसा चला आ रहा था। कारें बढ़ती जा रही थीं। हवा और पानी समाप्त हो रहे थे। मुंह में चीज बर्गर या चिकन सैंडविच या मटन रोल दबाए और हाथ में कोक की बोतल थामे युवा लड़के डॉट कॉम कंपनियों में चैदह-चैदह घंटे खप रहे थे। जवान होती लड़कियां अपने उत्तेजक सीनों और कामातुर नितंबों के साथ फिल्म फाइनेंसरों की हथेलियों पर नाच रही थीं। अकेले छूट गए बूढ़े लोगों को उनके फ्लैटों में घुसकर कत्ल किया जा रहा था। बच्चों को क्रेच में फेंक दिया गया था और मांएं लोकल में लटक कर काम पर जा रही थीं।<br />दुनिया की सबसे छोटी कविता लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर खड़ी अट्ठहास कर रही थी-आई। व्हाई?<br />आई। व्हाई? गोल्डन नेस्ट के सेक्टर-चार की उदीयमान अभिनेत्री गीता अलूलकर ने सोचा और सातवें माले के अपने कीमती फ्लैट की खिड़की से छलांग लगा दी। गीता अलूलकर के साथ-साथ उसके गर्भ में जन्म ले चुका उसका बच्चा भी मारा गया । <br />आई। व्हाई? सेक्टर-एक के शराबी ऑटो ड्राइवर की बीवी शोभा नार्वेकर ने सोचा और बदन पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। फिर घर से निकलकर पूरे सेक्टर में वह पछाड़ खाती फिरती रही। <br />नागपाड़ा पुलिस चैकी में बिना सोए छत्तीस घंटे से ड्यूटी दे रहा कांस्टेबल सालुंके बड़बड़ाया-आई। व्हाई? फिर उसने खुद को गोली मार ली।<br />घर से निकाल दिए गए सत्तर साल के सतवीर राणा ने दोहराया-आई। व्हाई? फिर वह विरार फास्ट के आगे कूदकर कट गया। <br />बारहवीं में पढ़ रहे साइंस के स्टूडेंट नासिर हुसैन ने सोचा-आई। व्हाई? और बस स्टॉप पर खड़ी अपनी सहपाठी रमेश टिपणिस के चेहरे पर तेजाब फेंककर भाग खड़ा हुआ। <br />आई। व्हाई? एक समवेत और नसों को तड़का देनेवाला शोर उठा और मालाड, गोरेगांव, चेंबूर, डोंबीवली, कुर्ला, भायंदर, मुलुंड, कल्याण, विरार के नौजवान और हताश लड़के सीधे हाथ की उंगलियों को रिवॉल्वर की शक्ल में ताने दगड़ी चाल की गलियों में गुम हो गए, जहां सात-सात हजार में शूटरों की भर्ती चल रही थी। <br />आई। व्हाई? छोटे-मोटे बिल्डर और शराबघरों के मालिक सोचते थे और चुपके से सत्ता के गलियारों में दाखिल हो जाते थे।<br />पत्र-पत्रिकाएं बंद हो रही थीं। पुस्तकालय सूने पड़े थे। बड़े लेखक या तो मर गए थे या चुक गए थे। मीडियॉकर लेखकों को शौचालयों के मालिक, जूतों और टायरों के मालिक, शराब कंपनियों के हिस्सेदार लाखों रुपये में पुरस्कार बांट रहे थे। जन संघर्षों में सक्रिय रूप से जुड़े रचनाकारों को सलाखों के पीछे डाला जा रहा था। युवा लेखक टीवी सीरियलों के फूहड़ संसार में सेंध लगा रहे थे। अपहरण ने उद्योग का और हफ्ता वसूली ने धंधे का रूप धर लिया था। गुंडे नगरसेवक बन गए थे, डॉक्टर व्यापारी और क्रिकेटर घपलेबाज। <br />और इस पूरे ‘सीन पिचहत्तर‘ में धनराज के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी।<br /><br />तीन<br /><br />नहीं, यह वह बबलू नहीं था, जिसे धनराज अमिताभ बच्चन बनने का सपना देखते हुए जोधपुर में छोड़ गया था। यह सलोने, लंबोतरे चेहरे, स्वप्निल आंखों और बात-बेबात पर मुस्कराता किशोर नहीं था। यह नागेश चैधरी था।<br />नागेश चैधरी का चेहरा सख्त और खुरदुरा था। उसकी आंखों में एक बनैली हिंसा और क्रूर चमक कौंधती थी। हंसता वह अभी भी था, लेकिन अब उसकी हंसी में एक उपेक्षा जैसा कुछ रहता था। सबसे बड़ी बात, उसकी बातें अजनबी हत्यारों के रहस्यमय देश से आती अंतिम आदेशों जैसी थीं। <br />इस नागेश चैधरी को अपने सामने खड़ा पा धनराज तो एकाएक लड़खड़ा ही गया। <br />धनराज जोधपुर आया हुआ था, सपरिवार। बहुत जमाने के बाद वह अपने कुल कुनबे के बीच था। एक बहुत सादे विवाह समारोह में ममता को विदा कर देने के बाद वे सब लोग अजीब-सी फुर्सत में एकाएक खाली हो गए थे। शादी का सारा इंतजाम, भागदौड़ और सरंजाम राकेश ने एक जिम्मेदार अभिभावक की तरह अंजाम दिया था और अब वह अपने प्रयत्नों को शहीदों की-सी मुद्रा में एकालाप की तरह गा रहा था। धनराज और सरिता उसकी शौैर्यगाथा को बड़ी तन्मयता से सुन रहे, जबकि नागेश के चेहरे पर एक अजीब-सा वीतराग था। <br />यह वीतराग धनराज ने अपनी मां के चेहरे पर भी देखा। पता नहीं, मां-बेटे में से किसने-किसके चेहरे से यह वीतराग चुरा लिया था। ठीक-ठीक यही वीतराग धनराज ने पिता के अंतिम समय में उनके चेहरे पर भी देखा था। कहां से आता है यह वीतराग और क्यों?<br />बुआ की शादी में, लड़केवालों के दल में शामिल होकर रोहित जमकर नाचा था और अब थककर, दादी की गोद में सिर छुपाकर एक बेफिक्र नींद में चला गया था। राकेश की पत्नी अपनी दोनों बेटियों के साथ दूसरे कमरे में जा चुकी थी। बैठकवाले कमरे में बाकी लोग थे-सरिता, धनराज, राकेश , नागेश , मां और सोता हुआ रोहित। बीच-बीच में ममता की यादें भी टहलने चली आती थीं। इस पूरे कुनबे को बैठक की दीवार में, फ्रेम में जड़े पिता मुस्कराते हुए देख रहे थे। राकेश की शौर्यगाथा से पूरी तरह निरपेक्ष नागेश टीवी पर समाचार सुन और देख रहा था। अचानक वह रुका। धनराज ने देखा-टीवी पर उद्घोषिका कह रही थी - <br />‘जनाधिकार अभियान के सिलसिले में मुंबई आए भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने पत्रकारों को बताया कि या तो एनरॉन द्वारा महाराष्ट्र को लूट लिया जाएगा या महाराष्ट्र की जनता एनरॉन को लूट लेगी। केंद्र सरकार की उदार अर्थव्यवस्था तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया को भारत के लिए खतरे की घंटी बताते हुए श्री चंद्रशेखर ने कहा कि उदारीकरण एवं विदेशी कंपनियों के लिए दरवाजे खोल दिए जाने के कारण इतनी विषमता पैदा हो गई है कि गरीब इलाकों में भारी तनाव की स्थिति छाई हुई है। बेरोजगारी बढ़ने के साथ-साथ कारखाने बंद हो गए हैं। सब्सिडी बंद हो जाने के कारण हमारे किसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। श्री चंद्रशेखर ने कहा कि जो आत्महत्या करने पर मजबूर होता है, कल वह हत्या भी कर सकता है।‘<br />‘गुड!‘ बबलू उर्फ नागेश चैधरी चहका, ‘बुर्जुआ नेता भी चिंतित हैं।‘ फिर उसने टीवी बंद कर दिया। <br />धनराज ने राहत की सांस ली, फिर बात शुरू करने के लिहाज से बोला, ‘बुर्जुआ मतलब?‘<br />‘आप नहीं समझेंगे। छोड़िए।‘ नागेश हंसी में हिकारत-सी भरकर बोला, जिससे धनराज को चोट लगी।<br />‘राकेश बता रहा था कि तुम गुंडागर्दी करने लगे हो?‘ धनराज ने पलटकर वार किया।<br />बहुत जोर का ठहाका लगाया नागेश चैधरी ने फिर तिक्त लहजे में बोला, ‘बीवी बच्चे, मां, बहन, नौकरी, आर्थिक तंगी की सदाबहार रुलाई के बीच मेंढक की तरह टर्रा-टर्राकर जीवन गुजारते राकेश भाई की कोई गलती नहीं है। वे भी उसी सड़े गले समाज का हिस्सा हैं, जिसे हम बदलना चाहते हैं।‘ <br />‘क्या बदलना चाहते हो तुम?‘ धनराज तनिक जोर से बोला, ‘मुझे तुम्हारी बातें समझ में नहीं आ रहीं?‘ <br />‘आएंगी भी नहीं।‘ नागेश फिर टहलने लगा, ‘आप मुंबई के अपने सुखी जीवन में मस्त रहिए।‘<br />‘क्या सुखी जीवन?‘ धनराज तिलमिला गया, ‘मेरी नौकरी को गए छह महीने हो गए हैं।‘<br />‘तो क्या हुआ?‘ नागेश रुका, ‘रोहित कमाता है न?‘<br />‘केवल छह हजार रुपये?‘ धनराज ने याद दिलाया। <br /> केवल छह हजार रुपये? नागेश फिर हंसा, ‘केवल? उन दिनों को भूल गए आप जब केवल छह सौ रुपये में हमारा बाप हम सबको पालता था। ममता को हम इंटर के बाद क्यों नहीं पढ़ा सके? इसलिए कि हम हर महीने उसकी फीस नहीं भर सकते थे। बिहार के जिन गांवों में मैं काम करता हूं, वहां के लड़के इंटरव्यू का बुलावा आने पर भी दिल्ली-मुंबई इसलिए नहीं जा पाते, क्योंकि उनके पास रेल का किराया नहीं होता।‘<br />‘बिहार के गांवों में क्या काम करते हो तुम?‘ धनराज की उत्सुकता जागी। <br />‘वो भी आपको समझ में नहीं आएगा।‘ नागेश उपेक्षा से बोला।<br />‘मगर यह कैसा काम है?‘ धनराज बुजुर्गों की तरह बड़बड़ाया। <br />‘यह ऐसा काम है, जो पूरा होने पर देश का नक्शा बदल देगा।‘ नागेश की आंखें चमकीं, ‘लेकिन उस बदले हुए नक्शे में आप लोगों के लिए भी जगह नहीं होगी। वर्ग शत्रुओं के कत्ले-आम के दौरान आप जैसे लोग भी मारे जाएंगे। पैटी बुर्जुआ रास्कल।‘<br />धनराज सहम गया। उसे लगा राकेश ने शायद ठीक कहा था कि बबलू गुंडा हो गया है। धनराज ने राकेश की तरफ देखा, वह ऊबा-ऊबा सा, सोने के लिए दूसरे कमरे में जा रहा था। फिर नागेश भी बाहर चला गया, शायद किसी दोस्त से मिलने। ऐसे कौन-से दोस्त हैं, जो इतनी रात को भी जागते हैं। धनराज सोच रहा था। अंततः धनराज और सरिता ने भी उसी कमरे में चटाई पर बिस्तर लगा लिया और रोहित को जगाकर उस बिस्तर के एक कोने पर सुला दिया। मां अपने कोने में पसर गई। मां का वर्षों पुराना कोना।<br />यह पिता का घर था। <br />रखना छिपा के दिल के छाले ऽऽऽ! <br />घर छालों की तरह फट गया था। घर की दुर्दशा को देखते-देखते धनराज ने सरिता की तरफ ताका, तो पाया कि सरिता धनराज को ताक रही थी। <br />‘क्या सोच रही हो?‘ धनराज ने पूछा।<br />‘मुझे लगता है, हमें इस घर को इस तरह नहीं भुला देना था।‘ सरिता की आंखें नम थीं। वह एक सच्चे पश्चताप के बीच खड़ी पिघल रही थी।<br />‘मुझे भी ऐसा ही लगता है।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली। <br />सुबह जब वह जागा, तो कमरे के एक कोने में रोहित, उसका बबलू चच्चू और राकेश की दोनों बेटियां बातों में व्यस्त थे। सरिता शायद मंजू के साथ किचन में थी और मां?<br />धनराज ने इधर-उधर देखा-मां कमरे की खिड़की के पार सीढ़ियां चढ़कर छत पर जाती दीख रही थी। शायद धूप में टहलने के लिए। धनराज ने देखा कि इस वक्त बबलू का चेहरा बबलू का ही था। शायद इसलिए कि वह मासूम बच्चों की निष्पाप दुनिया में बैठा था।<br />बबलू रोहित को समझा रहा था-इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजी का लॉलीपॉप थोड़े-से लोगों के लिए है बेटे। ये सब, लोगों को चूतिया बनाने का गोरख-धंधा है। जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोगों को रोटी नहीं मिलती, उस देश में कंप्यूटर क्रांति को तरजीह देना अवाम के साथ एक भौंडा मजाक है। हकीकत यह है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के माध्यम से इस देश में उपनिवेशवाद की वापसी हो रही है।‘ <br />‘उपनिवेशवाद क्या होता है चच्चू?‘ रोहित ने पछा। <br />‘यह बताना तो बहुत कठिन है बेटे।‘ बबलू उलझ गया, ‘इसे इस तरह समझ कि अंग्रेजों के समय में हम उनकी एक कॉलोनी थे, जहां वे लूटमार करते थे। अभी भी हम लूटमार की मंडी हैं, लेकिन इस बार उन्होंने गैट और उदारीकरण का नकाब पहना हुआ है।‘<br />‘पर चच्चू मुंबई में तो मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी पाना खुशी की बात समझी जाती है।‘ रोहित अपनी नौकरी को जस्टीफाई करने के चक्कर में था। <br />‘मुंबई देश नहीं है बेटे। मुंबई देश के जिस्म पर उगा हुआ कैंसर है।‘ बबलू हंसने लगा। धनराज को लगा बबलू की आत्मा में फिर से नागेश चैधरी प्रवेश ले रहा है। एक समय था। धनराज को याद आया, यही बबलू मुंबई जाने के नाम से रोमांचित हो उठता था।<br />‘मैंने सुना है।‘ बबलू पूछा करता था। ‘वहां हेमा मालिनी सड़कों पर सब्जी खरीदती हुई दिख जाती है?‘<br />‘चच्चू मेरे को अपनी पिछतौल दिखाओ न?‘ यह सोना थी, राकेश की छोटी बेटी।<br />नागेश जेब से रिवॉल्वर निकालने लगा।<br />धनराज फिर सहम गया और करवट बदलकर वापस सो गया।<br />दुबारा जब वह जागा, तो धूप चढ़ आई थी। उस धूप में घर की दुर्दशा और भी चमकीली हो गई थी। यह ठीक है कि इन दिनों वह बेकार है, लेकिन सुखी दिनों में तो उसे कुछ पैसे हर महीने मां को भेजते रहने चाहिए थे। वह सोचता था कि नो न्यूज इस द गुड न्यूज। उसे क्या पता था कि उसके भाई, उसकी बहन और उसकी मां अपने दारिद्र्य के अभिमान की ऊंची अटारियों पर चढ़े बैठे थे। शुरू में कुछ समय तक मां की चिट्ठियां आती रही थीं। उनमें वही सब होता था जो ढहते हुए घरों से आनेवाली चिट्ठियों में होता है-ममता चुप रहने लगी है। राकेश चिड़चिड़ा हो गया है। बबलू के लच्छन ठीक नहीं हैं। वह रात-रात भर बाहर रहता है। कई-कई दिन तक घर नहीं आता। तू बबलू को अपने पास क्यों नहीं बुला लेता? <br />तब धनराज चारकोप की बैठी चाल वाले एक कमरे में रहता था। उसकी नयी-नयी नौकरी थी जिसके नये-नये जानलेवा तनाव थे। वह सोचता था कि थोड़ा संभल जाए, तो कुछ करे, लेकिन तब तक मां की चिट्ठियां ही आनी बंद हो गईं।<br />धनराज जानता है कि ये सब केवल खुद को दिलासा दिलाने वाले तर्क हैं। गुनहगार तो वह है।<br />तभी रोहित के साथ वह आता दिखा-बबलू। नहीं, नागेश चैधरी।<br />‘रिवाॅल्वर से क्या करते हो?‘ धनराज ने लेटे-लेटे पूछा।<br />‘रिवाॅल्वर से उस आदमी का भेजा उड़ा देते हैं, जो भूखी, बदहाल लड़कियों के साथ बलात्कार करता है, जो बच्चों से अपने खेत में बंधुआ मजदूरी करवाता है, जो किसानों के घर जला देता है।‘ नागेश चैधरी हंसा, ‘और कुछ जानना है?‘<br />‘चच्चू, तू लोगों को मार देता है?‘ यह रोहित था, पूरे आश्चर्य के बीचोबीच।<br />‘हां बेटा, कभी-कभी मार देना पड़ता है।‘ बबलू ने रोहित को इस तरह समझाया मानो कभी-कभी वह मच्छर को मसल देता हो।<br />‘तुझे पुलिस नहीं पकड़ती चच्चू?‘ रोहित ने प्रश्न किया। <br />‘पुलिस में भी अपने दोस्त होते हैं बेटा। वो बता देते हैं कि भाग जाओ। फिर हम भाग जाते हैं।‘ बबलू अभी तक बबलू था, मुस्कराता हुआ, सहज और सरल।<br />‘और कभी तू पकड़ा गया तो?‘ रोहित की जिज्ञासाएं उफान पर थीं।<br /><br />‘तो तेरा चच्चू मार दिया जाएगा।‘ बबलू जोर-जोर से हंसने लगा, ‘मरना तो सभी को होता है बेटे। किस मकसद के लिए मरे, बड़ी बात यह है।‘<br />खाना खाकर बबलू रोहित को जोधपुर का किला दिखाने ले गया। धनराज के दिमाग में हथौड़े चलने लगे-मकसद। मकसद। मकसद।<br />बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना, परिवार को सुखी रखना क्या यह सब मकसद के दायरे में नहीं आता? धनराज सोच रहा था। लगातार। क्या जीवन में उससे कोई चूक हो गई है? लोग गरीब हैं, भूखे हैं, अशिक्षित हैं, गटर में हैं, सड़क पर हैं, मारे जा रहे हैं-इसमें उसका क्या दोष है?<br />मां आ रही थी। धीरे-धीरे। धीर गंभीर।<br />धनराज उठकर बैठ गया।<br />मां के पीछे-पीछे सरिता भी आई और सरिता के पीछे ‘ताई ताई‘ करती राकेश की दोनों बेटियां-सोना, मोना। राकेश अपनी नौकरी पर जा चुका था।<br />‘सुखी तो है न?‘ मां ने पूछा और सोना-मोना को अपनी गोद में बिठा लिया। <br />धनराज हंसा, एक फीकी हंसी। पछतावे और दुख में डूबी-डूबी सी। फिर उसने अचानक पूछा, ‘डैडी की याद आती है?‘<br />मां ने इनकार में गर्दन हिला दी। धनराज ने देहरादून वाले दिनों में जाकर देखा-पिता नशे में धुत्त हैं और मां को लात-घूसों से पीट रहे हैं। उसने एकाएक पिता का हाथ पकड़ लिया है और भौंचक्के पिता ने मां को छोड़ धनराज को पकड़ लिया है। धनराज के मुंह पर झापड़ रसीद कर उन्होंने उसे ठंडे बाथरूम में बंद कर दिया है।<br />मां का चेहरा एकदम शांत है। उसे कोई दुख-सुख नहीं व्यापता। <br />‘अपने दुख किसके साथ बांटती हो?‘ धनराज ने पूछा। <br />‘मुझे कोई दुख नहीं है।‘ मां मुस्कराने लगी, ‘मेरे दुख भी उसके हैं और सुख भी उसी के।‘<br />‘उसके? उसके कौन?‘ धनराज चैंका। <br />‘राम के।‘ मां ने आंखें बंद कर लीं।<br />मां का राम कौन है? धनराज असमंजस में पड़ गया। उसने छह दिसंबर में जाकर देखा-राम का नाम लेकर ढेर सारे लोग मस्जिद गिरा रहे थे।<br />खाना खाकर धनराज सोना-मोना को गोद में लेकर छत पर चला गया। गर्मी के दिनों में इसी छत पर पिता की महफिल जमती थी। पिता के अंतिम दिनोंवाला घर, जो उन्होंने दर-दर की ठोकरें खाने के बाद आखिरकार जोधपुर में बना ही डाला था। पिता सोचते थे कि अपने-अपने पैरों पर खड़े होने के बाद उनके तीन बेटे इस घर को तीन मंजिला भवन में बदल देंगे। <br />‘बड़े पापा हम मुंबई जाएंगे,‘ मोना ने धनराज को टोका।<br />‘औल हम भी।‘ छोटी सोना ने सुर में सुर मिलाया।<br />‘जरूर।‘ धनराज ने दोनों को आश्वासन दिया और छत से दिखती, दूर जाती उस सड़क को देखने लगा, जिससे गुजरकर धनराज मुंबई और बबलू बिहार चला गया था। एक ही सड़क लोगों को अलग-अलग जगहों पर क्यों ले जाती है। धनराज सोच रहा था। दोनों लड़कियां आपस में झगड़ने लगी थीं। धनराज उन्हें लेकर नीचे आ गया।<br />रात को जमीन पर बैठकर सब लोगों ने एक ही कमरे में एक साथ खाना खाया। गोश्त और चावल। गोश्त मां ने पकाया था। मंजू ने बताया, ‘मां जी ने कई साल बाद अपने हाथ से मटन पकाया है।‘<br />धनराज को फिर पिता याद आ गए। पिता कहते थे -‘तेरी मां बिना मसालों के भी ऐसा गोश्त पकाती है कि बख्शी दा ढाबा भी शरमा जाए।‘ बख्शी दा ढाबा देहरादून का एक मशहूर रेस्त्रां था, जिस पर हर समय भारी भीड़ रहती थी। खासकर रात में।<br />‘मैंने भी कई सालों के बाद गोश्त खाया है।‘ बबलू हंसने लगा। <br />‘चच्चू तेरे इलाके में मटन नहीं मिलता है?‘ यह रोहित था। <br />‘ज्वार की मोटी मोटी रोटी पर लहसुन और लाल मिर्च की चटनी मिल जाए, तो लोग खुश हो जाते हैं बेटे।‘ बबलू बता रहा था, ‘और अगर साथ में चोखा हो, तो बात ही क्या?‘<br />‘चोखा क्या होता है चच्चू?‘ रोहित पूछ रहा था।<br />‘आलू को उबालकर उसे सरसों के तेल में मसल देते हैं...‘<br />‘बस?‘ रोहित चकित था, ‘कौन लोग इतने गरीब होते हैं चच्चू?‘ पीजा, बर्गर, कोक की दुनिया में बड़ा हुआ रोहित उबले हुए आलू के साथ सुख का सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा था।<br />‘हर मेहनत करनेवाला गरीब होता है बेटे।‘ बबलू ने जवाब दिया।<br />‘घर के सब लोग बैठे हैं।‘ अचानक धनराज बोला, ‘बबलू तुम क्या सोचते हो? मुझे अब क्या करना चाहिए?‘<br />बबलू को सम्भवतः धनराज से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। वह अचानक हड़बड़ा-सा गया। फिर संजीदा होकर बोला, ‘बुरा मत मानना भाई साहब। पूरे विवेक के साथ बोल रहा हूं। असल में आपकी समस्या यह है कि आपके जीवन का कोई मकसद नहीं है। आप जैसे लोग दोनों तरफ से मारे जाते हैं। आपकी जरूरत न इधर है न उधर।‘ बबलू ने कहा, ‘एशिया की सबसे नारकीय झोपड़पट्टी धारावी आपकी मुंबई में ही है। कभी वहां गए हैं आप? आपने नासिक के देवलाली गांव के बारे में सुना है। उसे विधवाओं का गांव कहते हैं। वहां के सारे पुरुष फायरिंग रेंज में चोरी से घुसकर पीतल-तांबा बटोरते हैं, ताकि उसे बेचकर पेट भर सकें। पीतल-तांबा बटोरते-बटोरते वहां का एक-एक पुरुष तोप के गोलों का शिकार हो गया। निपाणी का नरक देखा है आपने? मुंबई की कितनी सारी कपड़ा मिलें बंद हो गई हैं। उनके मजदूर क्या कर रहे हैं, पता है आपको? मुझे मालूम है, इन सवालों से नहीं टकरा सकते आप। ये बहुत असुविधाजनक सवाल हैं। आपका पूरा जीवन मैं से मैं के बीच चक्कर काटते बीता है, इसीलिए बाकी लोग खुद ब खुद आपके जीवन से बाहर चले गए हैं। उन सबके जीवन में आपकी कोई जरूरत नहीं है।‘ बबलू रुका, फिर वह नागेश चैधरी वाली हंसी हंसने लगा, ‘ऐसा करो, आप मुरारी बापू की शरण में चले जाओ। सुना है, मुंबई में उसकी नौटंकी सुपर-डुपर हिट है।‘<br />धनराज का सिर झुक गया।<br />‘बबलू,‘ सरिता ने खाना रोक दिया, ‘तुम हद के बाहर जा रहे हो।‘<br />‘सॉरी भाभी,‘ बबलू ने विनम्रता से जवाब दिया, ‘मेरा मकसद किसी का भी दिल दुखाना नहीं था।‘ फिर वह हाथ धोने के लिए आंगन में बने नल पर चला गया।<br />रात दस बजे कोई लड़का बदहवास-सा बबलू से मिलने आया। कुछ देर आंगन में कुछ खुसुर-फुसुर की उन्होंने, फिर बबलू उसी के साथ घर के बाहर चला गया। <br />जब बबलू को गए दो घंटे बीत गए, तो धनराज ने प्रश्नाकुल हो राकेश की तरफ देखा। राकेश ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘वो गया। वो ऐसे ही जाता है।‘<br />धनराज जड़ हो गया।<br /><br />×××<br /><br />मुंबई पहुंचने के अगले रोज धनराज के सीने में तेज दर्द उठा। उसका बदन पसीने-पसीने हो गया। तकलीफ से उसका चेहरा ऐंठने सा लगा और दोनों आंखें बाहर निकलने को आतुर हो उठीं। <br />रोहित उस समय अपने ऑफिस में था और सरिता ‘कौन बनेगा करोड़पति‘ देख रही थी। धनराज छटपटाकर बेडरूम में ड्रेसिंग टेबल के पास गिरा। उसके गिरने की आवाज सुनकर सरिता भागकर बेडरूम में पहुंची, फिर वह सामनेवाले पड़ोसी के.के. महाजन की मदद से उसे सेक्टर-पांच के नर्सिंग होम में ले गई।<br />धनराज को दिल का दौरा पड़ा था।<br />स्वस्थ होने में धनराज को एक महीना लगा।<br />उसकी बीमारी में जोधपुर से कोई नहीं आ पाया। राकेश को छुट्टी नहीं मिली। ममता ससुराल में थी। उस तक खबर काफी देर से पहुंची। अकेली मां आ नहीं सकती थी और बबलू बिहार के गांवों में था।<br />बिस्तर पर पड़ा-पड़ा धनराज अपने एकान्त में गुनगुनाया करता -<br />रखना छुपा के दिल के छाले रे ऽऽऽ!<br />उन्हीं दिनों सरिता को सेक्टर-चार के पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई। <br />धनराज और अकेला हो गया।<br />यह अकेला धनराज एक रात गौतम बुद्ध की तरह सरिता और रोहित को सोता छोड़ कहीं अंधेरे में गुम हो गया।<br />कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने धनराज को हाथ में एक ईंट लिए अयोध्या के रास्ते पर पैदल-पैदल जाते देखा था। <br />(रचनाकाल: जनवरी 2001)नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-35922274971748913582009-07-13T12:57:00.001+05:302009-07-13T13:00:32.731+05:30पीले फूलों का सूरज - गौरव सोलंकीहम बहुत देर तक ऐसे हँसते रहे थे जैसे कोई हफ़्तों का भूखा देर तक खाना खाता रहे। वह मुझसे एक डेढ़ इंच लम्बी होगी। हम आमने सामने सीधे खड़े होते तो मैं सीधी गर्दन करके उसके होठों को नहीं चूम पाता। वह अक्सर मुझ पर हल्की सी झुक जाती थी। मुझे लगता था कि वह मुझ पर हल्की सी छा जाती है। वैसे उस रात हमने एक दूसरे को नहीं चूमा। हमने बातें की और हँसते रहे। मुझे भूख लगी थी, रात बहुत थी, वह दिल्ली थी और वह हीरोइन बनना चाहती थी। वैसे दिल्ली न भी होती तो भी वह हीरोइन ही बनना चाहती। उसने मेरे लिए मैगी बनाई और अपने लिए सिर्फ़ चाय। उसने कहा कि तुम्हारे किचन में कॉकरोच हैं। मैंने कहा कि मैं लेखक बनना चाहता हूं। उसने कहा कि लेखक बनना चाहना तो ऐसा है कि जिस क्षण चाहो, उससे अगले क्षण कागज़ और पेन उठाकर लेखक बन सकते हो। मैंने कहा कि यह इतना आसान नहीं है। जैसे किचन में कॉकरोच हैं, वैसे कलेजे में भी हैं। हम हँसे।<br /><br />कुछ देर बाद उसने मुझसे कहा कि मुझे स्टॉक मार्केट या फिल्मों पर लिखना चाहिए। दोनों का बड़ा बाज़ार है। मुझे लगा कि ‘स्टॉक मार्केट का बड़ा मार्केट’ कहना तो वैसा ही है, जैसे कहना कि इंडिया गेट का बड़ा गेट है या पंजाबी बाग का बड़ा बाग है। यह मैंने उसे बताया तो उसने कहा कि मेरा दिमाग गणित में बेहतर चल सकता था। उसने मुस्कुराते हुए कहा कि इंजीनियरिंग का भी बड़ा बाज़ार है। उसका दूर के रिश्ते का एक भाई अमेरिका में इंजीनियर था। मैं उससे कई बार कह चुका था कि मुझे भाइयों और इंजीनियरों से चिढ़ है। यह हम दोनों को एक साथ याद आया और हम हँसे।<br />फिर वह पैर फैलाकर मेरे बिस्तर पर लेट गई। मैं लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर मैगी खा रहा था। उसने कहा कि मुझे कुछ काँटे खरीद लेने चाहिए, ताकि मैगी खाने में सहूलियत रहे। मैंने कहा कि यहाँ आसपास छोटी दुकानें नहीं हैं और बड़ी दुकानों में घुसने पर मुझे डर और असुरक्षा का सा अहसास होता है। इसीलिए मैंने एक हफ़्ते से दाढ़ी भी नहीं बनाई है। मेरे ब्लेड ख़त्म हो चुके हैं और आसपास कोई छोटी दुकान नहीं है। उसने पूछा कि क्या मैं उदास हूं?<br />मैंने कहा, नहीं और हम हँसे।<br /><br />वह शुक्रवार था। मेरा रूममेट विकास अपने घर चला गया था। हफ़्ते के उन दो दिनों में ही मुझे वह कमरा अपने कमरे जैसा लगता था। जब तक आप इतने आज़ाद न हों कि नंगे होकर बिस्तर पर सो सकें, आपका अपना घर रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम से ज़रा भी बेहतर है, ऐसा मुझे नहीं लगता।<br />- मुझे संख्याओं से भी डर लगता है। डर भी नहीं, कुछ लगता है कि अंकों से दूर भागने का मन करता है....और तुम कहती हो कि मैं गणित में अच्छा रहता...<br />- मैं किसी फ़िल्म स्कूल में जाना चाहती थी।<br />- स्कूल कैसे भी हों, आदमी को बर्बाद ही करते हैं।<br />- कभी कभी मुझे यह भी लगता है कि किसी दिन पेट पालने के लिए मुझे शादियों के डीजे में नाचना पड़ जाएगा।<br />- तुम फ़िल्मों में हीरोइन बनना चाहती हो या डांसर?<br />- तुम बहुत लॉजिकल हो...तुम्हें मैथ्स ही पढ़ना चाहिए था।<br />- मैं अंग्रेज़ी में लिखना चाहता हूं, लेकिन मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती।<br />- क्यों?<br />- अब नहीं आती तो नहीं आती...<br />- मैं पूछ रही हूं कि अंग्रेज़ी में क्यों लिखना चाहते हो?<br />- तुम डीजे में क्यों नाचना चाहती हो?<br />- ऐसा मैं चाहती नहीं ....और मैं नाचूंगी भी नहीं।<br />- आज मेरा जन्मदिन है।<br />वह चौंक गई।<br />- सात तारीख है आज?<br />- चलो तुम्हें इतना तो याद है कि मैं सात तारीख को पैदा हुआ था।<br />- सॉरी...मैं भूल गई। सुबह तक याद था मुझे...और तुमसे मिलते ही भूल गई। सॉरी...हाँ? हैप्पी बर्थडे...<br />- वैसे आज तेईस तारीख है...<br />मैं मुस्कुराया। उसने तकिया मुझ पर फेंक कर मारा और चिल्लाई। फिर उसने मेज पर से एक किताब उठा ली और मुझसे पीठ फेरकर पढ़ने लगी। मैंने उससे कहा कि हीरोइनों को बेवकूफ़ होना चाहिए और किताबें नहीं पढ़नी चाहिए। उसने तुरंत मेरी बात मान ली और किताब वापस मेज पर फेंक दी।<br />उसने कहा कि फ़िल्मों में इतना सम्मोहन होता है कि कई बार वह कोई फ़िल्म देखते देखते उसे पॉज करके बहुत तीव्रता से हीरोइन बनना चाहने लगती है। फिर वह डायरी लिखने लगती है, जो और भी बेचैन कर देने वाला अनुभव होता है। तब उसे साँस लेने में भी तकलीफ़ होती है और वह उठकर खुली हवा के लिए छत पर चली जाती है।<br />वह दिल्ली थी और मैं उससे दिल्ली की लड़कियों के बारे में बात करना चाहता था। वह फ़िल्मों और ज़िन्दगी के बारे में बात करना चाहती थी। वह तब्बू और किसी कोंकणा के बारे में बात करती रही। कुछ देर बाद रुककर उसने फिर पूछा कि क्या मैं उदास हूं?<br />मैं उठकर टेरेस पर टहलने लगा जैसे वह टेरेस ही था और हमारे ऊपर पंखा लगी छत नहीं, आसमान था। मुझे आकाश से एक ख़ास किस्म का मोह था। हमने तय किया कि इंसान को ज़्यादा नाजुक नहीं होना चाहिए।<br />उसने कहा- तुम टीवी खरीद लो।<br />- मेरे पास पैसे नहीं हैं...और होते, तो भी शायद मैं कोई किताब खरीदता और मिठाइयाँ।<br />- तुम मुझे एक विचित्र तरह से विकर्षित करते हो।<br />मैं हँसा।<br />- क्या दिल्ली में लड़कियाँ वाकई शराब पीती हैं?<br />- जैसे तुम्हें मालूम नहीं।<br />- मैं दिल्ली की किसी लड़की को नहीं जानता।<br />और एक उदासी हमारे बीच के पलंग के उभरे हुए कोने पर पसर गई। हमने सोचा कि हमें उदास नहीं होना चाहिए। हम रोज़ यही निश्चय करते थे। ख़ुश रहने के ढेरों फ़ायदे मुझे जुबानी याद थे।<br />- कल मेरा एक ऑडिशन है. कनॉट प्लेस में।<br />- मैं चाहता हूं कि तुम्हें छोड़ने जाऊँ, लेकिन मेरे पास बाइक नहीं है।<br />उसने आँखें बन्द कर ली। उस पल मैं उसके होठों को छूना चाहता था।<br />- तुम कौनसी किताब खरीदते?<br />उसने आँखें खोलकर पूछा।<br />- तुम्हें भी रात में डर लगता है?<br />- किससे?<br />- अँधेरे से...<br />वह उठकर खिड़की तक गई और बाहर के जगमगाते अँधेरे को देखने लगी। सड़क पर गाड़ियाँ सरपट दौड़ रही थी। मैं बैठ गया था।<br />- नहीं लगता।<br />- मुझे भी नहीं लगता...<br />- फिर तुमने पूछा क्यूं?<br />- तुमने कभी रात में तितलियाँ देखी हैं?<br />- नहीं...<br />- उन्हें लगता होगा। तभी तो रात में नहीं उड़ती।<br />- तुम्हें क्या मैं तितली जैसी लगती हूं?<br />- कभी कभी गौरैया जैसी भी।<br />वह खनखनाकर हँसी। उसकी माँ ऐसे ही हँसती थी। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। उसने मेरी ओर देखा। मेरा उठकर दरवाज़े तक जाने का मन नहीं था। जो भी था, वह दो-तीन मिनट तक खड़ा रहा और लौट गया। तब तक हम चुप रहे। हमने सीढ़ियों पर पैरों के लौटने की आवाज़ सुनी। आवाज़ पैरों की थी, लेकिन दिमाग तक यही सन्देश गया कि कोई आदमी लौटा है। वह कुछ और भी हो सकता था। आदमी सोचने पर कुछ विशेष मन में नहीं आता। आँख, नाक, कान, सिर, हाथ, पैर ही याद आते हैं। जाने क्यों ऐसा लगता है कि ‘आदमी’ शब्द सोचने पर कुछ और चित्र मन में बनना चाहिए। यह सोचना वैसे ठीक नहीं है।<br />लौटने की ध्वनि आने की ध्वनि से ठीक उल्टी होती है। इन्हें नवजात शिशु भी अलग अलग पहचान सकता है। बहुत लोग हैं, जिनका आना मुझे अच्छा लगता है। लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसका लौट जाना मुझे अच्छा लगता हो। ‘लौट जाना’ मुझे ‘रोना’ का पर्यायवाची लगता है। जब भी कोई मुझसे मिलने आता है, मैं यह सोचकर काँप जाता हूं कि कुछ देर या कुछ दिन बाद वह वापस चला जाएगा। दरवाज़े से लौटते हुए गाय, कुत्ते और भिखारी की भी मुझे बहुत देर तक याद आती रहती है। मेरे भीतर लौटकर चले गए सजीवों निर्जीवों की सैंकड़ों खुशबुएँ बसी हुई हैं, जो पीछा नहीं छोड़ती। इसलिए कभी कभी मैं चाहता हूं कि कोई मुझसे मिलने न आए और न ही मैं किसी से मिलने जाऊँ। कभी कभी मैं दरवाज़ा भी नहीं खोलता।<br />- एक वक़्त था, जब मैं भी एक्टर बनना चाहता था।<br />- मुझे पता है।<br />- किसने बताया?<br />- तुम हमेशा ऐसे बोलने की कोशिश करते हो, जैसे कैमरे के सामने बोल रहे हो। तुम गलतियाँ नहीं करना चाहते।<br />मुझे अच्छा लगा कि वह मुझ पर इतना ध्यान देती है। मैं नहीं जानता था कि यह उसने ख़ास मेरे बारे में ही बोला है या किसी किताब में पढ़ी हुई बात दोहराई है। यह मैं जानना भी नहीं चाहता था।<br />- इतनी रात को दरवाज़े पर कौन होगा?<br />- कोई भी हो सकता है। भगवान भी...<br />- मुझे नहीं लगता कि यहाँ लड़कियाँ तुमसे मिलने आती होंगी।<br />- मुझे भी नहीं लगता।<br />- तुम बोर नहीं होते?<br />- हाँ, हो जाता हूं। अपने आप से ऊबने लगा हूं।<br />- तुम्हें कुछ नया करना चाहिए। कुछ और नहीं तो शादी ही...नहीं तो तुम मर जाओगे।<br />- मैं दिल्ली में नहीं मरना चाहता।<br />- हे भगवान! क्या क्या बातें करने लगे हम! हमें यह सब नहीं बोलना चाहिए।<br />उसने ‘टच वुड’ बुदबुदाते हुए मेरी कुर्सी छुई। मुझे लगा कि इस परम्परा का गलत ज़गह उपयोग किया गया है। मेरे ख़याल से ‘टच वुड’ नज़र न लगने के लिए बोला जाता है। उसने माफ़ी माँगने की तरह मेरे गालों को भी छुआ। तभी दरवाज़े पर फिर से खटखट हुई। दरवाज़े पर आहट होते ही पूरे कमरे में एक बेचैन सी शांति फैल जाती थी। हम बिना हिले डुले बैठे रहे। दरवाज़ा फिर से बजा। अब वह उठकर चल ही दी। वह पुराना शीशम का दरवाज़ा था, जो खुलते और बन्द होते हुए बहुत आवाज़ करता था।<br />टिफिन वाला लड़का खड़ा था। उसने हरे रंग का डिब्बा पकड़ा दिया। वह लेकर अन्दर आ गई। लड़का फिर भी वहीं खड़ा रहा। वह नेपाल के किसी छोटे से कस्बे का था और अपने पिता के साथ दिल्ली आ गया था। एक दिन मैंने उससे पूछा था कि वह कब से अपने घर नहीं गया? उसने कहा था, तीन साल। मुझे बुरा लगा था। मुझे अपने घर की याद भी आई थी। मैं हमेशा से ऐसा लावारिस नहीं था। मेरा भी एक घर था, जिसमें माँ थी, पापा थे, दीदी थी। हम इकट्ठे खाना खाते थे और जल्दी सो जाते थे। माँ के पास अपने बचपन से लेकर तब तक की बहुत सारी बातें होती थी जो वह बार बार हमें बताती रहती थी। हमने आँगन में कुछ सब्जियाँ उगा रखी थी। हमारे घर में एटलस की एक साइकिल थी, जिसकी चेन बहुत जल्दी जल्दी उतर जाती थी। राजू को भी (उसका सही नाम मुझे नहीं याद) अपने घर के बाल्टी, चम्मच, कनस्तर और भगोने ऐसे ही याद आते होंगे। वह सुन्दर हँसता था और कम बोलता था। नेपाल में अस्थिरता थी और गरीबी भी। दिल्ली सबको खपा लेती थी और सबमें खप जाती थी।<br />वह डिब्बा लेकर मुझ तक आई तो लड़के ने कहा, “पैसे?”<br />मैं उठकर खूंटी पर टँगी जींस तक गया और उसकी पिछली जेब में से बटुआ निकाला।<br />- खुल्ले नहीं हैं यार। कल ले लेना।<br />वह चुपचाप खड़ा होकर उम्मीद भरी नज़रों से मुझे देखता रहा।<br />कुछ देर बाद बोला- मैडम डाँटेगी...<br />मुझे निर्दयी खुशी सी हुई। हर कोई किसी न किसी से डरता है, मैंने सोचा।<br />- कितने देने हैं इसे?<br />- तुम दोगी?<br />- हाँ।<br />- चालीस।<br />लड़का खुश हुआ। वह पैसे देकर दरवाज़ा बन्द कर आई। उसने फिर से दरवाज़ा खटखटाया। इस बार मैंने खोला।<br />- भैया, कल दो टिफिन आएँगे?<br />वह खिड़की के पास खड़ी थी। मैंने उसकी ओर देखा। वह बाहर देख रही थी।<br />- जैसा भी होगा, कल फ़ोन कर दूंगा।<br />- ठीक है।<br />वह चला गया। मैं आकर फिर कुर्सी पर बैठ गया।<br />- तुम सीपी से यहीं लौटोगी ना कल?<br />मैंने बोलने से पहले दिमाग में शब्द चुने थे। कल से पहले ‘ना’ लगाना बहुत ज़रूरी लगा था। ‘लौटकर आना’ भी ‘लौटकर जाने’ का बिल्कुल उल्टा था और सुखद भी। उसने कोई जवाब नहीं दिया।<br />- तुमने बताया नहीं कि पैसे होते तो तुम कौनसी किताब खरीदते?<br />उसने पलटकर पूछा।<br />- शायद अज्ञेय की कोई किताब।<br />वह चुप रही। मैंने पूछा- तुमने सुना है अज्ञेय का नाम?<br />- नहीं सुना।<br />जिन चीजों के बारे में वह नहीं जानती थी, उनके बारे में बात करने पर मुझे अपराधबोध सा होता था।<br />- कल फ़िल्म का ऑडिशन है?<br />- हाँ, लेकिन मुझे नहीं लेंगे।<br />- क्यों?<br />- उन्हें सुन्दर लड़की चाहिए।<br />वह मुस्कुराते हुए मुझ तक आ गई थी। वह मुझसे अपनी प्रशंसा करवाना चाहती थी। उस रात वह दूसरी बार था, जब मेरा उसके होठ छूने का मन हुआ। उससे तिनका भर भी कम नहीं, ज्यादा नहीं।<br />- नहीं, मैं तुम्हारी तारीफ़ नहीं कर सकता। मैं कहना चाहता हूं कि यह कमरा नहीं, झील है और तुम कमल हो और मैं डूब गया हूं। लेकिन मैं नहीं कहूंगा।<br />- तुम सच में डूब गए हो?<br />- हाँ, माथे तक।<br />- तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ होती है?<br />- इस कमरे का किराया तीन हज़ार है। यह छोटा सा कमरा, जो झील है और वह रसोई, जिसमें कॉकरोच हैं।<br />- तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ होती है?<br />- तुम बार बार क्यों पूछती हो?<br />- तुम बीमार लगते हो...<br />- ऐसा मेरी दाढ़ी के कारण लगता होगा।<br />उसने मेरे माथे पर हाथ रखकर देखा। उसका हाथ गर्म था। मैंने आँखें बन्द कर ली। मैं चिल्लाना चाहता था।<br />वह धीरे से बोली- यह दुनिया उतनी बुरी नहीं है, जितनी तुम्हें लगती है।<br />- वैसे मैं रोऊँगा नहीं, लेकिन रोने लगूं तो मुझे रोने देना।<br />- चलो तुम्हारे बचपन के बारे में बात करें।<br />मैंने कुछ लम्बी साँसें ली। वह मेरे माथे पर हाथ रखकर खड़ी थी। मैं बैठा था।<br />- तुम्हें भूख लगी होगी। टिफिन खोल लो।<br />- तुम्हें लेखक नहीं बनना चाहिए।<br />- मुझे भी ऐसा ही लगता है – बहुत देर बाद मैंने उसकी आँखों में देखकर कहा – काश बाहर धूप होती!<br />- तब क्या होता?<br />- तब रात नहीं होती और शोर होता, जिसके नीचे हम अपना दुख दबा देते।<br />- काश कि धूप को फेयर एंड लवली की तरह गालों पर मला जा सकता। मैं ख़ूब गोरी हो जाती।<br />- काश कि धूप के ब्लेड होते, जिनसे दाढ़ी बनाई जा सकती।<br />- काश धूप का काँच होता, जिसके घर बनते। मैं ऐसे ही घर में रहती।<br />- तुम जल जाती।<br />मैंने उसके दाएँ पैर की ओर देखा। एक रात उनके घर में आग लगी थी। उसके पैर की दो उंगलियों पर अब तक उसके निशान थे।<br />- और ब्लेड से तुम्हारे गाल नहीं जलते?<br />- ब्लेड को तो बर्फ़ में रखकर ठंडा भी किया जा सकता था।<br />- दुख बहुत है?<br />पूछते हुए वह माँ जैसी हो गई थी। उसने एक साड़ी पहन ली थी, जिसका पल्ला उसके सिर पर सरक आया था। मैं चुप रहा और मैंने अपना सिर माँ की छाती में छिपा लिया। मेरा भी एक घर था, जिसमें माँ थी, पापा थे, दीदी थी। फिर उस घर ने हम सबको बाहर निकाल फेंका था।<br />- मैं तुमसे दिल्ली की लड़कियों के बारे में बात करना चाहता हूं।<br />- हाँ करो...<br />उसने सहमति दी और फिर मैं कुछ भी न बोल पाया। मैं नहीं जानता था कि मैं दिल्ली की लड़कियों के बारे में क्या बात करना चाहता हूं? मुझे बस हरी, लाल, पीली होती ट्रैफ़िक लाइटें याद आ रही थी और वाहनों की भीड़। मेरी मोटरसाइकिल और पीछे की सीट पर बैठी एक लड़की। वह दोनों तरफ पैर करके बैठी थी। वह कभी कभी मेरे कंधे पर हाथ रख लेती थी। मेरी जेब में रखे मोबाइल पर लगे इयरफ़ोन उसके कानों में थे। वह गाने सुन रही थी। फिर लाइट हरी हो गई थी और हॉरनों का शोर। मैं भी चल पड़ा था। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा था। वही दिल्ली थी।<br />मुझे चुप देख उसने कहा कि हमें खाना खा लेना चाहिए। मैंने कहा कि मुझे भूख नहीं है।<br />- चलो बाहर सड़क पर घूम आते हैं।<br />- मुझे लगता है कि तुम एक बार यहाँ से बाहर चली गई तो वापस नहीं आओगी।<br />- तुम सनकी भी होते जा रहे हो।<br />- तुम समझदार होती जा रही हो। तुम्हें फ़िल्मों में नहीं जाना चाहिए। तुम थिएटर कर लो।<br />- थिएटर कोई नहीं देखता।<br />मैं हँसा।<br />- किताबें भी तो कोई नहीं पढ़ता। फिर ही हज़ारों लोग लिखते हैं।<br />मुझे हँसता देख उसे अच्छा लगा होगा। उसकी आँखें कुछ चमकने लगी थी या शायद यह मेरा वहम ही था। वह पलंग पर लेट गई और उसने आँखें बन्द कर लीं। मुझे लगा कि वह सोना चाहती है। मुझे उसके सोने से पहले लाइट ऑफ़ करनी थी और ‘गुड नाइट’ बोलना था। वह किसी भी क्षण सो सकती थी या हो सकता है कि सो भी गई हो। यह सोचकर मुझे गुस्सा आया। और ‘थिएटर कोई नहीं देखता’ – यह किसी का सोने से पहले का आखिरी डायलॉग कैसे हो सकता है? मेरा मानना है कि सोने या चले जाने से पहले बातों को ख़त्म करने वाली बातें कही जानी चाहिए। यह तो वैसा ही है कि कोई जाने से ठीक पहले कहे कि आज सोमवार है और तुरंत निकलकर चला जाए। यह तो जाने के अपमान जैसा है और सोमवार के भी। माँ तो और भी हद करती थी। माँ लेटे लेटे कुछ पूछती थी, जैसे- उनके घर क्या कर रहे थे तेरे पापा? – और जवाब सुनने से पहले ही सो जाती थी। जबकि मैं कोशिश करता हूं कि सोने से पहले किसी से बात कर रहा हूं तो ‘कल देखेंगे’ या ‘हाँ’ या ‘नहीं’ मेरा आखिरी डायलॉग हो। कहीं से चले आने से पहले मैं अक्सर ‘ठीक है’ बोलता हूं। चाहे कुछ भी ठीक न हो, फिर भी।<br />- तुम्हारे पति कैसे हैं?<br />- उनका नाम नवदीप है।<br />उसने आँखें खोल ली। मुझे तसल्ली हुई। मैंने मुस्कुराना चाहा।<br />- कैसा है नवदीप?<br />- अच्छे हैं। कम बोलते हैं और बहुत प्यार करते हैं।<br />- तुम्हारे पापा जैसे हैं फिर तो...<br />- उंहूं...पापा जैसे तो पापा ही थे बस।<br />- जिन दिनों तुम्हारी शादी हुई थी, मेरा शराब पीने का बहुत मन करता था।<br />- तुम मेरी शादी में आते तो मुफ़्त में जी भर के शराब पी सकते थे।<br />- क्या सच में दिल्ली की लड़कियाँ शराब पीती हैं?<br />- पूरे एक हज़ार कार्ड छपे थे।<br />मैं चुप रहा। वह मेरी ओर देखती रही। वह चाहती थी कि मुझे गुस्सा आए। मैं चाहता था तो भी गुस्सा नहीं आता था। एक कातरता मेरे पूरे अस्तित्व पर हावी रहती थी।<br />मैंने कहा- माँ कहती थी कि लड़कियों को कभी प्रेम नहीं करना चाहिए।<br />- क्यों?<br />- प्रेम उन्हें निष्ठुर बना देता है।<br />- और लड़कों को?<br />- लड़कों के बारे में माँ कुछ नहीं कहती थी – मैं रुका – लेकिन मुझे लगता है कि प्रेम लड़कों को असहाय बनाता है...और साथ ही हिंसक भी।<br />वह मेरे इस विश्लेषण पर हँसी। वह मुझे कुछ बेवकूफ समझती थी और यह मुझे भी अच्छा लगता था।<br />- तुम मुझे मार तो नहीं डालोगे?<br />- एक बार इस बारे में भी सोचा था।<br />वह चुप रही।<br />- बड़ा ज़मींदार होगा तुम्हारा नवदीप तो?<br />- आठ तो नौकर हैं घर में।<br />- और नौकरानियाँ?<br />- पाँच नौकर हैं, तीन नौकरानियाँ।<br />- तुम्हें नाम याद हैं इतने सारे नौकरों के?<br />- एक नौकर का नाम याद रखो, तो भी काम चल जाता है। ज़रूरी नहीं कि हर नौकर को उसके अलग नाम से ही पुकारा जाए। बिरजू कहकर चिल्लाओ तो जो भी नौकर आसपास हो, उसका फ़र्ज़ बनता है कि आए।<br />- यानी बिरजू का नाम याद है तुम्हें?<br />- नहीं, बिरजू उनमें से किसी का नाम नहीं है।<br />- बहुत सारे खेत होंगे ना?<br />- हाँ, इतने कि आसमान में उड़ने का मन करता है।<br />- सरसों के फूल देखकर तुम्हें मेरी याद नहीं आती?<br />- तीन ट्रेक्टर हैं उनके घर में।<br />- फिर तुम डीजे में क्यों नाचोगी?<br />इस प्रश्न पर उसका चेहरा उतर गया। वह खुश होना चाह रही थी। उसने कहा कि मैं बहुत बुरा हूं। मुझे बुरा लगा। मैंने कहा कि मैं छत पर जाना चाहता हूं, लेकिन मकान मालिक ने ज़ीने के दरवाज़े पर ताला लगा रखा है। मैंने उससे पूछा कि क्या मुझे उस ताले को तोड़ देना चाहिए? उसने कहा, नहीं। मैंने कहा कि मुझे डर लगता है कि किसी दिन कोई आसमान का ताला भी लगा देगा। इस बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। मैंने कहा कि लेखक बनना बहुत मुश्किल और अमानवीय काम है।<br />उसने पूछा- क्यों?<br />- आपको हर पंक्ति में चमत्कार करने की कोशिश करनी पड़ती है। आप चाहते हैं कि हर लाइन में कुछ नया कह दें, जो पहले कभी न कहा गया हो। जबकि ज़िन्दगी में ऐसा कहाँ होता है? मेरे कुल जीवन में तीन या चार बातें ही ऐसी हुई होंगी, जो कहीं और, किसी भी और के साथ नहीं हुई और पढ़ते हुए लोग यह उम्मीद करते हैं कि हर रोज़ कुछ नया पढ़ने को मिले। ऐसा चाहने से पहले वे अपनी नीरस ज़िन्दगियों की ओर देखते तक नहीं। कभी कभी लिखना आपको चूसने लगता है।<br />उसने चिंतित होकर कहा कि मुझे आज ही लिखना छोड़ देना चाहिए और विश्वास दिलाया कि मैं आठवीं तक के बच्चों को अच्छी तरह ट्यूशन पढ़ा सकता हूं। नवदीप का एक स्कूल भी था लेकिन उसने उसका ज़िक्र नहीं किया। वह ज़िक्र करती तो मैं अपनी नज़रों में और भी दयनीय हो जाता।<br />रात बहुत थी और आमतौर पर रातें बहुत डरावनी होती हैं। बहुत सारे खेत एक साथ देखकर क्या मेरा भी उड़ने का मन करेगा, मैं यह सोचता रहा। मैं नहीं सोच पाया। मुझे आम याद थे लेकिन मैं आम के पेड़ भूल चुका था।<br />- तुम्हें ट्यूशन ही पढ़ा लेना चाहिए।<br />उसने दुबारा यही बात कही।<br />- मैं एक कार खरीदना चाहता हूं।<br />- क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि उदास आदमी कार में बैठते ही खिलखिलाकर हँसने लगता होगा?<br />- यह मैं नहीं सोच पाता। कार में बैठकर कैसा लगता होगा, मैं नहीं जानता। कुछ महीने पहले तक मुझे यह भी पता नहीं था कि सोफे पर बैठकर कैसा लगता है?<br />- कौनसी कार खरीदोगे?<br />- सबकी तरह मैं कारों के नाम नहीं जानता और मुझे लगने लगा है कि मैं ज़िन्दगी भर कार नहीं खरीद पाऊँगा। खरीदना तो दूर, मैं बैठ भी नहीं पाऊँगा। तुम नहीं जानती कि यह लगना कैसा होता है?<br />- हाँ, मैं सच में नहीं जानती। मगर मैं जानती हूं कि तुम्हारे पापा का सपना था कि तुम एक लम्बी कार खरीदो जिसके पिछले शीशे पर तुम्हारा नाम लिखा हो।<br />वह मेरे पापा को मुझसे भी बेहतर जानती थी।<br />- अंग्रेज़ी में...<br />- हाँ, अंग्रेज़ी में।<br />फिर हमारे बीच अंग्रेज़ी के लहजे की चुप्पी रही। वह आधे डब्ल्यू के आकार में बैठी थी। उसके गले में लटके लॉकेट पर एन लिखा था। मैंने उसकी छाती पर रखा बी देखा। हमारे बीच सौ कोस का फ़ासला होगा क्यों कि अगले ही क्षण मैंने जब उस बी को छूना चाहा तो मेरे हाथ में हवा का एक टुकड़ा था। मैं बहुत देर तक दौड़ता रहा लेकिन उसे छू नहीं पाया।<br />- तुम दोनों साथ सोते हो?<br />- कौन दोनों?<br />- तुम और नवदीप...<br />- नहीं, वे पहले सो जाते हैं। मुझे कुछ देर में नींद आती है।<br />जिस ओर रसोई थी, उस ओर से छत का एक टुकड़ा हवा में उड़ गया। अब छत में रोशनदान था जिसमें से ऊपर जाया जा सकता था। शुक्र था कि बारिश नहीं हो रही थी। बारिश हो रही होती तो मैं उसके नीचे बाल्टी या तसला रख आता। छेद थाली के आकार का था। उसमें से रात टपक रही थी। मुझे लगा कि कुछ घंटों बाद इसमें से सुबह टपकने लगेगी। सुबह पानी जैसी थी जो किसी भी बर्तन में आ सकती थी। सुबह का आकार कटोरी, थाली या चम्मच जैसा भी हो सकता था। दवा की शीशी के ढक्कन जैसा भी! मेरे एक चाचा दवा के अभाव में मर गए थे। उन दिनों सुबहें बहुत थी लेकिन दवाओं की कमी थी। उन्हें रात भर दौरे पड़े थे और वे पागल हो जाने से तुरंत पहले मर गए थे। वे बी ए में पढ़ते थे और अच्छा गाते थे। उन्हें एक स्वस्थ लड़की से प्यार था। स्वस्थ लड़की का मानना था कि बीमार लड़के को बीमार लड़की से ही प्यार करना चाहिए। वे बीमार लड़की नहीं ढूंढ़ पाए थे और मरते नहीं, पागल हो जाते तो यह भी मुश्किल था कि पागल लड़की ढूंढ़ पाते। चुस्त और हट्टे कट्टे लड़कों के लिए प्रेम करना आसान था। हालांकि लड़कियाँ संवेदनशील और भोली थी और सबसे नर्म आवाज़ में बात करती थी।<br />वह बोली कि अब हमें खाना खा लेना चाहिए। हमने टिफिन खोलकर खाना खा लिया। मैं बीच बीच में छत के उस हिस्से को देखता रहा, जो उड़ गया था। हमारे खा चुकने के बाद किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मुझे गुस्सा आया कि कोई भूखा आया तो उसे क्या खिलाएँगे? कुछ देर पहले आ जाता तो हम दोनों एक एक रोटी कम खा लेते।<br />उसने पूछा- कौन होगा?<br />- मेरा रूममेट तो परसों आएगा।<br />- मुझे बार बार लगता है कि कहीं नवदीप न आया हो।<br />- उसके पास यह पता है? 378, गली नं 3?<br />वैसे पता बोलना ज़रूरी नहीं था।<br />- नहीं है। लेकिन कुछ भी हो सकता है। कुछ भी असम्भव नहीं है।<br />वह अपने आप में छिप गई। दूसरी बार बेचैन सी खटखट हुई तो मैंने दरवाज़ा खोला। उसमें तेल लगाने की ज़रूरत थी। विकास खड़ा था, मेरा रूममेट। उसके माथे पर पसीने की बूँदें थी और वह हाँफ रहा था। वह चार घंटे पहले घर जाने के लिए निकला था और प्रकाश की गति से भी आता-जाता तो भी इतनी जल्दी नहीं लौट सकता था। घर जाते ही वह पड़कर सो जाता है और कम से कम छ: सात घंटे में उठता है, ऐसा उसने मुझे बताया था। मैंने पूछा था कि क्या वह जाकर चाय भी नहीं पीता? उसने ‘नहीं’ कहा था।<br />मुझे टिफिन याद आया। मैंने वहीं खड़े खड़े उससे पूछा कि क्या उसने डिनर कर लिया है? उसने इनकार में गर्दन हिला दी। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं दरवाज़े पर अड़कर खड़ा था। उसने मेरे सिर के ऊपर से झाँककर अन्दर देखा। वह कुछ सिमटकर डबल्यू से एन हो गई थी। वह अन्दर की ओर बढ़ा। मैंने हल्का सा प्रतिरोध किया, जो प्रतिरोध लगे भी और न भी लगे। बस इतना ही कि कल को लड़ाई हो तो वह यह न कह सके कि उस रात मैं उसे घर में नहीं घुसने दे रहा था और मैं चाहूं तो यह कह सकूं कि जब मैं एकांत चाहता था, वह जबरदस्ती घुस आया था। बात प्राइवेसी से ज़्यादा डेढ़ डेढ़ हज़ार रुपए की थी जो हम किराए के भरते थे। बिजली के तीन सौ रुपए अलग थे। मैं हट गया। वह अपना बैग उठाकर अन्दर आ गया। फिर वह ठिठककर खड़ा रहा। मुझे भय था कि वह उसे कॉलगर्ल न समझ ले। ऐसे गन्दे ख़याल के लिए मुझे अपने आप से घृणा भी हुई। उसका पलंग कमरे में ही था मगर वह उसे पार करके रसोई तक चला गया। शायद वह भी हमारे बीच में अचानक टपककर असहज महसूस कर रहा था। फिर गिलास में पानी डालने की आवाज़ हमें सुनी। वह एन बनी ही बैठी थी। पानी पीकर वह रसोई और कमरे के दरवाज़े पर आया और इशारे से मुझे बुलाया। मैं गया तो मुझे दूसरे कोने में ले जाकर मुस्कुरा कर बोला- मेरे पीछे से मज़े कर रहा है।<br />- देख छत उड़ गई है।<br />मैंने उसे उड़ी हुई छत दिखाई। वह चौंक गया। उसने कहा कि छत उड़ नहीं सकती। यह टुकड़ा टूटकर नीचे गिरा होगा, जो मैंने छिपा दिया होगा और अब उसे बहका रहा हूं। मैं कुछ नहीं बोला और वापस कमरे में आ गया।<br />- तू घर क्यों नहीं गया?<br />मैंने वहाँ से चिल्लाकर पूछा। वह असमंजस भरी नज़रों से मेरी ओर देख रही थी। जाने क्यों, यह पूछना मैं उसे सुनाना चाहता था।<br />- आज ट्रेन ही नहीं आई।<br />कहता हुआ वह भी कमरे में आ गया।<br />- ऐसा कैसे हो सकता है? ट्रेन निकल गई होगी।<br />- नहीं, उन्होंने कहा कि आज छुट्टी है।<br />’उन्होंने’ कोई भी हो सकते थे। मैंने नहीं पूछा कि किन्होंने कहा?<br />अब वह बोल पड़ी- छुट्टियों की स्पेशल रेलगाड़ियाँ तो चलती हैं लेकिन रेलगाड़ियों की छुट्टी तो कभी नहीं सुनी।<br />- उन्होंने कहा कि बड़े बड़े शहरों में छोटी छोटी बातें तो होती ही रहती हैं।<br />विकास की आवाज़ में अतिरिक्त मिठास आ गई थी। वह मुस्कुराई। मुझे खीझ हुई। मैं आकर कुर्सी पर बैठ गया। वह हमारी ओर चेहरा करके अपने पलंग पर बैठ गया। हम इस तरह थे कि मेरी पीठ और उसका चेहरा विकास की ओर थे। मैंने कुर्सी थोड़ी सी खिसका ली। अब मेरा चेहरा दीवार की ओर था और मेरे दायीं तरफ वह थी।<br />- चलो, कहीं घूम आते हैं।<br />- और मैं वापस न आई तो?<br />हाँ, यह डर तो मुझे था। मैंने बालकनी में चलने का प्रस्ताव रखा जो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। वह अपनी मुस्कान और भाव भंगिमाओं को लेकर ज़्यादा सजग हो गई थी। मुझे लड़कियों की यह आदत बुरी लगती है कि वे आपके साथ एकांत में किसी और ढंग से पेश आती हैं और किसी तीसरे की उपस्थिति में किसी और ढंग से। मैं उड़ी हुई छत के नीचे से नहीं गुजरा। वह बेहिचक उसके नीचे से ही आई। वह मेरे पीछे थी। विकास वहीं बैठा रहा। मुझे ट्रेन की छुट्टी वाली बात सफेद झूठ लग रही थी।<br />बालकनी में पहुँचते ही मेरे मुँह से निकलने को हुआ कि मैं डर रहा था कि यह तुम्हें किराए की लड़की न समझ ले, लेकिन मैंने अपने आप को रोक लिया। नीचे सड़क पर दो कुत्ते लेटकर सो रहे थे। एक रिक्शेवाला खाली रिक्शा लेकर धीरे धीरे जा रहा था। मेरा एक बार रिक्शा चलाने का मन भी था। नीचे खड़े स्कूटर पर बैठे एक छोटे से पक्षी को देखकर मुझे लगा कि कोयल है। मैं कोयल को ठीक से नहीं पहचानता था, इसलिए हर अनजान पक्षी को देखकर कोयल होने का वहम होता था।<br />अब हम खड़े थे और वह मुझसे लम्बी थी। वह मुँडेर पर झुककर नीचे देखने लगी। उसके पास एक उम्मीद थी कि वह कल सुबह हीरोइन बन सकती है। मुझे दूर दूर तक अपना ऐसा कुछ बनना दिखाई नहीं देता था। हो सकता है कि मैं ज़िन्दगी भर कागज़-कलम लेकर बैठा सोचता रहूं और कुछ भी न लिख पाऊँ। <br />मैं पूछ बैठा- तुम्हें आइडिया है कि एक लड़की कितने में आती होगी?<br />- कैसी लड़की?<br />- सुन्दर लड़की, जो तुम्हारे नवदीप की तरह कम बोलती हो और बहुत प्यार करती हो।<br />- भला मुझे कैसे मालूम होगा?<br />- नवदीप से पूछ कर बताना।<br />- तुम उन्हें क्यों बीच में लाते हो?<br />मैं कुछ कहता, उससे पहले ही दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। विकास को उठकर खोल देना चाहिए था या नहीं खोलना था तो बैठे रहना चाहिए था। लेकिन वह उठकर मेरे पास आया और बोला कि मैं जाकर दरवाज़ा खोलूं। मैंने कहा कि मैं भी बराबर किराया देता हूं और नौकर नहीं हूं। मेरे भीतर यह उसके असमय लौट आने का गुस्सा था। उसने कहा कि उसके पैर में मोच आ गई है इसलिए वह नहीं जा सकता। मैंने पूछा कि फिर वह यहाँ तक कैसे आया? उसने कहा कि दरवाज़े की दिशा में चलने पर दर्द होता है। मुझे विश्वास नहीं हुआ क्योंकि कुछ देर पहले रसोई से अपने पलंग तक जाने में भी वह दरवाज़े की दिशा में ही चला था। उस समय वह लंगड़ा भी नहीं रहा था और न ही उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे। और तो और, वह मुस्कुराया भी था। मैं भी अपनी ज़गह से नहीं हिला। दुबारा ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया गया तो वह ‘मैं खोल देती हूं’ कहकर दरवाज़े की दिशा में बढ़ी। “रहने दो”, मैंने कहा और चल दिया। विकास ने पीछे से कहा कि कोई उसे पूछे तो मैं कह दूं कि वह घर पर नहीं है। इस बार मैं गुस्से में था, इसलिए टूटी हुई छत के नीचे से बचकर चलना याद नहीं रहा। मैं उसके नीचे से गुज़रा तो सिर पर रात की दो तीन बूँदें गिरी। दरवाज़ा खोला तो सामने कोई नहीं था। मैंने बाहर निकलकर झाँका तो ज़ीने की ऊपर से तीसरी सीढ़ी पर दो सिपाही घात लगाकर बैठे थे। एक के हाथ में पिस्तौल थी। उसे देखकर बिना कुछ जाने समझे मैंने दोनों हाथ ऊपर कर दिए। अब वे बहादुरी से उठे और मुझ तक आए।<br />पिस्तौल वाले ने कहा- तो तुम हो विकास?<br />मैंने कहा- नहीं।<br />दूसरा बोला- इसकी दाढ़ी देखकर तो लगता है कि यही होगा।<br />मैंने कहा- विकास तो रोज़ शेव करता है। मैंने आज तक उसकी दाढ़ी ज़रा सी भी बढ़ी नहीं देखी।<br />पहला कुछ और रौब झाड़ता हुआ बोला- तो कहाँ है विकास?<br />मैंने ध्यान दिया कि वह हर वाक्य के आरम्भ में ‘तो’ ज़रूर बोलता है। मैंने कहा- तो वह यहाँ नहीं है।<br />पहला बोला- तो हम घर की तलाशी लेंगे।<br />दूसरे ने टोका- लेकिन साहब, वारंट नहीं है।<br />पहले को गुस्सा आया।<br />- तुम यार हमारी तरफ हो या इसकी तरफ? बहुत कानून झाड़ रहे हो।<br />वाकई मुझे ऐसे किसी नियम के बारे में नहीं पता था। मैंने धन्यवाद भरी नज़रों से दूसरे को देखा। वह झिड़की खाकर सकपका गया था। अजीब बात थी कि जिसके हाथों में पिस्तौल थी, वही साहब था और मेरी दृष्टि में पहला भी। बाहर चाँद था, जिसे देखकर मुझे धूप होने का भ्रम हुआ। <br />मैंने कहा- आप पिस्तौल छिपा लीजिए, मुझे रात में धूप दिखाई दे रही है।<br />दोनों सिपाहियों ने एक साथ सड़क की ओर देखा। वही रिक्शावाला, जो पिछली सड़क से खाली रिक्शा लेकर गया था, एक लड़की को बिठाकर ले जा रहा था। मैंने पिस्तौल वाले सिपाही से पूछा कि क्या दिल्ली रात में महिलाओं के लिए असुरक्षित है? यह मैंने उसी सुबह अख़बार में पढ़ा था। मुझे अख़बार की हर बात सच लगने लगती थी। सिपाही ने तुरंत कहा, बिल्कुल नहीं। मुझे विश्वास हो गया।<br />तभी एक लाल मोटरसाइकिल गुज़री, जिस पर एक लड़के के पीछे एक लड़की बैठी हुई थी। उसका टॉप पीछे से बार बार ऊपर उठ जाता था, जिसे एक हाथ से वह बार बार नीचे खींचती थी। यह देखकर दोनों सिपाही मुस्कुराए। पिस्तौल का भय न होता तो शायद मैं भी मुस्कुराता। वह लड़का लड़की को साइकिल के अगले डंडे पर बिठाकर ले जाता तो इतनी परेशानी नहीं होती। तब पैडल मारते हुए लड़के का पैर लड़की की कमर को ढक लेता। लड़की अधिक सुरक्षित महसूस करती। दिल्ली में कम साइकिलें थी, इसलिए अधिक असुरक्षा थी।<br />पहले सिपाही ने मुझसे मुख़ातिब होकर कहा- तो तुम नहीं बताओगे कि विकास कहाँ है?<br />मैंने कहा- बता दूँगा।<br />दूसरा बोला- जल्दी बताओ।<br />मैंने कहा- अन्दर है।<br />वे दोनों मुझे धकेलकर अन्दर घुस गए। मैं ठगा सा वहीं खड़ा रहा।<br />- ज़रा सी छत उड़ी हुई है। ध्यान से जाइएगा।<br />मैंने पीछे से चिल्लाकर कहा, जिस पर उन्होंने शायद ग़ौर नहीं किया।<br />मैं बालकनी में पहुँचा तो दूसरा सिपाही विकास का कॉलर पकड़कर खड़ा था। पहले सिपाही ने कुछ दूर से उस पर पिस्तौल तान रखी थी। उसे देख कर यह संदेह होता था कि कहीं पिस्तौल दूसरे सिपाही पर ही तो नहीं तानी गई है। वह एक कोने में खड़ी थी। उसे डर लगता था तो उसका इमली खाने का मन करता था। रात में इमली खोज कर लाना भी मुश्किल था। डर रात-दिन देखकर नहीं आता।<br />दूसरा सिपाही विकास को खींचकर ले जाने लगा तो मैंने हौले से पूछा- क्या किया है इसने?<br />विकास का चेहरा पसीने से तर था। पहला सिपाही, जिसकी पिस्तौल का निशाना खिंचते हुए विकास के साथ साथ घूम रहा था, बोला- इसने हत्या की है...पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर।<br />- नहीं साहब नहीं मैंने नहीं मारा कुछ मैंने छोड़ नहीं किया मुझे छोड़ दीजिए...<br />मैंने विकास को पहली बार इतना भयभीत देखा था। दूसरे सिपाही ने एक चाँटा मारा तो वह बिल्कुल चुप हो गया। वे उसे घसीटकर ले गए। मैं कुछ नहीं कर पाया। उनके जाने के बाद जब शांति छा गई तो वह धीरे से बोली- क्या तुम्हारे पास थोड़ी सी इमली होगी?<br />मैंने कहा- नहीं है।<br />कुछ रुककर वह फिर बोली- क्या सच में इसने किसी को मारा है?<br />- मुझे कैसे पता होगा?<br />- क्या ऐसा हो सकता है कि नवदीप भी ट्रेन से उतरकर इधर आ रहे हों और इसकी उनसे किसी बात पर झड़प हो गई है। तुम नहीं जानते कि वे कितनी छोटी छोटी बातों पर झगड़ने लगते हैं। एक बार बस में मेरे पास वाली सीट पर बैठे आदमी ने मुझसे बस इतना पूछ लिया था कि आप कहाँ जा रही हैं? ये दूसरी तरफ बैठे थे। इन्हें इतना गुस्सा आया कि पूछो मत। उस आदमी को जंगल के बीच में बस रुकवाकर उतरना पड़ा था। मुझे डर लग रहा है कि कहीं वे विकास से लड़ पड़े हों और इसने उन्हें...<br />- ऐसा नहीं हुआ होगा।<br />मैंने पूरे विश्वास से कहा जबकि मैं पूरी इच्छाशक्ति को समेटकर चाहना चाहता था कि ऐसा ही हुआ हो। वह मुझ पर इतना भरोसा भी नहीं करती थी लेकिन मेरा जवाब सुनकर उसके चेहरे का तनाव कुछ कम होता दिखा।<br />- तुम उसके घर फ़ोन कर दो।<br />- किसी के पिता या माँ या भाई-बहन को मैं यह कैसे बताऊँ कि इसने किसी की हत्या कर दी है जबकि हम सब जानते हैं कि हत्या की कम से कम सज़ा उम्रकैद है। हो सकता है कि फ़ोन सुनते सुनते कोई दिल का दौरा पड़ने से मर जाए और मुझ पर गैर-इरादतन हत्या का अभियोग लग जाए।<br />- हाँ, यह तो मैंने सोचा ही नहीं। बेहतर है कि हम चिट्ठी लिखकर भेज दें। तुम्हें उसका पता याद है?<br />- वह तो मकान मालिक के रेंट एग्रीमेंट पर लिखा होगा।<br />- ठीक है, तुम उसे खोजो। मैं चिट्ठी लिखती हूं।<br />- लेकिन चिट्ठी पढ़कर भी तो कोई मर सकता है।<br />- नहीं, हम उसके ऊपर लिख देंगे कि कमज़ोर दिल वाले न खोलें। फ़ोन के ऊपर तो ऐसी वैधानिक चेतावनी नहीं लिख दकते ना।<br />- तुम बहुत बुद्धिमान हो। मैं फिर कहता हूं कि तुम्हें थिएटर करना चाहिए।<br />- पर तब तक पुलिसवाले उसे बहुत मारेंगे ना?<br />मैं सोच में पड़ गया। मुझे दुख हुआ। भले ही उसके अचानक आ जाने से मुझे कितना भी बुरा लगा हो, लेकिन उसके पिटने पर मुझे उससे कई गुना बुरा लगता। अब तक मैं सोच रहा था कि सब कुछ शादी-रिसेप्शन वाली मुम्बइया फ़िल्मों या बालहंस में छपने वाली बच्चों की कहानियों की तरह अच्छा अच्छा होगा। जब मेरे सामने पुलिसवाले खड़े थे, तब भी मेरी यही चेतना इतनी सक्रिय थी कि मैं चाँद और लड़कियों को देख पा रहा था। मेरे दिमाग में धुली हुई वर्दी अपने पति को पकड़ाती पुलिसवाले की पत्नी थी और घर लौटकर अपनी बच्ची के साथ खेलते हुए सिपाही का एक चित्र भी था। दोनों चित्रों में पुलिसवाले सभ्य भाषा में बात कर रहे थे। बल्कि पहले में तो वह चुप ही था और टूथब्रश दाँतों के बीच रखकर मुस्कुरा रहा था। मैंने भद्दी गालियों और तलवों पर पड़ते डंडों के बारे में अब तक कुछ नहीं सोचा था। अब सोचते ही मैं ज़मीन पर आया और मुझे बुरा लगा। ख़त पहुँचने में कम से कम एक सप्ताह लगता (मुझे ‘सप्ताह’ शब्द बहुत अच्छा लगने लगा था...वह मेरी तरह हफ़्ता नहीं, सप्ताह कहती थी) और वह भी डाकिये की भलमनसाहत पर निर्भर करता। तब तक पुलिस चाहती तो विकास को पीट पीटकर या किसी सुनसान सड़क पर गाड़ी से उतारकर नकली मुठभेड़ में मार सकती थी। हम कुछ नहीं कर सकते थे, इसलिए मैंने कहा- मुझे लग रहा है कि हम सपना देख रहे हैं।<br />उसने कहा, “हाँ मुझे भी...” और हमने आँखें खोल ली। हमें एक साथ चाँद दिखा। हमने तय किया कि बुरे सपनों के बीच में से अब से जल्दी जग जाया करेंगे। मैंने रसोई में झाँककर देखा। विकास का बैग रखा था। उसे देखकर मैंने आँखें बन्द कर ली और फिर सड़क की ओर देखते हुए खोली।<br /><br />मुझे तुम बहुत याद आती हो। मेरी मेज पर एक गुलदस्ता रखा है जिसमें सरसों के पीले फूल हैं। मैं नहीं जानता कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, तब भी मुझे पीला रंग पसन्द आएगा या नहीं, लेकिन तुम्हारे कन्धे से लिपटा हुआ दो हज़ार दो मुझे बहुत याद आता है। मान लो कि फिर से एक सरकारी स्कूल हो जिसमें हम पढ़ते हों। मैं किसी भी तरह तुम्हारे बारे में बात करना चाहता हूं, उतनी ही सीधी-सपाट, जितनी तुम्हें समझ में आती हैं और अच्छी लगती हैं। मान लो कि सरकारी स्कूल हो, जिसमें हम हर दो घंटे बाद साथ साथ पानी पीने जाते हों। हम बिना कुछ बोले पास पास वाली टोंटियों पर झुककर पानी पीते हों और लौट आते हों। क्लास में शोर हो रहा हो और लौटकर हम भी उसमें शामिल हो जाते हों।<br />नहीं, इस तरह भी नहीं। मैं तुम्हारे हाथ पर अपना हाथ रखकर क्लास के बीचों बीच बैठे रहना चाहता हूं। मैं इस दृश्य के बीच में पेड़-पत्तों-नदी या आसमान को नहीं लाना चाहता। मैं बारिश के किसी दिन की बात कर रहा हूं। लम्बी गली में पानी भर गया है। बाज़ार जल्दी बन्द हो गया है। हम साढ़े पाँच के करीब अपने अपने घरों के लिए निकलते हैं। मान लो कि हम दोनों का एक एक घर है जिसमें हम अपने अपने परिवार के साथ रहते हैं। घर होने की कल्पना से चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। आजकल दिन कुछ ऐसे हैं कि मैं ज़्यादा मुस्कुराना अफ़ॉर्ड नहीं कर सकता। तुम अफ़ॉर्ड कर सको तो जी भर कर मुस्कुराना। इतना कि तुम्हारे शहर में बाढ़ आ जाए। ...और तुम ज़्यादा काम मत किया करो। बहुत थक जाती हो।<br /><br />एक अपराधबोध मेरे अन्दर के कुएँ में उतरता चला गया। उससे अगले दिन जब विकास को पेशी के लिए अदालत में ले जाया जा रहा था, उसने भागने की कोशिश की और पीठ पर पुलिस की सरकारी गोली खाकर मर गया।<br />पापा के मरने के बाद दीदी को लगता रहा था कि मैं उन्हें जानबूझकर वक़्त पर अस्पताल नहीं ले गया। मैंने दीदी को एक दफ़ा यह भी कहते सुना कि पापा का ठीक इलाज़ होता तो शायद वे कुछ साल और जी जाते। अप्रत्यक्ष रूप से घर में यही कहा जाता रहा कि उनकी मौत के लिए मैं और मेरा नाकारा होना ज़िम्मेदार है। उनके घर छोड़ कर चले जाने के लिए भी माँ और दीदी को मैं ही दोषी लगता था। मैंने अपने पिता को मारा है, यह आरोप वर्षों तक दिन रात मुझे मथता रहा और अंतत: मेरे व्यक्तित्व में समा गया। उस रात भी ‘ऐसा ही कुछ फिर होगा’ सोचकर – और अगले दिन ऐसा हुआ भी – मैं अन्दर आ गया। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई थी।<br />मैंने कहा- हमें फ़ोन ही कर देना चाहिए, चाहे जो भी हो।<br />वह चुप रही। मैं उठकर अपना मोबाइल फ़ोन ढूंढ़ने लगा। वह एक किताब के बीच में रखा मिला, जैसे रोमांटिक कविताओं में किताब में गुलाब के सूखे हुए फूल मिला करते हैं। जाने कब से मैंने अपना फ़ोन नहीं देखा था। दो या तीन दिन हो गए होंगे। इतने समय से कोई कॉल भी नहीं आई थी। मुझे उस क्षण लगा कि मेरी ज़िन्दगी मोबाइल फ़ोन के बिना भी चल सकती है। वह बन्द पड़ा था। उसकी बैटरी ख़त्म हो चुकी थी। अब चार्जर ढूंढ़ना था। मैंने गद्दा उठाकर झाड़ा, किताबें फिर से टटोली लेकिन वह नहीं मिला। वह दीवार से पीठ टिकाकर खड़ी थी और मेरा खोजी अभियान देख रही थी। मैंने सोचा कि इससे अच्छा होता कि चार्जर मिल जाता और फ़ोन न मिलता। फ़ोन को तो मिस्ड कॉल मारकर भी ढूंढ़ा जा सकता था। लेकिन अगले ही पल मुझे याद आया कि यह और भी बुरा होता क्योंकि वह ऑफ़ पड़ा था।<br />- फ्रायड सही कहता था। मैंने ही पापा को मारा है।<br />मैं फिर कुर्सी पर था। वह दीवार से टेक लगाए ही खड़ी थी।<br />- वे बीमार थे पागल। तुमने कुछ नहीं किया।<br />- मुझे यकीन नहीं होता। क्या तुम फिर से यह बात कह सकती हो?<br />वह चुप मुझे देखती रही। उनका नौकर भी मुझे ऐसे ही चुपचाप देखता रहता था। पाँच साल पहले की बात होगी। हम तब स्कूल में पढ़ते थे। वह नहीं भी होती थी, तब भी मैं उनके घर चला जाता था। उस शाम भी नौकर ने मुझे बरामदे में बिठा दिया था और बरामदे के खम्भे से टिककर उसी तरह घूरता रहा था। बाथरूम का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था। लकड़ी का दरवाज़ा था जिसमें ऊपर की तरफ एक हाथ जितनी ज़गह छूटी हुई थी और तीन चार उंगलियों जितनी नीचे भी। लकड़ी की तख्तियों के बीच झिर्रियाँ थी। नौकर ने कहा कि मौसी नहा रही हैं। उसकी मम्मी को वह मौसी ही कहता था और शुरु के कुछ दिनों तक मैं समझता रहा था कि वह उसका मौसेरा भाई है। उसकी मम्मी अपनी बहन के ससुराल से उसे लेकर आई थी।<br />मैं इस तरह बैठा था कि मेरा चेहरा बाथरूम की तरफ था। यह मुझे अटपटा सा लग रहा था लेकिन अपनी ज़गह बदलने का प्रयास स्थिति की असहजता को और भी स्पष्ट बना सकता था, इसलिए मैं बैठा रहा। बाल्टी में बर्तन का डूबना और फिर शरीर पर पानी का गिरना मुझे बार बार सुनता था। बीच में चूड़ियों की खनखनाहट भी सुनाई पड़ती थी। एक चित्र दिमाग में बनता था, जिसे मैं तुरंत रबड़ से मिटा देता था। एक रुपए वाली नटराज की नकली रबड़ जो दो तीन बार मिटाते ही काली पड़ जाती थी। बर्तन एक बार हाथ से छूटकर दरवाज़े के पास आकर गिरा। दरवाज़े के नीचे वाली खाली ज़गह में से मुझे उनका हाथ दिखा, जिसने बिजली की सी चपलता से पीतल का लोटा उठा लिया। भिंडी जैसी लम्बी लम्बी गोरी उंगलियाँ। मैं तब सत्रहवें साल में था।<br />शाम के चार-साढ़े चार बजे होंगे। वे अक्सर इसी वक़्त नहाती थी। वे कुछ देर बाद गुलाबी नाइटी में बाहर निकली। उनके निकलने से पहले मैंने उनका कपड़े पहनना भी सुना था। मैंने नमस्ते कहा और नज़रें झुका ली। उन्होंने पूछा कि क्या मैंने पानी वानी पिया? मैंने सिर झुकाए हुए ही इनकार में गर्दन हिलाई और ‘नहीं’ कहा। उन्होंने नौकर से पानी लाने के लिए कहा और मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ गई।<br />- अरे, ऐसे सिर झुकाकर क्यों बैठे हो..लड़कियों की तरह?<br />मुझे मुस्कुराते हुए मज़बूरन अपना चेहरा ऊपर को करना पड़ा। उनके गाल टमाटर की तरह सुर्ख़ थे और भीगे हुए बाल कानों के ऊपर से होकर वहाँ तक लटक रहे थे, जहाँ उनकी पेंट की जेब होती, यदि उन्होंने पेंट पहन रखी होती। मैं कुछ क्षण तक अपलक देखता रहा।<br />- क्या हुआ?<br />उन्होंने पूछा।<br />- कुछ नहीं।<br />मैंने पलकें झपकाई और मुस्कुरा दिया।<br />नौकर ने पानी के गिलास लाकर रख दिए और रानी साहिबा के प्रहरी की तरह वहीं खड़ा रहा।<br />- तुम स्कूल नहीं गए आज?<br />- नहीं, माँ कुछ बीमार थी। इसलिए जल्दी आ गया।<br />- क्या हुआ माँ को?<br />- वही घुटनों का दर्द। कल शाम से ही बिस्तर पर लेटी हुई हैं।<br />- ओह!<br />उनके चेहरे पर एक सॉफिस्टिकेटेड सी चिंता आई और चली गई। मैं मेज पर रखी एक महिला पत्रिका उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा।<br />- तुम्हारा मन न लगता हो तो दो-चार मैगज़ीन लेते जाना। यहाँ तो रद्दी में ही पड़ी फिरती हैं।<br />मैं कुछ कह पाता, उससे पहले ही वे उठी और अन्दर से कुछ रंगीन ज़िल्द वाली पत्रिकाएँ लाकर मेरे सामने रख दी। वे उसी पत्रिका के अलग अलग अंक थे। सबसे ऊपर गर्भावस्था विशेषांक था जिसे मैंने नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की॥<br />- यह रहने दो।<br />मेरी कोशिश असफल रही क्योंकि अगले ही क्षण उन्होंने ऊपर वाली पत्रिका उठाकर अपनी गोद में रख ली और मुस्कुराती रही।<br />- शानो ने बताया कि तुम कविता भी लिखते हो। भई हमें भी सुनाओ कुछ।<br />वे प्यार से उसे शानो कहती थी। मुझे उस पर गुस्सा आया। मैंने अपनी कविताएँ उसे इस शर्त पर पढ़वाई थी कि वह किसी से भी न कहे, अपने बगीचे में लगी रात की रानी से भी नहीं।<br />- नहीं...बस ऐसे ही थोड़ा बहुत लिख लेता हूं।<br />मैं शर्मा सा गया था। उन्होंने नौकर को सब्ज़ियाँ लाने को कह दिया। वह चला गया।<br />- बचने की कोशिश मत करो। अब तो कुछ सुनाना ही पड़ेगा।<br />उनके बोलने में अब तक किशोरियों वाली चंचलता बची हुई थी।<br />- मुझे याद नहीं है आंटी। फिर कभी सुना दूंगा।<br />- कोई बहाना नहीं चलेगा।<br />हारकर मुझे कविता सुनानी ही पड़ी।<br />- जितनी याद है, उतनी सुना देता हूं।<br />- ठीक है।<br /><br />धूप बुलाती है मुझको<br />और छाँव नहीं भाती उसको<br />मैं दिन भर चलता जाता हूं<br />इस धूप में जलता जाता हूं<br />कोई साथी तो आ जाए<br />मुझको थामे, छाँव दिलाए<br /><br />शीर्षक मैंने कविता सुनाने के बाद बताया। धूप-छाँव।<br />- वाह! बहुत अच्छा लिखते हो। तुम्हारी उम्र में मैं भी लिखती थी। सुनोगे?<br />- हाँ, ज़रूर।<br />उन दिनों अपनी प्रशंसा सुनकर मेरी खुशी छिपाए नहीं छिपती थी। वे थोड़ी और तारीफ़ करती तो मैं उनका महाकाव्य तक सुनने को तैयार हो जाता। वे कमरे में गई और एक डायरी उठा लाई। पन्ने पलटने के दौरान मैंने देखा कि बहुत सजा कर लिखा गया था। मेरी लिखावट बहुत गन्दी थी और मैंने कोई डायरी भी नहीं बना रखी थी।<br />उन्होंने गाकर सुनाया।<br /><br />ये मेरा हुस्न तेरी चाहत का दीवाना है<br />हर लम्हा अपने इश्क का अफसाना है<br />एक पल भी मैं जी नहीं सकती तेरे बिना<br />यही तेरे दिल को मेरे दिल का नज़राना है<br /><br />- बहुत अच्छा है...सच में बहुत अच्छा है।<br />वे खुश हुई।<br />- शुक्रिया। एक और सुनो।<br /><br />कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है<br />तेरा मेरा जन्मों जन्मों का नाता है<br />आकर लिपट जा तू गले से मेरे<br />मेरे दिल का रस्ता तेरे दिल तक जाता है<br /><br />- वाह! क्या बात है!<br />- मैं शायरी ही लिखती थी। फिर सब छूट गया। कुछ साल बाद देखना, तुम्हारा भी छूट जाएगा।<br />उनकी गहरी काली आँखें थी और काली पुतलियों के चारों तरफ दूध सी शुद्ध सफेदी। मेरी माँ की आँखों के आसपास सलवटें पड़ गई थी और हर समय आँखें मिंची मिंची सी लगती थी। माँ के माथे पर झुर्रियाँ पड़ने लगी थी। आंटी के माथे पर तीन लटें स्टाइल से बिखरी हुई थी। माँ का पेट थोड़ा निकलने लगा था। आंटी छरहरी थी और उम्र उन्हें छू भी नहीं गई थी। माँ पौनी बाँह के ब्लाउज पहनती थी और आंटी बड़े गले के स्लीवलेस। माँ ने सिनेमाहॉल में सिर्फ़ ‘हम आपके हैं कौन’ देखी थी और आंटी हर तीसरे हफ़्ते फ़िल्म देखने जाती थी।<br />जब हम छोटे थे तो उनके अन्दर वाले कमरे में घर-घर खेला करते थे। मैं उनके घर आता तो कभी कभी पापा मुझे छोड़ने आ जाते। हम कमरे के एक कोने में खाट को खड़ी करते और ऊपर से चादर ढककर छत बना लेते। वह हम दोनों का तिकोना घर होता था। (चार कोनों वाला घर उसने नवदीप के साथ बसाया) वह गुड़िया लाती और मैं पत्थर के टुकड़े। वह चुन्नी लाती और मैं काजल की खाली डिबिया में चीनी। अक्सर दोपहर होती थी लेकिन उस भीतर वाले कमरे में कम रोशनी ही रहती थी। पीछे की दीवार में एक खिड़की थी जो खेतों की तरफ खुलती थी। उसी के पास वाले कोने में हम घर बनाते थे। हम अपने घर को चादर ओढ़ा रहे होते या अन्दर बैठकर गाना गा रहे होते या गुत्थमगुत्था हो रहे होते, उसी बीच कभी धीरे से कमरे के दरवाज़े की बाहर वाली साँकल चढ़ जाती थी।<br />चार्जर उस रात नहीं मिला।<br />- अगर हम कहीं टहलने निकल गए होते तो शायद विकास बच जाता।<br />उसने कहा। वह मेरे पीछे झुककर मेरे दोनों कन्धों पर अपने हाथ रखे हुए थी। उसने अपनी शादी की एक फ़ोटो मुझे ईमेल से भेजी थी। उसमें वह इसी तरह नवदीप के कन्धों पर हाथ रखकर खड़ी थी।<br />- क्या वह आदमी भी बच जाता, जिसे उसने स्टेशन पर मारा है?<br />- मुझे लगता है कि पुलिस को कुछ गलतफ़हमी हुई है।<br />- तुम उसे जानती ही कितना हो? दस मिनट या हद से हद पन्द्रह मिनट?<br />- मैं तुम्हें भी कितना जानती हूं? कभी कभी लगता है कि बस तीन चार मिनट...<br />- कभी कभी लगता है कि तुम मुझे जानने समझने की एक्टिंग कर रही हो...और कभी कभी न जानने की। जैसे सब कुछ किसी सीन की रिहर्सल है...<br />- तुम चाहो तो मेरे सेल से फ़ोन कर सकते हो।<br />मैंने नहीं चाहा। मैं जैसा चाहता था, वैसा कई बार हो जाता था। जैसे उस रात मैंने चाहा कि सुबह के ऑडिशन में उसे चुन लिया जाए और वह चुन ली गई। डेढ़ साल बाद एक ऐसा दिन भी आया, जब देश भर के पत्रकारों के पास उसका नम्बर था और मेरे पास नहीं था।<br />माँ थोड़ी रुढ़िवादी थी और साथ ही अपराध-कथाओं वाली पत्रिकाएँ उसे बहुत पसन्द थी। हम दोनों भाई-बहनों को वह अच्छे संस्कार देना चाहती होगी, शायद इसलिए ऐसा साहित्य हमसे छिपाकर रखा जाता था। माँ की अपनी एक अलग दुनिया बन गई थी जिसमें उसके घरेलू नुस्खे, शक, वहम और बीमारियाँ थी। वह बहुत बीमार रही, लेकिन कभी किसी डॉक्टर के पास नहीं गई। छुटपन की मेरी जितनी भी यादें हैं, उनमें वह पापा के साथ झगड़ती हुई ही नज़र आती है। वे दोनों बिना बात के ही लड़ने लगते थे। कभी कभी देर रात में उनके झगड़ने से हमारी नींद टूट जाती थी, कभी रात के खाने के वक़्त माँ पापा को थाली लाकर पकड़ाती और पापा उसे दीवार पर दे मारते। अव्वल तो पापा माँ के लिए कभी कुछ खरीदकर लाए हों, मुझे याद नहीं पड़ता और एकाध बार लाए भी तो माँ ने उन साड़ियों के बदले बर्तन खरीद लिए। माँ ने हमेशा अपने मायके से लाया हुआ कपड़ा ही पहना। पापा हम दोनों भाई-बहनों को बहुत प्यार करते थे और मैं माँ को ज़्यादा प्यार करता था। दीदी शायद पापा के ज़्यादा करीब थी। माँ में रिश्तों के प्रति एक भयावह सी तटस्थता थी और वह एक सीमा से अधिक किसी को भी अपने नज़दीक नहीं आने देती थी। अपने बच्चों को भी नहीं। गठिया ने माँ को खाट पर ला बिठाया था, लेकिन मैंने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा। पापा सहायक डाकपाल थे और उन्होंने कभी शराब नहीं पी। फिर भी हमारे घर में एक तनाव इधर उधर डोलता रहता था। वह शायद सुबह सुबह आने वाले नल के पानी में घुल गया था, जो फिटकरी डालने पर भी तली में नहीं बैठता था।<br />उस शाम आंटी काफ़ी देर तक अपनी शेरो-शायरी सुनाती रही। मुझे याद नहीं कि मैंने ध्यान से कुछ सुना हो। मैं पूरे समय मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रहा। अब मुझे लगता है कि वे भी यही चाहती थी। नौकर सब्ज़ियाँ लेकर आया तो उन्होंने उसे दूध लाने भेज दिया।<br />अपनी डायरी बन्द करके वे बोली- अब तक तुम्हारी कविताओं में तुम्हारी उम्र शामिल नहीं हुई।<br />- मैं समझा नहीं।<br />मैं हँसा। वे खनखनाकर हँसी।<br />- इस उम्र की एक उमंग, थोड़ी सी आशिक़ी, थोड़ी शरारतें...यह सब तो होना ही चाहिए।<br />मैं वाकई लड़कियों की तरह लजा गया। माँ के मुँह से मैंने कभी आशिक़ी या इससे मिलता जुलता शब्द नहीं सुना था। वे माँ से छ: साथ साल ही छोटी होंगी, लेकिन बातों से बीस साल छोटी लगती थी।<br />एक उम्र के बाद कुछ औरतें उस अनुभवी हिरणी की तरह हो जाती हैं जिसका शेर का शिकार करने का मन होता है तो वह शेर का शिकार करके ही छोड़ती है। इस दौरान वह इस बात का भी बख़ूबी ध्यान रखती है कि घास और जंगल को उस पर बिल्कुल भी शक़ न हो और न ही शाकाहारी समाज में उस पर जीवहत्या का आरोप लगे। कोई फँसे तो वह शेर ही हो, हिरणी नहीं।<br />आप जानते हैं कि हिरणी शिकार कैसे करती है? मैं बताता हूं।<br />उसे अविश्वसनीय रूप से बहुत सारे चुटकुले याद होते हैं। वह आपको चुटकुले सुनाने लगती है। आपको मज़ा आता है। आप हँसते जाते हैं। आपकी उम्र की लड़कियाँ आपस में तो कुछ फुसफुसाकर ही ही करके हँसती हैं और आपके साथ हमेशा बच्चियों जैसी भोली भाली बातें करती हैं, इसलिए क्रमश: और अंतरंग विषयों पर आते वे चुटकुले आपको और भी अच्छे लगते हैं। आपको पन्द्रह सोलह साल की लड़कियों पर गुस्सा भी आता है और तरस भी। जो रहस्य आपके दिमाग को दिन-रात खाए जाते थे, उन पर से हल्का हल्का पर्दा उठने लगता है। हिरणी जानती है कि कहाँ रुक जाना है, तड़पाना है और कब फिर से शुरु होना है। शुरु शुरु में आपको लगता है कि आप सिर्फ़ सुन रहे हैं और बिल्कुल पाक साफ़ हैं और जिस पल भी चाहें, मैदान छोड़कर उस मासूम सी लड़की के पास जा सकते हैं जो अपने ननिहाल गई हुई है और कल सुबह लौट आएगी। आप सोचते हैं कि यह जी टी वी देखते देखते कुछ देर के लिए फैशन टी वी देखने जैसा है और आप जब चाहें, एक बटन दबाकर जी टी वी पर लौट सकते हैं। आप भूल जाते हैं कि आप उस लड़की की माँ के साथ बैठे हैं, जो रोज़ स्कूल में आधा लंच आपको देती है, जो आपकी सबसे अच्छी दोस्त है और जिससे आप प्यार करते हैं। इसी बीच हिरणी एक चुटकुला सुनाती है, जिसमें स्कूल के ड्रेस कंपीटिशन में एक लड़की बिना कपड़ों के पूरे शरीर पर चॉकलेट मलकर पहुँच जाती है और अपने आप को टाइटल देती है- मिंट विद अ होल। आप बहुत हँसते हैं। वह बस थोड़ा सा मुस्कुराती है और पढ़ाई-लिखाई की बातें करने लगती है। वह सचमुच जानती है कि उसे कहाँ रुकना है और आप जो अपने आप को बहुत समझदार मानते हैं, कुछ भी नहीं जानते। आप अनुरोध करते हैं कि वह कुछ और सुनाए। वह पूछती है कि क्या आप कुछ देखना चाहेंगे? आप हाँ हाँ हाँ करते हैं। आप उस शाम ही दुनिया की सब गहराइयाँ छान मारने के लिए उत्सुक हैं, बेताब हैं। वह आपको अन्दर के कमरे में ले जाती है, जिसकी पिछली दीवार में खेतों की तरफ खुलने वाली खिड़की है और जिसके कोने में आपका बरसों पुराना तिकोना घर है। लेकिन आपको कुछ याद नहीं है। वह आपको चिकने पन्नों और रंगीन चित्रों वाली एक किताब निकालकर दिखाने लगती है। अब आप पूरे पागल हो जाते हैं। आपकी नसों में ख़ून की ज़गह पिघला हुआ लोहा दौड़ने लगता है। आप शेर हों या गीदड़ हों या इंसान, आपको एक गुफा की ज़रूरत महसूस होती है और उसके लिए आप उस समय कुछ भी कर सकते हैं।<br />एक शाम अचानक आप अपनी चेतना और विवेक पाते हैं तो देखते हैं कि आप किसी और के घर के कमरे में लगभग नंगे लेटे हैं। कमरे में अँधेरा पसर रहा है, जिसने दीवारों पर टँगे चित्रों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। आपको खिड़की से बाहर दूर तक सरसों के काले होते खेत दिखाई देते हैं। वातावरण में ऐसी बोझिल उदासी है, जिसे केवल छोटे शहरों की अप्रैल की शामों में सात बजे के आसपास महसूस किया जा सकता है। आप अँधेरे में अपना चेहरा टटोलते हैं। आपके होठों के ऊपर हल्का हल्का रोयां आपकी उंगलियों को चिढ़ाता है। आपके नाक और कान कहीं गिर गए हैं। थोड़ी सी कोशिश के बाद आप उन्हें बिस्तर के नीचे से खोज निकालते हैं और पहन लेते हैं। चले जाने से पहले आप एक बार ज़ोर से चीखना चाहते हैं। पागलपन पाली चीख या जैसे कभी कभी बच्चा जनती हुई औरतें चीखती हैं। लेकिन आप एक सभ्य समाज में रहते हैं और इसलिए अश्लील नहीं चीख सकते। आप गलियारा, दरवाज़ा, सड़क, बिजलीघर और दो-तीन गलियाँ सधे कदमों से पार करते हुए अपने घर लौट आते हैं। आकर आप चाय पीते हैं और टीवी देखते हैं।<br />वह मुझसे कहती है- एक क्षण होता है, जिसमें हम अपनी मासूमियत सदा के लिए खो बैठते हैं। उससे पहले हम उसके बाद के समय की चाह में भाग रहे होते हैं और उसके बाद उससे पहले के समय की चाह में। उस एक पल की खूंटी पर हमारा पूरा जीवन टिका रहता है।<br />- क्या तुम प्रेम में विश्वास करती हो?<br />- मुझे नहीं पता।<br />वह रुआँसी हो जाती है। हम दोनों के बीच बचपन का एक धागा है, जिस पर हमारे बूँद बूँद आँसू निरंतर तैरते हैं। वह जब भी रोती है, उसे अपने पिता की याद आती है, जो फ़ौज में थे और बिना लड़ाई के मारे गए थे। कश्मीर की किसी बर्फीली पहाड़ी पर उनका पैर फिसला था और वे सैंकड़ों फीट गहरी खाई में जा गिरे थे। वह पाकिस्तान से नफ़रत नहीं करती।<br />मैं पूछना चाहता हूं कि उसकी ज़िन्दगी कौनसे क्षण की खूंटी पर झूल रही है, लेकिन नहीं पूछता। वह अपनी शादी से अगली सुबह तीन दिन के लिए नवदीप के साथ नैनीताल गई थी। उसके कुछ महीनों बाद जब मैं नैनीताल गया तो मेरा किसी झील में कूदकर आत्महत्या करने का मन होता था। पर्यटन स्थल मुझे इसीलिए अच्छे नहीं लगते क्योंकि वहाँ लोग हनीमून मनाने आते हैं। मैं पहाड़ों पर पलता तो निश्चित तौर पर अपराधी बनता। यह सोचकर मुझे विकास की याद आती है। वह तो लखनऊ में पला-बढ़ा है। शायद इसीलिए अब तक उसके प्रति मेरी सहानुभूति कुछ कम हो गई है।<br />यह आश्चर्यजनक है कि माँ को मुझमें और पापा में से किसी एक को चुनना होता तो वह पापा को ही चुनती। जबकि मुझे लगता है कि मैं उससे पापा की अपेक्षा कहीं ज़्यादा प्यार करता था। यह बात और है कि माँ को कभी ऐसे चुनाव का मौका नहीं मिला। उसे अपने जीवन में अक्सर लम्बी बहसों के नतीज़ों की सूचना भर दे दी गई। उसे कभी विकल्प नहीं दिए गए और बड़ी बात यह है कि उसने कभी शिद्दत से ऐसा चाहा भी नहीं।<br />अगली शाम पापा देर से घर आए। मैं उस दिन भी स्कूल नहीं गया था और दिन भर बिस्तर पर पड़ा सोता-जागता रहा था। पापा ने कहा कि आंटी को तेज बुखार है और चूंकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं है (नौकर, नौकर ही माने जाते हैं; पुरुष या स्त्री नहीं) इसलिए वे चाहते हैं कि मैं रात में उनके यहाँ सोऊँ। बाद में मुझे लगता रहा कि ऐसा आंटी ने ही उन्हें कहा होगा। वे मुझे देखना चाहती होंगी।<br />मैंने इनकार कर दिया। उन दिनों पापा मेरे प्रति रूखे होते जा रहे थे। फ्रायड ने कहा है कि मूलत: हर पुरुष अपने पिता का और हर स्त्री अपनी माता की शत्रु होती है। घोर अवसाद के दिनों में बहुत बार मुझे इसका उल्टा भी सच लगा है। हालांकि मेरा बचपन बहुत लाड़-दुलार में बीता, लेकिन ज्यों ज्यों मैं बालक से पुरुष होता गया, त्यों त्यों पिता मुझसे दूर होते गए (शायद माँ भी। क्या फ्रायड ने अधूरी बात कही थी या मुझमें जो स्त्री थी, माँ की उससे शत्रुता थी?)।<br />मेरे मना करने पर उन्हें बहुत गुस्सा आया। यूँ तो मैं हमेशा उनके घर जाने के लिए उतावला रहता था और आज जब उन्हें ज़रूरत है तो नहीं जा रहा हूं। उन्होंने फिर से कहा कि मुझे जाना चाहिए। मैंने फिर से मना किया। दीदी रसोई में प्याज काट रही थी। माँ चुपचाप अपनी खाट पर लेटी थी जैसे कुछ भी न सुनाई देता हो। वे बहुत पुराने साल थे जब पापा बाहर से आते ही माँ को बहुत सारी बातें बताते थे। तब माँ की पसन्द की सब्ज़ियाँ भी आती थी। वे उनकी शादी के बाद के एक-दो साल ही थी, जिन्हें और बहुत् से अच्छे समयों की तरह मैं कभी नहीं देख पाया।<br />फिर पापा ने मुझे ख़ूब डाँटा। आखिर मुझे जाना ही पड़ा।<br />वह उसी सुबह अपने ननिहाल से लौटी थी। वह वैसी ही थी- मासूम, चंचल और धुली धुली बर्फ सी। मैं सीधा उसके कमरे में गया। आंटी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थी। वे उसी गुलाबी नाइटी में थी और कहीं से भी बीमार नहीं लग रही थी। वे कनखियों से मुझे देखकर मुस्कुराई। मैं सत्रह साल का पाँच फीट सात इंच का लड़का हवा में उड़ते पत्ते सा कमज़ोर हो गया और गिरते-गिरते बचा। मैंने निश्चय किया कि एक दिन आएगा, एक अच्छा सा ख़ुशनुमा दिन, जब मैं उसे सब कुछ बता दूँगा और वह मुझे अपने सीने में भींच कर छिपा लेगी और उंगलियों से मेरे बाल सहलाएगी और समझाती रहेगी कि मैं इतना बुरा नहीं हूँ। एक सचमुच का दिन होगा, जब वह कहेगी कि अब सब कुछ ठीक हो गया है और दुनिया में ऐसा कोई भी दाग नहीं, जिसे धोया न जा सके। उस दिन मैं सचमुच बहुत रोऊँगा।<br />- तुम ऐसे लग रहे हो, जैसे दिन भर या तो सोते रहे हो या रोते रहे हो....और तुम जानते ही हो कि रोना तो मुझे कितना नापसन्द है।<br />वह मेरे घुसते ही बोली। उसकी हर चीज के बारे में एक राय थी और वह उसी पर अडिग रहती थी। आपकी बाँह कटकर आपके शरीर से अलग हो गई हो और उस समय सिर्फ़ वही आपके पास हो और आप दर्द के मारे रोने लगें तो वह गुस्से में आपको अकेला पटककर भी जा सकती थी। उसे कठोरता पसन्द थी जिसे वह आत्मबल कहती थी। उसे व्यावहारिकता पसन्द थी जिसे वह समझदार संवेदनशीलता कहती थी। मेरी बदकिस्मती कि मैं उसकी पसन्द का कुछ भी न बन पाया। उसकी फ़ेवरेट काजू कतली तक नहीं।<br />- मैं सोता रहा सारा दिन।<br />- फिर ठीक है।<br />वह हँसी। वह अख़बारों और पत्रिकाओं में से तस्वीरें काट काटकर अपने संग्रह में चिपका रही थी। उसे करीना कपूर भी पसन्द थी। मुझे उस रात वह एक अलग दृष्टिकोण से दिखाई पड़ रही थी जिसमें उसकी माँ का पास वाले कमरे में बैठकर मुस्कुराना भी शामिल था। मैंने चेक वाली शर्ट पहन रखी थी, जिसकी बाजुएँ चढ़ी हुई थी। मैं निम्नमध्यमवर्ग के कम बोलने वाले किशोरों जैसा लगता था और शायद था भी। वह बेफ़िक्र और आधुनिक थी। गर्दन और गालों पर गिरते उसके बाल, जो गर्मियों में उसे तकलीफ़ देते थे, मुझे बहुत अच्छे लगते थे। वह चार्ट पर तस्वीरें चिपकाते चिपकाते एक हाथ से आदतन उन्हें पीछे करती थी तो मैं लगभग आह भरता था।<br />उस रात आग लग गई। मैं उसके कमरे में सोया था। वह और आंटी टीवी वाले कमरे में सोई थी और नौकर तारों की छाँव में ऑडोमॉस लगाकर सोया था। आग टीवी वाले कमरे में लगी। बाद में अनुमान लगाया गया कि खिड़की पर लगे लकड़ी के पल्लों ने सबसे पहले आग पकड़ी, जिन्होंने परदों को जलाया और फिर मेज पर रखी लालटेन ने अपने मिट्टी के तेल की शुद्धता का परिचय देते हुए उसे और भड़का दिया। मेरी आँख तब खुली जब वे दोनों बदहवास सी इधर-उधर दौड़ रही थी और नौकर आग-आग और पानी-पानी चिल्ला रहा था।<br />असल में आग हम सबकी ज़िन्दगी में लग गई थी। कोई शॉर्ट सर्किट नहीं हुआ था और न ही किसी बिल्ली ने कोई मोमबत्ती गिराई थी। इसलिए सबको ऐसा लगा कि आग किसी ने जानबूझकर लगाई है। आंटी का हाथ झुलस गया था और उसके पैर की दो उंगलियाँ। आंटी ने ही पापा से कहा होगा कि उन्हें मुझ पर शक़ है। पापा ने उस बात पर तुरंत भरोसा क्यों कर लिया, यह बताने के लिए मुझे अपने बचपन में लौटना होगा।<br />क्या मुझे लौटना चाहिए?<br />शायद नहीं, लेकिन तमाम प्रतिबन्धों के बावज़ूद मैं बार बार लौटूंगा।<br />तब पापा की घनी मूँछें थी और उनके सारे बाल काले थे। वे मुझे गोद में उठाकर चूमते थे तो मुझे उनकी मूँछें चुभती थी। मैं तब इतना ही बड़ा था कि कभी कभी सुबह और शाम में भेद नहीं कर पाता था। मुझे एक दृश्य याद आता है, जिसमें आंटी पापा की मूँछों को छू रही हैं। एक भारी हँसी की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती है। एक दृश्य है, जिसमें पापा मेरे हाथ में बिस्किट का पैकेट थमाकर आंटी के साथ कहीं चले गए हैं। कहाँ गए हैं, यह मुझे याद नहीं आता। एक दृश्य में मैं गुलाब के फूलों के बीच सहमा सा अकेला खड़ा हूं। यह तो हमारी फैमिली एलबम में लगी एक फ़ोटो है, लेकिन फ़ोटो को पलटकर उस दिशा का दृश्य नहीं दिखाई देता जिधर कैमरा था। उसके लिए आपको मेरी आँखों में झाँककर देखना पड़ेगा। लेकिन क्लिक की आवाज़ के साथ ही मैं आँखें बन्द कर लेता हूं और जो मैं उस क्षण देख रहा था, वह कोई भी कभी नहीं देख पाता। एक और दृश्य है, जिसमें मेरी रंगबिरंगी बॉल लुढ़कती हुई दूसरे कमरे में चली जाती है। मैं उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। मेरे कमरे में घुसते ही आंटी हड़बड़ाकर पलंग से उठकर खड़ी हो जाती हैं। पापा पलंग पर ही बैठे हैं। मैं बॉल निकालने के लिए तेजी से पलंग के नीचे घुस जाता हूँ। बॉल के पास एक सफेद रंग का छोटा जालीदार कपड़ा गिरा पड़ा है, जिसकी एक तनी बॉल को छू रही है।<br />आग पर जल्दी ही काबू पा लिया गया था। आंटी के हाथ और उसके पैर पर जलने के स्थायी दाग के अलावा कोई बड़ा नुक्सान नहीं हुआ। पापा ने दोपहर को घर लौटते ही मुझे एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारा और एक बैग में अपने कपड़े भरकर आंटी के घर चले गए। उसके बाद वे कभी घर नहीं लौटे। माँ ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और कुछ महीनों बाद उनका तलाक़ भी आसानी से हो गया। दीदी ने माँ के पास रहना ही चुना। मैं कुछ नहीं बोला और उनके साथ ही रहा। हालांकि मुझे पूरा विश्वास है कि माँ को चुनने का मौका दिया जाता तो हम दोनों की बजाय वह पापा को ही चुनती।<br />जब पापा मरे तो वे मेरे पापा नहीं थे, इसलिए दुख भी कम होना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ रस्में या दस्तख़त रिश्तों की गहराई को ज़रा भी कम या ज़्यादा कर सकते हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता और सच में ऐसा नहीं लगता तो मुझे नवदीप से उसकी शादी पर भी दुखी नहीं होना चाहिए था। किंतु ऐसा भी नहीं हुआ। मैं ख़ुद अपनी मान्यताएँ और सिद्धांत नहीं जानता था। मुझे मौत पर भी दुख होता था और शादी पर भी।<br />हमारे परिवार का विघटन हम सबके लिए पूरी तरह अनापेक्षित नहीं था, लेकिन उसके होने का ढंग चौंका देने वाला था। उसका माध्यम भी मैं ही बना। पापा ने जैसे सिद्ध कर दिया कि आग मैंने ही लगाई है और उसी आग को बुझाने के लिए उन्होंने यह फ़ैसला किया है। उस एक रात के पीछे उन्होंने पन्द्रह बीस सालों तक हर रात अपना देर से लौटना छिपा कर रख दिया। साथ ही बाकी सदस्यों के लिए (दीदी और यहाँ तक कि माँ भी) उन्होंने अपने दिल में एक छोटा सा मधुर कोना हमेशा बचाकर रखा, लेकिन मुझसे वे कभी नहीं बोले। तब भी नहीं, जब उसकी शादी रुकवाने के लिए मैं तीन घंटे तक उनके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाता रहा। उन पर कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा। पहले वे अपने दफ़्तर की फाइलें देखते रहे, फिर आंटी के साथ बैठकर खाना खाया और फिर अख़बार पढ़ने लगे। उन्होंने मुझे डाँटने तक के लिए अपनी जुबान नहीं हिलाई। आंटी ने ज़रूर मुस्कुराकर एक बार खाने के लिए पूछा। वे मुझसे ऐसा बर्ताव कर रहे थे जैसे मैं उनका जन्मों पुराना दुश्मन हूं। वे ही हमारे रिश्ते को पिता-पुत्र के रिश्ते से उठाकर बराबरी के से रिश्ते पर ले आए थे, जिसमें एक दूसरे को क्रूरता से चोट पहुँचाई जा सकती थी और दूसरे को पीड़ा से कराहते देखकर हँसा जा सकता था। <br />स्कूल के हमारे आखिरी दिनों में, जब मेरे पिता उसके पिता जैसे कुछ हो गए थे, वह भी मुझसे कटी कटी रहने लगी थी। हम दोनों ही बहुत कम स्कूल जाते थे और आसपास के लड़के-लड़कियों की तीखी नज़रों से अनजान बनने का नाटक करते हुए अपनी सीट पर चुपचाप बैठे रहते थे। एक दिन पानी पीकर लौटते हुए उसने कहा कि वह चाहती है कि उसकी शादी ज़ल्द से ज़ल्द हो जाए।<br />मैंने कहा- तुम पढ़ने के बहाने भी तो इस घर से दूर जा सकती हो।<br />उसने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी शादी की रात मैं हारे हुए बाकी लड़कों की तरह दिल्ली भाग आया। दिल्ली की वह मुलाक़ात हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी। उसके बाद बहुत दिनों तक मुझे लगता रहा कि वह अज्ञेय की कोई किताब मुझे डाक से भेजेगी, लेकिन कुछ नहीं आया। ब्लेड या काँटे तक नहीं।<br />एक समय है, शेरो शायरी वाली शाम में नौकर के दूध लाने चले जाने के बाद का समय, जिसमें एक कमरा मेरे चारों तरफ चक्कर काटती हुई धरती की तरह घूम रहा है और मैं उस समय का सूर्य हूँ। स्मृतियाँ, कल्पनाएँ, डर और पश्चाताप- सब जुड़कर गड्डमड्ड हो जाते हैं। मैं सूरज हूँ और खिड़की के उस पार गहरा अँधेरा है, जिसे मैं मिटा नहीं सकता। जब घूमते हुए कमरे की वह सरियों वाली खिड़की मेरे सामने आती है तो अँधेरे में कुछ चमकता है। जैसे किसी लड़की ने पीले फूलों की कढ़ाई वाला हरा सूट पहन रखा हो और वह बस एक क्षण को दिखी हो और छिप गई हो। हो सकता है कि सड़क पर से गुजरते किसी वाहन की रोशनी सरसों के खेतों पर पड़ी हो और मुझे भ्रम ही हुआ हो, लेकिन वही एक क्षण है जो मेरा अतीत और भविष्य है। मैंने उसी नक्षत्र में जन्म लिया है और उसी में मर गया हूँ।<br />मेरे पास उसकी एक तस्वीर है जो उसने किसी मन्दिर के बरामदे में खड़े होकर खिंचवाई है। उसके पीछे पहाड़ हैं और उसने माथे पर लाल टीका लगा रखा है। वह उस समय भी मुझसे थोड़ी सी लम्बी होगी। वह ख़ुश लग रही है। मैं शीशा उठाकर अपना चेहरा देखता हूँ। अगर मेरे माथे पर भी लाल टीका होता...होता क्या, अभी लगाकर देखा जा सकता है। मैं ढूंढ़ता हूँ...कमरे में उथल पुथल मचाता हुआ...लेकिन मेरे कमरे में मेरे ख़ून के सिवा कुछ भी लाल नहीं होगा। अगले ही मिनट मेरी उंगली में गलती से चाकू चुभ जाता है। अब मैं माथे पर लाल टीका लगा लेता हूँ। उसकी आँखों पर चश्मा नहीं है। मैं भी अपना चश्मा उतार देता हूँ। यदि मेरे चेहरे पर भी थोड़ी ख़ुशी झलके...नहीं, उससे पहले मुझे दाढ़ी बनानी होगी। वह मेरा इकलौता ब्लेड है, जिससे मैं दाढ़ी बनाता हूं। अब मैं चेहरा धोता हूँ, इस तरह बचता हुआ कि माथे का टीका न धुल जाए। मैं चेहरा पोंछता हूँ और फिर शीशा उठाकर देखता हूँ। अब मैं अपने होठों पर थोड़ी सी ख़ुशी भी ला सकूँ तो क्या मैं उस जैसा दिखूँगा? क्या हम दोनों की नाक का पैनापन और घनी घनी भौंहें एक जैसी हैं?<br />क्या ऐसा हो सकता है? क्या ऐसा हुआ होगा?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">कहानीकार- गौरव सोलंकी<span style="font-weight:bold;"></span></span>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-68617967547238822982009-07-06T13:48:00.001+05:302009-07-06T13:49:07.435+05:30पत्नी का चेहरा- मनोज कुमार पाण्डेयइन दिनों आप पढ़ रहे हैं युवा कहानीकार <span style="font-weight:bold;">मनोज कुमार पाण्डेय</span> की कहानियाँ। इस कड़ी में अब तक आप <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/04/behaya-besharam-manoj-kumar-pandey.html">'बेहया'</a> और <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/05/khaal-kahani-manoj-kumar-pandey.html">'खाल'</a> पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए अगली कहानी-<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">पत्नी का चेहरा</span></strong></center><br /><br /><br />छुट्टी का दिन, मैं और मेरी पत्नी दोनों के लिए अलग-अलग मतलब लेकर आता है। दोनों अपने-अपने कारणों से छुट्टी का इन्तजार करते हैं। <br />मैं इसलिये कि छुट्टी का दिन मुझे अपने तरीके से जीने का एक दिन देता है। छुट्टी मतलब दिन भर की आरामतलबी मतलब जितने बजे तक मर्जी हो सोना या सोना भी नहीं बस ऐसे ही पसरे रहना। पत्रिकायें पलटते हुये दिन गुजार देना। कोई उपन्यास पढ़ जाना। कुछ लिखने की कोशिश करना या फिर कुछ ना लिखने की कोशिश करना या कोई कोशिश ही ना करना। मतलब यह कि सब कुछ अपनी मर्जी का, किसी का कोई दबाव नहीं। <br />पत्नी का मायका और ससुराल दोनों गाँव में है, सो जब कभी पत्नी गाँव में होती है और हमारी बिटिया, जहिर है कि अमूमन उसके साथ ही होती है तो ऐसे दिनों में जब छुट्टी का कोई दिन पड़ता है तो मैं सब्जियों से लेकर दूध तक पहले से ही खरीद कर फ्रिज में रख देता हूं कि किसी भी संभावित वजह से मुझे कमरे के बाहर न निकलना पड़े ऐसे दिनों में मकान के गेट के बाहर कदम रखना भी कई बार मेरे लिए लाहौलविलाकुव्वत होता है। कई बार बेचारा अखबार दिन-दिन भर कमरे के बाहर अपने उठाये जाने का इन्तजार करता, पड़ा रह जाता है तो कई बार यह भी हुआ है कि अखबार का अक्षर-अक्षर चाट गया हूं। तो छुट्टी बोले तो अपने मूड या मनमर्जी से चलने का एक दिन कुछ भी करने या कुछ भी न करने का एक दिन। कुछ भी सोचने या कुछ भी न सोचने का एक दिन।<br />जबकि मेरी पत्नी के लिए छुट्टी का दिन और ही मतलब लेकर आता है। मेरे ऑफिस में रहने का समय है ग्यारह से छः। जहाँ मैं रहता हूं वहां से ऑफिस पहूंचने में आधा घण्टा लगता है। आधा घण्टा सुबह आधा घण्टा शाम वह भी तब जब आटो महाराज की समय पर कृपा हो जाय नहीं तो यह एक घण्टा कई बार बढ़कर दो घण्टे में बदल जाता है। तो सुबह का समय उठने अखबार देखने दूधसूध लाने, बेटी को तैयार कर स्कूल ले जाने और उसके बाद ऑफिस जाने की तैयारी में बीतता है और शाम साढ़े छः सात तक घर पहुँचने के बाद कहीं बाहर निकलने की कोई इच्छा दूरदूर तक नहीं बचती। रात का खाना खाने के बाद भी बाहर निकलने का मन नहीं करता, मेरी बढ़ती हुई तोंद देखकर जिसके लिए कई शुभचिन्तकों ने खास तौर पर सलाह दी है। आम भारतीय सर्वहारा युवाओं की तरह मैं भी पूरी तरह कुपोषण का षिकार रहा हूँ सो कभी आँख भारी लगती है तो कभी सिर। कभी तलवों में जलन होने लगती है तो कभी घुटना तकलीफ देने लगता है। कब्ज तो खैर सदाबहार है ही। जाहिर है कि पत्नी से ज्यादा मेरे शरीर की इस सदा बिगड़ी घड़ी के बारे में भला कौन जानेगा। सो मेरी प्यारी पत्नी हफ्ते के छः दिन कमरे से बाहर निकलने की सारी आकांक्षाओं को दबाये पड़ी रहती है और क......क......क...... के सीरियल या बातबात पर आंसू बहाने और गाना गाने वाली फिल्मों में अपने आपको गुम कर देती है। मगर इस बीच छुट्टी के दिन की अपनी योजनायें भी वह चुपके-चुपके बनाती रहती है कि छुट्टी के दिन यह करेगें छुट्टी के दिन वह करेगें। छुट्टी के दिन यहाँ जायेगें छुट्टी के दिन वहाँ जायेगें और इसके लिए धीरे-धीरे मुझे भी तैयार करने की कोशिश में लगी रहती है। एकदम अभिधा में कहें तो जहाँ मेरे लिए छुट्टी का मतलब होता है घर में रहना, वहीं मेरी पत्नी के लिए छुट्टी का मतलब होता है- बाहर जाना। कायदे से देखें तो इन दोनों बातों में कोई अन्तर नहीं है। हम दोनों ही जीवन के रोजमर्रेपन से मुक्ति चाहते हैं पर मुष्किल यह है कि हमारी जीवनस्थिति में एक की मुक्ति दूसरे की मुक्ति में बाधक बनने लगती है।<br /><br />ऐसे में हममें टकराव होना एकदम लाजिमी है पर हम दोनों होशियार हैं, एक दूसरे को बखूबी समझते हैं, प्रेम करते हैं सो अमूमन यह टकराव हम दोनों किसी तरह टाल जाते हैं और बीच का कोई रास्ता निकाल लेते हैं। यह बीच का रास्ता कुछ ऐसा होता है कि दोनों की पसन्द का आधाआधा दिन। जैसे कि दिन के पहले दो पहर वह मेरे किसी काम पर कोई टिप्पणी नहीं करेगी, मेरी जो भी मर्जी होगी, जैसी भी मर्जी होगी, मैं करता रहुँगा। मान लो मेरा उसी को बाहों में लिए पड़े रहने का मन है तो भी। बीच में टोकना फाउल माना जाता है। और दूसरे दो पहर मैं अपने आपको पूरी तरह से उसकी इच्छाओं के हवाले कर देता हूँ। कोई सिनेमा, नाटक, पार्क, चिड़ियाघर, उसकी कोई सहेली, कोई दूर-पास की रिष्तेदारी, यूं ही बेकार घूमें जाने या कोई खास फूल तलाष करने से लेकर नदी नहाने तक कुछ भी हो सकता है, बस शर्त यही है कि यह कुछ भी हर हाल में घर के बाहर होना चाहिये। <br /><br />मेरे लिए घर एक स्वर्ग है जहाँ आकर मैं दुनियावी जंजालों से एकदम मुक्त हो जाना चाहता हूं। किसी भी तरह की बाहरी तकलीफ या तनाव से मुक्ति, अपनों के साथ, अपनों की गोद में। पर पत्नी के लिए यही घर एक कैद है, कैद-ए-बामशक्कत। वह सुबह से लेकर शाम तक अनेक दृश्य-अदृश्य कामों में लगातार जुटी रहती है। मैंने कई बार कोशिश की, कि उसका हाथ बंटा लिया करूँ। मैं कुछ करता हूं तो वह मना करती है पर ऐसे दिनों में वह ज्यादा खुष नजर आती है और बातबात पर मुझे अपने प्यार से सराबोर किये रहती है। मैं भी दिन भर उसका साथी होने के प्यार भरे एहसास से भरा रहता हूं पर किसी न किसी वजह से यह क्रम टूट ही जाता है और फिर टूटता ही चला जाता है बल्कि ये कहूं तो ज्यादा ठीक होगा कि कायदे से यह क्रम कभी बन ही नही पाया। हमेशा बनने के पहले ही बिखर जाता हैं पत्नी के दिल में जो भी हो पर इन सब बातों के लिए उसने अपनी नाराजगी कभी नही जताई। उसकी नाराजगी कि वजहें हमेशा दूसरी होती हैं। <br />तो यह ऐसे ही छुट्टी का एक दिन था। पत्नी सुबह से ही बहुत खुश थी। मैं सुबह उठा तो अचानक मैने पाया कि मेरी किताबों पर बहुत धूल-गर्द जमा हो गई थी। मैं सुबह से ही किताबें साफ करने में जुटा था और इस बीच मेरी बेटी आकर कई बार मेरी पीठ पर लद चुकी थी। पत्नी कई बार आकर मुझे चूम चुकी थी। मैं ऐसे ही एक किताब के पन्ने पलट रहा था और वह पीछे से लिपटी हुई थी कि मोबाइल बज उठा। मोबाइल कोने में मेज पर पड़ा था। मैने उधर देखा ही था कि पत्नी बोल पड़ी किसी का भी हो बजने दो मत उठाओ’ और उसने मुझे और जोर से कस लिया। इस सब के बीच मोबाइल एक बार बजकर शान्त हो गया पर तुरन्त ही फिर बज उठा। मैने कहा कि देखें तो किसका फोन है, उठाऊंगा नहीं और उसके मना करते-करते मैं फोन तक आ गया। बाॅस का फोन था। <br />बॉस विशुद्ध बॉस होता तो मैं फोन नहीं ही उठाता पर हमारे बीच बेहद आत्मीय रिश्ते हैं। वह हमारी परेशानियों में शरीक हैं और मैं उसकी दिल से इज्जत करता हूं सो फोन रिसीव न करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। मैने फोन उठाया और बोला, हाँ सर बताइये। बॉस ने कहा कि एक पार्टी से आज का ही अप्वाइन्टमेन्ट फिक्स हो गया है और इस जरूरी अप्वाइन्टमेन्ट में मुझे भी बॉस के साथ रहना है। मैं कुछ कह पाता इसके पहले ही बॉस ने फोन काट दिया। मेरे मुंह का जायका बिगड़ गया। यूं तो बॉस ने यह भी पूछा था कि मैं कहीं और व्यस्त तो नहीं हूं और यह भी कि ज्यादा से ज्यादा दो घण्टे में काम हो जायेगा, पर मैं सामने वाली पार्टी को बाॅस से बेहतर जानता था। आज तक वह कभी भी तयषुदा समय बीत जाने के दो-तीन घण्टे बाद ही आई थी। ऐसी किसी भी देरी पर जब हम उन्हें फोन करते तो अमूमन उधर से फोन ही नहीं उठता था और हम ऑफिस में बैठे कसमसाते रहते क्योंकि उनके देर से आने का सीधा मतलब हमारा ऑफिस में देर तक बैठना होता। सामने वाली पार्टी ऐसी थी कि देर से आने में उसे अपना महत्वपूर्ण होना लगता था। हम इस पार्टी से परेशान थे और बॉस से अपनी आपत्ति कई बार मीठे स्वरों में दर्ज करा चुके थे पर हर बार बॉस का एक ही जवाब होता कि क्या करें इसका कोई विकल्प भी तो नहीं मिलता और यह बात पूरी तरह सच थी। हमने उन कामों के लिए जिन्हें सामने वाली पार्टी हमारे लिए करती थी, कई पार्टियों को आजमाया था पर उतने परफेक्षन के साथ कोई और नहीं कर सका और कीमत भी अधिक चुकानी पड़ी। दरअसल हम छोटे शहर में होने की विकल्पहीनता के षिकार थे। हम दिल्ली या मुम्बई में होते तो ऐसे लोगों को जिनमें प्रोफेशनल एथिक्स नाम की कोई चीज नहीं थी, हमने अपनी लिस्ट से कब का बाहर कर दिया होता पर यहाँ हमारे पास कोई विकल्प नहीं था।<br />यूं तो बॉस ठीक ही है। वह हमारी सुविधाओं का भी थोड़ा बहुत ध्यान रखता है। हमारे रिश्ते भी ऐसे हंसी-मजाक भरे हैं कि बहुत बार लगता ही नहीं कि हम बॉस और मातहत हैं। पर छुट्टी के मामले में हमारा बॉस बहुत सख्त है। हालांकि जब हमें जरूरत होती है छुट्टियां हमें मिल ही जाती हैं पर मुश्किल ये है कि यह छुट्टियां जिस खास जरूरत के लिए ली जाती हैं उसी में काम आ जाती हैं और आप इस बात के लिए तो छुट्टी मांगने से रहे कि आपको अपनी प्यारी पत्नी के साथ नाटक या सिनेमा देखने जाना है याकि मौसम बूंदाबांदी वाला है और आप बस अपनी जान के साथ हाथों में हाथ डाल के भीगना और भीतर तक भीग जाना चाहते हैं, काम नहीं करना चाहते। याकि ठंड का समय है और आप दिन भर धूप का मजा लेते हुये अलसाये से पड़े रहना चाहते हैं याकि...............<br />तो बॉस के साथ मेरी बातचीत खत्म होती इसके पहले ही पत्नी कोपभवन में जा बैठी। बातचीत खत्म होते ही तुरन्त मैं उसके पास पहुंचा और उसे समझाने की कोशिश की कि देखो बस थोड़ी देर की बात है, मैं जाऊंगा और आ जाऊंगा आना-जाना मिलाकर मुष्किल से तीन-साढ़े तीन घण्टे लगेंगे। मैं यूं गया और यूं आया। तुम तैयार रहना, आज हम वेव्स में फिल्म देखेंगे। पत्नी ने गुस्से से मुझे देखा और मुंह फेर लिया। मेरे मन में आया कि मैं पत्नी का चेहरा अपनी तरफ घुमाऊं और चूम लूं पर ऐसा करने के परिणाम खतरनाक हो सकते थे और मेरे पास खतरों से खेलने का समय नहीं था। मैंने कहा, जान मुझ पर भरोसा रखो। एक दिन हमारे पास खूब समय होगा और दूनिया भर की खुशियाँ हमारे पास होंगी। हम हमेशा, साथ रहेंगे, खूब प्यार करेंगे और खूब खुश रहेंगे कहते हूए मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखा। पीठ बर्फ की तरह ठंडी थी पर मेरे पास पीठ पर ध्यान देने का भी समय नहीं था। मैं नहाने के लिए झटपट बाथरूम में घुस गया। बाथरूम में पानी आंसुओं की तरह गुनगुना था। जल्दी ही मैं बाथरूम से बाहर निकला और कपड़े पहनने लगा। पत्नी को बाय किया तो उसने न जाने कैसी आँखों से मुझे देखा। उन आँखों में क्या था यह तो मैं नहीं समझ सका पर उनमें ऐसा कुछ जरूर था जिसका सामना करने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। मैने नजरें घुमाई, बैग उठाया, फिर से बाय-बाय कहा, बिटिया का गाल थपथपाया और किसी तरह के जवाब का इन्तजार किये बगैर बाहर निकल आया। बाहर धूप शरीर के पोर-पोर में सुइयाँ चुभो रही थी। <br />ऑफिस में हमेशा की तरह जब सामने वाली पार्टी आई तब तक हम बॉस के साथ उस मुद्दे को कई बार डिस्कस कर चुके थे और बॉस एक के बाद एक दसियों सिगरेट फूंक गया था। हालांकि हमें यह भी पता था कि हम कितना भी डिस्कस क्यों न कर लें सामने वाली पार्टी उसमें कोई न कोई कमी जरूर निकालेगी और बदले में अपनी तरफ से कोई सुझाव पेश करेगी। यह उसके चरित्र का स्थायी हिस्सा था। पार्टी ने दो बजे का समय दिया था और जब हम अपना काम करके बाहर निकले तब तक छः बजकर सात मिनट हो रह चुके थे। बाहर निकलकर मैंने एक सिगरेट सुलगाई और ऑटो स्टैण्ड की तरफ चलते हुये, अपने आपको पत्नी की छुट्टी बर्बाद करने का दोषी मानता हुआ, उसका सामना करने की हिम्मत जुटाने लगा।<br />दरअसल उसकी पिछली छुट्टी भी ऐसे ही इधर-उधर में बर्बाद हो चुकी थी। आप जो भी समझें पर छुट्टी के दिन मैं किसी को घर बुलाने से बचता हूं। पर मेरा एक बहुत प्यारा बचपनी दोस्त शहर में था और मैने उसे लंच के लिए बुला लिया था। अब मैं क्या करूं जो मुझे पहले से पता नहीं था कि इधर उसके लंच का समय चार बजे होता था। वह आया तो हम बहुत सारी नयी-पुरानी बातों में डूब गये। हमने एक लम्बा समय साथ बिताया था। एक दूसरे के साथ न जाने कितनी फिल्में देखी थी, नाटक देखे थे, बदलाव के बड़े-बड़े सपने देखे थे तो उन सपनांे के बारे में, हमारे दूसरे बहुत सारे साझा दोस्तों के बारे में, एक दूसरे के बारे में कहना-सुनना हमें बहुत अच्छा लग रहा था। उसका कहने का उत्साह मुझे सुनने के लिए उत्सुक बना रहा था। मेरी उत्सुकता उसे और भी वाचाल बना रही थी। हम दोनों एक दूसरे में इतने डूबे कि समय की खबर ही नहीं लगी। जब पत्नी आई और उसने चाय के बारे में पूछा तो अचानक मेरी नजर घड़ी पर पड़ी। साढे़ सात बज रहे थे। मैने पत्नी की तरफ देखा, उसकी आँखें बेचैनी में इधर-उधर घूम रहीं थीं। मेरा दोस्त अचानक से अस्त-व्यस्त हो गया। उसने कहा कि उसे तो किसी से छः बजे ही मिलना था पर उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा। वह तुरन्त ही अपने मोबाइल पर फोन मिलाने लगा और पांच मिनट बाद मैं उससे हाथ मिलाते हुये उसे विदा कर रहा था । <br />ऐसे ही उसके पहले के छुट्टी वाले दिन पर मेरे गाँव का एक लड़का आ धमका था। उसकी हमारे शहर में कोई परीक्षा थी। परीक्षा देने के बाद वह पूरी निश्चिन्तता में आकर जम गया था और हम संकोच में उससे कुछ भी नहीं कह पाये थे। पत्नी ने इन दोनों मौकों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की लेकिन मुझे पता है, वह इतनी जल्दी प्रतिक्रिया नहीं जाहिर करती पर जब जाहिर करती है तो एक आवेग में पिछली न जाने कितनी चीजें निकलती चली आती हैं यूं तो कई बार वह उन पिछली घटनाओं का जिक्र तक नहीं करती जो उसे मथ रही होती हैं पर उस समय आप उसे देखें तो बिना बताये ही समझ जायेंगे कि यह गुस्सा एक दिन का तो हो ही नही सकता। याकि इसके पीछे कोई एक बात नहीं हो सकती। और मैं ........... जब भी मेरी पत्नी मुझ पर इस तरह गुस्सा होती है तो मैं इस एहसास से पस्त हो जाता हूं कि पत्नी के इस गुस्से के पीछे पति के रूप में मेरी कितनी असफलतायें छुपी हुई हैं।<br />घर पहुँचते-पहुँचते सात बज चुके थे। मैं काफी देर तक बेल बजाता रहा। एक लंबी किर्र-किर्र के बाद दरवाजा खुला। यह मेरी बेटी थी जो अपनी कुर्सी पर खड़ी होकर सिटकिनी खोल रही थी। उसने मुझे देखा और मुस्कुराई, मम्मी देखो पापा आ गये। मैने उसके होठों पर उंगली रख दी और उसे चुप रहने का इषारा किया तो उसने सवालिया निगाहों से मेरी तरफ देखा। वह थोड़ा मायूस लग रही थी। मैने उसे गोद में उठा लिया और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और भीतर तक भीग गया। बाहर मेरा जो जीवन है वह इतना नीरस और बेतुका है कि कोई तुक की बात मिली नहीं कोई अलग एहसास हुआ नहीं कि भीग-भीग जाता हूं। हालांकि इस तरह बारबार का भीगना मुझे बेहद लिजलिजा लगता है कि बारबार रोनेरोने को हो आयें और आंसू का एक कतरा भी न निकले। ऐसे मौकों पर मैं और भी फंसा-फंसा महसूस करने लगता हूं। इससे अच्छा तो यही है कि किसी दिन रूलाई ही आ जाय। एक बार ऐसा सोचने भर की देर थी मैं बारबार रूलाई का इन्तजार करने लगा। फिर मैने सोचा कि किसी छुट्टी के दिन कायदे से रोऊंगा पर छुट्टी तो छुट्टी है जब मिलती है तो करने को बहुत से जरूरी काम होते हैं। <br /><br />भीतर बेडरूम में अंधेरा था। मैने स्विच ऑन किया, ट्यूब जली फिर भी अंधेरा कायम रहा। पत्नी मुंह दूसरी तरफ किये सिर तक चादर ओढ़े पड़ी हुई थी। मैने उसे डरते-डरते छुआ और उसका चेहरा अपनी तरफ घुमाने की कोषिष की। पत्नी ने मेरा हाथ झटक दिया और बोली, मुझे छूने की कोषिष मत करना। जाओ ऑफिस जाओ। काम करो। दोस्तों के साथ मजे करो। मैं तुम्हारी कौन हूं।<br /> <br />मैने कहा तुम मेरी जिन्दगी हो तुम मेरी सांस हो तुम मेरा प्यार हो तुम मेरी हसरत हो तुम मेरे जीवन की खुष्बू हो तुम मेरा सपना हो तुम मेरी जन्नत हो तुम मेरी तमन्ना हो तुम मेरा दिल हो तुम मेरी जान हो तुम मेरी प्रेमिका हो तुम मेरी पत्नी हो। मैं उसे खुश देखना चाहता था। मैं उसे चहकता हुआ देखना चाहता था पर न तो वह खुश हुई और न ही चहकी। वह बड़े ध्यान से मेरे चेहरे की तरफ देख रही थी। मैने उसकी आँखों में देखा और डर गया। मुझे लगा कि उसे मेरी आँखों में एक तरह की बेचारगी दिख रही है। वह बेचारगी से बेइंतिहा नफरत करती है। मैने अपने जबड़े को ढीला करने की कोशिश की ताकि सहज दिख सकूं। खुद मुझे बेचारा दिखना पसन्द नहीं है और पत्नी के सामने तो बिल्कुल भी नहीं पर मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर के किस कोने से यह भाव आता है और चेहरे पर आकर अपना काम कर जाता है। <br />मैं चुपचाप सहज होने की कोशिश करने लगा। बेटी जैसे सबकुछ समझकर ही टेलीविजन में डूब गई। पत्नी ने जैसे सबकुछ समझकर ही दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। मुझे थोड़ी राहत मिली और मैं थोड़ा सहज हो आया। मैं पत्नी की गोद में सिर रखकर उसे देखने लगा। वह कहीं और देख रही थी और इस तरह से चुप थी जैसे आसमान में तारे चुप दिखाई देते हैं। मैने धीरे से उसके हाथ पर अपना हाथ रखा। हाथ ठंडा था। मैने धीरे-धीरे उसके हाथों को सहलाया। हाथ कांपे तक नहीं फिर मैं देर तक उसके हाथों को चुपचाप सहलाता रहा, फिर मैने कहा, तुम मेरी पत्नी हो मैं तुम्हारा पति हूँ हमें एक दूसरे की मुष्किल को समझना चाहिये। तुम जानती हो कि मैं तुम्हे कितना प्यार करता हूँ तुम्हारी खुशी मेरे लिए मेरे जीवन में क्या है पर हम दोनों को रहने कि लिए घर चाहिये। घर घर बना रहे इसके लिए काम चाहिये। काम की अपनी शर्तें होती हैं। हम यह काम नहीं करेंगें तो कोई और काम करना पड़ेगा पर काम के बिना काम कैसे चलेगा। वह लगातार दूर देख रही थी लेकिन मैने उसके हाथों में एक हरारत महसूस की। <br /><br />मैने कहा देखो थोड़े पैसे इकट्ठे हो जायें फिर हम मिलकर कोई काम करेंगे। तुम मेरी बॉस बन जाना फिर मैं देखूंगा कि तुम मुझे कितनी छुट्टियां देती हो। लेकिन अभी से जान लो कि ऑफिस टाइम में नो लव नो रोमांस नहीं तो हमारा धन्धा बैठ जायेगा। हम मिलकर रहेंगे। हम खूब खुश रहेंगे। तब तक हमारी बेटी भी थोड़ी बड़ी हो जायेगी। सोचो और तब तक तुम चाहो तो अपने लिए भी कोई काम ढूंढ़ सकती हो जिससे तुम्हारी घर में बन्द रहने की तकलीफ दूर हो जायेगी। <br /><br />पत्नी के हाथ कांपे उसने मेरा माथा सहलाया और फिर कुछ इस तरह मुझे सहलाने लगी जैसे सदियों से वह यही कर रही हो। इस सहलाने में पता नहीं क्या था कि मैं रोने लगा। पत्नी ने मुझे चुप कराने की कोई कोशिश नहीं की। बस चुपचाप मुझसे लिपटी हुई मुझे सहलाती रही। उसके ठंडे हाथ धीरे-धीरे गर्म होते जा रहे थे। उसने मुझे अपने में इस तरह समेट लिया जैसे मैं उसी के जिस्म का एक हिस्सा होऊं और मेरा अलग से कोई अस्तित्व ही न हो बस एक रूलाई को छोड़कर जो रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। <br />और इस बीच हमारी समझदार बिटिया ने टेलिविजन का वॉल्यूम तेज कर दिया था।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">कहानीकार-</span> मनोज कुमार पाण्डेयनियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-35477457640257533432009-06-29T09:47:00.001+05:302009-06-29T09:47:28.396+05:30उस रात की गंध - धीरेन्द्र अस्थानाकहानी को समर्पित अंतर्राष्ट्रीय सम्मान कथा (यू॰के॰) से सम्मानित कथाकार <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/05/us-dhoosar-sannate-mein.html#dheerendra">धीरेन्द्र अस्थाना</a> की एक कहानी <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/05/us-dhoosar-sannate-mein.html">'उस धूसर सन्नाटे में'</a> आप पढ़ चुके हैं। अभी मुश्किल से 15 दिनों पहले धीरेन्द्र के नवीनतम उपन्यास <a href="http://hindi-khabar.hindyugm.com/2009/06/desh-nikala-hindi-novel-release.html">'देश निकाला' का लोकार्पण</a> मुम्बई में सम्पन्न हुआ। आज पढ़िए धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी <span style="font-weight:bold;">'उस रात की गंध'</span>.<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">उस रात की गंध</span></strong></center><br /><br />लड़की मेरी आंखों में किसी अश्लील इच्छा की तरह नाच रही थी।<br /> ‘पेट्रोल भरवा लें।‘ कह कर कमल ने अपनी लाल मारुति जुहू बीच जाने वाली सड़क के किनारे बने पेट्रोल पंप पर रोक दी थी और दरवाजा खोल कर बाहर उतर गया था।<br />शहर में अभी-अभी दाखिल हुए किसी अजनबी के कौतुहल की तरह मेरी नजरें सड़क पर थिर थीं कि उन नजरों में एक टैक्सी उभर आई। टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और वह लड़की बाहर निकली। उसने बिल चुकाया और पर्स बंद किया। टैक्सी आगे बढ़ गई। लड़की पीछे रह गई।<br />यह लड़की है? विस्मय मेरी आंख से कोहरे सा टपकने लगा। <br />मैं कार से बाहर आ गया।<br />कोहरा आसमान से भी झर रहा था। हमेशा की तरह निःशब्द और गतिहीन। कार की छत बताती थी कि कोहरा गिरने लगा है। मैंने घड़ी देखी। रात के साढ़े दस बजने जा रहे थे। <br />रात के साढ़े दस बजे मैं कोहरे में चुपचाप भीगती लड़की को देखने लगा। घुटनों से बहुत बहुत ऊपर रह गया सफेद स्कर्ट और गले से बहुत-बहुत नीचे चला आया सफेद टॉप पहने वह लड़की उसे गीले अंधेरे में चारों तरफ दूधिया रौशनी की तरह चमक रही थी। अपनी सुडौल, चिकनी और आकर्षक टांगों को वह जिस लयात्मक अंदाज में एक दूसरे से छुआ रही थी उसे देख कोई भी फिसल पड़ने को आतुर हो सकता था।<br />जैसे कि मैं। लेकिन ठीक उसी क्षण, जब मैं लड़की की तरफ एक अजाने सम्मोहन सा खिंचने को था, कमल गाड़ी में आ बैठा। न सिर्फ आ बैठा बल्कि उसने गाड़ी भी स्टार्ट कर दी। <br />मैं चुपचाप कमल के बगल में आ बैठा और तंद्रिल आवाज में बोला, ‘लड़की देखी?‘<br />‘लिफ्ट चाहती है।‘ कमल ने लापरवाही से कहा और गाड़ी बैक करने लगा। <br />‘पर यह अभी अभी टैक्सी से उतरी है।‘ मैंने प्रतिवाद किया।<br />‘लिफ्ट के ही लिए।‘ कमल ने किसी अनुभवी गाइड की तरह किसी ऐतिहासिक इमारत के महत्वपूर्ण लगते तथ्य के मामूलीपन को उद्घाटित करने वाले अंदाज में बताया और गाड़ी सड़क पर ले आया।<br />‘अरे, तो उसे लिफ्ट दो न यार!‘ मैंने चिरौरी सी की।<br />जुहू बीच जाने वाली सड़क पर कमल ने अपनी लाल मारुति सर्र से आगे बढ़ा दी और लड़की के बगल से निकल गया। मेरी आंखों के हिस्से में लड़की के उड़ते हुए बाल आए। मैंने पीछे मुड़ कर देखा-लड़की जल्दी में नहीं थी और किसी-किसी कार को देख लिफ्ट के लिए अपना हाथ लहरा देती थी।<br />‘अपन लिफ्ट दे देते तो...‘ मेरे शब्द अफसोस की तरह उभर रहे थे।<br />‘माई डियर! रात के साढ़े दस बजे इस सुनसान सड़क पर, टैक्सी से उतर कर यह जो हसीन परी लिफ्ट मांगने खड़ी है न, यह अपुन को खलास भी करने को सकता। क्या?‘ कमल मवालियों की तरह मुस्कराया।<br />अपने पसंदीदा पॉइंट पर पहुंच कर कमल ने गाड़ी रोकी।<br />दुकानें इस तरह उजाड़ थीं, जैसे लुट गई हों। तट निर्जन था। समुद्र वापस जा रहा था।<br />‘दो गिलास मिलेंगे?‘ कमल ने एक दुकानदार से पूछा।<br />‘नहीं साब, अब्बी सख्ती है इधर, पन ठंडा चलेगा। दूर...समंदर में जा के पीने का।‘ दुकानदार ने रटा-रटाया सा जवाब दिया। उस जवाब में लेकिन एक टूटता सा दुख और साबुत सी चिढ़ भी शामिल थी।<br />‘क्या हुआ?‘ कमल चकित रह गया। ‘पहले तो बहुत रौनक होती थी इधर। बेवड़े कहां चले गए?‘<br />‘पुलिस रेड मारता अब्बी। धंधा खराब कर दिया साला लोक।‘ दुकानदार ने सूचना दी और दुकान के पट बंद करने लगा। बाकी दुकानें भी बुझ रही थीं।<br />‘कमाल है?‘ कमल बुदबुदाया, ‘अभी छह महीने पहले तक शहर के इंटलैक्चुअल यहीं बैठे रहते थे। वो, उस जगह। वहां एक दुकान थी। चलो।‘ कमल मुड़ गया, ‘पाम ग्रोव वाले तट पर चलते हैं।‘<br />हम फिर गाड़ी में बैठ गए। तय हुआ था कि आज देर रात तक मस्ती मारेंगे, अगले दिन इतवार था-दोनों का अवकाश। फिर, हम करीब महीने भर बाद मिल रहे थे-अपनी-अपनी व्यस्तताओं से छूट कर। चाहते थे कि अपनी-अपनी बदहवासी और बेचैनी को समुद्र में डुबो दिया जाए आज की रात। समुद्र किनारे शराब पीने का कार्यक्रम इसीलिए बना था।<br />गाड़ी के रुकते ही दो-चार लड़के मंडराने लगे। कमल ने एक को बुलाया, ‘गिलास मिलेगा?‘<br />‘और?‘ लड़का व्यवसाय पर था।<br />‘दो सोडे, चार अंडे की भुज्जी, एक विल्स का पैकेट।‘ कमल ने आदेश प्रसारित कर दिया।<br />थोड़ी ही दूरी पर पुलिस चैकी थी, भय की तरह लेकिन मारुति की भव्यता उस भय के ऊपर थी। सारा सामान आ गया था। हमने अपना डीएसपी का हाफ खोल लिया था। <br />दूर तक कई कारें एक दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं-मयखानों की शक्ल में। किसी किसी कार की पिछली सीट पर कोई नवयौवना अलमस्त सी पड़ी थी-प्रतीक्षा में।<br />सड़क पर भी कितना निजी है जीवन। मैं सोच रहा था और देख रहा था। देख रहा था और शहर के प्यार में डूब रहा था। आइ लव बांबे। मैं बुदबुदाया। किसी दुआ को दोहराने की तरह और सिगरेट सुलगाने लगा। हवा में ठंडक बढ़ गई थी। <br />कमल को एक फिलीस्तीनी कहानी याद आ गई थी, जिसका अधेड़ नायक अपने युवा साथी से कहता है -‘तुम अभी कमसिन हो याकूब, लेकिन तुम बूढ़े लोगों से सुनोगे कि सब औरतें एक जैसी होती हैं, कि आखिरकार उनमें कोई फर्क नहीं होता। इस बात को मत सुनना क्योंकि यह झूठ है। हरेक औरत का अपना स्वाद और अपनी खुशबू होती है।‘<br />‘पर यह सच नहीं है यार।‘ कमल कह रहा था, ‘इस मारुति की पिछली सीट पर कई औरतें लेटी हैं, लेकिन जब वे रुपयों को पर्स में ठूँसती हुई, हंसकर निकलती हैं, तो एक ही जैसी गंध छोड़ जाती हैं। बीवी की गंध हो सकता है, कुछ अलग होती हो। क्या खयाल है तुम्हारा?‘<br />मुझे अनुभव नहीं था। चुप रहा। बीवी के नाम से मेरी स्मृति में अचानक अपनी पत्नी कौंध गई, जो एक छोटे शहर में अपने मायके में छूट गई थी-इस इंतजार में कि एक दिन मुझे यहां रहने के लिए कायदे का घर मिल जाएगा और तब वह भी यहां चली आएगी। अपना यह दुख याद आते ही शहर के प्रति मेरा प्यार क्रमशः बुझने लगा।<br />हमारा डीएसपी का हाफ खत्म हो गया तो हमें समुद्र की याद आई। गाड़ी बंद कर हमने पैसे चुकाए तो सर्विस करने वाला छोकरा बायीं आंख दबा कर बोला, ‘माल मंगता है?‘<br />‘नहीं!‘ कमल ने इनकार कर दिया और हम समुद्र की तरफ बढ़ने लगे, जो पीछे हट रहा था। लड़का अभी तक चिपका हुआ था। <br />‘छोकरी जोरदार है सेठ। दोनों का खाली सौ रुपए।‘<br />‘नई बोला तो?‘ कमल ने छोकरे को डपट दिया। तट निर्जन हो चला था। परिवार अपने अपने ठिकानों पर लौट गए थे। दूर...कोई अकेला बैठा दुख सा जाग रहा था। <br />‘जुहू भी उजड़ गया स्साला।‘ कमल ने हवा में गाली उछाली और हल्का होने के लिए दीवार की तरफ चला गया-निपट अंधकार में।<br />तभी वह औरत सामने आ गई। बददुआ की तरह।<br />‘लेटना मांगता है?‘ वह पूछ रही थी।<br />एक क्वार्टर शराब मेरे जिस्म में जा चुकी थी। फिर भी मुझे झुरझुरी सी चढ़ गई।<br />वह औरत मेरी मां की उम्र की थी। पूरी नहीं तो करीब-करीब।<br />रात के ग्यारह बजे, समुद्र की गवाही में, उस औरत के सामने मैंने शर्म की तरह छुपने की कोशिश की लेकिन तुरंत ही धर लिया गया।<br />मेरी शर्म को औरत अपनी उपेक्षा समझ आहत हो गई थी। झटके से मेरा हाथ पकड़ अपने वक्ष पर रखते हुए वह फुसफुसायी, ‘एकदम कड़क है। खाली दस रुपिया देना। क्या? अपुन को खाना खाने का।‘<br />‘वो...उधर मेरा दोस्त है।‘ मैं हकलाने लगा।<br />‘वांदा नईं। दोनों ईच चलेगा।‘<br />‘शटअप।‘ सहसा मैं चीखा और अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से भागा-कार की तरफ। कार की बॉडी से लग कर मैं हांफने लगा-रौशनी में। पीछे, समुद्री अंधेरे में वह औरत अकेली छूट गई थी-हतप्रभ। शायद आहत भी। औरत की गंध मेरे पीछे-पीछे आई थी। मैंने अपनी हथेली को नाक के पास ला कर सूंघा-उस औरत की गंध हथेली में बस गई थी।<br />‘क्या हुआ?‘ कमल आ गया था।<br />‘कुछ नहीं।‘ मैंने थका-थका सा जवाब दिया, ‘मुझे घर ले चलो। आई...आई हेट दिस सिटी। कितनी गरीबी है यहां।‘<br />‘चलो, कहीं शराब पीते हैं।‘ कमल मुस्कराने लगा था।<br /><br />×××<br /><br />तीन फुट ऊंचे, संगमरमर के फर्श पर, बहुत कम कपड़ों में, चीखते आर्केस्ट्रा के बीच वह लड़की हँस-हँस कर नाच रही थी। बीच-बीच में कोई दस-बीस या पचास का नोट दिखाता था और लड़की उस ऊंचे, गोल फर्श से नीचे उतर लहराती हुई नोट पकड़ने के लिए लपक जाती थी। कोई नोट उसके वक्ष में ठूंस देता था, कोई होठों में दबा कर होठों से ही लेने का आग्रह करता था और नोट बड़ा हो तो लड़की एक या दो सैकेंड के लिए गोद में भी बैठ जाती थी। उत्तेजना वहां शर्म पर भारी थी और वीभत्स मुस्कराहटों के उस बनैले परिदृश्य में सहानुभूति या संवेदना का एक भी कतरा शेष नहीं बचा था। पैसे के दावानल में लड़की सूखे बांस सी जल रही थी।<br /> उस जले बांस की गंध से कमरे का मौसम लगातार बोझिल और कसैला होता जा रहा था। मैं उठ खड़ा हुआ। ‘नीचे बैठेंगे।‘ मैंने अल्टीमेटम सा दिया।<br />‘क्यों?‘<br />‘मुझे लगता है, लड़की मेरी धमनियों में विलाप की तरह उतर रही है।‘<br />‘शरीफ बोले तो? चुगद!‘ कमल ने कहकहा उछाला और हम सीढ़ियां उतरने लगे।<br />नीचे वाले हाॅल का एक अंधेरा कोना हमने तेजी से थाम लिया, जहां से अभी अभी कोई उठा था-दिन भर की थकान, चिढ़, नफरत और क्रोध को मेज पर छोड़कर-घर जाने के लिए।<br />मुझे घर याद आ गया। घर यानी मालाड के एक सस्ते गैस्ट हाउस का दस बाई दस का वह उदास कमरा जहां मैं अपनी आक्रामक और तीखी रातों से दो-चार होता था। मुझे लगा, मेरी चिट्ठी आई होगी वहां, जिसमें पत्नी ने फिर पूछा होगा कि ‘घर कब तक मिल रहा है यहां?‘<br />मैं फिर बार में लौट आया। हमारी मेज पर जो लड़की शराब सर्व कर रही थी, वह खासी आकर्षक थी। इस अंधेरे कोने में भी उसकी सांवली दमक कौंध कौंध जाती थी।<br />डीएसपी के दो लार्ज हमारी मेज पर रख कर, उनमें सोडा डाल वह मुस्कराई, ‘खाने को?‘<br />‘बाॅइल्ड एग‘, कमल ने उसके उभारों की तरफ इशारा किया।<br />‘धत्त।‘ वह शर्मा गयी और काउंटर की तरफ चली गई।<br />‘धांसू है न?‘ कमल ने अपनी मुट्ठी मेरी पीठ पर मार दी।<br />‘हां। चेहरे में कशिश है।‘ मैं एक बड़ा सिप लेने के बाद सिगरेट सुलगा रहा था।<br />‘सिर्फ चेहरे में?‘ कमल खिलखिला दिया।<br />मुझे ताज्जुब हुआ। हर समय खिलखिलाना इसका स्वभाव है या इसके भीतरी दुख बहुत नुकीले हो चुके हैं? मैंने फिर एक बड़ा सिप लिया और बगल वाली मेज को देखने लगा जहां एक खूबसूरत सा लड़का गिलास हाथ में थामे अपने भीतर उतर गया था। किसी और मेज पर शराब सर्व करती एक लड़की बीच बीच में उसे थपथपा देती थी और वह चैंक कर अपने भीतर से निकल आता था। लड़की की थपथपाहट में जो अवसाद ग्रस्त आत्मीयता थी उसे महसूस कर लगता था कि लड़का ग्राहक नहीं है। इस लड़के में जीवन में कोई पक्का सा, गाढ़ा सा दुख है। मैंने सोचा।<br />‘इस बार में कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है।‘ कमल के भीतर सोया गाइड जागने लगा, ‘फाइट सीन ऊपर होते हैं, सैड सीन नीचे।‘<br />‘हम दुखी दृश्य के हिस्से हैं?‘ मैंने पूछा और कमल फिर खिलखिलाने लगा। <br />शराब खत्म होते ही लड़की फिर आ गई। <br />‘रिपीट।‘ कमल ने कहा, ‘बॉइल्ड एग का क्या हुआ?‘<br />‘धत्त।‘ लड़की फिर इठलाई और चली गई।<br />उसके बाद मैं ध्वस्त हो गया। मैंने कश लिया और लड़की का इंतजार करने लगा।<br />लड़की फिर आई। वह दो लार्ज पैग लाई थी। बॉइल्ड एग उसके पीछे-पीछे एक पुरुष वेटर दे गया।<br />अंडों पर नमक छिड़कते समय वह मुस्करा रही थी। सहसा मुझसे उसकी आंख मिली।<br />‘अंडे खाओगी?‘ मैंने पूछा।<br />मैंनेे ऐसा क्यों पूछा होगा? मैंने सोचा। मैं भीतर से किसी किस्म के अश्लील उत्साह से भरा हुआ नहीं था। तो फिर?<br />तभी लड़की ने अपनी गर्दन ‘हां‘ में हिलायी, मेरे भीतर एक गुमनाम, अजाना सा सुख तिर आया।<br />‘ले लो।‘ मैंने कहा।<br />उसने एक नजर काउंटर की तरफ देखा फिर चुपके से दो पीस उठाकर मुंह में डाल लिए। अंडे चबा कर वह बोली, ‘यहां का चिली चिकन बहुत टेस्टी है, मंगवाऊ?‘<br />‘मंगवा लो।‘ जवाब कमल ने दिया, ‘बहुत अच्छी हिंदी बोलती हो। यूपी की हो?‘<br />लड़की ने जवाब नहीं दिया। तेजी से लौट गई। मुझे लगा, कमल ने शायद उसके किसी रहस्य पर उंगली रख दी है।<br />चिली चिकन के पीछे पीछे वह फिर आई। इस बार अपनी साड़ी की किसी तह में छिपा कर वह एक कांच का गिलास भी लाई थी। <br />‘थोड़ी सी दो न?‘ उसने मेरी आंखों में देखते हुए बड़े अधिकार और मान भरे स्वर में कहा। उसके शब्दों की आंच में मेरा मन तपने लगा। मुझे लगा, मैं इस लड़की के तमाम रहस्यों को पा लूंगा। मैंने काउंटर की तरफ देखा कि कोई देख तो नहीं रहा। दरअसल उस वक्त मैं लड़की को तमाम तरह की आपदाओं से बचाने की इच्छा से भर उठा था। अपनी सारी शराब उसके गिलास में डाल कर मैं बोला, ‘मेरे लिए एक और लाना।‘<br />एक सांस में पूरी शराब गटक कर और चिकन का एक टुकड़ा चबा कर वह मेरे लिए शराब लेने चली गई। उसका खाली गिलास मेज पर रह गया। मैं चोरों की तरह, गिलास पर छूटे रह गए उसके हांेठ अपने रूमाल से उठाने लगा।<br />‘भावुक हो रहे हो।‘ कमल ने टोका। मैंने चैंक कर देखा, वह गंभीर था।<br />हमारे दो लार्ज खत्म करने तक, हमारे खाते में वह भी दो लार्ज खत्म कर चुकी थी। मैंने ‘रिपीट‘ कहा तो वह बोली, ‘मैं अब नहीं लूंगी। आप तो चले जाएंगे। मुझे अभी नौकरी करनी है।‘<br />मेरा नशा उतर गया। धीमे शब्दों में उच्चारी गयी उसकी चीख बार के उस नीम अंधेरे में कराह की तरह कांप रही थी। <br />‘तुम्हारा पति नहीं है?‘ मैंने नकारत्मक सवाल से शुरूआत की, शायद इसलिए कि वह कुंआरी लड़की का जिस्म नहीं था, न उसकी महक ही कुंवारी थी। <br />‘मर गया।‘ वह संक्षिप्त हो गई-कटु भी। मानो पति का मर जाना किसी विश्वासघात सा हो।<br />‘इस धंधे में क्यों आ गई?‘ मेरे मुंह से निकल पड़ा। हालांकि यह पूछते ही मैं समझ गया कि मुझसे एक नंगी और अपमानजनक शुरूआत हो चुकी है।<br />‘क्या करती मैं?‘ वह क्रोधित होने के बजाय रूआंसी हो गई, ‘शुरू में बर्तन मांजे थे मैंने, कपड़े भी धोए थे अपने मकान मालिक के यहां। देखो, मेरे हाथ देखो।‘ उसने अपनी दोनों हथेलियां मेरी हथलियों पर रगड़ दीं। उसकी हथेलियां खुरदुरी थीं-कटी फटी।<br />‘इन हथेलियों का गम नहीं था मुझे जब आदमी ही नहीं रहा तो...‘ वह अपने अतीत के अंधेरे में खड़ी खुल रही थी, ‘बर्तन मांज कर जीवन काट लेती मैं लेकिन वहां भी तो...‘ उसने अपने होठ काट लिए। उसे याद आ गया था कि वह ‘नौकरी‘ पर है और रोने के लिए नहीं, हंसने के लिए रखी गई है।<br />‘और पीने का?...‘ वह पेशेवर हो गई। कठोर भी।<br />‘मैं तुम्हारे हाथ चूम सकता हूं?‘ मैंने पूछा।<br />‘हुंह।‘ लड़की ने इतनी तीखी उपेक्षा के साथ कहा कि मेरी भावुकता चटख गई। लगा कि एक लार्ज और पीना चाहिए। <br />अपमान का दंश और शराब की इच्छा लिए, लेकिन मैं उठ खड़ा हुआ और कमल का हाथ थाम बाहर चला आया। पीछे, अंधेरे कोने वाली मेज पर, चिली चिकन की खाली प्लेट के नीचे सौ-सौ के तीन नोट देर तक फड़फड़ाते रहे-उस लड़की की तरह।<br />बाहर आकर गाड़ी के भीतर घुसने पर मैंने पाया-उस लड़की की गंध भी मेरे साथ चली आई है। मैंने अपनी हथेलियां देखीं-लड़की मेरी हथेलियों पर पसरी हुई थी।<br /><br />×××<br /><br />पता नहीं कहां कहां के चक्कर काटते हुए जब हम रुके तो मारुति खार स्टेशन के बाहर खड़ी थी। रात का सवा बज रहा था। <br /> कह नहीं सकता कि रात भर बाहर रहने का कार्यक्रम तय करने के बावजूद हम स्टेशन पर क्यों आ गए थे। शायद मैं थक गया था। या शायद घबरा गया था। या फिर शायद अपने कमरे के एकांत में पहुंच कर चुपचाप रोना चाहता था। जो भी हो, हम स्टेशन के बाहर थे-एक-दूसरे से विदा होने का दर्द थामे। <br /> उसी समय कमल के ठीक बगल में, खिड़की के बाहर, एक आकृति उभर आई। वह एक दीन-हीन बुढ़िया थी। बदतमीज होंठों से निकली भद्दी गाली की तरह वह हमारे सामने उपस्थित हो गई थी और गंदे इशारे करने लगी थी।<br /> मुझे उबकाई आने लगी।<br />‘क्या चाहिए?‘ कमल ने हंस कर पूछा।<br />‘चार रुपए।‘<br />‘एकदम चार। क्यों भला?‘<br />‘दारू पीने का है, दो मेरे वास्ते, दो उसके वास्ते,‘ बुढ़िया ने एक अंधेरे कोने की तरफ इशारा किया।<br />‘वौ कौन?‘ कमल पूछ रहा था।<br />‘छक्का है। मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुढ़िया ने इशारे से भी बताया कि उसका साथी हिजड़ा है।<br />‘बच्चा नहीं तेरे को?‘ कमल ने पूछा।<br />‘हैं न!‘ बुढ़िया की आंखें चमकने लगीं, ‘लड़की है। उसकी शादी हो गई माहीम की झोंपड़पट्टी में। लड़का चला गया अपनी घरवाली को लेकर। धारावी में धंधा है उसका।‘<br />‘तेरे को सड़क पर छोड़ गए?‘ मेरी ऊब के भीतर एक कौतुहल ने जन्म लिया, ‘पति क्या हुआ तेरा?‘<br />‘बुड्ढा परसोईं मरेला है। पी के कट गया फास्ट से, उधर दादर में। अब्बी मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुढ़िया ने फिर अपने साथी की तरफ इशारा किया और पिंड छुड़ाती सी बोली, ‘अब्बी चार रुपिया दे न! ‘<br />‘तेरा घर नहीं है?‘ कमल ने पर्स निकाल कर चार रुपए बाहर निकाले। <br />‘अख्खा बंबई तो अपना झोंपड़पट्टी है।‘ बुढ़िया ने ऐसे अभिमान में भर कर कहा कि उसके जीवट पर मैं चैंक उठा। कमल के हाथ से रुपए छीन बुढ़िया अपने साथी की तरफ फिसल गई, जो एक झोंपड़ी के पास खड़ा था-प्रतीक्षातुर।<br />मैं पेशाब करने उतरा। झोंपड़ी किनारे अंधेरे में मैं हल्का होने लगा।<br />झोंपड़ी के भीतर बुढ़िया और उसका साथी कच्ची शराब खरीद कर पी रहे थे। बुढ़िया अपने साथी से कह रही थी, ‘खाली पीली रौब नईं मारने का। अपुन भी तेरे को पिला सकता, क्या? ओ कार वाले सेठ ने दिया। रात रात भर कार में घूमता साला लोक, रहने को घर नईं साला लोक के पास और अपनु से पूछता, तेरे को सड़क पे छोड़ गए क्या?‘ बुढ़िया मेरा मजाक उड़ा रही थी।<br />दारू गटक कर दोनों एक दूसरे के गले में बांहें डाले, झूमते हुए झोंपड़ी के बाहर आ रहे थे।<br />‘थू!‘ बुढ़िया ने सड़क पर ढेर सा बलगम थूक दिया और कड़वाहट से बोली, ‘चार रुपिया दे के साला सोचता कि अपुन को खरीद लिया।‘<br />मैं अभी तक अंधेरे में था, हतप्रभ। मारुति को अभी तक खड़े देख बुढ़िया ठिठकी फिर अपने साथी से बोली, ‘वो देख गाड़ी अब्बी भी खड़ेला है। मैं तेरे को बोली न, घर नईं साला लोक के पास।‘<br />‘सच्ची बोली रे तू।‘ बुढ़िया के साथी ने सहमति जतायी और दोनों हंसते हुए दूसरी तरफ निकल गए।<br />कलेजा चाक हो चुका था। खून से लथ-पथ मैं मारुति की तरफ बढ़ा। बाहर खड़े खड़े ही मैंने अपना निर्जीव हाथ कमल के हाथ में दिया और फिर तेजी से दौड़ पड़ा प्लेटफार्म की तरफ।<br />‘क्या हुआ? सुनो!‘ कमल चिल्लाया मगर तब तक मैं ट्रेन के पायदान पर लटक गया था।<br />सीट पर बैठ कर अपनी उनींदी और आहत आंखें मैंने छत पर चिपका दीं। और यह देख कर डर गया कि ट्रेन की छत से बुढ़िया की गंध लटकी हुई थी। <br />मैंने घबरा कर अपनी हथेलियां देखीं-अब वहां बुढ़िया नाच रही थी। <br />(रचनाकाल: मार्च 1991)नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-1511150257805460192009-06-15T12:54:00.001+05:302009-06-15T13:00:18.003+05:30पीर पराई - विभा रानीछापक पेड़ छिहुलिया त' पतवन धन बन हो<br />रामा तेही तर ठाढि़ हरिनिया त' मन अति अनमन हो<br /><br />हिरणी का कलेजा कसक उठा - तो आज हमारे बालक का अंतिम विदाई है। आज के बाद हमारा बालक हमारा नहीं रह जाएगा। उसका मन चीत्कार कर उठा -"बचवा रे s s s s।" उसकी चीत्कार पूरे जंगल में सन्नाटा पसार गई- भांय-भायं जैसा अजीब सन्नाटा। चीखें भी मौन को इसतरह बढ़ाती हैं, यह उलटबांसी उसकी समझ में नहीं आई। अपनी चीख से वह खुद ही तनिक सहम सी गई। इधर उसके चीत्कार से जंगल के हरे-भरे पेड़ मौलकर (मुर्झाकर) अपनी पत्तियों की नोकें नीची कर बैठे- "सुन री बहिनी, हम इतना ही कर सकते हैं। तेरे सोग के भागीदार बने हैं, मगर इससे जि़यादे की औकात नहीं।" कल-कल बहती नदियों ने अपनी किलोलें रोक दीं और बर्फ़ जैसी हो गई- ठंढी, बेजान, निस्पन्द। मन्द समीर यूँ स्थिर हो गया, जैसे हिरणी उनके आगे बढ़ने के रास्ते में साक्षात आ गिरी हो, जिसे लांघकर जाना उसके बस में नहीं।<br /><br /><div class="parichay"><span style="font-weight:bold;">विभा रानी (लेखक- एक्टर- सामाजिक कार्यकर्ता)</span><br /><br /><img src="http://i173.photobucket.com/albums/w76/bharatwasi001/Vibha-Rani.jpg" align="right">बहुआयामी प्रतिभा की धनी विभा रानी राष्ट्रीय स्तर की हिन्दी व मौथिली की लेखिका, अनुवादक, थिएटर एक्टर, पत्रकार हैं, जिनकी दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं व रचनाएं कई किताबों में संकलित हैं। इन्होंने मैथिली के 3 साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों की 4 किताबें "कन्यादान" (हरिमोहन झा), "राजा पोखरे में कितनी मछलियां" (प्रभास कुमार चौधरी), "बिल टेलर की डायरी" व "पटाक्षेप" (लिली रे) हिन्दी में अनूदित की हैं। समकालीन विषयों, फ़िल्म, महिला व बाल विषयों पर गंभीर लेखन इनकी प्रकृति रही है। रेडियो की स्वीकृत आवाज़ के साथ इन्होंने फ़िल्म्स डिविजन के लिए डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में, टीवी सीरियल्स लिखे व वॉयस ओवर के काम किए हैं। मिथिला के 'लोक' पर गहराई से काम करते हुए 2 लोक कथाओं की पुस्तकों "मिथिला की लोक कथाएं" व "गोनू झा के किस्से" के प्रकाशन के साथ साथ मिथिला के रीति-रिवाज, लोक गीतों, खान-पान आदि का वृहत खज़ाना इनके पास है। हिन्दी में इनके दो कहानी संग्रह "बन्द कमरे का कोरस" व "चल खुसरो घर आपने" तथा मैथिली में एक कहानी संग्रह "खोह स' निकसइत" है। इनका लिखा नाटक 'दूसरा आदमी, दूसरी औरत' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह भारंगम में प्रस्तुत किया जा चुका है। नाटक 'पीर पराई' का मंचन, 'विवेचना', जबलपुर द्वारा देश भर में किया जा रहा है। अन्य नाटक 'ऐ प्रिये तेरे लिए' का मंचन मुंबई व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम' का मंचन फ़िनलैंड व राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव, रायपुर में होने के बाद अभी मुंबई में किया जा रहा है। 'आओ तनिक प्रेम करें' को 'मोहन राकेश सम्मान' से सम्मानित किया गया तथा इसका मंचन श्रीराम सेंटर, नई दिल्ली में किया गया। "अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो" को भी 'मोहन राकेश सम्मान' के लिए चयनित किया गया। ये दोनों नाटक पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हैं। मौथिली में लिखे नाटक "भाग रौ" और "मदद करू संतोषी माता" हैं।<br /><br />विभा ने 'दुलारीबाई', 'सावधान पुरुरवा', 'पोस्टर', 'कसाईबाड़ा', जैसे नाटकों के साथ-साथ फ़िल्म 'धधक' व टेली -फ़िल्म 'चिट्ठी' में काम किया है। नाटक 'मि. जिन्ना' व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम', 'बालचन्दा' (एकपात्रीय नाटक) इनकी ताज़ातरीन प्रस्तुतियां हैं। <br /><br />'एक बेहतर विश्व- कल के लिए' की परिकल्पना के साथ विभा 'अवितोको' नामक बहुउद्देश्यीय संस्था के साथ जुड़ी हुई हैं, जिसका अटूट विश्वास 'थिएटर व आर्ट- सभी के लिए' पर है। 'रंग जीवन' के दर्शन के साथ कला, रंगमंच, साहित्य व संस्कृति के माध्यम से समाज के 'विशेष' वर्ग, यथा, जेल, वृद्धाश्रम, अनाथालय, 'विशेष' बच्चों के बालगृहों आदि के बीच सार्थक हस्तक्षेप किया है। यहां ये नियमित थिएटर व पेंटिंग वर्कशॉप करती हैं। इनके अलावा कॉर्पोरेट जगत से लेकर मुख्य धारा के लोगों व बच्चों के लिए कला व रंगमंच के माध्यम से विविध विकासात्मक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती हैं। <br /><br />प्रतिष्ठित 'कथा अवार्ड' सहित कई पुरस्कार, जैसे, घनश्यामदास साहित्य सम्मान, डॉ. माहेश्वरी सिंह 'महेश' सम्मान, 'मोहन राकेश सम्मान' के अलावा इंडियन ऑयल के 'विमेन अचीवर अवार्ड' व दो बार 'सर्वोत्तम सुझाव' सम्मान विभा के हिस्से में हैं।<br /><br />सामाजिक व साहित्यिक परिदृश्य पर काम करते हुए विभा मानती हैं- "मैं अपने चरित्र इस समाज से ही लेती हूं। ये सभी वास्तविक लोग हैं, जिन्हें मैं अपनी कल्पना के साहारे एक नए रूप में ढालती हूं। लेकिन एक दिन मुझे लगा कि इन चरित्रों को अपनी कथाओं आदि में लेने और उन पर अच्छी-अच्छी कहानियां लिखने के अलावा मैं इनकी जिन्दगी में कुछ भी सार्थक योगदान नहीं कर रही हूं। इसका मतलब कि मैं भी इनका किसी न किसी रूप में शोषण ही कर रही हं। इस सोच ने मुझे बेतरह हिला दिया। इनके जीवन में एक सकारात्मक रुख ला पाने के प्रयासों पर मैं गंभीरता से सोचने लगी। जब भी मैं किसी व्यक्ति को कठिन परिस्थिति में देखती हूं, मैं अपने बचपन में चली जाती हूं। जब मैंने इन लोगों के हालात में खुद को देखने की कोशिश की तो मुझे लगा कि मैं भी इनमें से ही एक हूं। और इस तरह से 'अवितोको' का जन्म हुआ। आज मुझे इस बात का संतोष है कि मैं अपने चरित्रों के सुख दुख की साझीदार हूं और इनसे भी बढकर यह कि इनके चेहरे पर पल दो पल की खुशी ला सकने में मैं भी तनिक सफ़ल हुई हूं।"</div>पड़ोसवाले हिरण अपने घर से बार-बार झांके, उझके- ये क्या हो रहा है, बहिनी के साथ? आजतक तो कभी उसे इसतरह से विकल नहीं देखा। वह तनिक और पास गया, तनिक और पास, तनिक और पास। ये लो, अब तो वह उसके इतने नजदीक पहुंच गया कि उसके तन और मन के पार भी पहुंच कर देख सकता है। हिरणी थी बड़ी बेचैन। कभी पैर उठाकर उचक-उचककर कहीं देखती तो कभी थस्स् से बैठ जाती, जैसे निराशा के गहरे सागर में समा गई हो, जहां से ऊपर आने के कोई आसार नहीं, कोई लक्षण नहीं। आँसू थे कि खड़ी हो या बैठी, लगातार भादो के पावस की तरह झहर रहे थे - झर- झर। घटा घुमड़े बादल की तरह- झिमिर-झिमिर, टिपिर-टिपिर। काली- काली घटा जैसा ही सोक थोक के थोक उसके हिरदे मे डेरा जमाए चला जा रहा था।<br /><br />हिरण सोच में पड़ गया। आजतक उसने हिरणी को कभी भी यूँ इसतरह से विकल नहीं देखा था, जैसे कोई उसका नाक-मुंह बंद कर उसे सांस लेने से ही रोक रहा हो- ऊं..ऊं..गों..गों..। उसकी बेचैनी उसके शरीर के एक-एक अंग से तेज गर्मी के कारण छूटते पसीने की धार की तरह फूट रही थी। गले से ऐसी घरघराहट निकल रही थी, जौसे अखंड काल से वह प्यासी हो और उसके कंठ में पानी की एक बूंद तक डालनेवाला कोई न हो। उसकी पथराई सी आँखों में दर्द का ऐसा गुबार था कि उसे देख पत्थर भी पसीज जाए और सुमेरू पर्वत भी भहराकर खंड-खंड होकर दरक जाए।<br />"काहे बहिनी! काहे इतनी बेकल हो, जैसे कोई तुम्हारा हिरदय तुम्हारी देह से नोंचकर लिए जा रहा हो या आँखों में कील ठोंककर उसकी ज्योति हरे जा रहा हो। कहो बहिनी! अपने दिल का संताप हमसे भी कहो। यूं उसे अपने दिल में बन्द करके मत रखो। कहने सुनने से जी हल्का हो जाता है।" <br /><br />हिरणी कुछ न बोली। बोले भी क्या? बोलना- बतियाना तो सुख की बेला में सोभता है। इस कुघड़ी में जब अपनी ही सांस की आवाज़ मेघ के गरजन जैसी लगने लगे, वैसे में कंठ से कैसे कोई बकार फ़ूटे। बस, लंबी सांस खींचकर वह रह गई। मगर उसकी उस लंबी सांस में जैसे वेदना की गाढ़ी, मोटी लेई चिपक गई थी। बोली- भासा के रूप में बस, आँसू उसकी आंखों से टप-टप धरती पर गिरते रहे और धरती मैया उसे ममतामई मां की तरह अपने आँचल में समेटती रही- "बिटिया री, तू भी नारी, हम भी नारी। तू भी मैया, मैं भी महतारी। मैं ना समझूं तेरे हिरदे की पीर को तो और कौन समझेगा? चल, बहा ले जितना भी बहाना चाहती है अपने दुख का संताप। पर देख ले, मैं खुद ऐसी अभागन कि पूरे संसार की मैया होने के बाद भी नहीं हर सकती तेरा संताप। नहीं कर सकती तेरे दुख को दूर।<br />भैया हिरण एकदम से हिरणी के पास खड़ा था। हिरणी को सारा नज़ारा साक्षात दिखाई देने लगा। पूरी की पूरी अयोध्या हर्ष और उल्लास में डूबी हुई है। घर-घर ढोल, नगाड़े, बधावे बज रहे हैं। घर-घर खील, लड्डू, बताशे बँट रहे हैं। सभी नर-नारी तन पर नए-नए कपड़े, जेवर डाले इधर से उधर नाचते-गाते घूम रहे हैं।<br /> <br />कि आज रानी कौसल्या बनी महतारी<br />दसरथ देखे मुंहवा बलकवा के<br />मनवा मुदित खरे हंसी के फ़ुलकारी<br /><br />बालवृन्द मस्ती और आनंद में झूम रहे हैं। पूरा नगर तोरण और बंदनवारों से इसतरह से ढंक गया है कि आकाश भी नहीं दिखाई पड़ रहा। सूरज की तेज रोशनी भी इन बंदनवारों की चादर तले से होकर नगर में पहुंचती है। लोग इधर-उधर घूमते हूए बधावा गा रहे हैं।<br /> <br />"चैत मासे राम के जनमवा हो रामा, चैत रे मासे<br />केही लुटावे, अन-धन सोनवाँ,<br />केही लुटावे कंगनवाँ हो रामा, चैत रे मासे।<br />दशरथ लुटावे अन-धन सोनवाँ,<br />कौशल्या लुटावे कँगनवाँ हो रामा, चैत रे मासे।"<br /> <br />इतना सोना-चाँदी, कामधेनु जैसी गाएँ, सोना उगलनेवाले खेत, जमीन सब कुछ कौशल्या दान कर रही हैं। आखिरकार रामलला जो आएँ हैं। और बात सिर्फ रामलला की ही कहाँ? दशरथ जी तो एक साथ चार-चार पुत्र पाने के आनंद सागर में हिलोरें ले रहे हैं। इस आनंद अमृत पान में वे भूल भी गए हैं श्रवणकुमार के वृद्ध और नेत्रहीन पिता का श्राप -"जिस पुत्र वियोग से आज मैं मर रहा हूं, वही पुत्र वियोग एक दिन तुम्हारे भी प्राण ले लेंगे।"<br />निस्संतान दशरथ तो प्रसन्न हो उठे। इस श्राप में भी उन्हें वरदान दिखाई दिया। पुत्र वियोग तो तब न, जब पुत्र प्राप्त होगा। इसका अर्थ - "पुत्र सुख है मेरे भाग्य में। मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी। हे पूज्यवर! आपका श्राप भी मेरे सर-आँखों पर!"<br /><br />राजा दसरथ हैं मगनवां कि राम जी का हुआ है जनमवां<br />राम का जनमवां, लखन का जनमवां<br />भरत सत्रुघन भी संगवां कि राम जी का हुआ है जनमवां<br /><br /> परंतु, हिरणी ने तो कोई अपराध नहीं किया था। फिर उसे क्यों यह पुत्र वियोग? वह तो रोई थी, गिड़गिड़ाई थी कौशल्या रानी के पास जाकर -"रानी हे रानी! अब तो तुम भी पूतवाली हुई। तुम्हारी गोद हरी-भरी हुई। तुम्हारी छाती में भी दूध उतरा है। पूत का सुख क्या है, अब तो तुम भी जान रही हो। भगवान ने तुम्हारे साथ-साथ दोनों छोटी रानियों की कोख भी भर दी है। देखो तो, सारा नगर इस आनंद में डूबा हुआ है, एक मुझ अभागन को छोड़कर।"<br />"क्यों तुम्हें क्या हुआ हिरणी? क्या कोई व्याधा तुम्हारी जान के पीछे पड़ा है? कहो तो अपने उद्यान में रख दूं। वहाँ की नरम-नरम घास खाना, ठंढे, मीठे तालाब और सोते का पानी पीना। कहो तो, मँड़ई भी बनवा दूँगी। बस, उदास न हो। देखो, मेरे रामलला आए हुए हैं। आज इतने बड़े भोज का आयोजन हुआ है। दूर-दूर देशों के बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा-महाराजा पधारे हैं। तू काहे को सोग करती है हिरणी।"<br /><br />"फिर से महारानी, अरज करती हूँ, अब तुम बेटेवाली हुई। अब तुम भी माँ बनी। एक माँ दूसरी माँ की पीड़ा को समझ सकती हैं। सारी अयोध्या में रामलला के आने की खुशी है। ऐसे में मैं पापिन किस मुंह से कहूं कि राम लला का आगमन ही मेरे सोग का कारण है?"<br /><br />"पहेलियाँ न बुझा हिरणी!" कौशल्या का स्वर कठोर हो गया। आँचल तले सोए रामलला को और अच्छी तरह से आँचल में समेटकर लगभग छुपा ही लिया उसे हिरणी की नजरों से।<br /><br />राई जवांइन अम्मा न्यौंछे<br />देखियो हो कोई नज़री ना लागे<br /><br />अब तो दिढौना लगाना और राई-जँवाईन से औंछना ही होगा। क्या जाने, नजर-गुजर लग गई हो इस डायन हिरणी की। कैसी बेसम्हार जीभवाली है कि कहती है, मेरा रामलला इसके सोग का कारण हैं। जी तो करता है, हिरणी तेरी यह खाल-खींचकर भूसा भरवा दूं। पर, नहीं, ऐसे शुभ और सुहाने मौके पर राजा दशरथ जी भी राज्य के कैदियों को छोड़ चुके हैं, प्राणडंद का सजा पाए कैदियों को जीवनदान दे चुके हैं। इसी मनभावन समय की सौंह, मैं तेरी जान नहीं लूंगी। लेना भी नहीं चाहती। पर हां, जानना जरूर चाहती हूं कि क्यों तूने ऐसा कहा कि मेरे रामलला तेरे सोग का कारण हैं।"<br /><br />"रानी हे रानी! तू भी माता, मैं भी माता। राम जी का आगमन और मेरे बालक का आगमन - साथ-साथ, संग-संग। पर अपना -अपना नसीब कि तुम्हारे रामलला सोने के पालने में झूल रहे हैं और मेरा बालक तुम्हारी रसोई में पक रहा है। आज उसका माँस तुम्हारे मेहमानों को खिलाया जाएगा। रानी हे रानी, लोग कहते हैं, हिरण का माँस बड़ा मीठा होता है और उसमें भी बच्चा हिरण का तो और भी। उसी बच्चे हिरण की ताक में मेरा लाल धर लिया गया रानी! जो रामलला न आते तो आज मेरा बालक भी न बधाता। इसी से मैं बोली कि तुम्हारे रामलला का आगमन ही मेरे सोग का कारण है।"<br /><br />कौशल्या हंसी - भर देह हंसी। बालक राम का चेहरा आँचल के नीचे से निकालकर हिरणी के सामने कर दिया -"देख तो री हिरणी, कैसे अपरूप लग रहे हैं मेरे रामलला! इस साँवरी सूरत पर तो मैं सारा तिरलोक भी निछावर कर दूँ। रे हिरणी, तुझे नहीं मालूम क्या कि यह जो रामलला हैं, वो अयोध्या के राजा हैं- चक्रवर्ती महाराज। राजा और राज के सुख के लिए परजा को थोड़ा कष्ट, थोड़ा बलिदान तो करना ही पड़ता है न! और सुन री हिरणी, ये जो रामलला हैं न मेरे, वे सिरिफ हमारे पूत और अयोध्या के भावी राजा ही नहीं हैं। वे भगवान विष्णु के अवतार भी हैं-<br /><br />भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला, कौसल्या हितकारी<br />हर्षित महतारी मुनि मनहारी, अद्भुत रूप निहारी<br />लोचन अभिरामा, तन घनस्यामा, निज आयुध भुज चारी।<br />भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी।<br /><br />हिरणी रे! मैं तो साँचे कहूँ, डर गई थी, प्रसव के बाद नन्हे से, रूई जैसे नरम, चिक्कन बालक की जगह चक्र-सुदर्शन रूपधारी भगवान विष्णु! मैं तो बोल ही पड़ी थी रे -<br /><br />"माता पुनि बोली सो मति डोली तजहू तात यह रूपा<br />कीजै सिसु लीला, अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा।"<br /><br />तो ऐसे हैं मेरे श्रीरामलला! भक्तों के आराध्य, दुखियों के ताऱनहार! वे साक्षात भगवान हैं, विष्णु के अवतार! ऐसा-वैसा, साधारण बालक जुनि समझो। ई तो भगवान हुए री और भगवान के भोग लग गया तेरा बालक तो तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि तेरे और तेरे बालक के जनम-जन्मान्तर सफल हो गए।<br /> <br />"वैष्णव जन को तेने कहिए पीर पराई जाने रे।<br />पर दुखे उपकार करे कोई, मन अभिमान न माने रे।"<br /> <br />हिरणी की आँखों से आँसू गिरते ही रहे, जबान बन्द हो गई। सचमुच! गरीब, दीन-हीन, लाचार परजा तो राजा, राज-काज और प्रभु काज के लिए ही होती है। ई तो सनातन सच है। आज रामलला आए तो मेरे संग-संग कितनी हिरणियों की गोदें सूनी हो गईं। रामलला न जनमते, कोई और जनमता। न बधाता मेरा बालक तो कोई और बध हो जाता। सुविधाभोगी समाज की सुविधा के हवन में किसी न किसी को तो हविष्य बनना ही पड़ता है। पर मैं क्या करूं? मैं तो आखिर को माँ हूं न! कैसे बिसार दूं अपने कलेजे के टुकड़े को? जो शिकारी पकड़कर ले जाता तो हाय मारकर रह जाती कि दैव बाम निकला। एक आस भी रहती कि बचवा शायद कहीं जीवित रह जाए। किसी सेठ साहूकार के बगीचे की शोभा बढ़ा रहा होगा, किसी कूद-फांदवाले के यहां तमाशा दिखा रहा होगा। कैद में ही सही, जीता तो रहेगा। माँ की आँखों के आगे उसका लाल बना रहे, इससे बढ़कर मां को और कौन सा सुख चाहिए।<br /><br />हजार मन का बोझा मन पर उठाए हिरणी लौट आई। डग थे कि उठते न थे, लोर (आंसू) थे कि थमते न थे। भैया हिरण सब सुनकर अवाक था - "री बहिनी, साँच कही री बहिनी! हम गरीब, लाचार जात - कुछ नहीं कर सकते। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं री बहिनी। उठ, धीर धर बहिनी, क्या करेगी! नसीब का लिखा कहीं कोई मिटा सका है भला!"<br />पर हिरणी तो छटपट किए जा रही थी। चाह कर भी उससे धीरज धरा न जा रहा था। भैया हिरण तो अपनी समर्थ भर उसे समझा बुझा कर लौट गया था। मगर वह सारी रात उस खेमे के बाहर खड़ी रही, जहाँ उसके बालक को काटा गया था। कांय.. की एक महीन, बारीक आवाज हिरणी के कलेजे को तेज आरी से चीरती चली गई थी। आ..ह रे, मोरा बचवा रे..। मोरा बचवा चला गया रे .. रानी रे .. हम कइसे धीरज धरें रे .. वह बिलख-बिलखकर रोने लगी। पूरा जंगल जैसे उसके सोग में भागीदार हो रहा था। उसे फ़िर होश ना रहा कि कब पूरनमासी का चांद अपनी शीतल छांह समेटकर चला हया था और कब भास्कर दीनानाथ अपनी भोर की रोशनी के साथ जगत को उजियागर करने आ पहुंवे थे।<br /><br />भोर के सूरज की तनिक तीखी चमक हिरणी पर पडी तो वह तनिक चेती। एक पल लगा उसे यह समझने बूझने में कि वह कहां है, किधर है। और इसका भान होते ही वह फिर भागी उसी खेमे की ओर। देखा, बचवा की खाल उतार कर माँस को पकने भेज दिया गया था। अब बाहर रस्सी पर वही खाल सूख रही थी। सूख रही खाल जब हिलती तो हिरणी को लगता कि उसका बालक उससे छुपा-छुपी का खेल खेल रहा है और उसे अपनी तुतली जबान में आवाज दे रहा है - मइया, आओ री! आओ ना री मइया! हे मइया, इधर, माई गे, उधर! हिरणी बेचैन, बेकल इधर-उधर ताकती। चारों दिशाओं में उसे अपने पूत की किलोल ही सुनाई दे रही थी। आवत हैं रे पूत। तोहरा लगे आवत हैं। हां, इधर..। ना उधर..। ना ना किधर? किधर है रे तू मोरा कलेजे का टुकड़ा रे..।<br /><br />और हिरणी एकबार फिर से रानी कौसल्या की अरदास में थी। रानी रामलला को दूध पिला रही थी। हिरणी को देखते ही किलक उठी -"आओ रे हिरणी! भोज-भात जीमीं कि नहीं? अपने सभी भाई- भैयारी को लेकर आई थी कि नहीं? अच्छे से तो जीमे ना सभी? कौन कौन से पकवान खाए तुमने?"<br /><br />"रानी हो रानी! राजा महराजा के लिए बने खीर पकवान मे हमरा क्या हिस्सा, क्या बखरा। वे खा लें तो समझो, हम जनता का पेट अइसे ही भर जाता है। हम तो हे रानी, फ़िर से एक अरदास लेकर आए हैं। इसके पहले भी हमने अरदास करी, पर तुमने हमरे अरदास पर कान न दिया और बचवा हमारा हमसे दूर चला गया। हमने कलेजे पर पत्थर धर लिया कि चलो, आखिर रामलला हैं तो सभी के लला। भगवान जुग जुग जीवित रखें उन्हें। चांद सूरज से भी जियादा पुन्न -परताप फ़ैले उनका। ..अब बहिनी! फिर से एक अरज ले के आई हूं। इसबार मत ठुकराना रानी! तुम्हें मेरी सौंह (सौगंध)!"<br /><br />"बिना सुने जबान कइसे दे दूँ हिरणी? पानी में मछली और बिना पतवार की नाव का कोई भरोसा होता है क्या? जो बिना सुने जबान दे दिया और तुम्हारा कौल पूरा न कर पाई तो हत्या तो मेरे ही माथे चढ़ेगी न!"<br />"वो तो चढ़ चुकी रानी, उसी दिन, जिस दिन तूने मेरा बालक बध करवाया।" मगर हिरणी इसे बोली नहीं। मन में ही पचाकर रह गई। अभी तो भीख माँगने आई है। जो पहले ही नाराज कर दिया तो भीख की उम्मीद कैसे की जा सकेगी? वह बोली -"जो तुम्हारी आज्ञा रानी!" वह सर को जमीन तक टिका बैठी-<br /><br />"मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो<br />रानी, मंसवा ते सिंझई रसोइया, खलरिया हमें देतिउ हो।"<br /><br />"बचवा का मांस तो रसोई में पक गया रानी! अभी मैं उसकी खाल सूखती देख आई हूँ। तुम मुझे वही खाल दिला दो रानी। मैं उसमें भुस भरवाकर अपना बालक गढ़ लूँगी। बालक का वह रूप मेरी आँखों के आगे रहेगा तो मुझे भी लगेगा कि मेरा बचवा वैसे ही मेरे साथ है, जौसे तुम्हारे संग तुम्हारे रामलला हैं।"<br /><br />"ये क्या माँग बौठी रे हिरणी!" कौशल्या फिर से बिगड़ उठी -"क्या एक पूत के लिए पूत-पूत रट लगाए बैठी है? अरे, तेरे जैसों के पूतों की औकात ही क्या? ढोर-डंगर की तरह तो जनमते हैं। कौन सा उसे चक्रवर्ती राजा होना है! एक पूत गया तो जाने दे। दूसरा बिया लेना (पैदा कर लेना) और रही बात खाल की तो वह तो नहीं मिलनेवाली। क्यों तो वो भी सुन ले।<br /><br />"पेड़वा पर टाँगबे खलरिया, मड़ई में हम समुझब हो,<br />हरिनी खलरी के खंजड़ी मढ़ाइब त' राम मोरा खेलिहें नू हो।"<br /><br />उस खाल से मेरे रामलला के लिए खंजड़ी बनेगी। नरम-मुलायम खाल की खंजड़ी। दूसरे जानवर तो होते हैं कठोर। उनके कठोर खाल से खंजड़ी बनेगी तो मेरे रामलला के नाजुक हाथ और तलहथी छिल न जाएंगे! इसीलिए.. इसीलिए मैंने कहा था हिरणी, कि कौल देने से पहले तेरी बात तो सुन लूं। मेरी कितनी फजीहत होती रे हिरणी! भगवान शंकर ने मेरी रक्षा की। जो तुझे कौल दे दिए होती तो आज तो मैं कहीं की ना रहती। सूर्यवंश की रानी का कॉल ऐसे ही चला जाता. शिव, शिव, शिव, शिव! किस भांति आपने बचा लिए मेरे प्राण? जो दे दी होती कौल तो कौन करता मेरे मर्यादा, मेरे धर्म की रक्षा? कितनी फजीहत होती कि चक्रवर्ती राजा दशरथ की रानी कौशल्या ने अपनी बात तोड़ दी। स्वर्ग में baiThe मेरे सूर्यवंशी पूर्वज राजा दिलीप, राजा अज के सर यह देखकर शर्म से झुक जाते कि उनकी पुत्रवधू ने नहीं रखी अपने कौल की मर्यादा और डुबा दिया उस कुल को गहरे रसातल में, जो वंश प्रसिद्ध है- <br /><br />रघुकुल रीत सदा चलि आई,<br />प्राण जाए बरू बचन न जाई.<br /><br />हे मेरे पूर्वज, मेरे पितामह, मेरे श्वसुर, बच गई आपकी बहू आपके कुल को कलंकित करने से । बचा ली मैंने वंश मर्यादा की परंपरा। देवें आशीष कि यूँ ही सदा रहे तत्व और धर्म का ज्ञान और कर सकूँ न्याय-अन्याय में भेद! तू जा अब, जा अब तू कि नहीं चाहती देखना अब मैं तेरा मुँह। याद रख कि परछाई भी न पड़ने पाए तेरी इस महल में, वरना सच कहती हूं कि उस दिन नहीं बच पाएगी तू मेरे क्रोध की अगन से। चल जा जल्दी, भाग . . . . . . "<br /><br />फिर से नैनों में नीर का हहराता समुंदर और हृदय में दुख के काले गंभीर, भरे बादल जमाए हिरणी लौट आई। बेटे के बिना पूरा जंगल उसे काट खाने को दौड़ रहा था। सच! हम कमजोर, निर्बल, बेबस का कोई सुनवौया नहीं। न राजा, न रानी न देवता न पितर।<br /><br />खंजड़ी बन गई। रामलला नन्हीं-नन्हीं हथेलियों की थाप से उसपर चोट करते। खंजड़ी की आवाज होती तो वे खुश होकर तालियाँ पीटते। ठेहुनिया दे-दे कर चलते रामलला को देख कौशल्या रानी निहाल हो-हो उठतीं-<br /><br />ठुमुक चलत रामचन्द्र, बाजत पैजनियां<br />ठुमुकि ठुमुकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय<br />तात, मात गोद धाय, दसरथ की रनियां।<br /><br />हवा के झोंकों के साथ-साथ खंजड़ी की अवाज दूर जंगल तक जाती। उस आवाज को सुनकर हिरणी का आकुल-व्याकुल मन क्रन्दन कर उठता।<br /><br />"जब-जब बाजे ले खंजडि़या सबद अकनई हो<br />रामा, ठाढि़ ठेकुलिया के नीचा, मनहि मन झेखेले हो।"<br /><br />"मोरा बचवा रे.. " न चाहते हुए भी हिरणी पुकार उठती; पर तुरंत ही मुंह दबा लेती। उसे डर लगता कि कहीं उसकी आवाज से रामलला के खेल में कोई बाधा न आ जाए और रानी उसका विलाप सुनकर फिर से क्रोधित न हो जाए। अभी कम से कम खंजड़ी की आवाज़ तो वह सुन पा रही है और इसी बहाने वह अपने पूत से मिल भी पा रही है। जो उसकी आवाज़ से रानी खिसिया जाए और उसे कैद मे डाल दे तो वह अपने बचवे के इस रूप से भी बार दी जाएगी।<br /><br />समय बीतता गया, रामलला जवान हो गए। सीता कुँवरी वधू बनकर छम-छम पाजेब बजातीं पालकी से उतरीं। सीता को साथ-साथ उर्मिला, माडवी, श्रुँकीरती भी बहुरिया बन कर आई लक्ष्मण, भारत व् शत्रुघ्न के लिए. राम जी के राज्याभिषेक की तैयारी होने लगी। सारी अयोध्या फिर से उसी दिनवाले आनंद और उत्सव में डूब गई, जिस दिन रामलला का जन्म हुआ था। हिरणी के अब कई पूत हो चुके थे मगर उस पूत की कसक अभी भी उसके कलेजे को टीसती रहती।<br /><br />राज्याभिषेक की पूरी तैयारी हो गई कि देवी सरस्वती बाम हो गर्इं। वह मंथरा के माथे चढ़ बैठी और मंथरा ने कैकेयी के मन को फेर दिया कि बस! सारी की सारी अयोध्या श्मशान भूमि में बदल गई। राम का बनवास। केवल राम ही नहीं, संग में सिया सुकुमारी और सूर्य जैसे ओज वाला भाई लक्ष्मण भी. राम, सीता और लखन के बिना पूरी अयोध्या वैसे ही भांय-भांय करने लगी, जौसे पूत के बिना हिरणी को सारा जंगल ही भांय-भांय करता नजर आ रहा था।<br /><br />राजा दशरथ शोग भवन में पड़े हुए जल से निकली मीन की तरह छटपटा रहे थे। उन्हें श्रवण कुमार के माँ-बाप की याद हो आई -"हाँ! आज शाप फलीभूत हुआ। पुत्र सुख के बाद अब पुत्र वियोग का दुख! करमगति टारै नहि टरै! सच!"<br />हिरणी रानी के महल के जंगले तक पहुंची, अंदर झांककर देखा - रानी अखरा (नंगी) जमीन पर लेटी हुई हैं। अरे? इत्ती बड़ी रानी और न पलंग, न गद्दा न पंखा न चँवर? सब है, पर रामजी नहीं और राम के बगैर कौशल्या रानी को कैसे ये सब भाए?<br /><br />हिरणी अंदर चली गई और बोली -"रानी हे रानी! अब तो समझ गई न वियोग की पीड़ा। ऐसे ही मैं भी रोई थी। ऐसे ही कितनी माएं रोई होंगी। केलेजे की टूक बड़ी बेआबाज होती है रानी? समझी होती तो मेरी शुभ कामनाएं तुम्हारे साथ होतीं । मगर अब तो मुझे तुमपर तरस आ रहा है रानी! सत्ता और ताकत के मोह में कमजोर और निर्बल को मत भूलो रानी, उन्हें देखो, सुनो, उनका ध्यान रखो। आखिरकार वे तुम्हारी रियाया हैं रानी और अपनी परजा का ख्याल जो राजा नहीं रखेगा, उसका कभी भी भला नहीं होगा रानी, कभी भी नहीं।"<br /><br />रानी कौशल्या उठकर बैठ गई। बिटर-बिटर हिरणी को ताकती रही। फिर फफककर रो उठी। हिरणी की आँखों से भी आंसू की धार फूट पड़ी। आखिर को माँ थी, सो एक माँ होकर दूसरी माँ की पीर को कैसे न समझती? और इन दोनों की माई यानी धरती माई चुपचाप इन दोनों की पीर को अपने कलेजे में समेटने लगी। चुपचाप! बेआवाज! शायद वह भी इन दोनों की पीर को जान रही थी, समझ रही थी।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-58794888056279185022009-06-08T11:48:00.002+05:302009-06-09T19:18:35.924+05:30किस्सा नीलपरी का- गौरव सोलंकी<a href="http://vahak.hindyugm.com/2007/04/blog-post.html">गौरव सोलंकी</a> की गिनती हिन्दी के उभरते कहानीकारों में प्रमुखता से की जाती है। हिन्द-युग्म को नाज़ है कि इतना ऊर्जावान कलमकार बुनियाद से ही हिन्द-युग्म से जुड़ा हुआ है। कहानी-कलश पर अब तक इनकी 7 कहानियाँ (<a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/04/blog-post_14.html">एक सुखांत प्रेमकथा</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/03/blog-post_24.html">यहाँ वहाँ कहाँ</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/02/blog-post_5343.html">एक लड़की जो नदी बन गई</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/01/blog-post_25.html">आज़ादी</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2007/11/blog-post_12.html">प्रेम कहानी</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2007/09/blog-post_11.html">शर्म</a> और <a href="http://kahani.hindyugm.com/2007/08/blog-post_11.html">प्यासा</a>) प्रकाशित हुई हैं। आज हम इनकी जो कहानी प्रकाशित कर रहे हैं उसका एक छोटा सा टुकड़ा <span style="font-weight:bold;">'तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?'</span> तहलका-हिन्दी में प्रकाशित हुआ था और ख़ासा पढ़ा और सराहा गया था। वही कहानी पढ़िए साबूत रूप में 'किस्सा नीलपरी का'॰॰॰॰॰॰॰<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">किस्सा नीलपरी का</span></strong></center><br /><br /><span style="font-weight:bold;">नीली आँखें</span> <br /><br />- तुम्हारी आँखें तो नीली नहीं हैं... मुझे याद पड़ता है कि हमारे बीच की पहली बात यही थी। उससे पहले वह तुनकमिजाज़ लड़की, जो अपने अक्खड़ जमींदारों के परिवार से हर सद्गुण विरासत में लेकर आई थी, मेरे लिए उतनी ही अपरिचित थी, जितनी उसके पीछे खड़ी चश्मे वाली लम्बी लड़की या उससे पीछे खड़ी मुस्कुराती हुई साँवली लड़की। मैं एक पत्रिका के लिए लेखकों की तलाश में था और वह एक कविता लेकर मेरे पास आई थी। डायरी में से जल्दबाज़ी में फाड़े गए उस पन्ने पर लाल स्याही से लिखे हुए नीलाक्षी पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी और मैं उसकी गहरी काली आँखों को देखकर अनायास ही पूछ बैठा था। वह भड़क गई थी- क्या बकवास है? उसका लहजा देखते ही मैंने तुरंत अपने कंधे उचकाकर और मुँह बिचकाकर सॉरी बोल दिया था, लेकिन वह मेरी उम्मीद पर खरा उतरते हुए बेअसर रहा था। - तुम यहाँ मुझे देखने के लिए बैठे हो या इन आर्टिकल्स को? - दोनों को... और इस जवाब पर तो वह आगबबूला हो गई थी। वह तब तक बोलती रही, जब तक पीछे वाली मुस्कुराती हुई साँवली लड़की उसे खींचकर नहीं ले गई। मैं चुपचाप उसे सुनता रहा था और उन सबके चले जाने के बाद देर तक हँसता ही रहा था। बहुत दिनों बाद मैं उतना हँसा था।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">डायरी की कहानी - कविता की कहानी</span><br /><br />चौपड़ बाज़ार का जो दरवाजा कोर्ट की तरफ़ खुलता था, उसी दरवाजे पर एक किताबों की दुकान थी- नेशनल बुक डिपो। उस दुकान के अन्दर स्टोर की तरह का एक कमरा था, जिसमें लम्बे समय तक न बिकने वाला सामान पटक दिया जाता था। दिसम्बर 2004 में आई वह डायरी भी ज़िद्दी थी कि दो साल तक बिकी ही नहीं और उस कमरे में डाल दी गई। उसके नीचे साहित्य की कई किताबें पड़ी थी और कुछ महीने बीतते बीतते उसके ऊपर का बोझ भी बढ़ने लगा।<br />बहुत बड़ी घटनाएँ भी छोटी छोटी बित्ते भर की घटनाओं की साँसें लेकर जीती हैं। एक लड़की को अपने शोध के लिए किसी नए और न बिकने वाले लेखक की किताब की तलाश थी। उसने नेशनल बुक डिपो के गल्ले पर बैठे रामानुज पाण्डे को अपनी इच्छा बताई और पाण्डे जी ने अपने आदेश की प्रतीक्षा में खड़े दीपक को स्टोर में से कुछ उठाकर लाने के लिए भेज दिया। वह तीन-चार किताबें उठाकर लाया और उनके बीच में वह डायरी भी आ गई, जिसके कवर पर सुनहरे अक्षरों में 2004 लिखा था। लड़की ने कविताओं की एक किताब चुन ली और मुस्कुरा दी। इस मुस्कान पर फ़िदा होकर रामानुज पाण्डे ने 2004 वाली वह डायरी उस किताब के साथ मुफ़्त भेंट कर दी।<br />मेरी वे कविताएँ नीलाक्षी को बहुत पसन्द आईं। अपने थीसिस के लिए उसने बाद में कोई और किताब खोज ली और मेरी किताब उसके बिस्तर के पास मेज पर रखी रहने लगी, जिसे वह सोने से पहले एक बार जरूर पलटकर देख लेती। उसी किताब की कुछ कविताओं को उसने अपनी डायरी में नोट कर लिया और एक दिन उन्हीं में से कोई पन्ना फाड़कर अपने नाम से छपवाने के लिए मेरे पास ले आई। वह मुझे नहीं जानती थी। मैं भी उसे नहीं जानता था। डायरी, कविता को और कविता, डायरी को हल्का हल्का पहचानने लगी थी। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अँधेरे की कहानी - माँ की कहानी</span><br /> <br />बहुत दिनों से मैंने और माँ ने साथ साथ कोई फ़िल्म नहीं देखी है। मैं टीवी ऑन कर देता हूं। माँ साथ में बुनाई का काम भी निपटा रही है।<br />कुछ देर से माँ ने एक बार भी टीवी की ओर नहीं देखा है। मुझे पता है कि माँ मुझसे कुछ कहना चाह रही है। - नीलाक्षी अच्छी लड़की नहीं है। माँ जैसे घोषणा कर देती है। मैं चुप रहता हूँ। - हो भी सकती है...पर लगती नहीं मुझे। वह अपनी बात सुधारकर बोलती है। माँ ने कभी नीलाक्षी को देखा नहीं है, माँ ने कभी फ़ोन पर भी उससे बात नहीं की है, लेकिन वह बार बार पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहती है। वह यह भी जानती है कि उसकी बात से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। बाहर अँधेरा है। मुझे नीलाक्षी की याद आती है। मेरा मन करता है कि मैं माँ के आरोप के विरोध में कुछ कहूं लेकिन मैं कुछ नहीं कह पाता। माँ फिर बोलती है- तेरे लायक नहीं है वो। मैं उठकर बाहर चला जाता हूं। आँगन में चमगादड़ घूम रहे हैं। वे कुछ बोलते हैं और लौटकर आती हुई आवाज़ से अन्दाज़ा लगाते हैं कि सामने कुछ है या नहीं। मेरा मन करता है कि मैं उनकी बातों के उत्तर में कुछ कहूं। बिना सुने गए लगातार बोलते रहना कितना हताश कर देता होगा ना? माँ अन्दर से आवाज़ लगाती है कि ब्रेक ख़त्म हो गया है। माँ मेरे साथ फ़िल्म देखना चाहती है लेकिन मेरा वहाँ जाने का मन नहीं करता। नीलाक्षी और कविता को छोड़कर मैं और माँ दुनिया के हर मसले पर बात करते हैं और जब भी इन दोनों में से किसी पर बात की जाती है तो हम दोनों में से कोई एक जरूर नाराज़ होता है। बाहर आसमान है, उसमें अँधेरा है, अँधेरे में चमगादड़ हैं, उनमें न सुना जाना है, उनमें हताशा है, हताशा में मैं हूँ, मुझमें माँ है, मुझमें नीलाक्षी भी है, मुझमें कविता भी है। माँ में एक भयावह सा खालीपन है। माँ आजकल दिनभर बुनती रहती है। माँ अकेली है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">किस्मत वाले हो तुम बुद्धू</span><br /><br />- तुम सिख हो?<br />- तुम्हें नहीं पता?<br />मैं आँखें फाड़ फाड़कर उसे देख रहा था। हमारी पहली मुलाक़ात को तीन महीने होने को आए थे और मुझे उसका धर्म ही नहीं पता था। उसके बाद मेरे सामने रखी हुई कॉफ़ी ठंडी हो गई। उसके बाद शाम गहराने लगी। उसके बाद नैस्केफे की लाल छतरियों के नीचे बिछी कुर्सियों पर लोग घटने लगे। उसके बाद मेरा मोबाइल दो बार बजा। उसके बाद उसकी हेयरपिन खुल गई और उसके लम्बे बाल हवा में लहराते रहे। तब तक हम चुपचाप एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे।<br />मैंने फिर से पूछा- तुम सच में सरदार हो? - हाँ जी हाँ। उसके गालों में गड्ढे पड़ते थे। उसके गाल सेब की तरह लाल थे और चेहरे पर एक पवित्र सी कोमलता थी। उसकी आँखों में चमक थी और लम्बे बालों में उमंग। मुझे पहली बार लगा कि उसकी शख्सियत में सब कुछ तो सरदारनियों जैसा था, फिर मुझे अब तक यह अहसास क्यों नहीं हुआ? - बताया ही नहीं तुमने कभी... - इसमें बताने का क्या था? तुमने कभी बताया कि तुम उल्लू हो? वह मेरा हाथ पकड़ते हुए बोली। मैंने हाथ खींच लिया। - नाराज़ हो गए? मैंने मुँह बनाते हुए हाँ कह दिया। - रात रात भर जागोगे तो उल्लू ही कहूंगी ना। कहाँ से सीखा है आधी रात के बाद सोना और फिर दस बजे जगना? - माँ मत बनो तुम। दो-दो माँएं नहीं चाहिए मुझे। - किस्मत वाले हो तुम बुद्धू। - दो माँओं की आदत पड़ जाएगी तो बाद में तकलीफ़ होगी। - क्यों? - तुम तो किसी पगड़ी वाले सुखविन्दर बलजिन्दर से शादी करोगी ना... - मैं गौरव से शादी करूंगी जो मेरी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा। हमारी पहली मुलाकात को तीन महीने होने को आए थे। हमने साहित्य, सिनेमा और मोहब्बत के अलावा किसी विषय पर कभी बात भी नहीं की थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि उसे मीठा ज्यादा पसन्द है या नमकीन। उसके घर में कितने लोग हैं और उसका घर है कहाँ, यह भी मैं पूरे यकीन के साथ नहीं बता सकता था। मुझे उसकी राशि भी नहीं पता थी और जन्मदिन भी। लेकिन हाँ, मैं उससे प्यार करता था और बादलों के आसमान से काली हुई उस शाम में नीलाक्षी मुझे शादी का वचन भी दे चुकी थी। एक बेढंगा सा आम लड़का, जिसे दाढ़ी बनाना बहुत ऊबाऊ काम लगता हो, उसे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?</span><br /> <br />मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है। <br />फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।<br />- सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं? मैं मुस्कुरा देता हूं। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूं और बनाने लगता हूं। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।<br />- तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं? - मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है। - कहानी कब सुनाओगे? - तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?<br />- चाय में लिखा है। - अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ? - नहीं, दूसरी की। - मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ? - नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं? - तुम सवाल बहुत पूछती हो। वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।<br />मैं पूछता हूं, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”<br />- मुझे नहीं पता... मैं जानता हूं कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूं। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?” मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।<br />उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।<br />- कंगूरे क्या होते हैं? अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।<br />मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है?<br />वह कहती है कि उसे डूबना आता है।<br />मैं आखिर कह ही देता हूं कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूं। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूं। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूंढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी...शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो।<br />वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं। उस पार मीठा अँधेरा है जो उसे कभी कभी तीखा लगता है। वह अपनी जुबान पर अँधेरे की हरी चरचरी मिर्च धर लेती है और जब उसे चबाती है तो हल्की हल्की सिसकारी भरती है। मैं उसे शक्कर कहता हूं तो वह शक्कर होकर खिलखिलाने लगती है।<br />कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।<br />मैं कहता हूं कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है? मैं नहीं बताता। <br />फिर पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे बुरी लगती है? फिर वह कुछ पूछते पूछते भूल जाती है। फिर मैं कहता हूं , “नीलाक्षी.......” और फिर कुछ नहीं कहता।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">डर के आगे</span><br /><br />मैं सात साल का हूं। माँ ने मुझे पुजारियों के घर से दूध लाने को कहा है। वे मन्दिर में रहते हैं, शायद इसीलिए उनके घर को सब पुजारियों का घर कहते हैं। शिप्पी ने मुझे बताया है कि पुजारी भगवान नहीं होते। उसने उनके घर के एक बूढ़े को बीड़ी पीते देखा है और तब से उसकी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई है। भगवान कौन होते हैं, यह पूछने पर वह उलझ जाती है और सोचने लगती है। शिप्पी मुझसे बड़ी है या बड़ी नहीं भी है तो भी उसे देखकर मुझे ऐसा ही लगता है। वह आधे गाल पर हाथ रखकर सोचती है तो मेरी नज़रों में और भी बड़ी हो जाती है। <br />मैं डोलू उठाकर चल देता हूं। इस बर्तन को हाथ में लेते ही झुलाते डुलाते हुए चलने का मन करता है, शायद इसीलिए इसे डोलू कहते हैं। शिप्पी अपने घर की देहरी पर बैठी है। मुझे अकेले जाते देख वह भी मेरे साथ हो लेती है। वह वादा करती है कि अगर मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा तो लौटने के बाद वह मुझे बैट बॉल खेलना सिखाएगी। मैं कहता हूं कि तब तक तो रात हो जाएगी और वह कहती है कि हाँ, अब दिन भी छोटे होने लगे हैं। मैं सिर उठाकर आसमान तक देखता हूं मगर मुझे कहीं दिन का चेहरा या पेट या पैर नहीं दिखाई देते। <br />उसने नया फ्रॉक पहन रखा है, जो उसके घुटनों से थोड़ा ऊँचा है। मैं उसे कहता हूं कि यह पुराना है, इसीलिए ऊँचा हो गया है। वह मेरे सामने पीठ करके खड़ी हो जाती है और पीछे चिपका हुआ स्टिकर दिखाकर बताती है कि यह उसने पहली बार पहना है। स्टिकर को छूने के प्रयास में उसके फ्रॉक का एक हुक खुल जाता है। अब वह चलती है तो एक कंधे पर फ्रॉक लटक सा जाता है। वह मुझसे आगे है। मैं उसे पकड़कर रोक लेता हूं और बताता हूं कि उसका एक हुक खुला है। वह बताती है कि उसे शर्म आ रही है। मुझे भला सा लगता है। वह मुझसे लम्बी है। उसका हुक लगाने के लिए मुझे तलवों के बल पर ऊँचा होना पड़ता है। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। मैं उसे बताता हूं कि पुजारियों के कुत्ते से मुझे बहुत डर लगता है। वह बताती है कि कुत्तों से कभी नज़र नहीं मिलानी चाहिए, नहीं तो वे गुस्सा हो जाते हैं। मैं उसे बताता हूँ कि कुत्तों के आस पास कभी भागना नहीं चाहिए। यह मुझे माँ ने बताया था। माँ की याद आने पर मुझे लगता है कि हमें तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए, नहीं तो देर से लौटने पर माँ डाँटेगी।<br />रास्ते में सरकारी स्कूल के अन्दर से होकर जाना पड़ता है। स्कूल के सब कमरों पर ताले टँगे हैं, लेकिन एक कमरे का दरवाजा टूटा है, जिसमें से भीतर जाया जा सकता है। हम उधर से गुजरते हैं तो उस कमरे में कभी कभी आइस पाइस खेलते हैं। लेकिन आज जल्दी है, इसलिए हम सीधे निकल जाते हैं।<br />रामदेव जी का मन्दिर गाँव से बाहर है। उसके आस पास रेत के ऊँचे टीले शुरु हो जाते हैं, जिन पर लोटना और फिसलना मेरे और शिप्पी के प्रिय खेलों में से है। वह बाहर ही खड़ी रहती है। मैं जब घर के अन्दर से दूध लेकर आता हूँ तो वह ललचाई नज़रों से उन टीलों को देख रही है। मैं उसे बैट बॉल का वादा याद दिलाता हूं तो वह थोड़ी सी उदास होकर मेरे साथ लौट चलती है। दिन इतने छोटे हैं कि हमारे लौटते लौटते धुंधलका होने लगा है। <br />स्कूल के अन्दर वाली राह सुनसान है। हम दोनों हाथ पकड़कर चल रहे हैं। तभी पीछे किसी के पैरों की आहट सुनाई देने लगती है। मैं पीछे मुड़कर देखता हूं। नहीं, पहले शिप्पी देखती है कि पुजारियों का लड़का अतुल हमारे पीछे आ रहा है। वह फुसफुसाकर मुझसे कहती है कि उसे इसका नाम नहीं पता, लेकिन यह अच्छा लड़का नहीं है। वह अचानक काँपने लगी है। मैं भी मुड़कर देखता हूं कि वह सिगरेट के कश लगाता हुआ आ रहा है। मैं उसे रोज़ देखता हूँ, लेकिन आज मेरे मन में भी डर की एक लहर दौड़ जाती है। हम तेज तेज चलने लगते हैं और कुछ देर में लगभग दौड़ने लगते हैं। हम टूटे दरवाजे वाले कमरे के सामने हैं, जब वह हमारे सामने आ खड़ा होता है। <br />शिप्पी की उम्र आठ साल है। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। उसने चौड़े घेरे का ऊँचा गुलाबी फ़्रॉक पहन रखा है। उसका हाथ मैंने कसकर पकड़ रखा है। अतुल हमसे पाँच-छ: साल बड़ा है। वह मेरे सिर पर हाथ फेरता है। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर वह मेरे हाथ से शिप्पी का हाथ छुड़ा देता है। उसकी आँखों में आँसू आ गए हैं। वह बुरी तरह काँपने लगी है। मैं देख रहा हूं कि वह उसे खींचकर टूटे हुए दरवाज़े से कमरे के अन्दर ले गया है। मैं डरकर भाग लेता हूं और कुछ दूर जाकर फिर थमकर खड़ा हो जाता हूं। मैं बार-बार भागता हूँ और फिर लौट आता हूँ। उस ठंडी शाम में मैं पसीने से भीगा हुआ हूं। मुझे कुछ समझ नहीं आता। मेरा रोने का मन करता है, लेकिन डर के मारे मैं रो भी नहीं पाता। मेरे बड़े होने के बाद टीवी पर एक विज्ञापन आता है- डर के आगे जीत है... नहीं, डर के आगे जीत नहीं है। डर के आगे सरकारी स्कूल का एक कमरा है, जिसमें घुसते हुए अतुल का हाथ शिप्पी के ऊँचे फ्रॉक को और भी ऊँचा उठाता हुआ ऊपर तक चला जा रहा है। डर के आगे मेरा उस कमरे के बाहर अँधेरा होने तक खड़ा रहना और फिर मेरे सिर पर अपना हाथ फेरकर जाते अतुल के बाद रोती बिलखती शिप्पी को देखते रहना है। डर के आगे घुप्प अँधेरा है, जिसके बाद मैं शिप्पी से कभी नहीं पूछता कि भगवान कौन होते हैं? डर के चार घंटे आगे शिप्पी का बिना किसी से कुछ कहे अपने बिस्तर पर सो जाना है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">चौदह का लड़का</span><br /><br />मैं चौदह साल का हूं। चौदह का लड़का होना कुछ नहीं होने जैसा होता है। मैं लाख रोकता हूं लेकिन ठुड्डी पर बेतरतीब बाल निकलने लगे हैं। मैं बाल कटवाने जाता हूं तो नाई से दाढ़ी बनाने के लिए कहने में बहुत शर्म आती है। मैं हर बार यूं ही लौट आता हूं और बेतरतीबी अपने अंदाज़ से बढ़ती रहती है। मैं अब बच्चा नहीं हूं और बड़े भी मुझे अपने साथ नहीं बैठने देते। कुछ साल पहले तक साथ की जिन लड़कियों के साथ गुत्थमगुत्था होकर कुश्ती लड़ा करता था, वे अब सहमी सी रहती हैं और बचकर निकल जाती हैं। उन्हें बड़ी माना जाने लगा है, लेकिन चौदह के लड़के घर के सबसे उपेक्षित श्रेणी के सदस्य होते हैं, जिनके सिर पर सबका संदेह मंडराता रहता है। अब चड्डी पहनकर घर में घूमने पर माँ डाँट देती है। चौदह के लड़कों को लगता है कि नहाते हुए उनके चेहरे पर फूटने वाले मुँहासों जैसा ही कुछ है, जो उन्हें पता नहीं है और सबको लगता है कि उसके पता लगने के बाद वे बड़े हो गए हैं। उन्हें अवास्तविक और सम्मोहक से सपने दिखते हैं, जिन्हें वे कभी कभी सहन नहीं कर पाते। मैं हर सुबह अपने उन नशीले सपनों पर शर्मिन्दा होता हूं और अपने आप ही उपेक्षा की लकीर पर थोड़ा और जमकर बैठ जाता हूं।<br />दीदी को देखने वाले आ रहे हैं। मुझे बताया नहीं जाता, लेकिन मुझे मालूम है। दीदी की शादी हो जाने के ख़याल से मुझे बहुत बुरा लगता है। <br />दीदी पूरियाँ तल रही है, दीदी दहीबड़े बना रही है, दीदी ने भौंहें बनवाई हैं, दीदी ने साड़ी पहनी है, दीदी रो रही है। दीदी जब अन्दर वाले कमरे से बर्तनों का नया सेट निकालने जाती है तो एक मिनट रुककर रो लेती है। दीदी पैन से अपनी हथेली पर कुछ लिखती है और फिर खुरचकर मिटा देती है। मैं पूछता हूं कि क्यों रोती हो तो वह मुझे झिड़क देती है और तेजी से बाहर निकल जाती है। माँ मुझे डाँटती है कि वह औरतों का कमरा है, मुझे वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मैं माँ की नहीं सुनता और वहीं अँधेरे में पड़ा रहता हूं। माँ बड़ बड़ करती रहती है। फिर पुकार होती है कि बाज़ार से काजू लाने हैं, लेकिन मैं नहीं सुनता। बाहर गाड़ी आकर रुकती है। घर में भगदड़ मच जाती है। “अरे गौरव, मेरी चुन्नी तो लाना”, माँ चिल्लाती है और मैं सोचता रहता हूं कि दीदी क्यों रोती है? <br />माँ बाहर गई है और बाकी लड़कियाँ औरतें उसी अँधेरे कमरे में इकट्ठी हो गई हैं।<br />“गठीले बदन का है”, मौसी इस तरह कहती है कि दीदी की सब सहेलियाँ हँसने लगती हैं। <br />- क्या करता है?<br />- उससे क्या लेना? फिर हँसी। - हैंडसम है..<br />मेरी चचेरी बहन दीदी की बाँह पर चिकोटी काटती है। दीदी नहीं रोती। क्यों? - नाम क्या है लड़के का? कोई दरवाजे के बाहर से पूछता है।<br />- अतुल..... और ऐसा होता है कि कमरे की दीवारों पर राख पुतने लगती है, मेरे सिवा सब गायब होने लगते हैं। छत तड़ तड़ तड़ाक टूटती है और गिरने लगती है। लेटे हुए मुझे चाँद दिखाई देता है, जिस पर बैठकर शिप्पी चरखा कातती हुई सुबक सुबक कर रो रही है। उसका सूत सपनों के रंग का है- मटमैला। मैं शिप्पी को पुकारता हूं, लेकिन वह मुझसे बात नहीं करती। वह सूत पर लिखकर भेजती है-पूछती है कि मैं रात को कैसे सो जाता हूं? मैं हाथ जोड़ता हूं, पैर पड़ता हूं, बाल नोचता हूं, छाती पीटता हूं और शिप्पी नहीं सुनती।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मोटरसाइकिल और इंतज़ार की कहानी</span> <br /><br />यह एक बहुत बड़बोला सा दिन है, अपनी ऊँचाई से ज्यादा बड़ा। धूप देखकर ऐसा लगता है, जैसे चार सूरज एक साथ निकले हों। पार्क की सीमाओं का अतिक्रमण करते एक पेड़ की छाया में मैंने मोटरसाइकिल खड़ी कर दी है और उस पर बैठकर नीलाक्षी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। अब से पहले हम बिना एक दूसरे को मिलने का वक़्त दिए यहीं मिलते रहे हैं। <br />कुछ देर में मुझे लगने लगता है कि जैसे पूरी दुनिया मुझे इगनोर कर रही है। झाड़ू लगाता हुआ जमादार मुझे वहाँ से हटने के लिए नहीं कहता। उसे असुविधा होती है, लेकिन वह चुपचाप मोटरसाइकिल के पहियों के नीचे दबे हुए पत्ते भी बुहार ले जाता है। मैं पास से गुजरती हुई एक औरत से समय पूछता हूं और उसे नहीं सुनता। सड़क के उस पार लगे हुए होर्डिंग पर खड़ी हुई लिरिल वाली लड़की ने मेरी ओर से इस तरह मुँह फेर रखा है जैसे मुझे देखते ही होर्डिंग टूटकर गिर जाएगा। मैं जिस जगह खड़ा हूं, वहाँ रोज एक चायवाला खड़ा होता है। कल वह अपनी इसी जगह के लिए एक कार वाले से झगड़ बैठा था, लेकिन आज उसने अपनी रेहड़ी मुझसे दूर हटकर लगा ली है। मैं नीलाक्षी को फ़ोन करता हूं और मेरा फ़ोन उठाना जरूरी नहीं समझा जाता। उस बड़बोली दोपहर में मुझे लगने लगता है कि मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह ख़याल इतना तीखा है कि अकेला ही आत्महत्या करने पर मजबूर कर सकता है। मुझे जोरों से प्यास लगती है। मैं छटपटाने लगता हूँ। मैं माँ को फ़ोन करता हूँ कि वह मेरी कुछ कविताएँ ढूंढ़कर मुझे अभी सुनाए। मैं अपने अस्तित्व को महसूस करना चाहता हूं। मुझे अपने होने को देखने के लिए कुछ चाहिए, लेकिन माँ चिढ़ जाती है और जल्दी घर आने को कहकर फ़ोन काट देती है। इन दिनों मेरी आवाज़ के फ़ोन काटना बहुत बार होता है। मैं चाहता हूं कि गुलमोहर के उस पेड़ का कोई पत्ता मुझ पर गिरे और इस प्रयास में मैं उसके नीचे टहलने लगता हूं, लेकिन मुझे छुआ तक नहीं जाता। मुझे लगता है कि शायद मेरा नम्बर देखकर नीलाक्षी फ़ोन ना उठा रही हो। मैं कोई टेलीफ़ोन बूथ ढूंढ़ने के लिए चल देता हूं और हड़बड़ी में भूल जाता हूं कि दो हज़ार पाँच की उस हीरो होंडा पैशन मोटरसाइकिल में मैंने ‘एन’ के आकार के छल्ले में पिरोई हुई चाबी लगी छोड़ दी है। मैं भूल जाता हूं....नहीं, मुझे आभास भी नहीं है कि सामने फोटोग्राफ़र की दुकान पर बैठा बेरोज़गार रणवीर सिर्फ़ ताश ही नहीं खेल रहा। मैं भूल जाता हूं कि चाय की रेहड़ी वाला मुझे नहीं पहचानेगा और उसे कोई मोटरसाइकिल भी याद नहीं रहेगी। मैं भूल जाता हूं कि सामने लिरिल से नहा रही निर्जीव लड़की, लड़की नहीं बाज़ार है। मैं भूल जाता हूं कि जब पुलिसवाला पूछेगा तो मुझे अपनी बाइक का नम्बर भी याद नहीं होगा। मुझे मालूम नहीं है कि रणवीर के पास पैसे नहीं हैं और उसकी पत्नी मोटरसाइकिल लाने की ज़िद पर अड़ी है। जैसे ही नीलाक्षी फ़ोन उठाती है, मैं केबिन के काँच में से देखता हूं कि एक युवक, जिसके नाम रणवीर को मैं नहीं जानता, मेरी मोटरसाइकिल लेकर तेजी से जा रहा है। वह फ़ोन उठाकर भी कुछ नहीं बोलती। बोलती भी कैसे? जो नम्बर डायल हुआ है, वह नीलाक्षी का तो नहीं है। मैं भूल जाता हूं कि आखिर में जो 765 है, वह 865 तो नहीं है ....या 378 तो नहीं है....या 475 तो नहीं है... संख्याओं को याद न रख पाना मेरी पुरानी कमज़ोरी है और कोई नीलाक्षी भी है और उसको फ़ोन करना साँस लेने से भी ज़्यादा जरूरी है, रणवीर यह नहीं जानता। यदि जानता होता तो शायद सिर्फ़ मोटरसाइकिल लेकर जाता। हालांकि यह इन सब संभावनाओं को सोचने का वक़्त नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूं। <br />मोटरसाइकिल का चोरी हो जाना एक आम सी घटना है, लेकिन उस पर रखे सेलफ़ोन का और उसमें रखे नम्बरों का उसके साथ चोरी हो जाना इतना आम नहीं है कि बरसों बाद एक दोपहर रोटी का कौर तोड़ते हुए अचानक उसे याद कर रो न पड़ूं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">नाम की कहानी (संदर्भ के लिए)</span><br /><br />- नीलप्रीत.....ए की नाम होया बई? वह उसे छेड़ने के मूड में था लेकिन अपने नाम का मजाक उड़ाया जाना उसे भला नहीं लगा। वह खामोश रही। - तू कोई होर प्यारा जा नां रख लै.... - तू ही रख दे। वह तुनककर बोली तो उसने कुछ क्षण सोचा और फिर एक झटके में कह दिया- नीलाक्षी।<br />यूं कि उस की पहली प्रेमिका का नाम नीलाक्षी था जो एम बी बी एस करने रूस चली गई थी और जिसका नाम उसकी कलाई से थोड़ा ऊपर न पर छोटी इ की मात्रा के साथ गुदा हुआ था। यूं कि मेरी नीलाक्षी का नाम नीलप्रीत था और नीलप्रीत हँसते हँसते बनाना शेक पीते पीते नीलाक्षी हो गई थी। यह नेशनल बुक डिपो के पाण्डे जी से मुस्कान के बदले डायरी लेने से बहुत पहले की बात थी। लेकिन नीलप्रीत ने नीलाक्षी को हमेशा के लिए अपने माथे पर सजाकर रख लिया, जैसे उसने उसके दिए हुए बीसियों उपहार अपनी अलमारी में सजाकर रख लिए थे, जिनमें चॉकलेट के रैपर तक सँभालकर रखा जाना बहुत अचरज की बात थी। यूं कि जिस नाम से मैं उससे प्यार करता था, वह नाम भी किसी ने उसे गिफ़्ट में दिया था। लेकिन वह बताती थी कि जब वह चार दिन की थी और उसके बम्बईया बुआ और फूफा उसे देखने आए थे और उसके रंगीन फूफाजी ने नीले काँच के चश्मे के पीछे से उसे देखा था और उन्हें भ्रम हो गया था कि बच्ची की आँखें नीली हैं और उन्होंने घोषणा कर दी थी कि लड़की का नाम नीलाक्षी ही रखा जाएगा। फूफाजी जिस फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी में एक्टर कोऑर्डिनेटर थे, उसकी मालकिन का नाम नीलाक्षी था। तोम्स्क में मेडिकल पढ़ रही नीलाक्षी और बम्बई में फ़िल्म बना रही नीलाक्षी चाहे असल में हों या न हों, लेकिन अगर होंगी तो उन्हें प्रेम करने वाले लोग उनसे ही प्रेम करते होंगे, रागिनी या दीपशिखा से नहीं।<br />मैं किसी और के तोहफ़े में दिए हुए नाम की, किसी और की नीलाक्षी से प्रेम करता था।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">भूल जाने वाली लड़कियाँ : लोहे सी याददाश्त वाली माँएं</span><br /><br />वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे शताब्दी एक्सप्रेस के वातानुकूलित डिब्बों से चोरी चोरी झाँकते पानी में डूबी धान के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’, ‘मोहन नहीं जाता’ के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में अतीत के धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।<br />वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।<br />दीदी आ गई थी। मेरी पाँच साल की भांजी दिनभर कहती फिरती थी कि उसकी मम्मी छोड़ दी गई है और इसी एक बात पर माँ उसे दस बार पीटती थी। वह कुछ देर रोती और फिर आँसू पोंछकर खेलने लगती और कुछ देर बाद कागज के गत्तों से अपनी गुड़िया का घर बनाती। सब कुछ भूलकर नानी को बुलाकर अपना घर दिखाती, माँ तारीफ़ करती, उसे पुचकारती और वह उस गुड़ियाघर का दरवाज़ा खटखटाते हुए अनजाने में यही बड़बड़ाने लगती। माँ की आँखों में प्याज कटने जैसे आँसू आ जाते और वह फिर से उस अबोध बच्ची को एक चाँटा लगा देती। डाँट-फटकार, चीख-पुकार और मान-मनौवल का यह सिलसिला घर में सारा दिन चलता।<br />कुछ दिन तक दीदी भी अचानक किसी भी बात पर रोना शुरु कर देती और फिर घंटों तकिए में मुँह छिपाए पड़ी रहती। लेकिन यह सब धीरे धीरे कम होने लगा। दीदी आस-पड़ोस में जाने लगी। फिर धीरे धीरे शादी से पहले के उन्हीं पुराने किस्सों में रस लेने लगी। एक दिन मैंने दीदी को हँस-हँस कर किसी पड़ोसन को यह बताते सुना कि शारदा को आए दो महीने हो गए हैं, लेकिन उसकी ससुराल वाले उसे लेने ही नहीं आ रहे। दीदी को आए छ: महीने हो गए थे और दीदी सचमुच हँसती थी। मेरा बचपन का दोस्त संदीप मुझे अब भी ख़त लिखता है। वह मनोवैज्ञानिक बन गया है और कभी कभी बिना प्रसंग के यूं ही बेसिरपैर की बातें लिखता रहता है। इस बार की चिट्ठी में उसने लिखा है कि लड़कियों के दिमाग में एक मीमक नाम का द्रव होता है, जिससे वे जल्दी भूल जाती हैं।<br />जैसे मैं ट्रेन में बैठा हूं। मेरे पास की दो सीटों पर दो लड़कियाँ बैठी हैं। वक़्त काटने के लिए वे बात करने लगती हैं। एक बताती है कि वह जे एन यू से मास कॉम पढ़ रही है। दूसरी बताती है कि वह सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है। फिर वे दोनों चूड़ीदार और पटियाला सलवार पर चर्चा करने लगती हैं। फिर दूसरी पहली को बताती है कि इंटरनेट पर एक ऑर्कुट नाम की साइट है जिसमें दोस्त बनाए जा सकते हैं, पुराने दोस्तों को ढूंढ़ा जा सकता है और फिर वह तुरुप के पत्ते की तरह भेद खोलने वाले स्वर में कहती है कि उसमें दूसरों की बातें भी पढ़ी जा सकती हैं। दूसरी कहती है कि वह भी जॉइन करेगी। फिर ट्रेन रुकती है और दोनों उतरकर अपने अपने घर चली जाती हैं। शाम होते होते दोनों एक दूसरे को भूल जाती हैं, ऐसे कि कुछ महीने बाद पहली लड़की जब एक न्यूज़ चैनल पर समाचार पढ़ रही है और दूसरी लड़की टीवी चलाकर मैगी खाते खाते ऑफ़िस के लिए तैयार हो रही है तो सब कुछ सामान्य है, कहीं कोई सुखद आश्चर्य नहीं, और मैं दोनों को कभी नहीं भूल पाता। जैसे नीलाक्षी किसी बात पर बहुत खुश है। मैं नैस्केफ़े की एक लाल छतरी के नीचे उसके सामने बैठकर उसकी आँखों में झाँक रहा हूँ। मेज पर उसकी उंगलियाँ ‘हमको हमीं से चुरा लो’ की धुन में थिरक रही हैं। मैं उससे प्यार करता हूँ और आज उसका मन अपनी चंचलता के चरम पर है। उसका किसी से हँसी ठट्ठा करने का मन है। उसका मन है कि वह कुछ अटपटा कहे, जो कहने से पहले उसे भी पता न हो। उसका बहुत मन है कि आज वह किसी से एक औचक सा झूठा वादा जरूर करे और ऐसे में मैं उसे मंच देता हूँ। वह अचानक कहती है कि वह गौरव से शादी करेगी, जो उसकी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा और अगले क्षण के बिल्कुल पहले ही वह भूल जाती है कि उसने क्या कहा है, जैसे नीलप्रीत भूल जाती है कि बचपन में उसे सब शिप्पी कहकर पुकारते थे। माँ को रह-रहकर जाने क्या याद आता है कि वह नीलाक्षी से मिले बिना ही मुझसे बार बार मौके-बेमौके कहती रहती है कि वह अच्छी लड़की नहीं है।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">टोटे टोटे (टुकड़े टुकड़े)</span><br /> <br />- इसका क्या अर्थ होता है कि कोई अपने पीएचडी थीसिस के छठे पन्ने पर लिख दे- अंग्रेज़ी के पहले अक्षर ‘A’ को समर्पित? चायवाला चुप खड़ा रहा। मैं उस टेलीफ़ोन वाले केबिन से दौड़कर आया था और चीखने चिल्लाने, शोर मचाने या अपनी मोटर साइकिल के पीछे दौड़ते रहने की बजाय मैंने चायवाले से यही पूछा था। वह अचकचाकर मुझे देखने लगा था, लेकिन चुप। उसके बाद मैंने अपने मोबाइल के लिए जेबें टटोली थीं और वह रणवीर की शर्ट की बायीं जेब में था, इसलिए मुझे नहीं मिला और मैं पार्क की रेलिंग के सहारे ढह गया था।<br />उससे पहली शाम तक मुझ पर पंजाबी सीखने का जुनून सवार था। सब अख़बार हटवाकर मैंने घर में जगबाणी लगवा लिया था, जिसे न मैं पढ़ पाता था और न ही घर में कोई और। मैं लाइब्रेरी में जाकर सिर्फ़ पंजाबी की किताबें ढूंढ़ता, जो गिनती में बीस से ज्यादा नहीं होती। मैं उन्हें खोलकर बैठा रहता था और अक्षरों को चित्रों की तरह देखता रहता था। मुझे उस 2004 वाली डायरी में पंजाबी में लिखा पढ़ना था। <br />जहाँ उन किताबों की शेल्फ़ थी, वहाँ अमूमन कोई नहीं आता था। मैं भी वहाँ जाता था या ऐसा मुझे सिर्फ़ लगता ही था, मैं पक्के तौर पर नहीं बता सकता।<br />उस शाम भी मैं ऐसे कोने में बैठा था, जहाँ बिल्कुल मेरे सामने आए बिना मुझे नहीं देखा जा सकता था, लेकिन मैं पूरे हॉल को देख सकता था। और मैंने देखा कि उस कोने में, जहाँ उसके सिर को ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ लगभग छू ही रही थी, नीलाक्षी बेसुध हुई जा रही थी। वह और अतुल इस तरह साथ थे कि उन्हें अलग अलग पहचाना नहीं जा सकता था। उनके होने में एक दूसरे के पृथक अस्तित्व को पी जाने, निगल जाने की बेचैनी थी। वह हवा जितनी हथेली हिलाकर उसके पार की हवा को महसूस कर सकती थी। उनके बीच नामों की अदलाबदली थी, बदलने के दौरान की दरमियान की शरारतें थीं, अपना हिस्सा पहले लेने की ज़िद थी, अपने चेहरे पर गिरी लट हटाने का उन्मादी आलस था, हटा देने का बेचैन आग्रह था, होठों के दुस्साहस पर रूठ कर उन्हीं में छिप जाना था, फिर से गलती करके मना लेने का आत्मविश्वास था, उस की काँपती हुई गर्दन पर वही निठल्ला सा तिल था, डेढ़ सौ साल पुरानी वही लाइब्रेरी थी, अतुल था और नीलाक्षी थी जो उसके लिए बार-बार नीलप्रीत हो जाती थी और वह उसे नीलाक्षी कर देता था।<br />मैंने देखा कि मैं दूध लेकर डोलू हिलाते हुए आ रहा हूं और जैसे ही मैं पुजारियों के घर से बाहर निकलता हूं, मेरे साथ चलने से पहले शिप्पी हवा में अपना दायां हाथ उठा देती है और उसके हाथ के लाख के कंगन बजते हैं। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। नहीं, शिप्पी की उम्र आठ साल है या आठ नहीं तो दस होगी...या ग्यारह। वह किसी को इशारा नहीं कर सकती। उसे मालूम भी नहीं होगा कि किसी को बुलाने के लिए बिना आवाज़ लगाए भी कुछ किया जा सकता है। वह दिनभर कंचे खेलती रही थी, इससे उसका हाथ दर्द करने लगा होगा और इसीलिए उसने हाथ ऊपर उठाया होगा। लेकिन अतुल पीछे क्यों आ रहा है? शिप्पी नहीं, मैं उसे पहले देखता हूं और डर सा जाता हूं। शिप्पी की उम्र ग्यारह है और मेरी सात। शिप्पी ने चौड़े घेरे का ऊँचा फ्रॉक पहन रखा है। आज शाम से ही ठंडी पछुआ हवा चल रही है। मुझे लगता है कि वह डरकर काँप रही है।<br />उसकी आँखों में रेत गिर गई है और वह हाथ से आँखें मसल रही है। मेरी आँखों में डर के आँसू हैं और उनके पार मुझे पूरी दुनिया में आँसू दिखाई देते हैं, शिप्पी की आँखों में भी। <br />मैं पक्का नहीं कह सकता कि उसे देखने के बाद शिप्पी ने मेरे कान में कुछ कहा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि जब वह उसे टूटे दरवाजे वाले कमरे में ले जा रहा था तो मैंने उसे रोते देखा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि आधे घंटे बाद जब अतुल उस कमरे से बाहर निकला तो मैं बाहर खड़ा था और उसने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि मैंने ज़मीन पर पड़ी हुई शिप्पी को रोते देखा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि चार घंटे तक मैं उसे चुप करवाने के लिए अपनी शर्ट भिगोता रहा था। मुझे कुछ याद नहीं है और मैं कुछ याद कर सकने की स्थिति में भी नहीं हूँ। अपनी लड़कियों जैसी खराब याददाश्त और सच को बताने की हिम्मत न जुटा पाने के लिए मैं हाथ जोड़कर माफ़ी माँगता हूँ। <br />लेकिन मैंने साफ साफ देखा है कि चाँद खाली है। वहाँ किसी को फ़ुर्सत नहीं कि चरखा काते और मटमैले सूत पर कुछ लिखकर भेजे। जो चाँद को पढ़ना चाहते हैं, उन्हें उसकी शाश्वत शीतलता जला डालती है।<br />मैंने देखा कि सामने नीलाक्षी अकेली आराम से बैठकर शरतचन्द्र का ‘देवदास’ पढ़ रही है और मैं गुस्से से उठकर उसके पास जाता हूं और उस एकांत को भेदती हुई, लजाती हुई, मार डालती हुई गालियाँ बकने लगता हूं। मैं नाखूनों से उसका चेहरा नोचने लगता हूं और वह मुझसे बचती भी नहीं, पत्थर की तरह स्थिर बैठी रहती है। मैंने देखा कि लहूलुहान नीलाक्षी अपनी सफाई में या बचाव में कुछ भी नहीं कहती और कुछ देर बाद दिखती भी नहीं।<br />उसके बाद मैंने कभी नीलाक्षी को नहीं देखा। पक्का नहीं कह सकता कि उस शाम भी देखा था या नहीं। मैं रात तक वहीं ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ और ‘देवदास’ के बीच गुमसुम बैठा रहा था। मैं उससे प्रेम करता था। मैं दोहराता हूँ कि मैं उससे प्रेम करता था, लेकिन मुझे उसका घर नहीं मालूम था, उसके घरवालों का नहीं पता था। उसका दस अंकों का फ़ोन नम्बर ही मेरे लिए उस तक पहुँचने का इकलौता ज़रिया था और अगले दिन वह नम्बर मेरी मोटरसाइकिल के साथ चोरी हो गया था।<br />बिना किसी प्रसंग के एक बार फिर संदीप ने यूँ ही लिख दिया कि सब क्रिएटिव लोग मानसिक तौर पर कुछ असामान्य होते हैं। मैं अब उसकी चिट्ठियाँ नहीं पढ़ता। वह फ़ोन करता है तो मैं बात नहीं करता।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">उसने कहा था... </span><br /><br />उसने कहा था- तुम इस तरह लगातार आसमान को मत देखा करो... मैंने कहा था – क्यों? <br />उसने कहा था - वह तुमसे आँखें नहीं मिला पाता होगा। मैंने कहा था - उसका हुक ढीला थोड़े ही है...जो पलकें झुका लेगा तो खुलकर गिर जाएगा...<br />उसने कहा था – तुम्हारी आँखों में कुछ है.. मैंने कहा था - क्या? उसने कहा था - कुछ है कि तुम्हें देख कर बेचैनी होती है...<br />मैंने कहा था - झूठ मत बोलो। उसने कहा था - मैं तुमसे कभी झूठ नहीं बोलती... मैंने कहा था - मैं जानता हूं।<br />सर्दियाँ आ गई हैं, लेकिन माँ ने बुनना छोड़ दिया है। माँ अब खिली खिली सी रहती है। मेरी ज्यादा फ़िक्र करने लगी है। सुबह शाम मेरी पसंद का ही खाना बनाती है। मैं नहीं खाता तो उसने भी करेला खाना छोड़ दिया है। पिछले हफ़्ते माँ ने पहली बार मेरी किसी कविता की प्रशंसा की थी। आजकल वह मेरी कविताएँ पढ़ती है और उन पर बातें भी करती है। माँ में अचानक एक नई ऊर्जा आ गई है। घर के सब गद्दे लिहाफ़ वह फिर से भरवा रही है। रोज बाज़ार जाती है और घर को सजाने के लिए कुछ न कुछ खरीद लाती है।<br />- संदीप का लेटर आया है। माँ बाहर से चिल्लाकर कहती है और मैं अनसुना कर देता हूं। माँ ख़त लेकर अन्दर आ गई है और उसने फाड़कर ख़त खोल लिया है। मैं माँ से कहना चाहता हूं कि दूसरों की चिट्ठियाँ नहीं पढ़नी चाहिए, लेकिन नहीं कहता। माँ कुछ पढ़कर मुस्कुराती है और सोचती है कि मैं उससे पूछूंगा कि क्यों मुस्कुरा रही हो, लेकिन मैं नहीं पूछता। रात हो गई है। मैं नए भरे लिहाफ़ में माँ के साथ बैठा हूं। अँधेरे में रहने वाली माँ अब कमरे में अँधेरा नहीं रहने देती। मैं मुँह ढककर लेट जाता हूं। माँ ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया है। माँ कहती है कि अब मुझे कुछ काम-धाम करने की सोचनी चाहिए और नीलाक्षी को भूल जाना चाहिए। अचानक एक पल के लिए मुझे लगता है कि नीलाक्षी कभी थी ही नहीं।<br />मैं ठहरे से स्वर में कहता हूं - मेरे पास नीलाक्षी की कोई तस्वीर भी नहीं है माँ....कि ढूंढ़ सकूं उसे। माँ नहीं बताती कि उसके पास शिप्पी की एक तस्वीर है।<br />मुझे अपना पहले वाला सेल नम्बर वापस मिल गया है। सुबह मैं अपने मोबाइल से पापा को एस एम एस करना सिखा रहा हूं। तभी मोबाइल बजता है। मोबाइल पापा के हाथ में है और वे नहीं जानते कि उन्होंने मैसेज डिलीट करने वाला बटन दबा दिया है। उस आधे सेकण्ड के अंतराल में मुझे मैसेज में कहीं NEEL दिखाई देता है। मैं जब तक पापा के हाथ से फ़ोन लेता हूं, वह मैसेज डिलीट हो चुका है।<br />मैं धम्म से फ़र्श पर बैठ जाता हूं। पापा हकबकाकर मुझे देखते रहते हैं। वे नहीं जानते कि क्या हुआ है। <br />अन्दर से माँ कहती है – कल से पछुआ चल रही है....और इस साल जितनी सर्दी तो कभी नहीं पड़ी।<br />मैं टुकुर टुकुर आसमान को देखता रहता हूं।<br /><br /><a href="http://vahak.hindyugm.com/2007/04/blog-post.html">-गौरव सोलंकी</a>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-80411657888274844222009-06-01T11:00:00.000+05:302009-06-01T11:00:16.820+05:30जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी<a href="http://vahak.hindyugm.com/2007/11/blog-post_13.html">विमल चंद्र पाण्डेय</a> युवा पीढ़ी के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। गौरतलब है कि विमल चंद्र पाण्डेय को इनके पहले कहानी-संग्रह 'डर' के लिए वर्ष <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/07/blog-post.html">2008 का नवलेखन पुरस्कार</a> मिला। कहानी-कलश इन कहानी-संग्रह की प्रत्येक कहानी को इंटरनेट के पाठकों तक पहुँचाने को वचनबद्ध है। अब इस कहानी संग्रह की 11 कहानियाँ (<a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/04/uske-baadal-11th-story-darr-collection.html">उसके बादल</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/04/cigarette-hindi-kahani-vimal-chandra.html">सिगरेट</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/04/ek-shoonya-shashwat-famous-story.html"> एक शून्य शाश्वत</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/03/woj-jo-nahin-8th-story-darr-vimal.html">वह जो नहीं</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/03/somnath-ka-time-table-7th-story.html">सोमनाथ का टाइम टेबल</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/01/darr-awarded-story-by-naya-gyanoday.html">डर</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/10/chashme-navlekhan-prize-winner-story.html">चश्मे</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/09/mannan-rai-ghazab-aadami-hai-vimal.html">'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं'</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/08/sweater-hindi-story-by-vimal-chandra.html">स्वेटर</a>, <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/07/2008.html">रंगमंच</a> और <a href="http://kahani.hindyugm.com/2007/11/blog-post_19.html">सफ़र</a> ) प्रकाशित की जा चुकी है। अब पढ़िए इस संग्रह की अंतिम कहानी <strong>'जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी'</strong><br /><br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी</span></strong></center><br /><br />कहानी शुरू करने से पहले बता दूं, यह एक निखालिस प्रेम कहानी है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि कोई तत्व ज़बर्दस्ती अतिक्रमण करके इस प्रेम कहानी का हिस्सा न बने। यह आपको अच्छी लगे, इसके लिये मैं जान लड़ा दूंगा। शृंगार रस की ज़्यादा गुंजाइश न होने के बावजूद मैं वादा करता हूं कि जहां भी मौका मिलेगा, तबीयत से प्रयोग करूंगा।<br /> प्रेम कहानी कमसिन नायक-नायिका की नहीं है। ख़सरे की तरह प्रेम जीवन में एक बार ज़रूर होता है और नायक का अट्ठाइस साल की उमर में यह पहला प्रेम है। उमर ज़्यादा होने के कारण इस प्रेम में कथित रूप से ठंडी हवा के झोंकें नहीं हैं, बल्कि प्रेम बुझी आग में चिंगारी की तरह मौजूद है। वैसे आजकल के प्रेम में ठंडी हवा के झोंके होते भी हैं या नहीं, यह शोध का दिलचस्प विषय हो सकता है। लुब्बेलुआब यह है कि यह मेरी पहली प्रेम कहानी है और इसे आप पसंद करें, इसके लिये मैं इसे सुंदर और रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा। आइये, कहानी की शुरूआत मुख्य पात्रों के परिचय से करते हैं।<br /> सर्वप्रथम नायक का परिचय। नायक का नाम कृष्ण मुरारी है। प्रेम कहानियों के हिसाब से यह नाम बहुत ग़ैर-रूमानी और ग़ैर-परंपरागत है पर नायक की मजबूरी है कि अब नाम के साथ कुछ नहीं किया जा सकता। मुझे आभास है कि पाठकों के लिये प्रेम कहानी के नाम पर यह एक निहायत ही भौंडा मज़ाक है पर नायक की तरह मैं भी मजबूर हूं। नायक का मुंगेर से दिल्ली (वाया बनारस, परास्नातक बी.एच.यू. से) पदार्पण पत्रकारिता की पढ़ाई के सिलसिले में हुआ है। मुंगेर में उसे अपने नाम का उतना मलाल नहीं था, पर दिल्ली आकर उसे नामों की सार्थकता का बोध हुआ है और उसने इस दिशा में ठोस क़दम उठाये हैं। शुरू में ही उसने उन मक्कार दोस्तों को ख़ूब चाय पिलायी है जो खाकर थाली में छेद करने के लिये कुख्यात हैं। यानी जिसके साथ ज़्यादा रहेंगे, जिसका ज़्यादा ख़र्च करायेंगे, उसी के नाम को बिगाड़ देंगे। इसके पीछे नायक का मंतव्य यह था कि इस भक्तिकालीन नाम को जितना बिगाड़ कर पेश करेंगे, वह मौजूदा स्थिति से बेहतर ही होगा। शुरू में नायक का नाम मुर्री हुआ, फिर मुर्रू। वह निराश हुआ और कुछ दोस्तों को नयी रिलीज फ़िल्म ’किसना’ दिखाने ले गया। कुछ काइंया दोस्त नायक की मंशा भांप गये और नायक से बीयर बर्गर का भोज लेते हुये उसका नामकरण ’किसना’ कर दिया, हालांकि ज़्यादातर नमकहराम उसे मुर्रू ही बुलाते हैं। नायक बहुत उत्साह या भीषण दुख में ( जो प्रायः दारू पीने के बाद प्रकट होता है) अंग्रेज़ी बोलने लगता है। शायद अधिकतर पूरबियों की तरह अंग्रेज़ी उसका भी इनफ्रियॉरिटी कांप्लेक्स है। उसके कमरे से रेन एण्ड मार्टिन कृत ग्रामर और नॉर्मन लुइस द्वारा रचित ’वर्ड पॉवर मेड इज़ी’ इज़ी वे में बरामद की जा सकती है। नायक का सेंस ऑव ह्यूमर अच्छा है।<br /> नायिका भी नायक के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है। नायक की तुलना में नायिका का नाम साहित्यिक सौंदर्य लिये हुये है और उसमें प्रेम की भी प्रबल संभावनाएं हैं। उसका नाम वेदिका है और उसकी आवाज़ बड़ी प्यारी है। वह मूल रूप से बनारस की रहने वाली है और पिछले चार-पांच वर्षों से मयपरिवार दिल्ली के पास नोएडा में रह रही है। स्नातक की पढ़ाई उसने यहीं से की है। चार-पांच वर्षों के अथक प्रयास से उसने बनारस का कस्बाई चोला उतार दिया है और दिल्ली के ’ओ शिट’ चोले में घुस चुकी है। यह दीगर बात है कि कभी-कभी उसका हाथ बाहर रह जाता है और कभी पैर। गो उसे उम्मीद है कि वह जल्दी ही पूरी तरह दिल्ली वाली यानी ’डेलहाइट’ हो जायेगी। (उसके बाद वह क्या करेगी, यह उससे किसी ने पूछा नहीं है।) बस थोड़ी सी कसर रह जाती है जब वह संस्कारों से ग्रस्त होकर जींस-टॉप पर दुपट्टा या दुपट्टानुमा कोई चीज़ टांगकर चली आती है भले ही वह फ़ैशन से बहुत बाहर की चीज़ हो।<br /> नायक का एक मित्र भी है जिसका परिचय आवश्यक है। यह पात्र नायक के सबसे क़रीब है। नाम है विमल पांडे। वह भी बनारस से आया है। एक ही शहर का होने के कारण नायिका से उसकी अच्छी दोस्ती हो गयी है। यह कहानियाँ लिखता है। कहानियाँ इसलिये लिखता है क्योंकि और कोई काम करना, ख़ास तौर पर मेहनत वाला, करना इसके वश का नहीं है (उम्र अठाइस साल, वज़न चौवालिस किलोग्राम)। कम बोलता है, क्योंकि जब ज़्यादा बोलता है तो अनर्गल बोलने लगता है। जब कहानियां पत्रिकाओं से बिना छपे लौट आती हैं तो किसी से चर्चा भी नहीं करता, पर जब दस वापस लौटने के बाद एक किसी टुच्ची पत्रिका ( कृप्या संपादकगण अन्यथा न लें ) में छप जाती है तो वह पत्रिका पूरे कॉलेज में दिखाता है और अपने मित्रों को पढ़वाता रहता है, ख़ास तौर पर लड़कियों को। जब कोई लड़की उसके सामने ही कहानी पढ़ने लगती है, तो वह निर्विकार सा चेहरे पर यह भाव लिये सिगरेट पीता रहता है कि ऐसी कहानियां तो वह चुटकियों में लिख सकता है, पर साला वक़्त किसके पास है। कहानी ख़त्म होने से पहले ही कहता है- ’’पढ़के किताब दे देना, अभी निधि ज़िद कर रही थी घर ले जाने की।’’ मित्रों के बीच अक्सर ऊँची-ऊँची फेंकता रहता है। बातों में अक्सर ज़बरदस्ती ब्रेख़्त, नेरुदा, काफ़्का, सात्रर और दिदेरो आदि का ज़िक्र ले आता है। मित्रों को बल भर आतंकित करता रहता है। चूंकि उन्होंने पत्रिकाओं में इसके नाम और चित्र देखे हैं, इसलिये चुप रहते हैं। हमेशा अपनी आज़ादख़याली की दुहाई देता रहता है। अपनी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और स्वभाव पर इसे गर्व है। ब्राह्मण होने के बावजूद अपने बीफ़ खाने का वर्णन गर्व से करता है (इसे पता है कि क्रांतिकारी कहलाने के लिये और कुछ करो या नहीं, पहले अपना धर्म तो भ्रष्ट कर ही डालो)। कई स्तरों पर मित्रों में इसका आतंक व्याप्त है। कुछ आतंकित मित्रों ने इसका नाम साहित्यकार रख दिया है और कुछ मूर्ख तो यहां तक कहते हैं कि विमल नींद में भी लिख देगा तो सही ही होगा। यही मूर्ख इसकी ताक़त हैं। नायक के नाम के विषय में इसका मत है कि इस नाम के साथ नायक को अध्यापक बनना चाहिये न कि पत्रकार।<br /> तो कथा शुरू होती है दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर के लॉन से। पत्रकारिता का यह कोर्स पूरे दो वर्ष का है, जिसे पूरा कर लेने के बाद नौकरी मिलने की रही-सही संभावना भी समाप्त हो जाती है। पर चूंकि अभी यह इनका प्रथम सेमेस्टर है, इन्हें न इस सच्चाई का पता है न ये जानना चाहते हैं।<br /> पहले सेमेस्टर का दूसरा महीना ख़त्म होने को है। सभी का आपस में परिचय ताज़ा-ताज़ा है। कुछ आनंद जैसे छात्र हैं जिन्होंने प्रवेश लेते ही कन्या फांसने के एकसूत्री कार्यक्रम पर परिश्रम करना शुरू कर दिया है।<br /> लॉन में आठ-दस लोग बैठे हैं। सभी आपस में धीरे-धीरे खुल रहे हैं। लड़कों में नायक कृष्ण मुरारी, नायक का मित्र विमल, विभव, आनंद, शशि, झा जी और लड़कियों में रजनी, शीतल, बबली और निधि वग़ैरह बैठी हैं। झा जी क़रीब अड़तीस वर्ष के प्रौढ़ हैं जो विवाह न होने के कारण लड़के कहे जाते हैं। इस कोर्स के लिये उम्र की संभवतः अधिकतम कोई सीमा नहीं है और न्यूनतम सीमा इक्कीस वर्ष है। इसलिये विद्यार्थियों में शीतल, बबली, सुंदर और नरेंदर जैसे बच्चों से लेकर झा जी जैसे बुज़ुर्ग भी हैं। इनके आधे से ज़्यादा बाल सफ़ेद हो चुके हैं और दाढ़ी भी बहुमत की ओर जा रही है। इनका इंफ्रास्ट्रक्चर देखकर लगता है कि अब ये हमेशा लड़के ही रहेंगे। आप हिंदी साहित्य से एम.ए. हैं और बोरियत की हद तक शरीफ़ हैं। ख़ास तौर पर लड़कियों से बात करते समय चुतियापे की हद तक सौम्य एवं भद्र बन जाते हैं। सभी विद्यार्थी इनका बहुत सम्मान करते हैं और इन्हें इनके पूरे नाम से न पुकार कर झा जी कहते हैं ( वैसे ज़्यादातर को इनका पूरा नाम पता ही नहीं है, इनकी सौम्यता और गरिष्ठता देखकर लगता है कि बचपन से ही इनका नाम झा जी ही है)। ये कहीं अनुवादक की नौकरी भी करते हैं, इसलिये चाय अक्सर ये ही पिलाते हैं। जब झुंड में कोई लड़की भी मौजूद हो, तक झा जी से चाय की फ़रमाइश की जाती है और ये सहर्ष हाथ बटुये पर ले जाते हैं। यदि साक्षात् किसी लड़की ने फ़रमाइश की हो तो झा जी प्रायः समोसे भी मंगा ही लेते हैं। अभी झा जी जाने के लिये उठ खड़े हुये हैं।<br />’’ अब मैं चलूंगा।’’<br />’’ अरे झा जी, बैठिये न।’’ एक की ज़िद।<br />’’ कार्यालय जाने को विलंब हो रहा है।’’<br />’’ झा जी, पांच-दस मिनट बैठिये, फिर मैं भी चलूंगा। मुझे भी उधर ही जाना है।’’ एक का प्रस्ताव।<br />’’ आप लोग बैठें। मुझे अनुमति दें।’’ झा जी का निश्चय पक्का है।<br /> ठीक इसी समय नायिका की एण्ट्री होती है। नीली जींस और सफ़ेद कुरते पर उसने काला दुपट्टा बेपरवाही से फेंक रखा है। वह आती है, एक नज़र सबकी ख़ाली हो चुकी चाय की प्यालियों पर डालती है और एक नज़र जाने को तत्पर झा जी पर। उसके दोनों हाथ जुड़ जाते हैं और जलतरंग सी आवाज़ आती है।<br />’’नमस्कार झा जी। जा रहे हैं ? हमें चाय नहीं पिलायेंगे ?’’<br />झा जी इस वार से बच नहीं पाते।<br />’’ क्यों नहीं वेदिका, बैठो।’’ झा जी आधे दिन की तनख्वाह प्रत्यक्ष कटती देखते हुये भारी क़दमों से चाय लाने चले जाते हैं। इस क्षण उसके मन में एक अजीब प्रश्न कौंधता है कि चाय की खोज किसने की।<br /> पाठकों, इस क्षण को ध्यान से पकड़िये। यही वह क्षण है जब नायक के मन की प्रेमकली खिल कर फूल बनती है। नायक नायिका पर बुरी तरह आसक्त होता है। नायिका नायक के बगल में बैठने को उद्यत होती है और उससे मुस्करा कर कहती है, ’’ मुरारी जी, ज़रा खिसकिये।’’<br /> नायक बेहाल, नायक निढाल, नायक हलाल। मुरारी जी, मुरारी जी, मुरारी जी, यह शब्द उसे इतना प्रिय लग रहा है कि उसे विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही सड़ेला नाम है जिसे बदलने के वह सपने देखा करता है। इसके बाद वहां कुछ और उल्लेखनीय नहीं हुआ। क्या आप होने वाली घटना का इंतज़ार कर रहे हैं ? साहेबान, घटना होकर ख़त्म हो चुकी है। यह मुख़्तसर सी घटना और यह एक पंक्ति से भी छोटा संवाद ’’मुरारी जी, ज़रा खिसकिये’’ ऐतिहासिक महत्व पा चुका है। इस घटना के बाद ही सभी सहपाठियों ने मुरारी जी यानी नायक के हाव-भाव में क्रांतिकारी और हाहाकारी परिवर्तन देखा है। कुछ क़रीबियों, जैसे नायक के मित्र विमल का, जो नायक की हर पीड़ा से परिचित है, कहना है कि ’’मुरारी जी ज़रा खिसकिये’’ वाली घटना के बाद से मुरारी जी ज़रा के बजाय बहुत ज़्यादा खिसक गये हैं।<br /> नायक पांडव नगर में रहता है जो यमुना पार पड़ता है और बिहारियों का गढ़ कहा जाता है। पांडव नगर में घुसने पर पहले-पहल नायक को मुग़ालता हो जाता था कि वह मुंगेर के बेलन बाज़ार में घुस रहा है। यहां जो दिल्लीवासी हैं वे भी यहां के बिहारियों से आक्रांत हैं। नायक कुछ समय पहले तक अपने मुहल्ले में हुयी एक घटना के कारण उदास था। उसके मकान के सामने वाले मकान में एक लड़की रहती है, जिसे शुरू-शुरू में नायक लाइन मारा करता था और विकल्पहीनता की स्थिति में ख़ूबसूरत कहा करता था। एक दिन सुबह-सुबह न जाने किस बात पर लड़की का अपनी मां से झगड़ा हो गया और मां-बेटी झगड़ते-झगड़ते गली में निकल आयीं। नायक उस समय अपनी बालकॅनी में खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था और बेरोज़गारी के बाद युवाओं की सबसे ज्वलंत समस्या क़ब्ज़ पर चिंतन करते हुये प्रेशर बना रहा था। लड़की की मां चिल्ला कर लड़की को गालियां दे रही थी। लड़की भी नहले पर दहला फेंक रही थी। लड़की ने अचानक ज़ोर से चिल्ला कर अपनी मां से कहा, ’’ गौर से सुन ले, अब जो तूने मुझे गालियाँ दीं तो मैं किसी बिहारी के साथ भाग जाऊँगी, हाँ।’’<br /> मां बेटी के ब्रह्मास्त्र से पराजित होकर चुप हो गयी और अंदर चली गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि भाग जाना गौण धमकी थी और बिहारी के साथ भाग जाना मुख्य धमकी। मां के अंदर जाने के बाद लड़की ने नायक की ओर एक क़ातिल मुस्कान फेंकी और वह भी अंदर चली गयी। नायक का सुबह-सुबह सिगरेट का ज़ायका बिगड़ गया। उसने सिगरेट फेंकी और लैट्रिन में चला गया।<br /> नायक इस घटना के बाद कई दिनों तक विरक्त सा रहा पर क्लास में जब उसका सबसे परिचय हुआ तो उसकी निगाहें नायिका पर अटक गयीं। उसने नायिका से बात करने की बहुतेरी कोशिशें की पर नहीं कर पाया। इसी बीच वह ’’खिसकिये’’ वाली घटना हो गयी।<br /> नायक अब अपने मित्र विमल से नायिका का दिल जीतने की तरक़ीब जानना चाह रहा है। उसका मानना है कि साहित्यकार होने के नाते विमल के पास नायिका का दिल जीतने का कोई तरीक़ा ज़रूर होगा। विमल की समस्या इधर दूसरी है। अधिकांशतः साहित्यिक पत्रिकाओं में लेखक के परिचय के साथ चित्र छापने का भी प्रावधान है। उसके अब तक जो फोटो छपे हैं, उसमें उसका पिचका बदरंग चेहरा और उड़े-उड़े खिचड़ी बाल पहले दिख रहे हैं (फोटो वैसी ही खिंच गयी है जैसा वह है)। उसकी इच्छा एक सुंदर फोटो खिंचवा कर अगली कहानी के साथ भेजने की है, जो कि असंभव है क्योंकि परिचय के साथ केवल और केवल लेखक की ही फोटो छापने का नियम है।<br /> समस्या की वजह यह है कि उसकी कहानी पढ़ कर तो उसे एक भी पाठक ने आज तक प्रशंसा पत्र नहीं लिखा और उसे महात्वाकांक्षा है पाठिकाओं के कोमल, नरम, पुचकारते पत्रों की। तो उसकी समस्या भी नायक से कम विकराल नहीं है पर वह नायक की सहायता के लिये सहर्ष तैयार हो जाता है क्योंकि नायक अभी-अभी कैंटीन से चाय और समोसे लेकर आया है। इस मामले में वह ज़रूर साहित्यकार है। जिसका खाता है, उसका गाता भले न हो, उसकी सहायता के लिसे ज़रूर तत्पर रहता है। <br /> चूंकि यह सत्य गाथा कहानी के रूप में प्रस्तुत की जा रही है न कि उपन्यास के रूप में, इसलिये हर जगह वार्तालाप के मुख्य और संपादित अंश ही दिये जा रहे हैं। प्रस्तुत हैं वार्तालाप के मुख्य अंश।<br />’’मुझे आजकल रातों को नींद नहीं आती।’’ नायक की गंभीर समस्या।<br />’’ घर से पैसे नहीं आये क्या ?’’ साहित्यकार का वाज़िब प्रश्न।<br />’’ नहीं, वह बात नहीं है। हर समय उसी का ख़याल आता रहता है।’’ नायक का रहस्योद्घाटन।<br /> विमल गंभीर होकर सोचने लगता है। गंभीर होकर सोचने के लिये गंभीर दिखना भी पड़ता है। इसे ध्यान में रखते हुये विमल एक सिगरेट भी सुलगा लेता है। एक हाथ में चाय और दूसरे हाथ में सिगरेट लेकर शून्य में देखने लगता है (बीच में उसने कुशलता से समोसे का भी संयोजन कर लिया है)। समोसा खाता है, चाय सुड़कता है, कश लगाता है और शून्य में घूरता हुआ कुछ सोचता है। सिगरेट आधी से ज्यादा ख़त्म हो गयी है पर विमल अभी तक कुछ बोला नहीं है। नायक व्यग्र कि अब इतनी सिगरेट तो उसे मिलनी ही चाहिये पर वह ख़तरा नही उठाना नहीं चाहता। क्या पता सिगरेट ख़त्म होने से ठीक पहले कोई आयडिया आ जाय। बहुत से साहित्यकार एक से एक क्रातिंकारी विचार, कहानियाँ और कवितायें शून्य में ही घूर कर पैदा करते हैं, नायक यह बात भली-भांति जानता है।<br /> आख़िर विमल अंतिम कश लेकर सिगरेट दूर फेंकता है। नायक सिगरेट की दिशा में गर्दन घुमाता है और सिगरेट को गिरकर सुलगते देखता रहता है। साले ने एक कश भी नहीं लगाने दिया। ख़ैर अब किसी क्रांतिकारी विचार के लिये विमल की ओर देखता है।<br />’’ मेरा ख़याल है कि अब हमें फ्रीलांसिंग के लिये कुछ अच्छे अख़बारों में बात करनी चाहिये।’’ विमल का क्रांतिकारी विचार।<br />नायक क्रोध से भन्ना उठा है। विश्वविद्यालय की शब्दावलि के अनुसार कहें तो उसकी सुलग गयी है। वह गालियों से नवाज़ते हुये विमल को चाय पीने से पहले का छिड़ा हुआ मुद्दा याद दिलाता है। विमल भूल जाने के लिये क्षमायाचना करता फिर से सोचने लगता है। वह गंभीर होकर सोचना चाहता है कि नायक झपट कर सिगरेट जला लेता है और ख़ुद पीने लगता है। अब दोनों अलग-अलग शून्यों की तरफ देख रहे हैं और समस्या पर विचार कर रहे हैं। विमल बीच-बीच में कनखियों से नायक के हाथ की तरफ देख ले रहा है कि सिगरेट आधी रह जाय तो वह मांग ले और गंभीर से गंभीरतर होकर सोच सके। वैसे उसे पता है ऐसी समस्याओं में गंभीरतर हो कर सोचने से काम नहीं बनता बल्कि गंभीरतम होकर सोचना पड़ता है। और सिगरेट के साथ भी कोई भला गंभीरतम होकर सोच सकता है। कभी नहीं।<br /> तो गंभीरतम होकर सोचने के लिये दोनों अपने मित्र शशि के कमरे पर पहुँचते हैं। शशि और विभव क्रमशः बिहार और उत्तर प्रदेश से हैं और हरिनगर में एक शानदार कमरा लेकर रहते हैं। इनके मकान मालिक दिल्ली के मकान मालिकों के विपरीत बहुत अच्छे और उदार दुर्लभ किस्म के जीव हैं। कमरे के साथ टेबल कुर्सी, पंखा ओर बिस्तरा उन्होंने फोकट में दे रखा है। कमरा बहुत अच्छा, सुविधायुक्त और हवादार है। वरना विभव और शशि पूरी दिल्ली में अच्छा कमरा खोजते-खोजते अवसाद से इतना भर गये थे कि ख़ाली कमरों के बाहर लगे टु लेट के बोर्ड पर टु और लेट के बीच आई लिख कर अपनी निराशा दूर करते थे।<br /> कमरे पर सभी एकमत से सहमत हैं कि नायक की समस्या का समाधान होना इस समय सबसे ज़रूरी है। तो आज की रात पीते हुये विचारणीय ज्वलंत मुद्दा न तो इराक़ पर अमेरिकी आक्रमण है न सेंसेक्स चढ़ने के पीछे की वजह बल्कि नायक की प्रेम पीड़ा सब पर भारी है।<br /> तो उस रात छक कर पीने के बाद नायक कृष्ण मुरारी के प्रेम पर व्यापक चर्चा हुयी और उसी रात यह रहस्योद्घाटन हुआ कि नायक का मित्र शशि भी क्लास की एक सुंदर छात्रा निधि पर जी जान से मर मिटा है। ध्यातव्य है कि यह वही निधि है जो न्यूज़ रायटिंग की कक्षा में एण्टी करप्शन ब्यूरो को गैर भ्रष्टाचारी विभाग लिखकर अध्यापक का विशेष आकर्षण और कक्षा में अपार ख्याति अर्जित कर चुकी है। वह खोजी पत्रकार बनना चाहती है क्योंकि उसके दादा खोजी पत्रकार थे और पिता भी। अपनी ख़ानदानी पत्रकारिता पर उसे गर्व है।<br /> यदि आप जानना चाहते हैं कि उस रात क्या-क्या बातें हुयी तो आपको निराशा होगी। मेरा मक़सद रोज़ की लंबी चौड़ी बातें सुनाकर आपको बोर करना नहीं है। उस रात पीने के बाद तीनों में गहरी छनी और महसूस किया कि पीने के बाद वे ज़्यादा विद्वतापूर्ण तरीके से समस्याओं का विश्लेषण कर पा रहे हैं फलतः वे हर दो-तीन दिन पर समस्याओं का विश्लेषण कर उनका समाधान निकालने लगे। न गंभीर समस्याओं की कमी थी न धन की। धन विमल और नायक के लिये समस्या हो सकती है शशि के लिये नहीं। शशि के पूज्य पिताजी लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता हैं और उसके घर से पैसे तकिये के खोल में भर के आते हैं। तो तीनों ने पीकर ’’प्रेम में सफलता कैसे पायें’’ नामक गोष्ठी को घंटों चलाया। तीनों, यानी नायक, शशि और विमल। यहाँ यह बताना भूल जाने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ कि विभव नहीं पीता। उसका कहना यह है कि जिस दिन वह इस लायक हो जायेगा कि रोज़ ब्लैक डॉग का ख़र्च वहन कर सके, उस दिन पीना शुरू करेगा। (न पीने वालों के तर्क पीने वालों के तर्कों से कमज़ोर थोड़े ही होते हैं।)। पीने के बाद उस रात क्या बातें हुयीं, यह जानने के लिये किसी भी एक रात की बातचीत देख लीजिये, चित्त शांत हो जायेगा। चूंकि बिल्कुल यही तस्वीर दूसरे सेमेस्टर तक खिंच आयी यानी नायक-नायिका की बातचीत औपरचारिक स्तर से आगे नहीं बढ़ पायी, इसलिये पेश है दूसरा सेमेस्टर ख़त्म होने के कुछ दिनों पहले की दारू पीने के बाद चली गोष्ठी के मुख्य एवम यथासंभव संपादित अंश।<br />पहला आधा घंटा<br />शशि: यार मुरारी, कब तक आंखों ही आंखों में बातें करते रहोगे? अब उसको बता दो।<br />नायक: यार, उसके सामने जाते ही जबान बंद हो जाती है।<br />विमल: अरे यार, डरना क्या, एक बार प्रपोज तो करो उसे। जो होगा, देखा जायेगा।<br />शशि: अच्छा, उसने हां कर दी तो......? <br />नायकः (मुस्कराहट ऐसी, जैसे हाँ कर दी हो) तो क्या......? प्यार को अंजाम तक पहुँचायेंगे। कोर्स खत्म होते ही किसी बढ़िया चैनल में नौकरी ज्वाइन कर लूंगा....फिर शादी।<br /><br />दूसरा आधा घंटा <br />नायक: आइ लव हर हिक्... वेरी मच यार।<br />विमलः तो बताओ उसे हिक्... यह काम तो तुम्हीं करोगे हिक्... कोई दूसरा थोड़ी....।<br />नायक: एवरी नाइट आइ सेंड हिक्.... एस एम एस टु हर... इन विच आइ राइट दैट आइ हिक्... लव यू बट... <br />शशि: बट क्या, भोसड़ी वाले... हिक्... (शशि अक्सर पीकर आपे से बाहर होने लगता है)।<br /> यहां विभव का हस्तक्षेप होता है। इन पीने वालों के बीच इस न पीने वाले का काम यही है कि वह बाउंड्री वॉल तोड़ने वालों को डांटकर सीमा में रखे। कोई गालियां देने या मार-झगड़े में न पड़े। पीने के बाद सब उससे डरते भी हैं। वह डांट कर कड़े शब्दों में चेतावनी देता है, ’’ शशि, संसदीय भाषा का प्रयोग मत करो। यह संसद नहीं है। अगल-बगल शरीफ लोग भी रहते हैं।’’<br />विमलः बट क्या यार हिक्.....थोड़ा नमकीन हिक्..... इधर करना।<br />नायकः बट फेल्ड.....माई मोबाइल शोज दैट मैसेज सेण्डिंग फेल्ड................। <br /><br />तीसरा आधा घंटा<br />शशिः यार निधि भी मुझे हिक्.... बहुत पसंद करती .......है हिक्।<br />नायकः एवरी नाइट हिक्..........आइ सेंड....हिक्.........टु हर......हिक्.......बट फेल्ड हिक्.....।<br />विमलः बी बोल्ड......हिक् बोथ ऑफ यू।...........एक-एक हिक् लाल....गुलाब हिक् लो.....और हिक् कह दो......आइ लव हिक् यू.......शशि मेरा थोड़ा लार्ज बनाना हिक्....।<br />शशिः केवल मैं ही नहीं.........हिक्.......उसे नहीं चाहता। वह भी मुझे हिक् चाहती है। आज उसने मुझसे.......पूछा हिक्.......कि आज तारीख क्या है........हिक्...?<br />नायकः एवरी नाइट हिक्.........आइ.....सेंड हिक्........बट फेल्ड....। <br />विमलः फिल्म दिखाने हिक्........ले जाओ........हिक्.......दोनों को और दिल की बात हिक् कह दो......। थोड़ा हिक्......नमकीन इधर करना....। <br />शशिः मुझसे ही तारीख हिक्........क्यों पूछी.......और लोग भी तो....हिक् थे वहां.....हिक् हिक्।<br />नायकः एवरी नाइट हिक्........आइ सेंड...हिक्....बट फेल्ड....।<br />विमलः प्रपोज हर........हिक्। मेरा हिक्........थोड़ा लार्ज बनाना......यार।<br />शशिः मुझसे हिक्.......ही क्यों हिक्.....? शी........हिक् लव्स मी....हिक् मी।<br />नायकः एवरी नाइट.........आइ हिक्.....बट फेल्ड......।<br /> ये बातचीत के मुख्य अंश आपके सामने हैं। क्या केवल बातचीत सुनकर आप यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि तीनों में से लेखक कौन है? ख़ैर उसका कहानी से कोई सरकार नहीं। आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि निधि ने आगे वाली पंक्ति से सिर घुमाकर पीछे की तीसरी पंक्ति में बैठी बबली से समय पूछा था जो ठीक शशि के पीछे बैठी थी और शशि प्रसन्नता से इतना फूल उठे थे कि छाती फटते-फटते बची थी। भरसक सौम्य मुस्कराहट (जो कि बहुत अश्लील लगी थी) चेहरे पर लाकर बोले थे- नौ अप्रैल। रही नायक के मोबाइल से नायिका के नंबर पर मैसेज न पहुंचने की समस्या, तो पता नहीं यह हरकत वह रोज़ क्यों करता है। शायद उसे यक़ीन है कि सच्चे प्यार में चमत्कार भी हो सकते हैं, वरना उसे अच्छी तरह पता है कि एम टी एन एल के लैंड लाइन फोन पर मैसेज पहुंचे, यह सुविधा अभी प्रकाश में नहीं आयी है, अस्तु।<br /> अब चलते हैं तीसरे सेमेस्टर में। नायक के घर से आजकल फोन बहुत ज़्यादा आ रहे हैं। नायक आजकल रोज़ अपने पिता से बात करता है। बात क्या करता है, दोनों सुपरहिट सार्वभौमिक फ़िल्म ’बाप और बेटा’ के सुपरहिट संवादों का अभ्यास करते हैं।<br />बाप- पढ़ाई कैसी चल रही है?<br />बेटाः जी, अच्छी चल रही है।<br />बापः पैसे हैं या ख़त्म हो गये हैं?<br />बेटाः ’जी अभी हैं’ या ’जी ख़त्म हो गये, भेज दीजीये’।<br />बापः ये कोर्स पूरा करने पर नौकरी तो मिल जायेगी न?<br />बेटाः हाँ, हाँ, दिल्ली विश्वविद्यालय का नाम ही काफी है। <br />बापः चैनल में या अख़बार में...........?<br />बेटाः उहूं, अख़बार में कौन जाना चाहता है अब?.......चैनल में।<br />बापः चलो, जल्दी किसी अच्छे चैनल में नौकरी लग जाये तो तुम्हारी शादी कर दी जाये।<br />बेटाः अभीऽऽऽऽऽऽऽऽऽ कहां शादी....?<br />बापः अरेऽऽऽऽऽ अब उमर सरक रही है बेटा.....।<br /> लगभग रोज़ उनके संवादाभ्यास यही पर समाप्त हो जा रहे हैं। नायक अपनी शादी के बारे में सोचकर चिंतित हो जा रहा है। जब चिंतित हो जा रहा है, तो रात का मित्रों के साथ शराब पीने लग रहा है। जब पी रहा है, तो नायिका के लैंड लाइन पर अपने मोबाइल से ’आइ लव यू’ के मैसेज भेजने लग रहा है.........बट फेल्ड।<br /> एक और अति महत्वपूर्ण घटनाक्रम के दौरान नायक के मित्र विभव का यह परदाफाश हुआ है कि वह शादीशुदा है और उसकी पत्नी गांव में रहती है। इस बार विभव जब गांव गया था तो पत्नी से समागम के दौरान उसे शीघ्र स्खलन की समस्या का सामना करना पड़ा। हर बार पत्नी के फॉर्म में आने से पहले विभव बाबू आउट हो चुके होते थे। इस समस्या से बचने के लिये उन्होंने बुज़ुर्गों के कहे अनुसार समागम करते हुये किसी और विषय पर ध्यान लगाने की पद्धति अपनायी और ’आज की पत्रकारिता’ पर गहन चिंतन करते हुये सेक्स करने लगे। मगर ऐसा करते ही समस्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ गयी।<br /> यहां आने के बाद उसकी समस्या ने बड़ा अजीबोग़रीब रूप ले लिया है। पत्रकारिता के विषय में चर्चा होते ही पत्नी की निर्वसन देह आंखों के सामने नाचने लगती है। आज की पत्रकारिता पर विचार करते ही निवर्सन देहों का झुंड कल्पना में कल्पनातीत ढंग से विचरण करने लगता है, जिसका ख़ामियाजा वह कई बार सपनों में भुगत चुका है।<br /> नायक की आयु के हिसाब से उसके प्रेम का ढंग निहायत ही बचकाना है। यह संकोचपूर्ण अभिव्यक्ति-अनाभिव्यक्ति उन किशोरों के पहले प्रेम के लिये (या भूमंडलीकरण के कठिन दौर को देखते हुये ज़्यादा से ज़्यादा दूसरे प्रेम के लिये) मान्य होती है, जिनकी मूछें उगने के प्रथम चरण में होती हैं। हालांकि अब प्रेम इन सब बातों से इतना ऊपर उठ चुका है कि अब प्रेम में पड़ने के लिये मूंछें उगने की अघोषित शर्त बेमानी हो चुकी है। मगर नायक के बचकाने प्रेम और उसकी मिली-जुली हरकतों वाला उसका समूह इसके बावजूद बुद्धिजीवियों का समूह कहा जाता है। अट्ठाइस-उन्तीस की उमर होने के बावजूद अगर वे पढ़ाई कर रहे हैं और इसके लिये बाक़ायदा घर से पैसे भी खींच रहे हैं तो यह उनकी बुद्धि का ही कमाल है, जिसके बल पर वे जी रहे हैं (बुद्धि$जीवी = बुद्धिजीवी)। मित्रों द्वारा बुद्धिजीवी संबोधन दिये जाने के गहरे कारण हैं। वैसे कक्षा के कुछ डेलहाइट जो जन्म से लेकर आज तक दिल्ली से बाहर नहीं गये, (गये भी तो सोनीपत या गुड़गांव) इस समूह को ’बिहारी समूह’ कहते हैं, जबकि विमल, विभव और आनंद क्रमशः बनारस, कानपुर और भोपाल से हैं। इन महात्माओं के लिये दिल्ली छोड़कर पूरा हिंदी भाषी क्षेत्र बिहार है।<br /> कारण से पहले संक्षिप्त इतिहास। नायक हो, नायक का मित्र विमल, विभव या शशि, सबने स्नातक होते ही ढेर सारे सपने पाल लिये थे। इन सपनों को वे अपना ख़ून पिलाकर पाल रहे थे और स्नातक होते ही वे आई आई एम से प्रबंधन का डिप्लोमा लेने के लिये चिंताजनक रूप से गंभीर हो गये थे। किसी को एक ही प्रयास में औकात पता चल गयी और किसी की आंखें खुलने में दो प्रयास लगे। बकौल नायक, उसकी रीज़निंग थोड़ी कमज़ोर थी और साली अंग्रेज़ी ने धोखा दे दिया वरना अहमदाबाद या बंगलौर नहीं तो इंदौर तो कहीं नहीं गया था। इसके बाद बकौल विभव, वह भौतिकतावादी महत्वकांक्षाओं से बाहर निकल आया। इस दौरान वह देश की नकारात्मक परिस्थितियों से दो-चार हुआ और ठीक इसी दौरान उसके मन में देश के लिये कुछ करने का जज़्बा जागा। इसी के थोड़ा आगे-पीछे सबने प्रशासनिक सेवाओं में जाने की तैयारी की और देश सेवा के इस रास्ते में प्रतिद्वंदिता और संघर्ष ज़्यादा पाने पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर देश सेवा करने की सोची। ईश्वर की लीला देखिये कि ये टकराये भी तो देश की राजधानी में जहां से देश की सेवा करना कितना आसान है। (आपस में बहुत कम समय में इनकी इतनी बनने लगी कि इतनी मिलती-जुलती कहानियाँ देखकर इन्हें आश्चर्य हुआ कि ये अकेली मेधा नहीं हैं जिनकी प्रतिभा को नहीं पहचाना गया)। लुब्बेलुआब ये कि प्रशासनिक सेवा के बारे में कुछ समय के लिये गंभीर होने के कारण इनका सामान्य ज्ञान कक्षा के अन्य बच्चों से काफी अच्छा है और वे इनकी बौद्धिक चर्चायें सुनकर दहशत में रहते हैं।<br /> विमल की कहानी पढ़कर एक पाठिका ने उसे प्रशंसा पत्र भेजा है। प्रशंसा पत्र क्या, छोटा-मोटा प्रेम पत्र है। कहानी के बारे में सिर्फ़ एक वाक्य लिखा हुआ है- आपकी कहानी अच्छी लगी। विमल के भीतर का लेखक उत्साहित होकर जानना चाहता है-कौन सी कहानी, किस पत्रिका में पढ़ी, कहानी में क्या अच्छा लगा, क्या बुरा, लेकिन आगे कुछ नहीं लिखा है। अलबत्ता शेर बहुत लिखे हैं- ’’लिखती हूं ख़ून से स्याही न समझना, मरती हूं तुम्हारी याद में ज़िंदा न समझना।’’ यह शेर ख़त्म होते ही लाइन खींचकर दूसरा शेर लिखा है-’’पत्र मेरा जा रहा है दिल के तार-तार से, पसंद अगर ना हो तो फाड़ देना प्यार से’’। फिर तीसरा-’’दोस्ती करते हैं ये लोग कसम खाते हैं, प्यार हमसे करते हैं गले किसी और को लगाते हैं।’’ विमल औचक ही भौंचक हो गया है। किससे दोस्ती, किसकी कसम, किसे गले लगाया, ये कौन पाठिका है यार, ऊपर से मात्रा की इतनी ग़लतियां..........। विमल का मूड हत्थे से उखड़ गया है। सारा कार्ड ’’चलती है गाड़ी तो उड़ती है धूल’ के शायर के शाहकारों से भरा हुआ है। ले-देकर यही एक प्रशंसक का पत्र आया है जिसकी चर्चा इसने न किसी से की है न करेगा।<br />तीसरे सेमेस्टर की यही कुछ घटनायें हैं। कुछ प्रक्रियायें भी हुयी हैं, जैसे नायक-नायिका की बातचीत अब कुछ हद तक अनौपचारिक स्तर पर आ चुकी है। शशि ने अपना प्रेम प्रस्ताव निधि के सामने रख दिया है जो अभी तक पारित नहीं हुआ है। आनंद ने कक्षा की ही एक छात्रा शीतल को फांस लिया है और दोनों हर शाम एक साथ शीतल पेय पीते आनंद करते देखे जा रहे हैं। विभव को किसी ने, उसके तर्कों से उबकर, ब्लैक डॉग पिलाने का कलेजा दिखा दिया था और अब उसका यह कहना है कि वह पीना तब शुरू करेगा जब रोज़ शैंपेन का ख़र्च वहन करने लायक हो जायेगा। झा जी आजकल इस ग्रुप के पास नहीं फटकते, जबकि भावी खोजी पत्रकारों का यह ग्रुप उनको खोजी कुत्तों की तरह सूंघता फिरता है। वैसे झा जी पत्रकारिता का क्षेत्र छोड़ने के विषय में कहते सुने गये हैं क्योंकि उनकी अतिशुद्ध हिंदी के कारण उन्हें हिंदी अख़बारों में नौकरी मिलने में बड़ी बाधा आ रही है।<br /> चौथा सेमेस्टर आ गया है। सभी एकाएक बड़े हो गये हैं। सबको अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास है। मस्ती करने के दिन अब चले गये। अब नौकरी ढूंढ़ना शुरू कर दो। अब सीरियस हो जाओ। कहीं इंटर्नशिप के लिये प्रयास करो। ऐसे जुमले ग्रुप में क्या पूरी कक्षा में तैरने लगे हैं। पत्रकारिता पाठ्यक्रमों का अलिखित नियम सभी जानते हैं कि पाठ्यक्रम समाप्त होने से पहले-पहले कहीं व्यवस्थित हो गये तो ठीक वरना पाठ्यक्रम समाप्त करके आप खाली बैठे हैं तो संभावनाएं धीरे-धीरे शून्य होती जाती हैं।<br />चौथे सेमेस्टर में ग्रुप एक चैनल द्वारा संवाददाता के पद के लिये आयोजित साक्षात्कार में शिरकत करके लौटा है। साक्षात्कार में नायक से पूछे गये प्रश्नों में से कुछ निम्नलिखित हैं-<br />प्रश्न- अच्छा, तो आपकी रुचि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में है? यह बताइये, अमरीका से जो रक्षा समझौता हो रहा है, उसमें क्या-क्या शामिल है ?<br />नायक ने ख़ुश होकर उत्तर दिया। विषय पर उसकी पूरी पकड़ है।<br />प्रश्न- अगर यह रक्षा समझौता हुआ तो बोलिविया से हमारे संबंधों पर क्या असर पड़ेगा?<br />नायक ने कुछ उत्तर दिया पर विषय पर उसकी पकड़ ढीली हो रही है।<br />प्रश्न- इथोपिया और इरिट्रया में खराब संबंधों की वजह क्या है?<br />नायक ने कुछ उत्तर तो ज़रूर दिया पर समझ लिया कि मामला पहुंच से बाहर जा रहा है।<br />प्रश्न- अच्छा, यदि इथोपिया में हमास जैसा संगठन होता और इरिट्रिया में एडवर्ड सइद होते तो स्थिति कैसी होती? पचास शब्दों में लिख कर बताइये।<br />मामला ख़त्म। नायक जानता है चैनलों में नौकरी के लिये ज्ञान से ज़्यादा ज़रूरत है अच्छी यानी मिश्रित अशुद्ध भाषा और स्वच्छ उच्चारण की। नायक का व्यक्तित्व तो अच्छा है, पर भाषा और उच्चारण उसे मार दे रहे हैं। भाषा का बिहारी टच उसका पीछा नहीं छोड़ रहा। साक्षात्कार देकर निकलते समय चैनल के एक प्रकांड पत्रकार से नायक की मुलाक़ात हो गयी। नायक ने जब उससे इथोपिया और इरिट्रिया के ख़राब संबंधों की वजह तस्दीक करनी चाही तो वह सिगरेट सुलगाते हुये दार्शनिक अंदाज़ में बोला, ’’ इथोपिया देश का नाम तो मैंने सुना है, पर यह इरिट्रिया कहां हैं बंधु?’’<br />लगे हाथ विमल के साक्षात्कार के भी कुछ अंश देख लेते हैं।<br />प्रश्नः अच्छा, तो आप कहानियां लिखते हैं....बहुत अच्छे। आप तो साहित्य के आदमी हैं, आपका पत्रकारिता में क्या काम?<br />कोई उत्तर नहीं।<br />प्रश्न (जो कि प्रश्न नहीं विचार है)- क्या आपको पता नहीं कि साहित्य में रुचि पत्रकारिता के लिये विष के समान है?<br />कोई उत्तर नहीं (हालांकि उत्तर था विमल के पास, पर आत्मविश्वास नहीं था)<br />प्रश्नः किन पत्रिकाओं में छपी हैं आपकी कहानियाँ?<br />उत्तर बहुत ही बुझे मन से दिया गया।<br />प्रश्नः कोई फ़ायदा नहीं होता पाण्डेजी, इनमें लिखने से। वहां आप बड़े लेखक भी बन जाएंगे तो भी यहां छोटा सा टीवी पत्रकार बनने के लिये आपको नाक रगड़नी पड़ेगी। अरे, कौन जानता है आपको लिखने की वजह से पाण्डेजी......?<br /> उत्तर तो कोई नहीं पर जातिसूचक शब्द वाकई अपमानजनक होते हैं (भले ही क्यों होते हैं इसका संतोषजनक उत्तर विमल ढूंढ़ नहीं पा रहा), यह विमल को बड़ी शिद्दत से महसूस हुआ है। जानने का ज़िक्र आते ही उसे उस पाठिका द्वारा भेजा गया कार्ड याद आ गया है और उसका रहा-सहा मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया है।<br />प्रश्नः अच्छा आप चिली में चुनावों की पूरी प्रक्रिया को समझाते हुये पिछले पांच राष्ट्रपतियों के नाम बताइये।<br />उत्तरः जी, मुझे ठीक से पता नहीं।<br />प्रतिक्रियाः तो, छीलो। (ऐसा साक्षात्कारकर्ता ने मुंह से नहीं भाव-भंगिमाओं से कहा)<br /> ऐसा नहीं कि वहां किसी की नौकरी लगी ही नहीं। निधि को एंकर की नौकरी उसी चैनल में लग गयी। दस दिन के भीतर ही उसका बुलावा आ गया। चूंकि वह बारोज़गार हो गयी है, उत्सुकतावश उससे पूछे गये दो-चार प्रश्न भी देख लेते हैं।<br />प्रश्नः जर्मनी के चांसलर कौन हैं?<br />उत्तरः सॉरी सर, आइ डोंट नो। (प्रश्नकर्ता की ओर ऐसी निगाहों से देखते जैसे वह उत्तर के लिये विकल्प देगा)<br />प्रश्नः अच्छा बताइए, अमरीका के राष्ट्रपति कौन हैं?<br />उत्तरः सर क्लिंटन। सॉरी-सॉरी जॉर्ज बुश।<br />प्रश्नः यू.पी.ए.का अध्यक्ष कौन है?<br />उत्तरः सोनिया गांधी, आइ थिंक।<br />प्रश्नः श्योर ?<br />उत्तरः सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह।<br />प्रश्नः सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह?<br />उत्तरः मनमोहन सिंह।<br />प्रश्नः आपको पूरा विश्वास है?<br />उत्तरः यस सर, आयम श्योर।<br />प्रश्नः हंड्रेड परसेंट श्योर?<br />उत्तरः यस्सर, हंड्रेड परसेंट श्योर।<br />प्रश्नकर्ताः वेरी गुड, आपका यह उत्तर तो सही नहीं है, पर आपका आत्मविश्वास क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। यदि संवाददाता का पद न मिले तो क्या आप एंकर की नौकरी करना चाहेंगी?<br />उत्तरः या सर, श्योर।<br /> तो निधि शर्मा, जिनकी लम्बाई पांच फीट सात इंच है, जो काफी ख़ूबसूरत हैं और जिनकी आवाज़ बहुत मधुर है, आजकल उस चैनल में एंकर हैं। ग्रुप में नौकरी की बात करें तो कुछ दिन बाद एक चमत्कार की तरह आनंद की भी कॉल आ गयी। इसके पीछे की राजनीति यह है कि आनंद किसी सत्तारूढ़ केंद्रीय मंत्री के नाम का पत्र लेकर साक्षात्कार में आया था। एक, अणे मार्ग और दस जनपथ के मधुर संबंधों का उसने पूरा लाभ उठाया और नायक व उसका पूरा ग्रुप उसकी सफलता से उत्साहित व प्रसन्न है। नायक अपनी कमज़ोरी जानता है। वह आनंद के लिये मित्र धर्म के कारण प्रसन्न है वरना अपनी असफलता उसे ख़ुश नहीं होने दे रही है। निधि का चयन भी उसे खिन्न कर गया है। जिस रात निधि का चयन हुआ, नायक दारू पीकर कहते सुना गया- एंकर.................हुंह, यही वो एंकर होती हैं जो संवाददाता द्वारा यह सूचना दिये जाने पर कि जगुआर दुर्घटनाग्रस्त हो गया है, सवाल पूछती हैं हमारे दर्शक जानना चाहते हैं उसमें कितने यात्री सवार थे?<br /> कुछ भी हो, नायक निराश नहीं है। हाल ही में उसे साक्षात्कार वाले दिन नायिका के पास बैठ अंतरंगता से बातें करते देखा गया है। पास जाने पर पता चला कि दोनों इंटरव्यू कला पर चर्चा कर रहे थे। नायिका का भी साक्षात्कार अच्छा नहीं रहा। ख़ैर, अभी तो मंज़िलें और भी हैं। राज़ की बात यह है कि नायक ईश्वर से अपनी नौकरी के लिये प्रार्थना नहीं करता, उसकी विनती है कि नायिका को जल्दी नौकरी मिल जाये, क्योंकि नायिका नौकरी के लिये बहुत परेशान है। अपने पर पता नहीं कैसे उसे विश्वास है कि जब भी वह नौकरी के लिये गंभीर हो जायेगा, नौकरी मिल जायेगी। बल्कि कुछ लोगों ने उसे यह तक कहते हुये सुना है कि अगर उसका किसी चैनल से बुलावा आया और एक ही स्थान हो तो वह ख़ुद नहीं जायेगा बल्कि नायिका को भेज देगा। (इसी पर बनारस में एक कहावत प्रचलित है-गांड़ी में गू नाहीं, नौ सियार के नेवता)<br />इसी बीच उसे पता चला कि निधि को नौकरी ऐसे ही नहीं मिल गयी, उसने बहुत तगड़ा जैक लगवाया था।<br />’’ये जैक क्या होता है बे?’’ नायक ने बस में खड़े-खड़े आनंद से पूछा था। <br />’’भक्साले, जैक नहीं जानते? अबे जुगाड़, सोर्स, पउआ, भौकाल............अबे पैरवी यार। जैसे मैंने करवायी थी।’’ आनंद ने समझाया।<br /> ’जैक’ के इतने सारे पर्यायवाची सुनकर नायक को यह शब्द भगवान कृष्ण के अनंत नामों की तरह सुहावना और चमत्कारिक लगा, पर इसके विषय में थोड़ा सोचते ही यह शब्द भगवान शंकर के अनंत नामों की तरह ख़तरनाक और प्रलयंकारी लगने लगा।<br />’’बिना जैक के किसी का कुछ उखड़ने वाला नहीं है बे।’’ आनंद ने कड़े शब्दों में फ़ैसला सुना दिया था और तभी सामने स्पीड ब्रेकर आ गया था और नायक का सिर बस की छत से जा टकराया था।<br /> चौथा सेमेस्टर समाप्ति की ओर अग्रसर है। सभी चैनलों और अख़बारों के दफ़्तरों में चक्कर काटते नज़र आने लगे हैं। नायक-नायिका थोड़ा और निकट आ गये हैं पर निकटता देखकर अंधा भी बता देगा कि इसमें प्रेम नहीं दोस्ती का ही तत्व है। नायिका हर बार नायक को अभिवादन करते हुये मुस्कराती है और नायक हर बार पीछे देखकर आश्वस्त हो लेता है। नायक का अमर और पवित्र प्रेम जो समय की आंच पाकर और पवित्र हो गया है, उसके चेहरे से दिखायी नहीं देता। जब नायिका आसपास बैठी होती है, चेहरे से वह उतना ही मूर्ख और निरीह दिखायी देता है, जितना पहले सेमेस्टर में, जब वह अपना प्रेम छिपाकर रखता था। अब उसका प्रेम छिपा नहीं है। पूरी क्लास को पता है। कारण हैं विमल और विभव। दोनों बड़े मुंहफट किस्म के इंसान हैं और खुलेआम नायक का नाम लेकर नायिका को छेड़ते रहते हैं। उनकी मंशा ये है कि नायिका के मन में नायक के लिये प्रेम अंकुर फूटें, पर म़ज़ाक ज़्यादा हो जाने पर नायिका गुस्से में कहती है, ’’ये क्या स्टूपिड सी हरकतें करते रहते हो तुम लोग? विमल तो राइटर है, पर विभव तुम भी...?’’ विमल समझ जाता है कि चूंकि वह राइटर है, लिचड़ई पर उसका तो हक है, पर विभव की छेड़खानी से ग़लत असर पड़ सकता है। आजकल वह अकेला ही नायिका के मन में नायक के प्रति प्यार जगाने की कोशिश कर रहा है।<br /> दो दिन बाद नायिका का जन्मदिन है। पिछली बार तो जन्मदिन बीतने के बाद नायक को पता चला था और उसी दिन यह तारीख उसके मानस पटल पर जम गयी थी जिसे ईमेल आई डी बनाते समय नायक ने पासवर्ड बनाया था। नायिका किताबों की बड़ी शौकीन है, इसलिये उपहार में किताब ही दी जाएगी पर कौन सी? विभव बहुत मेहनत से विमल की बातों से अंदाज़ा लगाकर बताता है कि नायिका को गोर्की की मदर देनी चाहिये। दरअसल नायिका को हिंदी के लेखकों के आत्मविश्वास के बारे में पता नहीं है। वह यह मानकर कि विमल लेखक है तो ज़रूर बहुत पढ़ता होगा, उससे दुनिया भर की किताबों के बारे में बताती रहती है। जिसे पढ़ने की ज़हमत वह कभी नहीं उठायेगा क्योंकि ऐसी तो वह जब चाहे तब लिख दे। तो इधर नायिका मदर पढ़ने की इच्छा जता रही थी। नायक दरियागंज से मदर खरीदता है, सुंदर सी पैकिंग कराता है और एक लाल गुलाब के साथ समय से पहले कॉलेज पहुंच जाता है। भले ही आज नायिका का जन्मदिन हो, वह आयेगी अपने नियत समय पर ही। तब तक नायक कैण्टीन के बाहर खड़ा होकर चाय पीते हुये समय काट सकता है।<br /> कैण्टीन के सामने वही रोज़ का मंज़र है। कुछ झुण्ड खड़े हैं और चाय नाश्ते के साथ अपने मित्रों से गपशप कर रहे हैं। जिस झुण्ड में लड़कियां ज़्यादा हैं उसमें से चिड़ियों के चहचहाने की अवाज़ें आ रही हैं। कुछ अध्यापक भी खड़े हैं। इनमें से कुछ को नायक पहचानता है। ये हिन्दी विभाग के अध्यापक हैं जो अपने छात्रों के सौजन्य से चाय पी रहे हैं और बदले में उन्हें ’राम की शक्तिपूजा’ में हनुमान के अतिमानवीय कार्यों की व्यंजना समझा रहे हैं। कुछ के चेहरों से टपकती बेचारगी देखकर लगता है कि यदि छात्र कुछ नाश्ता भी करा दें तो ये ’अंधेरे में’ के काव्यगत वातावारण को मूर्त बनाने वाले अंधेरे की पूरी पोल खोल कर रख दें ( पर समस्या यह है कि ये शोधछात्र न होकर साधारण छात्र हैं इसलिये गुरू वंदना मौखिक ज़्यादा है)। इसी समय नायिका का गुलाबी रंग के कपड़ों (जिसके बारे में मिथक है कि यह लड़कियों का पसंदीदा रंग होता है और जिसे देखकर नायक ने उसी दिन जनपथ से तीन गुलाबी टी शर्टें खरीदीं) में आगमन होता है और नायक का ध्यान अध्यापकों से हट कर इधर आकर्षित होता है।<br /> जन्मदिन की ढेरों बधाइयाँ। सब ने नायिका को मुबारकबाद दी है। जन्मदिन मुबारक हो वेदिका। थैंक्यू मुरारी। अब नायक कृष्ण मुरारी नायिका वेदिका को गोर्की कृत ’मदर’ उपहार में देने ला रहा है। कैसा अर्थवान उपहार है यह? कैसा महान प्रेम है यह? इस प्रेम में एक महाकाव्य पनप सकता है बशर्ते यह प्रेम सफ़ल हो जाय.....आमीन। नायक के आगे बढ़ते ही शॉट फ़्रीज़ हो गया है। सबकी निगाहें नायक पर हैं। नायक जैसे चांद पर क़दम उठा रहा है। उसका भार छठवां हिस्सा ही बच रहा है।<br /> यह तुम्हारे लिये वेदिका। नहीं, नहीं मैं नहीं ले सकती। नायक थोड़ा निराश हो गया है। साहित्यकार मित्र दिमाग लगाता है। रख लो वदिका, तुम्हारी फ़ेवरिट किताब है। नहीं विमल प्लीज़ सॉरी। नायिका तैयार नहीं है, उसे डर है उपहार रख लेने पर उसकी तरफ़ से प्रेम की स्वीकृति मान ली जाएगी। अरे रख लो, हम सबने मिलकर ख़रीदा है, विभव का मास्टरमाइंड। मिलकर ख़रीदा है वाला हथियार काम कर गया है। ओके थैंक्यू। नायक फूल देता है, लाल गुलाब। थैंक्यू मुरारी। नायिका फूल लेकर सूंघती है। नायक अति प्रसन्न है। फूल सूंघना मतलब नायक की विजय। वह ख़ुशी ज़ाहिर करना चाह रहा है पर नायिका के सामने नहीं, कहीं दूर जाकर। वह विमल को लेकर लाइब्रेरी के सामने वाले झंखाड़ की तरफ़ जाता है जहां ’कॉलेज के सौ मीटर के दायरे में तम्बाकूजनित पदार्थ न बिकने का आदेश’ पारित होने के बाद से सिगरेट भी मिलने लगी है। दोनों झंखाड़ में घुसकर सिगरेट ख़रीदते हैं और सुलगाकर देर तक बातें करते रहते हैं। इस समय नौकरी-फौकरी जैसी वाहियात बात किसी के दिमाग़ में दूर-दूर तक नहीं है।<br /> नायक कॉलेज से निकलता है तो ऐसा लगता है उसे थोड़ा-थोड़ा नशा हो आया हो। नायिका ने जाते वक़्त नायक को दुबारा थैंक्यू कहा है और उसे एक चाबी का रिंग उपहार में दिया है। अब वह इस चाबी रिंग का क्या करेगा? पूछिये मत, वह इस समय उसके लिये दुनिया की सबसे क़ीमती वस्तु है। हो सकता है वह एक कार ख़रीदे और उसकी चाबी इस रिंग में लगा दे या फिर एक बंगला ख़रीद ले और उसकी चाबी इस रिंग में फंसा दे। कुछ भी.....कुछ भी.....कुछ भी।<br /> रास्ते से गुज़रते हुये वह 392 नम्बर की बस देखकर रुक जाता है (इसी नम्बर की बस से नायिका रोज़ अपने घर नोएडा जाती है)। सभी मित्र उसे रुका देख रुक जाते हैं। वह बस को इस क़दर प्यार से देखता है गोया इससे कुचल कर जान दे देगा। यही सवाल पूछने पर वह अंग्रेज़ी में जवाब देता है कि इस बस से कुचल कर वह सीधा स्वर्ग पहुंचेगा। अंग्रेज़ी में..........? पर अंग्रेज़ी तो नायक दारू पीने के बाद बोलता है, नशे में। ये दूसरा नशा है पाठकों। ये इतनी जल्दी नहीं उतरने वाला जितनी जल्दी दारू वाला उतरता है। ये प्रेम का नशा है।<br /> यहां से प्रेम कहानी में एक दुखद मोड़ आता है जो हर सफल प्रेम कहानी के लिये आवश्यक है। मुझे आशा है मेरी प्रेम कहानी भी एक दुखद मोड़ से गुज़रकर सुखद परिणति को प्राप्त कर एक सुपरहिट कहानी बनेगी। मैं दावे से कह सकता हूं कि आप इस कहानी को पढ़ने के बाद मेरे लेखन के कायल हो जायेंगे और मैं प्रेम कहानी विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हो जाऊँगा।<br /> नायक ने उसी रात नायिका को फोन किया। शाबाश नायक। सभी मित्रों की ओर से उसे फ़िल्म देखने के लिये आमंत्रित किया पर नायिका ने उसे दूसरी ही ख़ुशख़बरी सुना दी। उसने एक चैनल में साक्षात्कार दिया था, वहां से उसका बुलावा आया है, साथ ही कल शाम उसे शादी के लिये लोग देखने आ रहे हैं। नायक दहल गया। अभी तो प्रेम धीरे-धीरे परवान चढ़ना शुरू हुआ था, अभी इतना बड़ा झटका........? क्या नायिका ने उसे संकेत किया है कि.......? क्या नायिका भी उससे........? क्या........? क्या........?<br /> सभी ने मिलकर चर्चा की। काफी देर चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला कि नायक जल्दी से जल्दी किसी समाचार चैनल में नौकरी पकड़े और अपने पिता को घिसे-पिटे संवादों से इतर नये संवाद दे। नायक को आनन-फानन में नौकरी पाना बहुत ज़रूरी है ताकि आगे की कार्रवाई की जा सके। नायक एक आनोखे जोश से भर गया है।<br /> सभी मित्रों ने एक-एक करके सभी समाचार चैनलों के दफ़तर जाना शुरू कर दिया है। हर जगह आवेदन पत्र मुख्य द्वार पर ही जमा कर लिये जाते हैं। जमा कौन करता है, जानना चाहते हैं तो दिल थाम के बैठिये। इन भावी पत्रकारों के आवेदन मुख्य द्वार पर तैनात गेटकीपर लेता है। वे कुछ निराश हुये। एक चैनल ऑफिस के गेटकीपर ने तो ये दया भी नहीं दिखायी।<br />’आप लोग एप्लीकेशन कूरियर से भेजिये, बाइ हैण्ड नहीं लिया जायेगा।’’ उसने खैनी मलते हुये फ़रमान सुनाया।<br />’अच्छा, यहां हो सकता है हमारा ?’’ नायक ने पूछा था। हैरानी होती है सोचकर कि नायक कुछ समय पहले तक इतना अपरिपक्व था कि ऐसे प्रश्न पूछता था।<br />’जैक-वैक होगा तो हो ही जायेगा।’’ गेटकीपर मुस्करा कर बताता है।<br /> जैक, जैक, जैक.......हर जगह जैक। नायक आवेदन करता रहा और हर जगह से बुलावे का इंतज़ार करता रहा। कहीं से कोई बुलावा नहीं आया जैसे किसी अंधे कुएं में पत्थर फेंका गया हो। सभी इंतज़ार में थे कि बुलावा आयेगा पर नायक के पास वक़्त नहीं। ठीक है, उसकी कुछ कमज़ोरियां हैं, उसका कोई जैक भी नहीं, पर चैनल में ही जाना कोई ज़रूरी तो नहीं। वह प्रिण्ट की पत्रकारिता करेगा जो कि असली पत्रकारिता होती है (ऐसा उसके उन सीनियरों ने बताया है जो हर चैनल से दुत्कारे जाने के बाद प्रिण्ट में काम कर रहे हैं।)<br /> नायक ने पहले राष्ट्रीय स्तर के अख़बरों की खाक छानी फिर राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं की। सवाल वही था, यदि कोई जैक हो, किसी मंत्री-वंत्री से सोर्स लगाओ तो बात बने। नायक हैरान था। मीडिया में तो उसने सुना था अभी बहुत मौके हैं। रोज़ नये चैनल खुल रहे हैं, अख़बार छप रहे हैं, पत्रिकाएं निकल रही हैं, फिर ये हर जगह जैक...........? बिहार से आये नायक और यूपी, एमपी से आये मित्रों के लिये इस बूमिंग इंडस्ट्री की हालत बहुत धक्का पहुंचाने वाली और स्वप्नतोड़ू थी।<br /> नायक छोटे-छोटे क्षेत्रीय अखबारों के ऑफिस पुहंचने लगा। वह सच्चाई की ताक़त, दैनिक सच्चाई, झूठ को जला दो, सांध्य बारूद, दैनिक तोप जैसे अखबारों में भी गया जो प्रथम बार में धर्मेंद्र की हिंसात्मक फ़िल्मों के टाइटिल लगते थे। इन अख़बारों में उससे कहा गया कि वह दो महीना बिना पैसे लिये काम करे, दो महीने उसकी योग्यता को परखने के बाद कोई फ़ैसला लिया जायेगा। सांध्य सच्चाई और सनसनीखेज खुलासा जैसे चार पन्ने के अख़बारों में, जिनका दफ़्तर एक कमरे का था, उससे कोई सनसनीखेज खुलासा करके लाने को कहा गया। उसके सामने सबसे सनसनीखेज खुलासा यह हुआ कि हर हफ़्ते चार विज्ञापनों की व्यवस्था करने से इन अखबारों में नौकरी मिल जाती है। जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, ये अख़बार पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मिशन मानकर काम कर रहे थे और इनके एक कमरे के छोटे दफ़्तरों में भी कई गणेश शंकर विद्यार्थी और बाबू पराड़कर खैनी मलते या बीड़ी सुलगाते प्रायः दिख जाते थे।<br /> वह ग़लती से कुछ ऐसे अख़बारों के ऑफ़िस भी चला गया जो किसी व्यक्ति ने अपने पड़ोसी से बदला लेने के लिये निकालना शुरू किया था। पड़ोसी के पास शायद कोई तोप रही होगी जिसके मुकाबले में यह अख़बार निकला होगा। इन अख़बारों में ऊपर ऐश्वर्य राय या रानी मुखर्जी सरीखी सुंदरियों की कम कपड़ों में मोहक तस्वीरें होतीं और नीचे बलात्कार की ख़बर एक डरावने शीर्षक के साथ होती। चित्र व शीर्षक का ख़बर से ऐसा सुंदर सामंजस्य बैठाया जाता कि एकबारगी तो रानी या ऐश्वर्य के बलात्कार होने का भ्रम हो जाता। अगले पृष्ठों पर अपने शत्रु पर ऐसी भाषा में कीचड़ उछाला गया होता जिसमें प्रूफ़ की बहुत गलतियां होतीं। यहां काम करने के लिये उपरोक्त शर्तों के साथ एक मौलिक शर्त यह भी थी कि हर रोज़ एक बलात्कार की ख़बर लेकर आओ। कोई ख़बर न हो तो ख़ुद बलात्कार करो और ख़बर बनाओ लेकिन अख़बार का नियम नहीं टूटना चाहिये। नायक धीरे-धीरे हताश होने लगा था। उसकी नाक के नीचे दुनिया में इतना अंधेर हो रहा है और वह कुछ नहीं कर सकता। उसे वौ नौकरियां याद आयीं जो उसने मात्र इसलिये ठुकरा दी थीं कि उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ पत्रकार ही बनना था।<br /> ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं। नायक को बिल्कुल ऐसा ही लगा जब एक समाचार चैनल ने उसे इंटर्नशिप पर रख लिया। व्यवसायिक मण्डी ने शोषण का नया पर्यायवाची शब्द ढूंढ़ निकाला है, इंटर्नशिप। यह इंटर्नशिप भी उसे एक जैक लगाने पर मिली है। इंटर्नशिप के लिये बड़े नहीं छोटे जैकों की ज़रूरत होती है (कथा लिखे जाने तक सत्य तथ्य) जैसे प्रोडक्शन असिस्टेंट या संवददाता। नायक के दूर के एक भाई ने, जो काफी समय से इस चैनल में संवाददाता है, उसका जैक लगाया है। नायक अपने इस दूर के भाई का जो नायक के स्कूल के दिनों में अक्सर उससे ’गिलहरी नमक खाती है’ का संस्कृत अनुवाद पूछा करता था, इंटर्नशिप दिलवाने के तहेदिल से शुक्रगुज़ार है। नायक प्रसन्न था कि दो महीने की इंटर्नशिप के दौरान वह इतनी मेहनत करेगा कि चैनल वाले उसे निकाल ही नहीं सकेंगे बल्कि प्रभावित होकर नौकरी दे देंगे। वहां वह ऐसे कई लोगों से मिला जिनकी मेहनत देखकर चैनल उन्हें निकाल नहीं सका था और इंटर्नशिप दो महीने और बढ़ा दी गयी थी। कुछ अति मेहनती लोगों से चैनल दो-दो महीने पर तीन-चार बार प्रभावित हो चुका था। ख़ैर.........नायक ने पूरी हिम्मत से काम शुरू किया। हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-ख़ुदा।<br /> क्या आपको भी लग रहा है कि प्रेम कहानी रास्ते से भटक गयी है, शुष्क और नीरस हो गयी है? क्षमा करें, सब कुछ इतनी जल्दी हो गया है कि मैं स्वयं हतप्रभ हूँ। ऐसे प्रश्न कहानी में आने ही नहीं चाहियें वरना मैंने देखा है कि एक समय ऐसा आता है जब पात्र इतने बेचैन हो जाते हैं कि कहानीकार की कलम की नोक से फिसल जाते हैं अपना प्रारब्ध ख़ुद लिखने लगते हैं। मैं निसंदेह आपका अपराधी हूं कि आपको विश्वास में लेकर इस प्रेम कथा का हिस्सा बनाया और इस समय मैं ही पूरी तरह नहीं अंदाज़ा लगा सकता कि आगे क्या होगा। पात्र मेरी पहुंच से बाहर हो गये हैं। वे क्या सोच रहे हैं, उनकी मनःस्थिति में कैसे बदलाव हो रहे हैं, शर्मिंदा हूं कि ये सब मैं नहीं पकड़ पा रहा हूं। फिर भी पात्र हैं तो मेरे सामने ही। आपको आश्वस्त करता हूं कि उनकी गतिविधियों को मिलाकर आपके समक्ष इस प्रेम कथा को पूरा तो करुंगा ही।<br /> नायक आजकल बहुत परेशान है। इस चैनल में उससे कम से कम बारह घंटे काम लिया जाता है। सुबह नौ बजे पहुंचने के बाद वह रात नौ के बाद ही खाली हो पाता है। एक महीने पूरे होने को हैं और वह अपने दोस्तों के साथ एक बार भी फ़ुर्सत से नहीं बैठ पाया है (फ़ुर्सत से यानी मयबोतल) हालांकि बीच में मुलाकातें हुयी हैं। बातें भी हुयी हैं। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रेम से संबंधित कम बातें हुयी हैं। जिन तथ्यों के के इर्द-गिर्द बातें हुयी हैं उनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं -<br />1. मीडिया (ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) में लड़कियां (ख़ासकर सुंदर लड़कियां) प्रतिभावान छात्रों के पेट पर रोज़ लात मार रहीं हैं।<br />2. मीडिया पूरे समाज पर नज़र रखता है। मीडिया की धांधलियों पर नज़र रखने के लिये कोई तगड़ा संगठन होना चाहिये।<br />3. चूंकि सत्ता का केंद्र दिल्ली है, यहां मीडिया में जगह पाना सबसे कठिन है।<br />4. यदि पत्रकारों पर स्टिंग ऑपरेशन किया जाये तो अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को भूमिगत होना पड़ेगा।<br />5. मीडिया में चमचागिरी और भाई-भतीजावाद सबसे ज़्यादा है।<br />6. मीडिया से आश्चर्यजनक रूप से उंचे पदों पर ज़्यादातर तथाकथित सवर्ण हैं जो भयंकर रूप से जातिवाद फैला रहे हैं।<br />7. पत्रकार बनने का मतलब सुंदर चेहरा और साफ़ आवाज़ बनकर ही क्यों रह गया है? हम पत्रकार बनना चाहते हैं, एंकर नहीं।<br />8. नायक ने नायिका को प्रपोज़ कर दिया है शालीन तरीके से, नायिका ने मना कर दिया है शालीन तरीके से, अब दोनों में बड़ी अच्छी दोस्ती पल्लवित हो रही है, शालीन तरीके से।<br />अंतिम तथ्य के बारे में जानकर नायक के मित्रों को भी आश्चर्य हुआ। नायक ने हिम्मत कर दी, इस पर तो उन्हें एक बार विश्वास भी हो जाय, पर इसके बाद भी दोनों की दोस्ती परवान चढ़ रही है, इस पर विश्वास करना थोड़ा कठिन है। पर कहते हैं न कि प्रत्यक्षं किं प्रमाणं। उन्होंने देखा, सुना, महसूस किया और ईश्वर की लीला मानकर इसे स्वीकर कर लिया। हालांकि इसके बावजूद उसके सच्चे दोस्तों ने उसे विश्वास दिलाया कि इंकार ही इक़रार की पहली सीढ़ी है और अच्छी दोस्ती से ही प्यार की शुरूआत होती है। इसलिये नायक हिम्मत न हारे और अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद को प्राप्त कर के ही रहे।<br />इस बीच कई घटनायें हो चुकी हैं। कक्षा की तीन और लड़कियां नौकरी पा चुकी हैं। नायक के लिये एक अच्छी ख़बर यह है कि उसके क़रीबी मित्र शशि की मेधा और चाचा का जैक काम आया है उसे एक अच्छे चैनल में नौकरी मिल गयी है। यह शशि का आदर्श ’सबसे तेज़’ तो नही है पर इसके स्लोगन पर विश्वास करें तो यह भी कम तेज़ नहीं है और इसे सच दिखाने का जूनून है। मगर नायक यह सुन कर दुखी हुआ है कि शशि ने नौकरी पाते ही अपने उन उसूलों से समझौता कर लिया है जिनके कारण नायक उसकी बहुत इज़्जत करता था। आनंद को अपराध जैसी प्रमुख बीट दे दी गयी है और नायक पुनः यह जानकर दुखी हुआ है कि आनंद जिस हिम्मत से व्यवस्था की ख़ामियां दूर करने की बात करता था, उसकी जगह व्यवस्था की चाटुकारिता करने लगा है।<br />नायक को रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी कई घटनाओं का सामना करना पड़ा है जिसने उसे हिला कर रख दिया है। उस दिन एक नृशंस बलात्कार की रिपोर्टिंग करने के बाद नायक सीधा विभव के कमरे पर चला आया। वह बहुत परेशान था। विभव और विमल पहले से ही मौजूद थे। शशि कुछ देर में आने वाला था और आनंद को फोन करके बुला लिया गया। मैकडॉवल का एक खंबा और एक अद्धा लाया गया। सभी पीने बैठे। नायक बहुत देर से ख़ामोश था। ख़ामोश तो विमल भी था पर नायक से कम। हर बार की तरह विभव को भी न्यौता दिया गया और उसने शैम्पेन वाला तर्क देकर मना कर दिया।<br />रात गहराने लगी है। आनंद ने फ़्रेंच कट दाढ़ी की नींव डाली है और रह-रह कर दाढ़ी पर हाथ फेर ले रहा है। सभी तीन-तीन पैग ले चुके हैं पर कोई कुछ बोल नहीं रहा हैं। घूम फिर कर बात गिलास में कम या ज़्यादा पानी डालने को लेकर हो रही है। विभव भयभीत है। उसे चिंता है कि कहीं यह तूफ़ान के पहले वाली शांति तो नहीं। वह बात शुरू करने के लिये सबकी ओर देख कर कहता है, ’’एक बात पता है तुम लोगों को? विमल की एक अख़बार में नौकरी लग गयी है।’’<br />सभी आश्चर्य से विभव की ओर देखते हैं फिर विमल की ओर। विमल सकपका गया है। उसे उम्मीद नहीं थी कि विभव यह राज़ अचानक बता देगा जिसे वह सबसे छिपा रहा था। पर आख़िर ख़ुशी की बात वह सबसे छिपा ही क्यों रहा है?<br />’’ किस अख़बार में?’’ शशि पूछता है।<br />विमल चुप।<br />’’ किस अख़बार में बे?’’<br />विमल चुप जैसे बताने और न बताने में से निर्णय ले रहा हो।<br />’’ कौन सा अख़बार पकड़ा है लेखक महोदय?’’ नायक का कटाक्ष।<br />’’.............पांचजन्य।’’ विमल के जवाब से सन्नाटा छा गया है। सभी उसे ध्यान से देख रहे हैं कि यह वही विमल है या दूसरा।<br />’’ सारी आइडियोलॉजी हिक्.............गांड़ में घुस गयी साले।’’ और ये शशि हुआ आपे से बाहर।<br />’’ ऐ..........संसदीय भाषा नहीं। संसद में नहीं मेरे कमरे में बैठे हो।’’ विभव की फटकार।<br />’’ क्या करता.......? छोटे बड़े, हर चैनल, हर अख़बार में गया। सब जगह मादरचोद एक ही समस्या.......। जैक लगाओ, जैक लगाओ...हिक् अरे नहीं है मेरा हिक् जैक..........तो क्या करूं ? कहीं न कही हिक् तो...समझौता करना ही पड़ेगा हिक्.....। मेरे पिताजी अब पैसे नहीं भेज सकते हिक्........। उनकी पेंशन घर के लिये ही हिक्.......कम पड़ रही है। मैं घर का हिक्.....बड़ा बेटा हूं..........आइडियोलॉजी का क्या हिक् अचार....डालूंगा। ये कम से कम हिक् ढाई हज़ार तो हिक्.......दे रहे हैं। तीन महीने मेरा काम देखेंगे.........हिक्....पसंद आया तो स्थायी नियुक्ति कर पांच हज़ार कर देंगे....हिक् हिक्।’’ विमल ने बोलना बंद कर दिया है। ऐसा लगता है थोड़ी देर और बोला तो रो पड़ेगा।<br />सभी ख़ामोश हो गये हैं। ऐसा लगता है वे काफी बातें बिना कहे ही समझ गये है। नायक की आंखों की कोरों की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता। वे थोड़ी गीली हैं। दो पैग और ख़त्म हो चुके हैं। सन्नाटा क़ायम है।<br />’’ अच्छा मुर्रू.......ये बताओ.....मेरी दोनों तरफ की मूछों में क्या अंतर है ?’’ आनंद का परम चुतियापे वाला बेतुका सवाल सन्नाटे में देर तक तैरता रहता है। नायक कभी उस सवाल को देखता है, कभी आनंद को, बोलता कुछ नहीं।<br />’’ अरे यार हिक्..............यही अंतर है कि दाँयी वाली दाढ़ी में मिल गयी है और बांयी वाली नहीं मिली......हिक्।’’ आनंद ख़ुद अपने बेतुके सवाल का जवाब देता है और अंगूठे व तर्जनी से दोनों तरफ की मूंछों को खींच कर नीचे दाढ़ी की तरफ ले जाता है।<br />’’ तुमने लाठी चार्ज वाली घटना में हिक्...पीड़ित पक्ष को ही दोषी दिखा दिया..ऐसा क्यों आनंद ?’’ नायक का प्रश्न।<br />आनंद अवाक् है। वह इन्हीं मुद्दों से बचना चाह रहा था।<br />’’ क्या करूं यार......न्यूज़ एडीटर का यही ऑर्डर था।’’ आनंद के स्वर में हताशा है।<br />’’ तुम्हारी नौकरी दो साल के कांट्रैक्ट पर है ना? तुम्हें कोई हिक् निकाल...... थोड़े ही सकता है। सच्चाई को क्यों दबाया तुमने? हमने तय किया था कि मीडिया में आयेंगे तो इसकी गंदगियां साफ करेंगे और हिक्......तुम साले ख़ुद.....गंदगी का हिक् हिस्सा बन गये। साले, झूठे......यही करने आये थे हम इस लाइन में............?’’<br />आनंद चुप है। शशि हस्तक्षेप करता है।<br />’’ जाने दो यार मुर्रू। टीवी पत्रकारिता में हिक्...यह सब चलता है हिक्....। हम अकेले क्या कर हिक् ......सकते हैं?’’<br />’’ क्या जाने दो.......क्या जाने दो........क्या चलता है हिक् ? तुम साले दिखाते हो कि हिक्......पुलिस एक्सीडेंट के तुरंत बाद पहुंची थी जबकि.....हिक्.....पुलिस पैसे लेकर बाद में पहुची थी। भोसड़ी के....बिकने लगे हो तुम लोग हिक्........बिकने लगे हो। यार विभव.......मैं नहीं कर सकता हिक्........ऐसी गंदी पत्रकारिता........।’’<br /> विभव उसके पास आता है। उसे लगता है नायक ने बहुत ज़्यादा पी ली है। वह पत्रकारिता के संदर्भ में एक वाक्य कहता है जो उस दिन के बाद से दक्षिण परिसर के इतिहास में एक कोटेशन की तरह से प्रयोग किया जाता है।<br />’’ जाने दो मुरारी। आज की पत्रकारिता को शीघ्रपतन की बीमारी हो गयी है।’’ विभव ने अपनी समस्या अब तक किसी को नही बतायी। पर इसका पत्रकारिता के पतन से क्या ताल्लुक....?<br />’’ क्या हुआ यार, तुम रो क्यों रहे हो ?’’ विभव नायक की गीली आंखें देख लेता है।<br />’’ मैं तंग आ गया हूं विभव.......। कभी कत्ल.......कभी बलात्कार....मगर हिक् कहीं सही रिपोर्टिंग नहीं। हर जगह वही टीआरपी की लिचड़ई.....। मैं जान गया हूं यार.........मैं भोसड़ी का पत्रकार बनने के हिक्..... लायक ही नही हूं। मैं हिक् बहुत कमज़ोर इंसान हूं यार। आज हम एक बलात्कार हिक् की....रिपोर्टिंग करने गये थे.......। लड़की और उसके घरवाले कैमरे के सामने नहीं आना चाहते थे और हिक्...हम लोगों ने उससे ऐसे-ऐसे हिक् सवाल पूछे कि वह हिक् हिक्.......। यार हम लोगों ने उसका हिक् दुबारा बलात्कार......हिक् कर दिया और हिक् उसे प्रसारित भी हिक् किया। बड़े बलात्कारी तो...हिक् हम हैं यार। मैं बहुत कमज़ोर हूं यार......हिक्। मुझसे नहीं हिक् होगी......ऐसी पत्रकारिता।’’<br />’’ जाने दो मुरारी, दुनिया में बहुत गंदगी है। तुम यह क्षेत्र ही छोड़ देना। पर इसमें रोने वाली क्या बात है ?’’<br />’’ रो कौन रहा है साले.....चूतिया हो क्या ? मुझे तो बस गुस्सा आ रहा है।’’ नायक सामान्य दिखने की कोशिश में बहुत असामान्य दिखने लगा है। वह बहुत देर तक कुछ न कुछ बकता रहता है। विभव चूंकि नहीं पीता, सबसे बाद में टुन्न होने वाले से सिर चटवाना उसकी मजबूरी है। नायक सबसे बाद में सोया, विभव उसके बाद।<br />अगली सुबह जब नायक सोकर उठा तो आनंद व शशि ऑफ़िस जा चुके थे। विभव चाय बना रहा था और विमल अख़बार पढ़ रहा था। उसका मूड अप्रत्याशित रूप से ताज़ा और अच्छा था।<br />’’क्यों मुर्रू, नौकरी नहीं करोगे चैनल वाली........?’’ विभव ने चाय छानते हुये हंसी उछाली। हंसी में एक सवाल लिपटा था।<br />’’वाकई नहीं , कल रात मैं सीरियस था। ये टीआरपी वाली गंदगी मुझसे नहीं झेली जायेगी। प्रिण्ट में कोई अच्छा अख़बार मिला तो........मगर पांचजन्य नहीं।’’ नायक ने सवाल पकड़ लिया और हंसी वापस विमल की तरफ उछाल दी। विमल भी हंसा।<br />’’अगर अख़बार न मिला तो.......?’’ विभव ने चाय थमाते हुये पूछा।<br />’’तो क्या, टीचिंग लाइन में मेरे बहुत से दोस्त हैं। मास्टर डिग्री किस दिन काम आयेगी ? कहीं किसी प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा लूंगा पर विचारधारा से समझौता..........कभी नहीं।’’ अंतिम लाइन बोलते हुये नायक फिर विमल की ओर देखकर हंसा है।<br />’’कोई नयी कहानी लिखी है इधर लेखक महोदय ?’’ नायक पूछता है।<br />’’अब मैंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया है।’’ विमल का इतना कहना है कि नायक ज़ोरों से हंसने लगा है- ’’अबे शुरू कब की थीं जो बंद कर दीं ? साले चार कहानियां क्या छप गयीं, चले हैं लेखक की झांट बनने।’’<br />दोनों हंसते हैं। विभव बाथरूम में घुस गया है। दोनों तैयार होकर अपने-अपने ठिकानों के लिये निकल जाते हैं। विभव भी किसी जैक के जुगाड़ में निकल लेता है। कहानी ख़त्म।<br />मुझे कहानी को जारी रखने में वाकई कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि यह प्रेम कहानी जिस ख़ूबसूरती से मैं ख़त्म करना चाहता था, वह अब संभव नहीं। कहानी मेरे हाथों से फिसल चुकी है। सभी पात्र मेरी बनायी लीक को तोड़ कर जाने कहां-कहां भटकने लगे हैं। पर चूंकि आपके मन में नायक की नौकरी और प्रेम के विषय में थोड़ी बहुत जिज्ञासा ज़रूर है, इसलिये मैं थोड़े बहुत तथ्य बता कर आपकी जिज्ञासा तो शांत कर ही दूं हालांकि कहानी के सफल होने के अवसर तो अब डूब ही गये हैं।<br />देखिये प्रेम प्रसंग का तो ऐसा है कि लड़के वाले नायिका को पसंद कर चुके हैं। नायक को जब यह बात पता चली तो वह हल्के से मुस्कराया। आप विक्रम की तरह इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ते रहिये कि नायक क्यों मुस्कराया। क्या उसे किसी पीपल बरगद के नीचे बैठकर जीवन के सत्य का पता चल गया है? क्या जीवन के थपेड़ों ने उसकी समझ को अचानक बहुत प्रौढ़ कर दिया है? क्या यह प्रेम नहीं आकर्षण मात्र था? क्या...........? क्या............?<br />रही बात नौकरी की तो आजकल मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में किसी को काम तो आसानी से मिलता नहीं, ऐसे में कोई भला मिला मिलाया काम छोड़ता है? पर नायक चूंकि नायक है, वह छोड़ सकता है। सचमुच हिंदी फ़िल्में देखकर आपकी आदतें बहुत बिगड़ गयी हैं और अपेक्षाएं बहुत अवास्तविक हो गयी हैं। नायक टीआरपी की लड़ाई में मानवता भूल चुके इन चैनलों में काम करने में घुटन महसूस करता है, पर वह ये क्षेत्र ही छोड़ देगा, इसमें मुझे संदेह है। और क्या यह सही होगा कि अव्यवस्था और अराजकता की वजह से इंसान पलायन की राह पकड़ ले ? क्या इसकी जगह ये ठीक नहीं होगा कि नायक वहीं बना रहे, कुछ स्वयं को बदले और कुद व्यवस्था को बदलने का प्रयास करे। अपनी भावुकता को थोड़ा कम करे और सच्चाई के लिये लड़े। मैं वाकई कहानी को यहीं ख़त्म कर देना चाहता था क्योंकि इतना लम्बा लेक्चर देने के बावजूद मुझे यह अंदाज़ा नहीं कि नायक आगे क्या करेगा। पर कहानी सिर्फ़ आपके लिये आगे बढ़ा रहा हूं कि आपको ये प्रेम कहानी थोड़ी तो पसंद आये वरना मेरी पूरी मेहनत बेकार जायेगी।<br />कहानी चूंकि आपके लिये आगे बढ़ा रहा हूं, यह आपको थोड़ी पसंद आये, यह दबाव भी मुझ पर है, इसलिये यह स्वाभाविक है कि कहानी का यह अंश ऊपर से थोपा हुआ लगे, पर इसे असली अंश मानना ज़रूरी भी नहीं। यह मैं नहीं लिख रहा हूं, आप वही देख रहे हैं जो देखना चाहते हैं, वरना कोई लेखक अपने नायक को परिस्थितियों से हारता हुआ दिखा कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा ?<br />कुछ महीनों बाद नायक अचानक कनॉट प्लेस पर विमल से मिल रहा है। बीच की काफी सारी औपचारिक बातें आपसे इजाज़त लेकर काट देता हूं।<br />विमल- तो क्या चैनल छोड़ दिया? तुम्हारी नौकरी तो दो महीने बाद स्थायी हो गयी थी न?<br />नायक (मुस्कराते हुये)- हां, हो गयी थी, पर छोड़ दी।<br />विमल- यार तुम्हारे हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। अब क्या कर रहे हो? ( इसी बीच विमल ने शीतल पेय की दो बोतलें ख़रीद ली हैं)<br />नायक- एक डिग्री कॉलेज में अस्थाई तौर पर पढ़ा रहा हूं। तुम्हीं कहते थे न कि मेरा नाम अध्यापक बनने के लिये सर्वोत्तम है। ( नायक ने अपनी बोतल नायिका के दिये हुये चाबीरिंग से खोली है जिसके पीछे ओपनर लगा है और रिंग विमल की ओर बढ़ा दिया है)<br />विमल (उसी रिंग से बोतल खोलते हुये)- बहुत अच्छे यार। कितने पैसे मिल जाते हैं?<br />नायक - लगभग नौ हज़ार।<br />विमल ( उसकी आंखें इतनी फैल गयी हैं कि पुतलियां बाहर चू जाने का ख़तरा हो गया है) नौऽऽऽऽऽऽऽऽऽ हज़ार????<br />नायक (मुस्कराते हुये)- पूरा कैश नहीं। साढ़े चार हज़ार तनख़्वाह है और लगभग उतने की ही इज़्ज़त। दिन भर लड़के-लड़कियां सर-सर कहके प्रणाम करते रहते हैं। तुम क्या कर रहे हो? पांचजन्य में ही हो? कहानियां फिर से लिखनी शुरू कर दो। एक से एक घूरहू कतवारू हाथ पांव मार रहे हैं। तुम भी हाथ पांव मारते रहा करो।<br />विमल (अब मुस्कराने की बारी उसकी है)- पांचजन्य छोड़ दिया गुरू। एक साप्ताहिक लोकल अख़बार पकड़ा है और दो ट्यूशन्स। कहानी तो लिख ही रहा हूं। उसके बिना जी ही नहीं सकता। बल्कि तुम्हें जानकर ख़ुशी होगी कि आजकल जो कहानी लिख रहा हूं वह अपने मतलब हमारे जीवन के ऊपर है।<br />नायक- सच ? छप जाय तो पढ़वाना।<br />विमल- हाँ, हाँ बिल्कुल। अच्छा वेदिका की शादी तय हो रही थी। क्या हुआ ? <br />नायक - हां, दो महीने बाद है। कार्ड पहुंचाने का ज़िम्मा मेरा ही होगा। उसने पहले ही कह दिया है। हम अच्छे दोस्त हैं आख़िर.......।<br />विमल (हंसते हुये)- यानी साले, तुम्हारा प्रेम असफल और अधूरा ही रह गया?<br />नायक (उससे भी तेज़ हंसते हुये)- अरे तुम्हीं तो कहा करते हो कि असफल प्रेम ही जीवित रहता है। लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, हीर-रांझा की तरह शायद मुरारी-वेदिका का नाम भी.........।<br />दोनों हंसते हैं। उसके बाद दोनों अपने-अपने रास्ते निकल गये होंगे।<br />अब शायद आपको अच्छा लगा होगा। ओह.......अब भी नहीं। मैं पहले ही समझ गया था कि पूरी कहानी पढ़ने के बाद आप यही कहेंगे- छछेः, ये भी कोई प्रेम कहानी है?नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-83289973156787307762009-05-25T12:10:00.001+05:302009-05-25T12:11:20.721+05:30खाल- मनोज कुमार पाण्डेय की दूसरी कहानीकहानी-प्रेमियो,<br /><br />इस सप्ताह हम पढ़वा रहे हैं मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी <strong>'खाल'</strong>। इस मंच पर हम मनोज कुमार पाण्डेय की और कहानी <a href="http://kahani.hindyugm.com/2009/04/behaya-besharam-manoj-kumar-pandey.html">'बेहया'</a> पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि ये दोनों कहानियाँ ज्ञानपीठ द्वारा इसी वर्ष प्रकाशित नये लेखकों की पहली पुस्तक शृंखला के 'शहतूत' कहानी-संग्रह से ली गई हैं।<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">खाल</span></strong></center><br /><br />रोज की तरह ही पिछली रात को भी सुबह चार बजे सोया था और रोज की तरह ही करीब ग्यारह बजे सोकर उठा था। अभी नाश्ता ही कर रहा था कि मनोहर दा का फोन आ गया। <br /> प्रथम, क्या कर रहे हो आज?<br /> क्यों?<br /> शाम को खाली हो क्या? यही कोई तीन बजे से।<br /> हां, पर बात तो बताइये, मैने कहा। <br /> कुछ खास नहीं। शाम को मैं लोकनाथ जा रहा हूं। अगली प्रदर्शनी के लिए कुछ पेंटिंग्स तैयार करनी हैं। सोचा कि तुम्हें भी साथ लेता चलूं और तुमने भी तो कहा था कि...... <br />बस....बस दादा, मैं आ रहा हूं। बताइये कहां हाजिर हो जाऊं? <br />गैलरी आ जाओ, यहीं से निकल चलेंगे।<br />ठीक है दादा।<br />दरअसल पेंटिंग्स में मेरी रूचि अभी नई नई ही पैदा हुई थी। और मनोहर दा में भी। मैं देखना चाहता था कि एक चित्रकार अपनी पेंटिंग्स के लिए दृश्य भला कैसे चुनता है और उसकी पेंटिंग्स तक पहुंचते-पहुंचते वे दृश्य भला किस तरह कुछ सार्वभौमिक दृश्यों में रूपांतरित हो जाते हैं। फिलहाल तो यह सब जानने समझने के लिए मेरे निकट मनोहर दा से बेहतर कोई दूसरा नाम नहीं था। मनोहर दा अपनी पेंटिंग्स में परस्पर विरोधी रंगों से मूर्त और अमूर्त का ऐसा द्वन्द्व उकेरते कि उनकी कूची चूम लेने का मन करता। <br />कुछ इस तरह कि रंगों के कुछ छींटे चेहरे पर भी आ जायें। <br />आप सोच रहे होंगे कि भला मैं कौन? और रंगों में अचानक इतनी दिलचस्पी क्यों लेने लगा..... तो जनाब आपका ये खादिम रंगकर्मी है और रंगों से खेलना मेरे पेशे का एक जरूरी हिस्सा है। जी हां, पेशे का। रंगकर्म मेरे लिए एक पेशा है। तो मैं देखना चाहता था कि क्या मैं मंच पर कुछ गतिशील रंगारंग पेंटिंग्स तैयार कर सकता हूं। मान लीजिये कि मंच एक फ्रेम है तो इस फ्रेम के भीतर लगातार बदलते हुये जादुई दृश्यों की एक शृंखला।... पर अभी तो मैं आपसे कुछ दूसरी ही बात करने जा रहा था। दरअसल मेरी दिक्कत यह है कि मैं अक्सर बहक जाता हूं। मेरा मानना है कि सोचने का तो कोई टैक्स लगता नहीं तो सोचने में क्या जाता है। मैं अपनी कल्पनाओं को अनंत तक फैलने देता हूँ, हालांकि इसी वजह से कई बार चीजों को समेटने में दिक्कत आन पड़ती है और दृश्य बिखर कर रह जाते हैं। पर अभी तो मैं आपसे मनोहर दा की बात करने जा रहा हूं। <br />कौन मनोहर दा! आप नहीं जानते उन्हें? अरे, अखबार नहीं देखते क्या आप? अभी कल ही तो मुख्यमंत्री से कलाभूषण पुरस्कार लेते हुए उनकी तस्वीर सारे अखबारों में छपी थी और मेरा दावा है कि आप उन्हें एक बार देख भर लें, फिर कभी नहीं भूल पायेंगे। लंबा-चैड़ा कद, आकर्षक गोरा रंग, उन्नत ललाट, करीने से बिखेरे गये बड़े बड़े बाल और खिचड़ी दाढ़ी। जींस और कुर्ता उनका बारहमासी पहनावा है फिर भी, इसलिये कि वे नित-नवीनता के पुजारी हैं सो कल को आप उन्हें धोती-कुर्ते में भी देख सकते हैं। गले में एक साफ-शफ्फाक अंगोछा और आवाज.....आवाज का तो क्या कहना! गहरे कुएं से छनकर आती धीर गंभीर, पर टनकदार आवाज। इस टनकदार आवाज में आप उन्हें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बोलते-बहसियाते एक बार सुन लें बस, आप उन पर फिदा हो जोयेंगे। <br /> मनोहर दा के चाहने वाले दुनिया भर में फैले हुए हैं। न जाने कहां-कहां से चिट्ठियां आती रहती हैं। इन चिट्ठियों को उन्होंने अपनी आर्ट गैलरी में एक कलात्मक तमीज के साथ लगा रखा है। न जाने कितने पुरस्कार, तमगे, स्मृतिचिन्ह, अनेक सरकारी कमेटियों के सदस्य, कई संस्थाओं के अध्यक्ष और कितनों के संरक्षक। आजकल मैं मनोहर दा को जम कर मस्का लगा रहा था और तुरंत ही मुझे इसका इनाम भी मिला था। मेरे जैसा जुम्मा-जुम्मा आठ दिन का निर्देशक अभी दिल्ली में संपन्न हुये ‘अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना नाट्य समारोह’ में अपनी धूम मचा आया था। <br /> तो मैं तीन बजे मनाहेर दा की आर्ट गैलरी पहुंच गया। मनोहर दा मेरा इंतजार कर रहे थे और बैठे-बैठे इंतजार के स्केचेज बना रहे थे। <br /> अभी चलते हैं, मनोहर दा ने कहा। तब तक तुम चाहो तो एक सिगरेट पी सकते हो। <br /> हाँ, हाँ क्यों नहीं। मैं सिगरेट पीता रहा और मनोहर दा अपने काम में लगे रहे। सिगरेट अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि मनोहर दा अचानक उठे और बोले, चलो, चलते हैं। <br /> मैं चैंक गया। मनोहर दा की मेज पर सब कुछ बिखरा पड़ा था। रंग, पेन्सिल, कागज, रबर, स्केचेज, वगैरह-वगैरह। <br /> हंसे मनोहर दा, तो क्या हुआ? मेरी अनुपस्थिति में कोई मेरी चीजों को छूने की हिम्मत नहीं कर सकता। <br /> तय हुआ कि हम एक ही बाइक से चलते हैं। मैंने अपनी स्कूटर वहीं खड़ी रहने दी और हम लोकनाथ के लिए निकल पड़े। रास्ते में मनोहर दा ने कहा, प्रथम पहले बिरंचीलाल के यहां बिरयानी खाते हैं फिर चलते हैं। हम बिरयानी खाकर बाहर निकले ही थे कि मैंने पाया मनोहर दा अस्त-व्यस्त से कुछ खोज रहे हैं, कभी इस जेब में तो कभी उस जेब में। क्या हुआ दादा, मैंने पूछा। <br /> यार मेरा मोबाइल नहीं मिल रहा है। कहते हुए मनोहर दा फिर बिरयानी वाले के यहां घुस गये। बाहर निकले तो मैंने पाया, कि उनके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं थीं और उनकी आवाज कांप रही थी। दादा थोड़ा ध्यान से देखिये। कहने को तो मैं कह गया। पर अब तक मनोहर दा जो जेबें कहीं नहीं थी उनकी भी कई-कई बार तलाशी ले चुके थे।<br /> क्या पता आर्ट गैलरी में ही छूट गया हो, मैंने कहा और अपना मोबाइल निकाल लिया। मैं रिंग करके देखता हूं। कॉल लगने के पहले ही खत्म हो जा रही थी। मतलब कि मोबाइल का स्विच ऑफ था या मोबाइल नेटवर्क में ही नहीं था। <br /> अब क्या होगा.......मनोहर दा ने निराश कांपती हुई आवाज में कहा। पच्चीस हजार का सेट और अभी पांच महीने भी नहीं हुये। मैंने तो फोन डायरी रखना भी कब का बंद कर दिया है। <br /> हो सकता है खुद आपने ही मोबाइल ऑफ कर रखा हो। <br /> मैंने उम्मीद की एक किरण फेंकी और मनोहर दा ने लपक ली। <br /> हां मैं स्केचेज बना रहा था। हो सकता है मैंने इस वजह से ऑफ कर रखा हो। जरूर मैंने ऐसा ही किया होगा। <br /> हम थोड़ी देर बाद फिर से मनोहर दा की आर्ट गैलरी में थे। पल भर में मनोहर दा की मेज पर बिखरे हुये सामान और बिखर गये थे और मनोहर दा यहां-वहां ऊपर नीचे झांक रहे थे। मैं भी ऐसा ही कुछ करते हुए उनका साथ दे रहा था पर थोड़ी ही देर में हम जान गये थे कि हमारी कोशिश शायद कोई अर्थ नहीं रखती थी। मोबाइल सचमुच कहीं गिर चुका था।<br /> चलो थाने चलते हैं, मनोहर दा ने कहा। <br /> इस बीच मैं लगातार मनोहर दा के गुम मोबाइल पर रिंग कर रहा था। वैसे तो तय था कि अब वह ऑफ ही रहने वाला था पर उम्मीद का दामन कहीं इतनी जल्दी छोड़ा जाता है। तो हम थाने पहुंचे। <br />हां बोलो जी, एक सिपाही ने कान पर चढ़ा जनेऊ उतारते हुये शुष्क स्वर में पूछा। <br /><br />दीवानजी मेरा मोबाइल चोरी हो गया है, मनोहर दा ने कहा।<br /> तो मैं क्या करूं?<br /> हम एफ.आई.आर. के लिए आये हैं। <br /> इससे क्या होगा....ऐं....आप अपनी चीज संभाल कर रख नहीं सकते और इधर-उधर हो गई तो आ गये डंडा करने। कोई जादू का डंडा है क्या पुलिस के पास जो अपराधी के पिछवाड़े में जाकर ही रूके। <br /> अरे साहब आप हमारी बात भी सुनेंगे, मनोहर दा ने आजिजी से कहा। <br /> हां बाबू साहेब क्यों नहीं? आपकी बात सुनने के अलावा और हमारे पास काम ही क्या है? आं?....चले आते हैं न लेना न देना। अरे मुंशीजी जरा देखिये तो बाबू साहेब क्या कह रहे हैं। बुद्धिजीवी लगते हैं जरा कायदे से देखिएगा। <br /> सिपाही ने सामने के कमरे की तरफ इशारा किया। <br /> हम मुंशीजी के कमरे में पहुंचे। मुंशीजी ने हमें बैठने के लिए भी नहीं कहा। वह नीचे देखता हुआ कुछ लिखता रहा या लिखने का अभिनय करता रहा। मुंशी के पीछे लहराते हुए पीत-परिधान में आक्रामक मुद्रा में धनुष ताने राम का चित्र लगा हुआ था। पृष्ठभूमि में एक प्रस्तावित मंदिर का मॉडल था जिस पर भगवा ध्वज लहरा रहा था। बगल का कमरा खुला था। दरवाजे के पास ही एक पच्चीस-छब्बीस साल का लड़का बैठा हुआ था। वह डरा हुआ था और उसकी आंखें फटकर बाहर निकली पड़ रही थीं। वह उन्हीं फटी-फटी आंखों से इधर-उधर देख रहा था। हम कुछ कहते इसके पहले ही लड़के की रिरियाती हुई आवाज आई। <br /> दरोगाजी अब तो छोड़ दीजिये। अब तो उतर भी गई है न। <br /> चोप्प हरामजादा, भेजा चाट के रख दिया है। उधर दूर बैठ।.....हां आप लोग कैसे? पूछते हुए उसकी आंखों में एक चमक उभरी जो तुरंत ही गायब हो गई। <br /> हां बताइये। <br /> भाई साहब, मेरा पच्चीस हजार का मोबाइल चोरी हो गया है। मनोहर दा ने विनम्र स्वर में कहा। <br /> इतना महंगा सेट आप रखते ही क्यों हैं? बाई द वे कहां गिरा होगा मोबाइल? <br /> हम सिविल लाइन से लोकनाथ जा रहे थे। रास्ते में एक पान की दुकान पर रूककर पान खाया। जरूर वहीं पर किसी ने..<br />आप दोनों तब भी साथ में थे? <br /> हां। <br /> मोबाइल कहां रखा था?<br /> बगल कुर्ते की जेब में।<br /> जेब दिखाइये। <br /> मनोहर दा ने तिरछे होकर जेब मुंशी के सामने की।<br /> कटी तो नहीं है?<br /> अब मैं इसके बारे में क्या कहूं?<br /> तो कौन कहेगा? कहीं गिर गया होगा। गुम हुई चीज को चोरी हुई क्यों बता रहे हैं? मोबाइल का भी बीमा-वीमा होने लगा क्या? <br /> मैं हमेशा से अपना मोबाइल कुर्ते की जेब में ही रखता आया हूं आज तक तो नहीं गिरा। किसी ने हाथ डालकर ही निकाला होगा। <br /> और आपको पता नहीं चला?<br /> नहीं। पता चला होता तो......<br /> इस बीच मैं एकटक मनोहर दा को देख रहा था। मनोहर दा ने सरासर झूठ बोला था। हम रास्ते में पान खाने कहीं नहीं रूके थे। मनोहर दा नीचे की जेब में मोबाइल कभी नहीं रखते थे। मनोहर दा तो मोबाइल जनेऊ की तरह पहने रहते थे। हां कभी कभार मन किया तो उठाकर ऊपर कुर्ते की जेब में रख लिया। एकदम दिल की धड़कनों के पास। मैं तो कई बार उनसे कह भी चुका था कि दादा यहां मोबाइल रखना दिल के लिए खतरनाक होता है। मनोहर दा ने हर बार हंसकर एक ही जवाब दिया था, ‘दिल भला है किस कम्बख्त के पास !’ खैर, यहां से निकलकर मनोहर दा से उनके झूठ के बारे में जरूर पुछूंगा, मैंने सोचा। <br /> सिविल लाइन क्या करने गये थे? मुंशी ने पूछा<br /> वहां मेरी आर्ट गैलरी है।<br />आर्ट गैलरी? यह क्या होती है? <br /> मनोहर दा ने असहायता से मेरी तरफ देखा। मुझे खुद भी ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी। पर मुंशी तो आखिरकार मुंशी ही होता है चाहे वह किसी की दुकान पर हो या थाने में। <br /> मेरी पेंटिंग्स और मूर्तियों, मेरा मतलब कि लकड़ी की मूर्तियों की दुकान है। मनोहर दा ने रूक-रूककर जैसे समझाते हुये कहा। <br /> लकड़ी की भी मूर्तियां होती हैं? कौन खरीदता होगा उन्हें, जल चढ़ाते-चढ़ाते सड़ नहीं जाती होंगी? ये मुंशी था। <br />मुझे हंसी आ गई पर मैंने किसी तरह अपनी हंसी रोकी। मनोहर दा के चेहरे पर एक झुंझलाहट दिखाई पड़ी जो जल्दी ही गुम हो गई और उसकी जगह नम्रता के भाव आ गये। <br /> भाई साहब, लकड़ी के शिल्प और मूर्तियां लोग अपनी कलात्मक अभिरूचियों या घर सजाने के लिए ले जाते हैं, उन पर जल नहीं चढ़ाते।<br /> भगवान की मूर्तियां घर सजाने के लिए। भई वाह-वाह! अब आया असल कलियुग। मुंशी अजीब सा मुंह बनाकर हंसा। <br /> अरे भाई साहब वो भगवान-वगवान की मूर्तियां नहीं होतीं। वो तो कलाकृतियां...... फिर मनोहर दा शायद यह सोचकर चुप लगा गये कि मुंशी को समझाना उनके बूते की बात नहीं थी।<br /> देखिये, आप पढ़े-लिखे आदमी मालूम दे रहे हो। बुद्धिजीवी होने का ये मतलब नहीं है कि आदमी भगवान का सम्मान करना भी भूल जाय। <br /> जी ! मनोहर दा ने कसमसाते हुये कहा। <br />ठीक है, मुंशी ने कहा। पारसनाथ को जानते हैं? <br /> कौन पारसनाथ? अब ये पारसनाथ कहां से आ गया। मनोहर दा ने कुछ-कुछ झल्लाहट के भाव से मेरी ओर देखा पर अब मुझे इस प्रसंग में मजा आने लगा था। जितना मैं मनोहर दा को जानता था, मैं चकित था कि मनोहर दा अब तक फट क्यों नहीं पड़े थे। उनके संपर्क ऊपर तक थे। मुंशी चाहकर भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था। पर यहां तो ज्यादा से ज्यादा उनकी झल्लाहट भर दिखायी दे रही थी, वह भी दिखने से पहले गायब हो जा रही थी और तुरंत उनके चेहरे से नम्रता टपकने लग रही थी तो सीन कुछ इस तरह बनता है........ मनोहर दा के चेहरे की झल्लाहट, उनकी दाढ़ी से टपकती नम्रता......बगल के कमरे का लड़का.... उसकी फटी आँखें.... तिलक लगाये, पान चबाये, टांग फैलाये मुंषी...... मुंशी के पीछे राम का पोस्टर....... जल चढ़ाने से सड़ती हुई लकड़ी की मूर्तियां और अब पारसनाथ। वाह! पूरा-पूरा एक एब्सट्रैक्ट नाटक। तो चलिये देखते हैं कि ये पारसनाथजी कौन हैं? <br /> पारसनाथ को जानते हैं, मुंशी ने पूछा। <br />कौन पारसनाथ? अरे हां कहीं आप उस पारसनाथ की बात तो नहीं कर रहे हैं जो मेरी आर्ट गैलरी में काम करता था? <br /> वही पारसनाथ। मेरे ही गांव का था। मैं उससे मिलने एक-दो बार...... आपकी दुकान....। <br /> ओ-हो-हो.....तो आप पारसनाथ के गांव के हैं! बहुत भला और ईमानदार आदमी था पारसनाथ। कहां है आजकल? <br /> हां-हां मैं जानता हूं। मुंशी ने कसैलेपन से कहा। आप ऐसा कीजिये कि एक कागज पर पूरी घटना का विवरण लिखकर दे दीजिये। <br /> मनोहर दा ने अपने झोले से कागज निकाला और उस पर लिखने लगे। मुंशी अप्रिय नजरों से हमें देख रहा था। मनोहर दा झूठ पर झूठ बोल रहे थे। उनका ये रूप मेरे लिए अप्रत्याशित रूप से चैंकाने वाला था। अब याद आ रहा है <br />मनोहर दा ने एक बार खुद ही बताया था कि उस ‘भले’ और ‘ईमानदार’ पारसनाथ को उन्होंने चोरी के आरोप में निकाला था। शायद मुंशी भी इस बात को जानता हो। शायद क्या, पक्का वह जानता रहा होगा तभी वह हमसे इस तरह से पेश आ रहा था। <br /> मनोहर दा पूरा विवरण लिख पाते, इसके पहले एक अदृश्य गंध पूरे वातावरण में फैल गई। <br /> किसने किया होगा यह, मैंने सोचा फिर यह सोचा कि नाक दबा लूं पर तुरंत ही ख्याल आया कि कहीं मुंशी ने ना किया हो कि मैं नाक दबाऊं और मुंशी इसे अपना अपमान समझ ले। मैंने देखा कि मनोहर दा पर किसी चीज का कोई असर नहीं था। वह लिखने में डूबे हुए थे। रहा मुंशी तो वह कभी मनोहर दा की तरफ देख रहा था तो कभी लड़के की तरफ। पर अंत में मुंशी की नजरें लड़के पर जाकर टिक गईं। <br /> मैंने नहीं पादा साहब, लडका रोनी आवाज में बोला। <br /> उधर चल बदजात। पूरा थाना गंधवा रहा है। <br /> मैंने कुछ नहीं किया साहब, लड़का फिर रिरियाया। और अब तो उतर भी गई है। आप लोग मुझे छोड़ क्यों नहीं देते। <br /> मुंशी उठा और उसने लड़के को कसकर एक लात मारी। लड़का दर्द के मारे दोहरा हो गया। <br /> चुप बैठ मादर......। साला तेरे बाप का घर है क्या? जब मर्जी आया जब मर्जी चलता बना।<br /> लड़का और सिकुड़कर बैठ गया और न सुनाई देने वाली आवाज में कराहने लगा। उसकी फटी हुईं आंखें थोड़ी और फट गईं थीं। <br /> मनोहर दा ने पूरा विवरण लिखकर मुंषी को दे दिया। मुंशी ने पढ़ा और हम दोनों से एक दो जगहों पर दस्तखत करवाया। इसके बाद हमने मुंशी से हाथ जोड़े, ‘अच्छा साहब’ कहा और बाहर आ गये। मुंशी की नजरें अभी तक हमारी पीठों पर चुभ रही थीं। जरूर उसने अब हमें जमकर गालियां दी होगीं।<br /> अब? मनोहर दा ने पूछा। <br /> अब? मैंने सवालिया सांस ली। <br />अब एक्सचेंज चलते हैं और सिम ब्लाक करवा देते हैं। अचानक मुझे कुछ याद आ गया। <br /> मनोहर दा एक बात पूछूं मैंने कहा। <br /> बोलो। <br /> आप अभी झूठ पर झूठ क्यों बोले चले जा रहे थे?<br /> मैं झूठ बोल रहा था? मैंने क्या झूठ बोला?<br /> यही कि आपका मोबाइल पान की दुकान पर चोरी हुआ। <br /> एकदम बकलोल हो क्या? मनोहर दो ने त्यौरियां चढ़ाई। क्या बताते उससे कि हम बिरयानी खाने गये थे। उस साले मुंशी का तिलक नहीं देखा तुमने?<br /> तो आप उसकी तिलक से डर गये थे? मैंने मजाक किया। <br /> शटअप। <br /> हो जाऊंगा शटअप पर अभी मेरी बात कहां पूरी हुई। आपने पारसनाथ के मामले में शई झूठ बोला। खुद आपने ही बताया था कि उसने अपनी जाति छुपाई थी पर जाति-फांति आप मानते नहीं सो समझाकर छोड़ दिया था पर वह तो चोर भी निकला था। खुद आपने ही उसके थैले से काली की एक खास मूर्ति पकड़ी थी। इसीलिये आपने उसे निकाला शी था। <br />तो? <br /> तो आज वही पारसनाथ ईमानदार और भला आदमी कैसे हो गया? <br /> तो? मनोहर दा अब निश्चित तौर पर चिढ़ रहे थे। <br /> तो क्या, आप बताइये। <br />अब यह भी तुमको बताना पड़ेगा। देखा नहीं वो साला किस तरह से जिरह कर रहा था। ऊपर से वो उस कमीन पारसनाथ का भी सगा निकल आया तो और क्या करता मैं? मुझे तो अब लग रहा है कि वो चोट्टा तुम्हारा भी कोई सगेवाला ही लगता है। <br /> मनोहर दा अब मुझ पर गुससा कर रहे थे। मैं उनकी बातों का जवाब दे सकता था पर दिया नहीं और ऐसे ही मनोहर दा का नंबर मिलाने लगा। <br /> घनघोर आश्चर्य! तुरंत ‘जाने कहां गये वो दिन’ सुनाई पड़ा मैंने तुरंत काट दिया और मनोहर दा की तरफ देखा। <br /> दादा बेल जा रही है। अब क्या करें? <br /> क्या करें। गजब आदमी हो! अरे फौरन मिलाओ और बात करो। मैंने फिर मिलाया और सामने से कुछ इस तरह से मोबाइल उठा जैसे कोई पहले से ही तैयार बैठा रहा हो। <br /> हल्लो, नशे में डूबी आवाज आई। <br /> कृपानिधान कहां हैं आप? मैंने पूछा। <br /> मैं कृपानिधान नहीं हूँ। उधर से लड़खड़ाती हुई आवाज आई। <br /> तो कौन हैं आप यही बता दीजिए। <br /> हसन मोहम्मद। <br /> हसन भाई आप हैं कहां?<br /> इसी दुनिया में हूं भाईजान, अपनी बताइये। <br /> अरे जगह तो बताइये, आप हैं कहां? <br /> जगह का क्या है.......हौली में बैठा हूं दारू पी रहा हूं। <br /> लगा कि जैसे उसके पास और भी बहुत सारे लोग बैठे हों और उसकी बात पर सबका कहकहा गूंज उठा हो। मतलब कि वह सचमुच हौली में हो सकता था। ‘साले पियक्कड़’ मैंने मन ही मन गाली बकी। मनोहर दा ने अपना कान मोबाइल से सटा रखा था। एक खीझ उनके चेहरे पर साफ साफ दिख रही थी। थाने वाली विनम्रता पता नहीं कहां गायब हो गई थी। मैं कुछ और कहता इसके पहले मनोहर दा ने मोबाइल मेरे हाथ से लगभग छीन लिया और भरसक मुलायम स्वर में बोले, शई साहब आप जो भी हैं मेरा मोबाइल वापस कर दीजिए। हम यहां परेशान हो रहे हैं और आप बैठकर दारू पी रहे हैं? <br /> मोबाइल? किसका मोबाइल? लड़खड़ाती आवाज ने पूछा। <br /> मेरा मोबाइल जिससे तुम बात कर रहे हो। मनोहर दा आपसे तुम पर आ गये। <br /> काहे मजाक कर रहे हो भाईजान? आपका मोबाइल तो आपके पास होना चाहिए न ! यह तो मेरा है। <br />अच्छा यह तुम्हारा कैसे हो गया? मनोहर दा ने घुड़का। <br /> हमको सड़क पर गिरा हुआ मिला तो हमारा ही हुआ ना। <br /> सड़क पर गिरी हुई कोई चीज तुम्हारी कैसे हो गई? आंय? <br /> मनोहर दा अब पटरी पर से पूरी तरह उतर चुके थे। <br /> ऐसे हो गई भाईजान कि वह और किसी को नहीं मिली। अल्लाताला ने इसे मेरी ही झोली में क्यों गिराया?<br /> अब मनोहर दा दांत पीस रहे थे। <br /> क्यों परेशान कर रहे हो तुम हमें? तुम करते क्या हो आखिर?<br /> हड्डी गलाता हूं। रिक्शा चलाता हूं। अपनी कमाई की खाता हूं और....पीता हूं। <br /> मेहनत की कमाई खाते हो तो मेरा मोबाइल वापस क्यों नहीं कर देते? तुम्हारे पास इसका बिल भरने का पैसा कहां से आयेगा?<br /> नहीं दूँगा बिल-विल। <br /> तो फिर यह तुम्हारे किस काम का? <br /> काम का कैसे नहीं है? हमारा सुलतान खेलेगा न इससे। <br /> देख बे सीधी तरह मोबाइल वापस कर दे नहीं तो मैं पुलिस में षिकायत कर दूंगा। तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं। <br />कर दीजिये रपट-वपट। अब तौ दरोगा बाबू अइहैं तबै मोबाइल मिली। <br /> इसके पहले कि मनोहर दा एकदम से फट पड़ते या गाली बकने लगते मैंने मोबाइल उनके हाथ से ले लिया और काट दिया। मनोहर दा उत्तेजना के मारे कांप रहे थे। उनके मुंह से फेन आ रहा था। उन्होंने वीभत्स भाव से कुछ इस तरह थूका जैसे किसी के ऊपर थूक रहे हों। थोड़ा-सा थूक उनके कुर्ते पर भी चू आया जिसे उन्होंने अपने अंगौछे से पोंछा, फिर अचानक गाली बकने लगे। साला....हरामी साला, हमसे खेल रहा है, मनोहर दा ने हुँकार लेती आवाज में कहा। चलो थाने चलते हैं। <br />थाने चलकर क्या करेंगे? जो बात उस रिक्शेवाले को भी पता है वह आपको नहीं पता। पुलिस भला कैसे जानेगी कि वह कहां है और जानना भी क्यों चाहेगी? <br /> मोबाइल लाओ। मैं अभी एस.पी. को फोन करता हूं। देखता हूं साला कहां बच के जाता है? <br /> वह सब अभी छोड़िये दादा, आप अंदाजा लगाइये कि आपका मोबाइल कहां गिरा होगा? <br /> गिरा होगा? तुमको अभी भी लगता है कि गिरा होगा? अरे उस कमीने ने कहीं मौका पाकर हाथ साफ कर दिया होगा। <br /> यही सही दादा। तो आपका मोबाइल उसने कहां निकाला होगा? <br /> मनोहर दा का जो रूप मेरे सामने आ रहा था मैं उसके बारे में सोचना भी नहीं चाह रहा था पर मेरे भीतर वही वही टूटती-दरकती छवियां उमड़ घुमड़ रही थीं। इसी आदमी की मैं इतनी इज्ज्त करता हूँ? मैं तुरंत उनका साथ छोड़ देना चाहता था पर मैं ऐसा कर पाता इसके पहले मेरे पेशेवर दिमाग ने मुझे धिक्कारा। <br /> कैसे रंगकर्मी हो प्रथम? तुम्हें एक चरित्र के बारे में उसकी तहों के बारे में इतना कुछ जानने का मौका मिल रहा है और तुम हो कि.... और अभी तो तुम्हें हसन मोहम्मद से भी मिलना है जो....।.....तो.....। <br /> दादा आपका मोबाइल कहां गिरा होगा? <br /> सिविल लाइल से घंटाघर के बीच कहीं भी। <br /> इसके बीच में कितनी हौलियां हैं?<br /> मेरे ख्याल से सिर्फ दो। एक बिजलीघर के पास, दूसरी जानसेनगंज में। <br /> आइये हौली चलते हैं, मैंने कहा। <br /> वहां चलकर क्या करेंगे?<br /> शायद अभी वह वहीं हो। <br /> मरता क्या न करता। थोड़ी देर बाद हम बिजलीघर वाली हौली में थे। बगल में बजबजाती, गंधाती नाली थी। वहीं पर तले हुये चने और पकौड़ियां मिल रही थीं जिन पर धूल की एक परत जमी हुई थी और मक्खियां भिनभिना रही थीं अंदर घुसते ही कच्ची शराब की तीखी गंध हमारे नथुनों से टकराई। अंदर बीमार पीले उजाले या धुंधलके जैसा माहौल था। दीवारों पर ममता कुलकर्णी से लेकर मल्लिका सहरावत तक शराबियों का नशा दोगुना करने में जुटी हुई थीं। तो ऐसा माहौल और इसमें हम दो संभ्रांत कहे जाने वाले शहरी, सम्मानित बुद्धिजीवी। हमारे भीतर पहुंचते ही हौली का सारा माहौल ऐसे अस्त-व्यस्त हो गया जैसे शहद की मक्खियों के बीच तेज डंक वाली ततैयां घुस गईं हों। हौलीवाला लपककर हमारी तरफ आया। <br /> क्या चाहिए साहब?<br /> कुछ नहीं तुम अपनी जगह बैठो। मनोहर दा की आवाज में कुछ ऐसा था कि हौलीवाला तुरंत परे हट गया। <br /> हम हर किसी को संदिग्ध नजरों से देख रहे थे। कुछ नहीं समझ में आया तो मैंने मोबाइल पर फिर मनोहर दा का नंबर मिलाया। तुरंत ‘जाने कहां गये वो दिन’ सुनाई पड़ा पर हौली में घंटी कहीं नहीं बजी। जाहिर था कि मोबाइल यहां नहीं था, फिर भी हमने पूछताछ किये बिना लौटना मुनासिब न समझा। पूछताछ में हमारे उन ‘भाईजान’ के बारे में कुछ भी नहीं पता चला। अब मुझे हम लोगों की बेवकूफी समझ में आई। हम बिना इस बात पर विचार किये कि वह किस हौली में हो सकता है जो पहले आई उसी में घुस गये थे जबकि हमें मोबाइल गुम होने का पता घंटाघर के पास चला था तो इस हिसाब से उस हसन रिक्शेवाले के जानसेनगंज वाली हौली में होने की ज्यादा उम्मीद थी। खैर......। <br /> हम जानसेनगंज वाली हौली पहुंचे पर अफसोस पता चला कि वह यहां से थोड़ी देर पहले ही जा चुका था। इतना ही नहीं यहां मोबाइल को लेकर काफी हल्ला-गुल्ला भी हुआ था क्योंकि पियक्कड़ों में से एक दो ऐसे भी थे जो मोबाइल हड़पना चाहते थे पर अंततः हसन रिक्शेवाला मोबाइल को अपने पास बचाये रखने में सफल हो गया था। हसन का पता न हौलीवाले को मालूम था न दूसरे पियक्कड़ों को। हम चूक गये थे। <br /> अगर तुम उस हौली में न रूके होते तो उसे हम यहीं दबोच सकते थे, मनोहर दा ने बिगड़ते हुये कहा। <br /> मेरे ऊपर मत गुस्सा उतारिये। आपने भी तो उस समय कुछ नहीं कहा। अब आप ही बताइये क्या करूं?<br /> उससे बात करो? सीधे से दे देता है तो ठीक? नहीं तो मैं एस.पी. से बात करता हूं। <br /> मैंने फिर से नम्बर मिलाया। <br /> हल्लो...... कौन......? उधर से आवाज आई। <br /> अरे हम हैं हसन भाई जिसका मोबाइल आपके हाथ में है।<br /> आप लोग तो पुलिस में जाने वाले थे। बंदा वही था पर मैंने महसूस किया कि इस बीच उसकी आवाज की लड़खड़ाहट थोड़ी कम हुई है और उसकी जगह मस्ती ने ले ली है।<br /> अरे गलती हो गई हसन भाई। हमारे आपके बीच में भला पुलिस क्यों आये? आप तो हमें मोबाइल वापस कर दीजिये बस। <br /> क्यों भला? हमको तो गिरा मिला है अल्ला की मेहरबानी से। <br /> चाट क्यों रहे हो भाई ? आप आखिर रहते कहां हैं? <br /> बता दूं? क्यों बताऊं भला? <br /> हम आपसे मिले आयेंगे इसलिए।<br /> तो बता दूं? <br /> रहम कर यार। इस बात को समझ कि पिछले दो-तीन घंटों से हम कितने परेशान हैं। <br />दरोगा बाबू तो साथ में नहीं आयेंगे ना? <br /> अरे नहीं हसन भाई, आप बेकार में ही शक कर रहे हैं। हमको हमारा सामान मिल जाये बस। हम पुलिस-दरोगा के झंझट में भला क्यों पडेंगे?<br />मनमोहन पार्क देखा है ना?<br /> हाँ। <br /> वहां से इनवरसिटी की तरफ जाओ तो आगे पाकड़ का बड़ा सा पेड़ है। बगल से दाहिने हाथ की गली में मुड़ जाइयेगा और अंदर आकर हसन मोहम्मद का घर पूछ लेना। सामने एक भूसे की दुकान है। चाहे दुकान वाले से ही पूछ लेना। <br /> ठीक है हसन भाई, हम लोग आते हैं। <br /> अभी नहीं, एक-ढेड़ घंटे बाद आइयेगा। अभी तो हम सवारी ले जा रहे हैं।<br /> मैंने मनोहर दा की तरफ देखा। अब वह शांत लग रहे थे पर उनकी आंखें लाल हो रही थीं। अगर हसन ने पता-ठिकाना सही बताया था तो कहानी खत्म होने में अभी घंटे भर की कसर थी। तब कहां पता था कि असली कहानी की शुरूआत ही घंटे भर बाद होनी है।<br /> मैंने हसन रिक्शेवाले के बारे में सोचा। कैसा होगा वह? उसके बाल बिखरे होंगे, शायद खिचड़ी, थोड़े काले, थोड़े सफेद। चेहरे पर मंगोलियन दाढ़ी होगी। आंखे छोटी और निचुड़ी सी। आंखों में कीचड़ और नीचे काली झुर्रियां। पूरे बदन पर समय की मार के अनगिनत निशान। बदन पर कोई मैली-कुचैली टीशर्ट या बनियान। नीचे लुंगी या पाजामा। पैरों में पुराना हवाई या टायर का चप्पल। तो शायद कुछ ऐसा होगा हमारे हसन भाई का हुलिया। <br /> पर अभी हसन भाई ने शराब पी रखी है, उसके सुरूर में है सो आप एक दृश्य की कल्पना कीजिये कि हसन भाई अपने रिक्शे पर सवारी बैठाये चले जा रहे हैं। मोबाइल की घंटी बजती है। सवारी हड़बड़ाकर अपना मोबाइल खोजती है जो मिल ही नहीं रहा है। हमारे हसन भाई सुकून से रिक्षा रोकते हैं। मोबाइल निकालते हैं और कहते हैं, बोलो मियां। <br /> अगल-बगल से आते-जाते लोग उन्हें अजूबे की तरह देख रहे हैं। मान लीजिये कि इस समय आप ही उनके रिक्शे पर बैठे होते तो हसन भाई के बारे में क्या सोचते? शायद आपको अपनी आंखों पर भरोसा ही न होता या शायद आप उन्हें कोई चोर उचक्का समझ लेते और रिक्षा बदल देते या अगर आप मेरी तरह खूब फिल्में देखते होेते या जासूसी उपन्यास पढ़ते होते तो उन्हें कोई जासूस या किसी बड़े घराने का कोई सिरफिरा सिद्धांतवादी नायक समझ लेते। <br /> चक्कर छोड़िये। मान लीजिए कि हम लोगों के पास बाइक ना होती और हम हसन भाई के रिक्शे पर बैठकर उन्हीं को फोन मिलाते तब? वह शायद हमें मुड़कर देखते और जब उन्हें पता चलता कि यह हमीं लोग हैं जिनको वह घंटों से नाच नचा रहे हैं तो हसन भाई क्या करते? क्या उन्हें हम पर हंसी आती या फिर...... और फिर हमारे एंग्री मैन आर्टिस्ट मनोहर दा क्या करते? <br /> मैंने पूछ ही लिया। <br /> गर्दन मरोड़ देता उसकी, मनोहर दा ने फुफकारते हुये जवाब दिया। <br /> आगे मैंने चुप रहना ही मुनासिब समझा। <br /> घंटे भर बाद ही हम पाकड़ वाली गली में थे और एक मौलवी से दिखने वाले व्यक्ति से हसन रिक्शावाले के घर का पता पूछ रहे थे। मौलवी ने हमें हिकारत से देखा और गली के आखिर में बने एक खपड़ैल की तरफ इशारा किया। मौलवी की हिकारत जायज थी। रमजान का महीना चल रहा था और हम एक ऐसे मुसलमान के घर का पता पूछ रहे थे जिसने शराब पी रखी थी। <br /> अगले पल मनोहर दा बेसब्री से कुंडी खटखटा रहे थे। काफी देर बाद एक असमय बूढे़ दिखते हिलते-डुलते से व्यक्ति ने दरवाजा खोला और अधखुले किवाड़ के बीच से ही सिर निकाल कर पूछा, बौलैं साहेब। <br /> हसन तुम्हीं हो? मनोहर दा ने पूरा किवाड़ खोलते हुये तुर्शी से पूछा। <br /> हाँ बौलैं साहेब। <br /> मैंने उस काया का मिलान फोन पर उससे हुई बातचीत से करना चाहा और गड़बड़ा गया। उसका नशा पूरी तरह उतरा हुआ दिख रहा था और वह अप्रत्याशित रूप से दयनीय लग रहा था। घर के नाम पर एक कोठरी भर थी जिसका आधा हिस्सा पीछे की तरफ खुलता हुआ दिख रहा था जिसमें एक धुआं-धुआं सा बल्ब जल रहा था। कोठरी में एक कोने एक चारपाई रखी थी दो-तीन मैली कुचैली कथरियां दिख रही थीं। एक तरफ फर्श पर काले चींटों की लंबी कतार दिखाई दे रही थी और बांस के ठाट में जगह-जगह मकड़ियों ने अपना जाल फैला रखा था। कीड़े-मकोड़ों को शई गरीब के यहां ही ठिकाना मिलता है, मैंने सोचा। ऊपर खपड़ैल पर तमाम बेकार टायर फेंके हुए थे। मैंने फिर से हसन की तरफ देखा। कपड़े के नाम पर उसके बदन पर एक लुंगी ही थी जो पता नहीं कब की धुली थी। सींकिया बदन, पूरे बदन पर हड्डियां उभरी हुई। सिकुड़ी हुई खुरदुरी त्वचा। गले में एक काला मटमैला धागा। हसन के सामने खड़े मनोहर दा एकदम दीन के सामने दीनानाथ लग रहे थे। <br /> आवैं साहेब, कहते हुए वह बगल हटा। <br /> मोबाइल कहां है? मनोहर दा दांत पीसते हुये फुफकारे। <br /> साहब हमको तो पड़ा मिला था। हम तो बुलाये भी आपको पर आप सुने ही नहीं। <br /> है कहां मोबाइल? <br /> अभी दे रहे हैं साहेब। आप अंदर तौ आवैं। शायद वह हमें बैठाकर हमारा गुस्सा कम करना चाह रहा था या शायद अपना पक्ष रखना चाह रहा था। <br /> अबे हरामी हम तेरे यहां दावत खाने नहीं आये। सीधे से मोबाइल ला नहीं तो.... मनोहर दा चीखे। <br /> दे रहे हैं साहेब। गाली काहे दे रहे हैं। हम तौ खुदै..... <br /> तभी अंदर की तरफ से एक बच्चा कूदता हुआ बाहर आया। मोबाइल उसके हाथ में था जिसे दिखाते हुये उसने हसन से पूछा-ई का है अब्बू? <br /> हसन बच्चे को कोई जवाब देता इसके पहले मनोहर दा ने मोबाइल पर झपट्टा मारा। बच्चा अचकचा कर पलटा और चारपाई से टकराकर पलट गया। मोबाइल दूर दीवार से जा टकराया। मनोहर दा ने फुर्ती से मोबाइल उठाया और बाइक की तरफ झपटे। आसपास के लोग हमें संदेह की दृष्टि से देख रहे थे और जाने क्या-क्या बातें कर रहे थे। बच्चा चिल्ला-चिल्लाकर रो रहा था। बाइक स्टार्ट हो पाती इससे पहले हसन रिक्शेवाले की आवाज आई। <br /> अरे जायें साहेब, देख लिया आपको। इत्ता भी नहीं कि मेरे बच्चे के लिए एक खिलौना ही लेते आते। अब तौ मोबइल मिल गया ना....... अब तौ कर लो दुनिया मुट्ठी में। हम इस दुनिया में थोड़े ही हैं साहेब। क्रम टूटा........ हाय मोर सुल्तान, हाय मोर सुल्तान की आवाज आई। शायद हसन के बच्चे को कहीं चोट लग गई थी जिसकी तरफ उसका ध्यान अब गया था। अरे शैतान हो आप लोग... राच्छस की तरह..... हसन फिर चिल्लाया पर अब तक बाइक स्टार्ट हो चुकी थी। बाइक आगे बढ़ती इसके पहले एक पत्थर मेरे पैर के पास मेडगार्ड से टकराया। मैंने पीछे पलटकर देखा तो एक उत्तेजित झुंड दिखाई पड़ा। हसन अभी भी चीख रहा था पर पल भर में उसकी आवाज सुनाई देनी बंद हो गई। <br /> मनमोहन पार्क पहुंचकर मनोहर दा ने बाइक रोकी और मोबाइल जांचने लगे। मोबाइल की बाडी चटकी हुई थी और वह काम नहीं कर रहा था। मनोहर दा की आंखों में एक ठंडी हिंसक चमक उभर आई। उन्होंने बस्ते से सिगरेट का पैकेट निकाला। एक सिगरेट जलाई और तीन-चार कश लेने के बाद सिगरेट जूते से कुचल दिया।<br /> आओ थाने चलते हैं, मनोहर दा ने कहा। <br /> अब थाने चलकर क्या करेंगे? मुंशी का रवैया भूल गये क्या आप? <br /> नहीं याद है इसीलिए कह रहा हूं। इस हरामजादे हसन को तो मैं.....मैं अब नामजद रिपोर्ट करूंगा। <br /> आप किस गुमान में हैं दादा? थाने में आपकी दाल नहीं गलने वाली। आपका मोबाइल गुम हुआ तो उसने ईमानदारी से वापस भी कर दिया। ये खराब हो गया तो यह उसकी नादानी भर थी और फिर थाने में आपने सिपाही और मुंशी का रवैया देखा नहीं क्या? बाकी लोग भी वैसे ही होंगे। <br /> दोनों की ऐसी की तैसी। मैंने देखा सालों को पर तुमने कुछ नहीं देखा। <br /> क्या नहीं देखा? <br /> थाने में घुसते ही हनुमान मंदिर, सिपाही का जनेऊ, मुंशी का तिलक और उस मुंशी के पीछे लगा श्रीराम का पोस्टर। <br /> मैं पसीने-पसीने हो गया। फिर भी कुछ नहीं हुआ तो? मैंने भरे स्वर में सवाल पूछा। <br /> शहर का एस.पी. मेरे साथ बैठ कर शराब पीता है। मैं सबकी ऐसी की तैसी करवा दूंगा पर उस मुसल्ले हसन को तो मैं.....। <br /> आगे की कहानी में मेरी क्या भूमिका हो, इसको लेकर मैं पसोपेश में हूं। आप मेरी मदद करेंगे?नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com222tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-80405184309256471502009-05-18T09:52:00.004+05:302009-05-18T09:58:45.503+05:30शिखर-पुरुष : ज्ञानप्रकाश विवेक की चर्चित कहानीइस बार हम चर्चित कहानीकार <a href="#gyan">ज्ञानप्रकाश विवेक</a> की सबसे चर्चित कहानी 'शिखर-पुरुष' प्रकाशित कर रहे हैं। यह कहानी जब इंडिया-टुडे में प्रकाशित हुई थी तो पाठकों ने सर-आँखों पर बिठा लिया था। हमें खुशी है कि ज्ञानप्रकाश हमें इंटरनेट के हिन्दी-पाठकों तक इस कहानी को पहुँचाने का अवसर और अनुमति दे रहे हैं।<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">शिखर-पुरुष</span></strong></center><br />अपना नाम तुमने झिझकते हुए बताया था- बी ...बी ... बी .. अटक से गए थे तुम। मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी। सोचने लगी थी, तुम अपना नाम फिर से बताओगे। तुम चुप थे। ऐसा लगता था, तुम अपना नाम भूल गए हो। याद कर रहे हो अपना नाम।<br /><br />मैंने फिर कहा था- " आप अपना नाम बता रहे थे..." इस बार तुम पहले से ज्यादा नर्वस नजर आए थे। तुमने अपना नाम फिर से दोहराया था- बड़े सरपट तरीके से। जैसे रेस के घोड़े एक साथ दौड़ पड़े हों या कि जैसे नाम बताना बहुत गैर जरूरी और उबाऊ काम हो और जिसे अनमने भाव से बहुत जल्दी निबटा देना हो। मैं फिर भी नहीं समझी थी। इतना दौड़ता हांफता लहजा<br /><br />मैंने एक बार फिर कहा "हम किसी जल्दी में नहीं है- न आप, न मैं। आप चेयर लीजिए, बैठिए और अपना नाम एक बार फिर ..."<br /><br />तुमने किसी स्कूली बच्चे की तरह अपना नाम बताया था- बी एल विश्वास। झिझक और कंपन तुम्हारी आवाज में था। तुम्हें डर था कि मैं तम्हारे नाम का फुल फॉर्म न पूछ लूं। बाद में मुझे मालुम हुआ कि तुम्हारा नाम बनवारी लाल है। यह भी मुझे बाद में मालुम हुआ कि तुम अपने नाम से चिढ़ते थे। चिढ़ते तुम अपने पिता से भी थे जिसने तुम्हारा नाम बनवारी लाल रखा था। चिढ़ते तुम कई चीजों से थे- अपनी दरिद्रता से, लोगों की संपन्नता से, अपनी दयनीयता से दूसरों के स्मार्टनेस से, दूसरों के अच्छे कपड़े से, अंग्रेजी से, शायद पूरी कायनात से चिढ़ते थे तुम।<br />मुझसे भी तुम चिढ़ गए थे कि मैंने तुम्हारा नाम बार बार पूछा था। तुम्हें लगा कि मैंने तुम्हारी रैगिंग की है। यह तुम्हारी गलतफहमी थी। गलतफहमियां पाले रखना तुम्हारा शौक था। <br /><br />यह तुम्हारा पहला दिन था- दफ्तर में पहला दिन। मुझे यहां डेढ़ साल हो चुका था। मैं पर्सनल विभाग में थी। मुझे कहा गया था कि तुम्हारा ज्वाइनिंग लेटर ले लूँ। तुम मेरे सामने बैठे थे- घबराए हुए, इधर उधर देखते। तुमने जेब से जंग खाई चाबी निकाल ली थी। कुर्सी की हत्थी पर घिसने लगे थे। यह बुरी बात थी। लेकिन ऐसा लगता था कि तुम व्यस्त रहने के लिए कोई काम ढूंढ रहे हो ताकि तुम अपनी घबराहट छिपा सको... तुम्हारे लिए मैंने चाय मँगाई थी। तुमने चाय का कप दोनों हाथों से उठाया। कप इतना भारी तो नहीं था कि दोनों हाथों से उठाया जाता। मैं तो कहने वाली थी- चाय का कप है कोई परशुराम का धनुष नहीं। कहा नहीं था मैने, क्योंकि तुम्हें यह फब्ती बुरी लग सकती थी.... तुम चाय पीने लगे थे। सुड़-सुड़ की बेतरतीब आवाजें तुम्हारे मुंह से निकलने लगी थीं। मैं मन ही मन हँसी थी। मैं ही क्यों, पूरा दफ्तर तुम पर हँसता था। कलीग्ज को क्या चाहिए था? तुम्हारे जैसा एक अदद कॉर्टून! तुम्हें पहले चाय पिलाई जाती, फिर तुम्हारा मजाक उड़ाया जाता। मैं समझ जाती, तुम बलि के बकरे बनाए जा रहे हो। तुम किसी मेमने जैसे नजर आते। पता नहीं किस मिट्टी के बने थे तुम ... किसी भी दिन चीते की तरह फुर्तीले तो क्या, कुत्ते की तरह चौकन्ने भी नहीं नजर आए। <br /><br />उस हॉल में, जहां सब बैठते थे, पूरा दिन किसी नाटक जैसा गुजरता। टेलीफोन की घंटियाँ, टाइपराइटर की आवाजें, चाय के कप, मित्रता निभाते युवक-युवतियाँ, कलीग्ज की बहसें, हँसी-ठट्ठा, ताजा सनसनीखेज खबरों पर विमर्श, साहब लोगों की कॉलबेल, क्लाएंट्स की आमदरफ्त, कलीग्ज का एक दूसरे पर जेमक्लिप फेंकना, सॉफ्ट पॉर्न पत्रिकाएं दराज के अंदर रखकर पढ़ना, लेडीज टॉयलेट में स्त्रियों की गोष्ठी, डैंड्रफ से लेकर ल्यूकोरिया तक के देसी टोटके, लेडीज टॉयलेट में शीशे के सामने सँवरती-निखरती फेयर एंड लवली क्रीमों से ज्यादा फेयर बनने की कोशिश करती स्त्रियाँ ठनठनाती, इतराती लेकिन अपने बढ़ते वजन पर फिक्रजदा होती, हॉल में गुजरती तो महसूस होता खुशबुओं का आबशार गुजर गया है और युवक..... किसी देसी जिम में जाकर अपने शरीर को बनाते और दफ्तर में हाइ-फाइ नजर आने के सारे नुमाइशी प्रोग्राम दस से पाँच के बीच अदा कर डालते.. पूरा दिन बहुत कुछ घटित होता।<br /><br />लेकिन तुम... मैं देखती, तुम अपनी सीट पर किसी वीरान टापू जैसे, होने-न-होने के बीच, हँसने और रोने के बीच किसी फाइल, किसी कवरनोट में कभी किसी कॉकरोच तो कभी किसी तिलचट्टे की तरह छिपे नजर आते। तुममें ऐसा कुछ भी नहीं था कि कोई लड़की तुम पर रीझती। न तुम आकर्षक थे, न स्मार्ट। सभी कलीग्ज नौजवान थे, तेजतर्रार, चुस्त खूबसूरत और नई काट की पोशाकें। बात करने का समझदार तरीका। वे हर एँगल से अच्छे, सम्मोहक लगते। <br />लेकिन मुझे तुम्हारी बेचारगी ने आकर्षित किया था बनवारी लाल... ऐसी बेचारगी जिसमें निर्धनता, मासूमियत, बेचैनी, दुख हैरानी और अवसाद का मिश्रण था... तुम खिड़की से आसमान को ऐसे देख रहे होते जैसे कोई बच्चा आसमान में कटी पतंग को देखता है... ऐसा लगता था, तुम खुद एक कटी पतंग हो। और मुझे हमेशा कटी पतंगो से हमदर्दी रही है बनवारी लाल!<br /><br />हॉल में बैठे तेजतर्रार और खूबसूरत नौजवानों की अनदेखी करके, मैं तुम्हें देखती रहती। पता नहीं तुम किस दुनिया में गुम होते। हॉल के एक सिरे पर मैं होती, दूसरे सिरे पर तुम। मैं तुम्हें देखती। देखती रहती। यह मेरी बेवकूफी थी या क्या था, पता नहीं। मैं तुम्हें चाय के लिए बुलाती। तुम्हारे हात काँपने लगते। चाय छलकती, गिरती। तुम घबरा जाते। डस्टर ढूँढ़ते। मेज साफ करते। तुम विचित्र लगते। <br /><br />दोपहर का खाना तुम अकेले खाते थे। बनवारी लाल... आजकल बेशक तुम तीन-तारा या पाँच-तारा होटल-रेस्तराँ में क्लाएंट्स के साथ लंच-डिनर लेते हो... बेशक एक दिन तुमने अपने केबिन में कहा था, "दिस रबिश क्लास थ्री..." कहा तुमने और भी बहुत कुछ था... दरअसल, हर बड़ा आदमी अपने अंदर एक 'ईश्वर' पैदा कर लेता है। गलत तो नहीं कर रही मैं। तुम्हें लगता है कि तुम दुनिया के नहीं तो कम से कम इस दफ्तर के 'ईश्वर' हो। आदमी जितना बड़ा 'कमीना' होता है, वह उतना बड़ा उपदेशक समझने लगता है अपने आपको। शायद यह कोई 'सिद्ध' अवस्था हो।<br /><br />हां तो मैं तुम्हारे खाने की बात कर रही थी। कलीग्ज ने साफ-साफ कह दिया था- "बनवारी हमारे साथ मत खाया कर ..." तब तुम अकेले खाते। एक बार तुम्हारे पास सब्जी नहीं थी- याद है तुम्हें! तुम घर से रोटियों में लपेट कर चीनी और हरी मिर्च लाए थे। अजीब किस्म का कॉकटेल था। चीनी और हरी मिर्च। मैंने देखा। मुझे तरस आया तुम पर। तुम्हें थोड़ी -सी सब्ज निकाल कर दी। तुमने मुझे देखा और तुम्हारी आंखो के कोर भीग गए। <br /><br />***<br />अचानक पता चलता, हॉल के आखिरी सिरे पर कुछ शोर सा हुआ है। मालूम होता कि तुम किसी से लड़ पड़े हो। मालूम होता, किसी बंदे ने गाना गाया था- बनवारी रे, जीने का सहारा तेरा नाम रे... बस इसी बात पर तुम बौखला उठे थे। मैं तुम्हारे पास आती। कोई फाइल लिए या कोई दूसरा बहाना बनाकर। तुम शांत हो जाते। मेरा आना तुम्हें अच्छा लगता। तुम्हें लगता कि दफ्तर में कोई है जो तुम्हारा है। जो तुम्हारे मन की बात समझता है। तुम्हारे दुःख को पहचानता है। तुम चाहते कि मैं तुम्हारे साथ बैठी रहूँ। तब तुम कमजोर थे। तुम्हें सहारों की दरकार थी। तुम्हें मेरा होना आश्वस्त करता। जिस दिन मैं दफ्तर नहीं आती थी, तुम घबराये रहते। <br /><br />नहीं बनवारी लाल, तुम्हारी कमजोरियाँ नहीं ढूँढ़ रही मैं। अतीत से साक्षात्कार करा रही हूँ। उस अतीत से, जो तुम्हारा था और जिसे अब तुम देखना भी नहीं चाहोगे। संस्मरण सुनाने की तुम्हें बुरी आदत है। अपने अतीत पर झूठ की नक्काशी भी खूब कर लेते हो तुम। तुम्हारा झूठ मेर सच्चाई के कद से बहुत बड़ा हो गया है बनवारी लाल। यादें! यादों के खँडहर में भटकना भी कौन चाहता है! यादें होती भी क्या हैं! पुराने जमाने की एलबम में औंधे मुँह पड़ा वक़्त।<br /><br />वक़्त!... वक्त किसी की लिए जख्मी परिंदे जैसा होता है। जहाँ बैठता है, जख्मों के निशान छोड़ जाता है। और कुछ लोग वक्त को गोल्फ की तरह खेलते हैं- जैसे कि तुम! ठीक कह रही हूँ न बन्नी!<br /><br />बन्नी! याद है मैने तुम्हारा यही नाम रखा था। बहुत अच्छा लगा था तुम्हें। बनवारी नाम से तुम चिढ़ जाते लेकिन बन्नी सुनना तुम्हें अच्छा लगता। लेकिन इस सकल विश्व में अकेल मैं थी, जो तुम्हें बन्नी कहती थी।<br /><br />बनवार लाल... अब तुम इस नाम को भूल चुके होगे शायद। तब तुम कहते थे कि मैं सब कुछ भूल सकता हूँ, लेकिन यह खूबसूरत, छोटा-सा नाम नहीं। इस नाम में जिंदगी है।<br /><br />तुम्हारे वो दिन डिप्रेशन-भरे थे। जैसे कि अब मेरे। मेरी छोड़ो। मैंने तो रास्ता ही ऐसा चुना। गरम रेत पर नंगे पांव खड़ी होकर कालीन का सपना देखना बेवकूफी नहीं तो क्या है!<br /><br />***<br />पलटकर देखूँ तो अतीत के पन्ने फड़फड़ाते चले जाते हैं। तुम्हारे रोने की आवाज आई थी मुझे। तुम्हारे हँसने और रोने की आवाज को भला कैसे नहीं पहचानती! तुम जेंट्स टॉयलेट में वाशबेसिन के पास खड़े रो रहे थे। दरवाजा खुला था। मैं उधर से गुजरी। तब तुमने एक हिचकी ली थी। मैंने चौककर देखा। तुम थे। मैं सिहर उठी। तुम मुझे देखकर सकपका गए। वाशबेसिन में मुँह धोने का नाटक। इस बीच किसी ने हमें देखा था। हम हॉल में आए तो बहुत सारी आंखों ने हमें घूरते हुए देखा।<br /><br />लेकिन शाम को मैने तुम्हें खूब लताड़ा था, 'मर्द होकर रोते हो.... गलत बातों को सहन करना सीखो। दबंग और लापरवाह बनो... चालाक लोगों की दुनिया है..बेवकूफी के रास्ते खाइयों मे गिरते हैं...'<br /><br />शायद तुमने मेरी कुछ बातें गाँठ बाँध ली थीं। शायद यहीं से तुमने खुद को बदलना शुरू किया था, जिसका इल्म मुझे बहुत बाद में हुआ।<br /><br />बन्नी, यह भी मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ कि ऊपर से लद्धड़, डरपोक और शंकालु दीखनेवाले तुम, भीतर से बहुत घुन्ने हो। शायद डरपोक और कायर आदमी अपने भीतर घुन्ना और चालाक होता है, या कि धीरे-धीरे हो जाता है। उसका हथियार ताकत नहीं, मक्कारी होता है...<br /><br />... तुम्हें याद है बन्नी, क्लेम डिपार्टमेंट में जाने से मना किया था मैंने। शायद तुम्हें अब भी याद हो.. मैंने कहा था, "पर्सनल, एकाउंट्स, अंडरराइटिंग- कोई भी किसी भी डिपार्टमेंट में चले जाओ लेकिन क्लेम ..."<br /><br />लेकन तुमने अपनी उँगलियों पर गणित लिख रखा था। मुझे बाद में पता चला था कि तुम्हारे अंदर कोई कैलकुलेटर फिट है, जिसका रिमोट तुम्हारे चुप्पेपन के पास है। मैंने तुम्हें समझाने की कोशिश की थी कि 'टुकड़ों' का लालच, मनुष्य की थिकिंग बदल देता है। लेकिन तुमने मेरी बात सिर्फ सुनी थी। किया वही, जो तुम्हारे मन में था। तुम्हें क्लेम सीट मिल गई थी। तुम खुश थे। मुझे अच्छा नहीं लगा था। अफसरों को तुम्हारे जैसे किसी 'चंपू' की जरूरत थी और तुम्हें संपन्न बनने की जरूरत! महत्वाकांक्षाएं कहां छिपती हैं बन्नी? तुमने कहा भी था, "पैसा आदमी को ताकतवर बनाता है। मैं ताकतवर बनना चाहता हूँ।"<br /><A name="gyan"></A><br /><div class="parichay"><span style="font-weight:bold;">लेखक परिचय</span>- ज्ञानप्रकाश विवेक<br /><img src="http://i173.photobucket.com/albums/w76/bharatwasi001/Gyanprakash_Vivek.jpg " align="left"><br /><span style="font-weight:bold;">जन्मः</span> 30 जनवरी 1949 (बहादुरगढ़)<br />ओरिएंटल इंशोरेंस कम्पनी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन<br /><br /><span style="font-weight:bold;">नौ कहानी-संग्रह</span> प्रकाशित जिसमें से 'पिताजी चुप रहते हैं', 'शिकारगाह', 'मुसाफ़िरख़ाना' और 'सेवानगर कहाँ है' विशेष रूप से चर्चित।<br /><span style="font-weight:bold;">चार उपन्यास-</span> गली नम्बर तेरह, अस्तित्व, दिल्ली दरवाज़ा तथा आखेट (भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य)<br /><span style="font-weight:bold;">चार ग़ज़ल संग्रह-</span> धूप के हस्ताक्षर, आँखों में आसमान, इस मुश्किल वक़्त में तथा गुफ़्तगु अवाम से है।<br /><span style="font-weight:bold;">कविता-संग्रह-</span> दरार से झाँकती रोशनी<br /><span style="font-weight:bold;">आलोचना-पुस्तकः-</span> हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा<br /><span style="font-weight:bold;">पता-</span> 1875, सेक्टर-6, बहादुरगढ़-124507<br />हरियाणा</div>लेकिन बन्नी, मेरी हसरत यह थी कि तुम अच्छे मनुष्य बनो। लेकिन परेशान करने वाली बात ये थी कि तुम उस तरह के ताकतवर इंसान बनना चाहते थे, जो प्रतिदिन क्रूर होता जा रहा है... यह अजीब बात थी कि एक कायर, दब्बू और बेचारा सा लड़का ताकतवर बनना चाहता था- बा-रास्ता पैसा! वह कोई और नहीं, बन्नी था, जिसे मैं प्यार करने लगी थी।<br /> <br />बन्नी, मैं चाहती थी कि तुम अनुभूतियों के खेल खेलो। पानी की लहरों पर तैरती उजली धूप को अपने भीतर उतारो, किसी दरख्त को देखते-देखते दरख्त जैसे हो जाओ। तुम परिंदों की तरह ऊंची उड़ान भरो। आकाश जैसा असीम तुम्हारी आंखों में हो। बन्नी, मैं चाहती थी तुम बंद कमरा न बनो। ऐसा रास्ता बनो जो दूर तक जाता हो, जिस पर भावनाओं की पदचाप हो। मैं चाहती थी, तुम किसी समंदर की तरह हो जाओ, मैं किसी नदी जैसी तुम्हारी जानिब बढ़ती चली आऊँ....<br /><br />लेकिन क्लेम सीट का अपना रोमांच था। ये तमाम बातें तुम्हे फालतू और मूर्खतापूर्ण लगी थीं। तुमने अपनी आँखों में रुमाल नहीं बल्कि कपड़े की पट्टियां बाँध ली थीं। मुझे अच्छा नहीं लगा था। समझा जाना चाहिए था मुझे कि तुम्हारा रास्ता मेरे संसार के रास्ते से होकर नहीं जाता...<br /><br />याद है बन्नी, जिस दिन तुमने क्लेम सीट ली थी, शायद उसी शाम को हम अतुल ग्रोव रोड पर चुपचाप चलते रहे थे। हम अकसर शाम को इसी खामोश सड़क पर चलते-चलते मंडी हाउस की तरफ मुड़ जाया करते थे। यह सड़क शांत रहती, कुछ बंगले, कोठियाँ... बाउंडरी वॉल के साथ झालर तरह लटकती गोल्डनशॉलर की लताएं, अमलतास, गुलमोहर और अशोक के पेड़। एक सुकून भरी खामोशी। जैसे कोई कवि बहुत देर से चुप बैठा हो। चलते-चलते तुमने मेरा हाथ थाम लिया था। मैंने झटक दिया था तुम्हारा हाथ। तुम चौंक गए थे। डर गए थे। डरना तुम्हारी फितरत में था। तुम्हें हैरानी हुई थी... यही तुम होते थे जो इस वीरान, अकेली और नीम अंधेरी सड़क पर, चलते-चलते मुझे चूम लिया करते थे। तब तुम मुझे प्रेम की भावना से भरे युवक नजर आते थे। पर आज तुम्हारा हाथ तक पकड़ना अच्छा नहीं लगा था। मैं चुप थी। तुम चुप थे। ताज्जुब था आज हमारे पास कोई भी शब्द नहीं था। <br /><br />***<br />उसके बाद वही तो हुआ था जैसे कि मैने सोचा था। तुम बेहद व्यस्त हो गए थे। बहुत सारी नई बातें। चालाकियाँ, लटके-झटके, तुम्हारा मुँह बनाकर, आँखे बिचकाकर बातें करना, च्युंइगम चबाते रहना.... क्लाएँट्स ....सर्वेयर.... सर्वे रिपोर्ट, साल्वेज.. यह एक नई दुनिया थी और तुम्हारे दोस्ताने वर्कशॉप वालों से थे, सर्वेयरों से थे। तुम सचमुच प्रभावशाली समझे जाने लगे थे। प्रभावित करने का एक अच्छा तरीका यह भी होता है कि व्यवस्था के सामने कोई कर्मचारी केंचुआ, कॉकरोच या रीढ़विहीन कीड़ा बनता चला जाए। मैं तुम्हें देखती। बेचैन होती। तुम क्या से क्या बनते जा रहे थे? लोगों को तुमसे ईर्ष्या होती। मुझे दुख होता। मैं इसे पतन समझती। तुम्हारे लिए ये सफलता थी।<br /><br />बनवारी लाल! याद है तुम्हें, एक बार दबोच लिए गए थे तुम! बहुत ही मामूली-सी बात पर। मामूली आदमी का मामूलीपन। तुमने सॉल्वेज में पड़े रेडिएटर को चुपचाप बेच दिया था। तुमने कमाए थे 400 रु और गँवाई थी अपनी मनुष्यता।<br /><br />तुम्हें तब पता नहीं था कि सिस्टम के हाथ में खुरपी जैसी कोई चीज होती है, जो आदमी की चमड़ी को इत्मीनान से खुरचती है... उन्होंने यही किया था तुम्हारे साथ। केबिन में बिठाकर हँसते रहे थे वे। उन्होंने तुम्हें जख्मी किया था और तुमसे पूछ रहे थे कि नमक कौन से ब्रांड का 'सूट' करेगा तुम्हारे जख्मों पर। तुम डर गए थे। उन्होंने फैसला मुल्तवी कर दिया था ताकि तुम दुविधा में रहो। तनाव में रहो। उनके रहमो-करम पर रहो।<br /><br />याद है न बन्नी, तुम मेरे पास आए थे। तमुने मुझे संसार का एक कोना समझ लिया था, जहाँ तुम्हें राहत मिलती थी। अजीब विडंबना है न बन्नी! मैं तुम्हारा संसार नहीं थी, संसार का एक कोना थी- छोटा-सा कोना।<br /><br />तब हॉल खाली हो चुका था। वक्त शायद साढ़े पांच या फिर छः का था। कुछ कलीग्ज कैरम खेल रहे थे, कुछ ताश में व्यस्त थे। तुम मेरे सामने बैठे थे किसी डरे-डरे बच्चे जैसे उदास-उदास। चुप-चुप, निराश, शिथिल, अवासाद से घिरे... पता नहीं क्या सोचकर, तुमने मेरे हाथ पर अपना माथा टिका दिया था। मैंने अपने हाथ मेज पर रखा हुआ था। <br />उस वक्त मैं घबरा गई थी। लेकिन तुम बहुत प्यारे भी लगे थे मुझको। मैंने थोड़ा डरते, सकुचाते हुए तुम्हारे सिर पर हाथ रखा था। तुम भावुक हो उठे थे। सिर उठाकर कहा था तुमने, "बहुत अकेला पड़ गया हूं जानकी!"<br /><br />मैंने तुम्हारे होठों को अपनी उंगली से छूकर कहा था कि बुरा वक्त सबके सामने आता है।<br /><br />तुमने रुँधे गले से कहा था, "मुझे अपने आपसे चिढ़ होने लगी है।" मेरा मन हुआ था, तुमसे पूछूँ कि चिढ़ किसलिए होने लगी है- गलत काम किया इसलिए या कि गलत काम पकड़ में आ गया इसलिए? लेकिन मैंने कहा कुछ भी नहीं था। क्योंकि यह वक्त तुम्हें कुरेदने का नहीं था। यह वक्त तुम्हे तसल्ली देने का था।<br /><br />शायद तुम्हें याद हो- अगले दिन हम जामा मस्जिद के पिछवाड़े से एक पुरान रेडिएटर खरीद कर लाए थे। सॉल्वेज में रख दिया था। हिसाब-किताब पूरा चैप्टर क्लोज। मामला रफा-दफा। तुम बच गए थे। तुम खुश थे। तुम्हारी खुशी मेरा सुख था बन्नी। तुम खुश थे। मैं सुखी थी।<br /><br />मुद्दतों बाद, शाम को हम फिर उसी अतुल ग्रोव रोड पर निकले थे। वह जाड़े की सर्द शाम थी। अंधेरा जल्दी ही इमारतों और दरख्तों पर गिर गया था। सड़क पर दूधिया रोशनी का सैलाब था। लेकिन सड़क सुनसान थी। तुमने मुझे अपने साथ सटा रखा था। उस दिन तुमने बहुत बार मुझे देखा था। तुम्हारी आंखें नम हो जातीं। तुम मुझे प्यार करने लगते। मैं मुस्कुरा देती... ऐसा लग रहा था जैसे हम मुहब्बत की सालगिरह मना रहे हैं।<br /><br />पता नहीं क्यों, उस दिन मुझे ऐसा लगने लगा कि तुम लौट आए हो मेरे पास। अपने बनवारी लाल को तुम पीछे छोड़कर मेरे बन्नी हो गए हो- मुकम्मल मेरे बन्नी!<br /><br />हम त्रिवेणी में बैठे रहे थे देर तक। बाहर बैठना हमें अच्छा लगता। यहां फूल-पत्तों-लताओं की छत थी। कुछ पत्ते हमारे पास अठखेलियां कर रहे थे। मैं पत्ता तोड़ती, उस पर लिखती- बन्नी। फिर वही पत्ता तुम्हें देती। तुम देखकर हँस पड़ते। तुमने संजीदा होकर पूछा था, "घर नहीं जाओगी जानकी?"<br />मैने हंसते हुए कहा था, "घर तो मेरे सामने बैठा है।"<br />तुम पता नहीं किस बात पर बहुत गंभीर हो गए थे। शायद किस गणित में उलझ गए थे तुम। तुमने इतना कहा था, "पगली हो!"<br />मैने गहरी सांस ली थी। कहा था, "मेरी तरह जीवन-शैली जीनेवाले या तो पिछड़ जाते हैं या फिर पागल समझ लिए जाते हैं"<br /><br />बन्नी, मैं पागल तो नहीं हुई, पिछड़ जरूर गई हूँ। लेकिन खुद को नहीं खोया मैंने। अपनी निजता को बचाए रखा है, और तुम? तुमने अपनी मनुष्यता को किसी डस्टबिन में डाला और आगे बढ़ गए...<br /><br />कंपीटीटिव टेस्ट के लिए भी तुमने चालाकी बरती। मुझ रोक दिया। मैं पेपर देती तो वह कुंठा तुम्हें घेर लेती। तुम नर्वस हो जाते। नतीजा- फेल हो जाते.... तुम सेलेक्ट हो गए, अफसर बन गए। और फिर उसके बाद की यात्रा किसी पैराशूट जैसी रही। तुमने पलटकर नहीं देखा था। टारगेट था तुम्हारा- सर्वश्रेष्ठ होना। और मैं कहीं बहुत पीछे खड़ी, ठगी-सी तुम्हें देखती रही। तम अपने पैरों की गर्द उड़ाते आगे निकल गए, बहुत आगे...।<br /><br />***<br /><div class="qoute1" style="margin-right: 5px;">चर्चित कथाकार ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में सामाजिक विडम्बनाओं के विभिन्न मंजर उपस्थित रहते हैं। उनकी कहानियाँ बाज़ारवादी तन्त्र से संचालित होते नये समाज का अक़्श और नक़्श हैं। कहानियों के पात्र बेचैन और चिन्तातुर हैं तो इसलिए कि समाज इतना निस्संग और क्रूर क्यों होता जा रहा है। यही तनाव इन कहानियों में है।... संभवतः इन कहानियों के लेखन के पीछे कहानीकार का यही मक़सद रहा है।<br /><br /><span style="font-style:italic;">ज्ञानपीठ से प्रकाशित कहानी-संग्रह 'शिकारगाह' के पृष्ठ कवर पर छपी एक टिप्पणी।</span></div>क्या यह तुम्हारी क्रूरता नहीं थी कि तुमने अपनी शादी का निमंत्रण-पत्र मुझे दिया था? नहीं, मेरे पैरों की जमीन नहीं खिसकाई थी तुमने। तुमने मुझे साइयनायड भी नहीं दिया था कि मैं मर जाती .. । तुमने ठगा जरूर था मुझे। शादी से पहले क तमाम औपचारिकताएं छुपाएं रखी थी तुमने..। तुम मुझसे मिलते रहे थे। बेशक तुम्हार मिलना भावनाओं से भरे युवक का मिलना नहीं होता था। फिर भी तुम मिलते। तपाक से बातें करते।<br /><br />तुम प्रशासनिक अधिकारी बन चुके थे। मै वही की वही। एक सामान्य-सी असिस्टेंट! क्लास थ्री। तुममें आत्मविश्वास भरा था। सिगरेट भी तुम कीमती पीने लगे थे। अपने छोटे-से केबिन में जब तुमने अपनी शादी का कार्ड दिया तो मैं हतप्रभ रह गई, जैसे अचानक किसी ने मुझे अंगारों के बीच फेंक दिया हो! जैसे अचानक किसी ने मेरे अंदर की आत्मा निकाल ली हो! जैसे अचानक किसी ने मेरी सोचने की ताकत छीन ली हो।<br /> <br />तुमने कहा था, "प्रगति मैदान.. फुलकारी में डिनर है।" तुमने कहा था, "मैं बहुत खुश हूँ..." तुमने कहा था, "लड़की बहुत सुंदर है।" <br /><br />बन्नी उस वक्त मैं बहुत कमजोर अकेली और असुरक्षित हो गई थी। तुम्हारे केबिन से कार्ड लेकर उठी थी। पता नहीं क्या हो गया था मुझे। कुल एक मिनट का रस्ता था तुम्हारे केबिन से मेरी सीट तक। लगता था, मैं एक सदी से चल रही हूँ। रिश्तों में सचमुच एक सदी जितनी दूरी आ गई थी। लगता था मैं एक सदी बूढ़ी हो गई हूँ। मैं बैठ नहीं सकी थी। बहुत अस्थिर थी मैं। आधा दिन छुट्टी ली थी मैंने और न जाने क्या सोच कर अतुल ग्रोव रोड पर चली आई थी। मैं अकेली थी। व्यथित थी। बेक़ैफ थी। बेचैन थी। कितनी फालतू, कितनी व्यर्थ थी मैं। मैं सोचती। अवसाद से घिर जाती। काश, तुम मेरे साथ होते। तुम नहीं थे। मेरी आँखें भीगती। मैं आंखे पोंछती। आंसू फिर तैरने लगते। <br /><br />बनवारी लाल, लोग बताते हैं कि बारातवाले दिन तुम घोड़ी से गिर पड़े थे। तुम्हार मुकुट दूर जा गिरा था .. क्या यह सच है? कुछ लोगों को खूब अच्छा लगा होगा तुम्हारा गिरना। मुझे नहीं लगा था। मैंने तुमसे प्रेम किया है न। मैं तुम्हें गिरता हुआ कैसे देख सकती हूँ?... लोग कहते हैं तुमने पी रखी थी। न भी पी रखी हो। पैसे का भी तो नशा होता है। कई बार बेवजह का भी नशा होता है। शायद उसी ने गिराया हो तुम्हें.....<br /><br />जब तुम्हें बनवारी लाल कहती हूं तो ऐसा लगता है, जैसे किसी बहुत पुराने, बहुत बूढ़े या लगभग अधेड़ आदमी के बारे में सोच रही हूँ। वक़्त भी तो कितना बह चुका है। वक़्त मेरी-तुम्हारी कितनी-कितनी उम्र चुराकर ले गया। पता नहीं चला। बेशक तुम बूढ़े नहीं हुए, मैं भी नहीं हुई लेकिन तुम्हारे शरीर का भूगोल बेडौल हो गया है... बहुत अरसे बाद देखा है तुम्हें। इस बीच तुम यहाँ से ट्रांसफर हो कर गए। फिर कई सारे दफ्तर, कई सारी जगहें, नए शहर, नयी चालकियां, नई दोस्तियां नए समीकरण..... नए प्रमोशंस......<br /><br />इतने सालों बाद आज फिर तुम इस दफ्तर में डिवीजनल मैनेजर के रूप में और मैं। वही सीनियर असिस्टेंट। मैं तम्हें देखती हूँ। अतीत का कोई जर्द पत्ता सरसराता हुआ मेरे सामने आ गिरता है। तुमने एक बार हॉल में नजर दौड़ाई है। शायद मुझे भी देखा हो तुमने.... शायद उस सीट को भी देखा हो जहां तुम पहलेपहल बैठे थे।.... मैने तुम्हें देखा था। तुम्हारे चेहरे पर दर्प था, अंहकार था। <br /><br />बनवारीलाल, यह वही दफ्तर हैं, जहाँ तुमने अपना नाम बताया था मुझे अटकते-अटकते। झिझकते हुए बी ...बी ...बी एल विश्वास! यह वही दफ्तर है जहां एक सिरे पर तुम बैठे होते, दूसरे सिरे पर मैं। मिस्टर बनवारी लाल, बिल्कुल यह वही दफ्तर है जहां तुमने पुराने रेडिएटर की चोरी की थी। जहाँ तुमने मेरी हथेली पर अपना माथा टिकाकर कहा था, "तुम न मिली तो मैं खो जाउंगा जानकी!.... तम्हारा होना मेरी जिंदगी का विश्वास है।"<br /><br />खैरमकदम बनवारी लाल .. स्वागतम् ... सुस्वागतम्... हार्दिक अभिनंदन! आप फिर इस दफ्तर में आए हैं। मुद्दतों के बाद डिवीजनल मैनेजर बनकर। रुतबा, शोहरत, ओहदा, गुरूर. महत्वाकांक्षाएं, लाइफ स्टाइल बहुत कुछ साथ लाए हैं आप! आदमी के पहुंचने से पहले उसके कारनामे पहुँच जाते हैं। पता है ना आपको... हर मनुष्य अपनी पर्सनालिटी और उसका एटमॉस्फेयर भी साथ लेकर आता है। ठीक कह रही हूँ न!... यहां कुछ भी नहीं बदला, न दीवारें, न फर्नीचर, न माहौल, बदले हैं सिर्फ आप। कितन लैमिनेटेड चेहरा लग रहा है आपका भद्रजन! श्रेष्ठ पुरुष!<br /><br />***<br />आपने अपने चैंबर में बुलाया है हम सबको, जिनमें मैं भी शामिल हूँ। कितने सार संस्मरण सुनाए हैं तुमने! तम्हारी याद्दाश्त यानी मेमोरी खूब है बनवारी लाल! <br /><br />मैं पूछना चाहती हूँ तुमसे- क्या याद है तुम्हें अतुल ग्रोव रोड का एकांत, सुनसान सड़क, हमारा साथ-साथ हाथ पकड़कर चलना। एक विचित्र संसार का निर्माण करना? त्रिवेणी... नत्थू स्वीट्स और स्कूल लेन जहां से हम घूमते हुए फ्लाइओवर पर चढ़ जाते थे। मैं पूछना चाहती हूँ, क्या याद है वो दिन, जिस दिन मैंने दिवाकर को थप्पड़ मार दिया था? वो तुम पर लगातार जेमक्लिप फेंक रहा था। तुमने सहन कर लिया था? पर मुझे सहन नहीं हुआ था।<br /> <br />तुम्हारा अपमान मुझसे कभी सहन नहीं हुआ मिस्टर बनवारी लाल!<br /><br />तुम्हारे चैंबर से सभी लोग बाहर चले गए थे। उनके साथ मैं भी उठ खड़ी हुई थी। तुमने मुझे बैठने का संकेत किया था। मैं बैठ गई थी। सोचने लगी थी कि शायद तुम अतीत की कोई बात करो। लेकिन तुमने परेशान करने वाला सवाल पूछा था, "मिस या मिसेज?"<br /><br />यह प्रश्न मुझे अच्छा नहीं लगा था। इस प्रश्न में जो संकेत निहित थे उन्हें मैं पहचान रही थी। मैं चुप बैठी रही। तुम बेहद चालाक और शातिर दिमाग रखते थे। तुमने मेरी चुप के अर्थ जान लिए थे। तुम मन ही मन खुश हुए थे। शायद तुम यही चाहते थे। जानकी नाम का खिलौना अब भी तुम्हारा लिए रखा हुआ था- महफूज, सुरक्षित।<br /><br />तुम मुस्कराए थे। तुम्हारा मुस्कुराना मुझे अच्छा नहीं लगा था। कुटिलता थी उसमें। तुमने अपनी नजर मेरे वक्ष पर टिका दी थी। इस बीच तुमने एक बार फोन अटेंड किया था। फोन रखा। नजर फिर वहीं। मुझे संकोच हुआ था, तुम्हें नहीं। तुम मुझे देखते रहे। तुम्हारे अंदर कोई जंगली पशु था, जो जाग गया था। तुम इस तरह तो नहीं देखा करते थे मुझे। अक्सर नजरें झुका लेते। मुझे अच्छा लगता। लेकिन आज... तुम ऐसे देख रहे थे जैसे कि मैं सिर्फ एक 'देह' हूँ।<br /><br />मैं कहना चाहती थी, "शिखर-पुरुष, ऐसे मत देखो" कहा नहीं था मैने कुछ भी।<br /> <br />लेकिन तुम अपनी गलाजात छिपा नहीं पाए थे। कहा था तुमने, "पहले की तरह स्मार्ट हो ..." और कहकर चुप हो गए थे तुम। मुस्कुराए थे। मैं तुम्हारे वाक्य पर अटकी थी। तुमने मुस्कुराते हुए कहा था- "स्मार्ट हो और सेक्सी भी।"<br /><br />मैं कांप गई थी। लगा कि मेरे शरीर में कोई विस्फोट हुआ है। फट पड़ी हूँ मैं। तुम ... तुम ऐसी बात कह रहे थे। तुम्हारे शब्दकोश में ऐसे शब्द नहीं हुआ करते थे। क्या मेरा और कोई रूप नहीं था शिखर-पुरुष? तुमने एक बार सिर्फ एक बार, मेरे भीतर की स्त्री से साक्षात्कार किया होता... शिखर -पुरुष! कैसी विडंबना है, तुमने अपनी जेहनियत का एक्स-रे निकालकर मुझे दे दिया था। मुझे ऐसे लगा था कि बड़ी-सी मेज के उस पर बहुत छोटा आदमी बैठा है।<br /><br />मैंने अपना ट्रांसफर करवा लिया है शिखर पुरुष! मैं तुम्हारे विकास से नहीं, पतन से घबरा गई हूँ। इस दफ्तर का साम्राज्य मुबारक हो बनवारी लाल।<br /><br />और मैं . मैं अब भी त्रिवेणी में अकेली बैठी, किसी लटकती बेल के हरे पत्ते को तोड़ूँगी। कुछ याद करूँगी। फिर अपने नाखून से एक नाम लिखूंगी- बन्नी।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-54518266181228335382009-05-11T11:14:00.001+05:302009-05-11T11:14:32.803+05:30उस धूसर सन्नाटे में- धीरेन्द्र अस्थानाहिन्द-युग्म की लगातार यही कोशिश है कि इंटरनेटीय पाठकों को मुख्यधारा के ख्यातिलब्ध कहानीकारों की कहानियों से भी रूबरू कराया जाय। <a href="#dheerendra">धीरेन्द्र अस्थाना</a> हिन्दी कहानी का एक स्थापित नाम है। आज हम उन्हीं की एक कहानी <strong>'उस धूसर सन्नाटे में'</strong> आपकी नज़र कर रहे हैं।<br /><hr/><br /><A name="up"></A><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">उस धूसर सन्नाटे में</span></strong></center><br /><br />फोन करने वाले ने जब आर्द्र स्वर में सूचना दी कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह थोड़ी देर पहले गुजर गए तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ।<br /><br />उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था, जब आसमान पर मटमैले बादल छाए हुए थे और सड़कों पर धूल भरी आंधी मचल रही थी। अखबारों में मौसम की भविष्यवाणी सुबह ही की जा चुकी थी। अफवाह थी कि लोकल ट्रेनें बन्द होने वाली हैं। गोराई की खाड़ी के आसपास मूसलाधार बारिश के भी समाचार थे। कोलाबा हालांकि अभी शांत था लेकिन आजाद मैदान धूल के बवंडरों के बीच सूखे पत्ते सा खड़खड़ा रहा था।<br /><br />यह रात के ग्यारह बजे का समय था। क्लब में उदासीनता और थकान एक साथ तारी हो चुकी थीं। लास्ट ड्रिंक की घंटी साढ़े दस बजे बज गई थी-नियमानुसार, हालांकि आज उसकी जरूरत नहीं थी। क्लब की चहल-पहल के सामने, ऐन उसकी छाती पर, मौसम उस रात शायद पहली बार प्रेत-बाधा सा बन कर अड़ गया था। इसलिए क्लब शुरू से ही वीरान और बेरौनक नजर आ रहा था।<br /><br />उस दिन बंबई के दफ्तर शाम से पहले ही सूने हो गए थे। हर कोई लोकल के बंद हो जाने से पहले ही अपने घर के भीतर पहुंच कर सुरक्षित हो जाने की हड़बड़ी में था। भारी बारिश और लोकल जाम-यह बंबईवासियों की आदिम दहशत का सर्वाधिक असुरक्षित और भयाक्रांत कोना था, जिसमें एक पल भी ठहरना चाकुओं के बीच उतर जाने जैसा था। <br /><br />और ऐसे मौसम में भी ब्रजेंद्र बहादुर सिंह शाम सात बजे ही क्लब चले गए थे। क्लब उनके जीवन में धमनियों की तरह था-सतत जाग्रत, सतत सक्रिय। क्लब के वेटर बताते थे कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह पश्चिम रेलवे के ट्रेक पर बने बंबई के सबसे अंतिम स्टेशन दहिसर में बने अपने दो कमरों वाले फ्लैट से निकल कर इतवार की शाम को भी आजाद मैदान के पास बने इस क्लब में चले आते थे। सो, उस शाम विपरीत मौसम के बावजूद, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्लब में जिद की तरह मौजूद थे। <br /><br />करीब ग्यारह बजे उन्होंने खिड़की का पर्दा सरकाकर आजाद मैदान के आसमान की तरफ ताका था। नहीं, उस ताकने में कोई दुश्चिंता नहीं छिपी थी। वह ताकना लगभग उसी तरह का था जैसे कोई काम न होने पर हम अपनी उंगलियां चटकाने लगते हैं लेकिन सुखी इस तरह हो जाते हैं जैसे बहुत देर से छूटा हुआ कोई काम निपटा लिया गया हो।<br />आसमान पर एक धूसर किस्म का सन्नाटा पसरा हुआ था और आजाद मैदान निपट खाली था-वर्षों से उजाड़ पड़ी किसी हवेली के अराजक और रहस्यमय कंपाउंड सा। विषाद जैसा कुछ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की आंखों में उतरा और उन्होंने हाथ में पकड़े गिलास से रम का एक छोटा घूंट भरा फिर वह उसी गिलास में एक लार्ज पैग और डलवा कर टीवी के सामने आ बैठ गए-रात ग्यारह के अंतिम समाचार सुनने। <br /><br />ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्लब के नियमों से ऊपर थे। उन्हें साढ़े दस बजे के बाद भी शराब मिल जाती थी, चुपके चुपके, फिर आज तो क्लब वैसे भी सिर्फ उन्हीं से गुलजार था। छह वेटर और ग्राहक दो, एक ब्रजेंद्र बहादुर सिंह और दूसरा मैं। <br /><br />मैं दफ्तर में उनका सहयोगी था और उनके फ्लैट से एक स्टेशन पहले बोरीवली में किराए के एक कमरे में रहता था। उतरते वह भी बोरीवली में ही थे और वहां से ऑटो पकड़कर अपने फ्लैट तक चले जाते थे। मैं उनका दोस्त तो था ही, एक सुविधा भी था। सुबह ग्यारह बजे से रात ग्यारह, बारह और कभी कभी एक बजे तक उनके संग-साथ और निर्भरता की सुविधा। हां, निर्भरता भी क्योंकि कभी-कभी जब वह बांद्रा आने तक ही सो जाते थे तो मैं ही उन्हें बोरीवली में जगा कर दहिसर के ऑटो में बिठाया करता था। मेरे परिचितों में जहां बाकी लोग नशा चढ़ने पर गाली-गलौज करने लगते थे या वेटरों से उलझ पड़ते थे वहीं ब्रजेंद्र बहादुर सिंह चुपचाप सो जाते थे। कई बार वह क्लब में ही सो जाते थे और जगाने पर ‘लास्ट फॉर द रोड‘ बोल कर एक पैग और मंगा कर पी लेते थे। कई बार तो मैंने यह भी पाया था कि अगर वह लास्ट पैग मांगना भूल कर लड़खड़ाते से चल पड़ते थे, तो क्लब के बाहरी गेट की सीढ़ियों पर कोई वेटर भूली हुई मोहब्बत सा प्रकट हो जाता था-हाथ में उनका लास्ट पैग लिए।<br /><br />ऐसे क्षणों में ब्रजेंद्र सिंह भावुक हो जाते थे, बोलते वह बहुत कम थे, धन्यवाद भी नहीं देते थे। सिर्फ कृतज्ञ हो उठते थे। उनके प्रति वेटरों के इस लगाव को देख बहुत से लोग खफा रहते थे। लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता था कि क्लब के हर वेटर के घर में उनके द्वारा दिया गया कोई न कोई उपहार अवश्य मौजूद था-बॉलपेन से लेकर कर कमीज तक और पेंट से लेकर घड़ी तक। <br /><br />नहीं, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह रईस नहीं थे। जिस कंपनी में वह परचेज ऑफीसर थे, वहां उपहारों का आना मामूली बात थी। यही उपहार वह अपने शुभचिंतकों को बांट देते थे। फिर वह शुभचिंतक चाहे क्लब का वेटर हो या उस बिल्डिंग का दरबान, जिसमें उनका छोटा सा, दो कमरों वाला फ्लैट था। फिलीपींस में असेंबल हुई एक कीमती रिस्टवाच उस वक्त मेरी कलाई में भी दमक रही थी जब ब्रजेंद्र बहादुर सिंह आजाद मैदान के आसमान में रंगे उस सन्नाटे से टकरा कर टीवी के सामने आ बैठ गए थे-अंतिम समाचार सुनने। <br /><br />कुछ अरसा पहले एक गिफ्ट मेकर उन्हें यह घड़ी दे गया था। जिस क्षण वह खूबसूरत रैपर को उतारकर उस घड़ी को उलट-पुलट रहे थे, ठीक उसी क्षण मेरी नजर उनकी तरफ चली गई थी। मुझसे आंख मिलते ही वह तपाक से बोले थे-‘तुम ले लो। मेरे पास तो है।‘ <br /><br />यह दया नहीं थी। यह उनकी आदत थी। उनका कहना था कि ऐसा करके वह अपने बचपन के बुरे दिनों से बदला लेते हैं। सिर्फ उपहार में प्राप्त वस्तुओं के माध्यम से ही नहीं, अपनी गाढ़ी कमाई से अर्जित धन को भी वह इसी तरह नष्ट करते थे। एक सीमित, बंधी तन्ख्वाह के बावजूद टैक्सी और आॅटो में चलने के पीछे भी उनका यही तर्क काम कर रहा होता था। <br /><br />सुनते हैं कि अपने बचपन में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह अपने घर से अपने स्कूल की सात किलोमीटर की दूरी पैदल नापा करते थे क्योंकि तब उनके पास बस का किराया दो आना नहीं होता था। <br /><br />टीवी के सामने बैठे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह अपना लास्ट पैग ले रहे थे और मैं टॉयलेट गया हुआ था। लौटा तो क्लब का मरघटी सन्नाटा एक अविश्वसनीय शोरगुल और अचरज के बीच खड़ा कांप रहा था, पता चला ब्रजेंद्र बहादुर सिंह ने अपने सबसे चहेते वेटर हनीफ को चांटा मार दिया था।<br /><br />जिंदगी के निचले पायदानों पर लटके-अटके हुए लोग, क्रांति की भाषा में उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। अगर प्रतिक्रिया स्वरूप सारे वेटर एक हो जाएं और उस सुनसान रात में एक चांटा भी ब्रजेंद्र बहादुर सिंह को जड़ दें तो उसकी आवाज पूरे शहर में कोलाहल की तरह गूंज सकती थी और मीमो बन कर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के बेदाग कैरियर में पैबंद की तरह चिपक सकती थी। <br /><br />ऐसा कैसे संभव है? मैं पूरी तरह बौराया हुआ था और अविश्वसनीय नजरों से उन्हें घूर रहा था। अब तक अपना चेहरा उन्होंने अपने दोनों हाथो में छुपा लिया था। <br /><br />क्या हुआ? मैंने उन्हें छुआ। यह मेरा एक सहमा हुआ सा प्रयत्न था। लेकिन वह उलझी हुई गांठ की तरह खुल गए। <br />उस निर्जन और तूफानी रात के नशीले एकांत में मैंने देखा अपने जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार। वह चमत्कार था या रहस्य। रहस्य था या दर्द। वह जो भी था इतना निष्पाप और सघन था कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए। <br /><br />ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के अधेड़ और अनुभवी चेहरे पर दो गोल, पारदर्शी आंसू ठहरे हुए थे और उनकी गहरी, भूरी आंखें इस तरह निस्संग थीं, मानों आंसू लुढ़का कर निर्वाण पा चुकी हों। दोनों घुटनों पर अपने दोनों हाथों का बोझ डाल कर वह उठे। जेब से क्लब का सदस्यता कार्ड निकाला। उसके चार टुकड़े कर हवा में उछाले और कहीं दूर किसी चट्टान से टकरा कर क्षत-विक्षत हो चुकी भर्राई आवाज में बोले -‘चलो, अब हम यहां कभी नहीं आएंगे।‘<br />‘लेकिन हुआ क्या? मैं उनके पीछे-पीछे हैरान-परेशान स्थिति में लगभग घिसटता सा क्लब की सीढ़ियों पर पहुंचा।<br /><br />बाहर बारिश होने लगी थी। वह उसी बारिश में भीगते हुए स्थिर कदमों से क्लब का कंपाउड पार कर मुख्य दरवाजे पर आ खड़े हुए थे। अब बाहर धूल के बवंडर नहीं, लगातार बरसती बारिश थी और ब्रजेंद्र सिंह उस बारिश में किसी प्रतिमा की तरह निर्विकार खड़े थे। निर्विकार और अविचलित। यह रात का ग्यारह बीस का समय था और सड़क पर एक भी टैक्सी उपलब्ध नहीं थी। मुख्य द्वार के कोने पर स्थित पान वाले की गुमटी भी बन्द थी और बारिश धारासार हो चली थी।<br />‘मुझे भी नहीं बताएंगे?‘ मैंने उत्सुक लेकिन भर्राई आवाज में पूछा। बारिश की सीधी मार से बचने के लिए मैंने अपने हाथ में पकड़ी प्लास्टिक की फाइल को सिर पर तान लिया था और उनकी बगल में आ गया था, जहां दुख का अंधेरा बहुत गाढ़ा और चिपचिपा हो चला था।<br />‘वो साला हनीफ बोलता है कि सुदर्शन सक्सेना मर गया तो क्या हुआ? रोज कोई न कोई मरता है। सुदर्शन ‘कोई‘ था?‘<br />ब्रजेद्र बहादुर सिंह अभी तक थरथरा रहे थे। उनकी आंखें भी बह रही थीं-पता नहीं वे आंसू थे या बारिश?<br />‘क्या?‘ मैं लगभग चिल्लाया था शायद, क्योंकि ठीक उसी क्षण सड़क से गुजरती एक टैक्सी ने च्चीं च्चीं कर ब्रेक लगाए थे और पल भर को हमें देख आगे रपट गई थी।<br />‘सुदर्शन मर गया? कब?‘ मैंने उन्हें लगभग झिंझोड़ दिया। <br />‘अभी, अभी समाचारों में एक क्षण की खबर आई थी-प्रख्यात कहानीकार सुदर्शन सक्सेना का नई दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद देहांत।‘ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह समाचार पढ़ने की तरह बुदबुदा रहे थे, ‘तुम देखना, कल के किसी अखबार में यह खबर नहीं छपेगी। उनमें बलात्कार छप सकता है, मंत्री का जुकाम छप सकता है, किसी जोकर कवि के अभिनंदन समारोह का चित्र छप सकता है लेकिन सुदर्शन सक्सेना का निधन नहीं छप सकता। छपेगा भी तो तीन लाइन में... मानों सड़क पर पड़ा कोई भिखारी मर गया हो,‘ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्रमशः उत्तेजित होते जा रहे थे। आज शराब का अंतिम पैग उनकी आंखों में नींद के बजाय गुस्सा उपस्थित किए दे रहा था। लेकिन यह गुस्सा बहुत ही कातर और नख-दंत विहीन था, जिसे बंबई के उस उजाड़ मौसम ने और भी अधिक अकेला और बेचारा कर दिया था। <br />‘और वो हनीफ...‘ सहसा उनकी आवाज बहुत आहत हो गई, ‘तुम टॉयलेट में थे, जब समाचार आया। हनीफ सोडा रखने आया था... तुम जानते ही हो कि मैंने कितना कुछ किया है हनीफ के लिए... पहली तारीख को सेलरी लेकर यहां आया था जब हनीफ ने बताया था कि उसकी बीवी अस्पताल में मौत से जूझ रही है...पूरे पांच सौ रुपए दे दिए थे मैंने जो आज तक वापस नहीं मांगे... और उसी हनीफ से जब मैंने अपना सदमा शेयर करना चाहा तो बोलता है आप शराब पियो, रोज कोई न कोई मरता है... गिरीश के केस में भी यही हुआ था। दिल्ली से खत आया था विकास का कि गिरीश की अंत्येष्टि में उस समेत हिंदी के कुल तीन लेखक थे। केवल ‘वर्तमान‘ ने उसकी मौत पर आधे पन्ने का लेख कंपोज करवाया था लेकिन साला वह भी नहीं छप पाया था क्योंकि ऐन वक्त पर ठीक उसी जगह के लिए लक्स साबुन का विज्ञापन आ गया था... यू नो, हम कहां जा रहे हैं?‘<br /><br />सहसा मैं घबरा गया, क्योंकि अधेड़ उम्र का वह अनुभवी, परचेज ऑफीसर, क्लब का नियमित ग्राहक, बुलंद ठहाकों से माहौल को जीवंत रखने वाला ब्रजेंद्र बहादुर सिंह बाकायदा सिसकने लगा था।<br /><br />हमें सिर से पांव तक पूरी तरह तरबतर कर देने के बाद बारिश थम गई थी, और ब्रजेंद्र बहादुर सिंह को शायद एक लंबी, गरम नींद की जरूरत थी। ऐसी नींद, जिसमें वह मनहूस हाहाकार न हो जिसके बीच इस समय ब्रजेंद्र बहादुर सिंह घायल हिरनी की तरह तड़प रहे थे। <br /><br />तभी एक अजाने वरदान की तरह सामने एक टैक्सी आकर रुकी और टैक्सी चालक ने किसी देवदूत की तरह चर्चगेट ले चलना भी मंजूर कर लिया। हम टैक्सी में लद गए।<br /><br />बारिश फिर होने लगी थी। ब्रजेंद्र बहादुर सिंह टैक्सी की सीट से सिर टिका कर सो गए थे। उनके थके-थके आहत चेहरे पर एक साबुत वेदना अपने पंख फैला रही थी। <br />×××<br /><br />फिर करीब छह महीने तक उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। वह दफ्तर से लंबी छुट्टी पर थे। तीन चार बार मैं अलग-अलग समय पर उनके फ्लैट में गया लेकिन हर बार वहां ताला लटकता पाया। <br /><br />इस बीच देश और दुनिया, समाज और राजनीति, अपराध और संस्कृति के बीच काफी कुछ हुआ। छोटी बच्चियों से बलात्कार हुए, निरपराधों की हत्याएं हुईं, कुछ नामी गंुडे गिरफ्तार हुए, कुछ छूट गए, टैक्सी और आॅटो के किराए बढ़ गए। घर-घर में स्टार, जी और एमटीवी आ गए। पूजा बेदी कंडोम बेचने लगी और पूजा भट्ट बीयर। फिल्मों में लव स्टोरी की जगह गैंगवार ने ले ली। कुछ पत्रिकाएं बंद हो गईं और कुछ नए शराबघर खुल गए। और हां, इसी बीच कलकत्ता में एक, दिल्ली में दो, बंबई में तीन और पटना में एक लेखक का कैंसर, हार्टफेल, किडनी फेल्योर या ब्रेन ट्यूमर से देहांत हो गया! गाजियाबाद में एक लेखक को गोली मार दी गई और मुरादाबाद में एक कवि ने आत्महत्या कर ली। <br /><br />ऐसी हर सूचना पर मुझे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह बेतरह याद आए। लेकिन वह पता नहीं कहां गायब हो गए थे। क्लब उनके बिना सूली पर चढ़े ईसा सा नजर आता था!<br /><br />फिर तीन महीने बाद अप्रैल की एक सुबह ब्रजेंद्र बहादुर सिंह दफ्तर में अपनी सीट पर बैठे नजर आए। दफ्तर के हाॅल में घुसने पर जैसे ही मेरी नजर उनकी सीट पर पड़ी और वे उस पर बैठे दिखाई दिए तो अचरज और खुशी के आधिक्य से मेरा तन मन लरज उठा। मैं तो इस बीच उनको लगभग खो देने की पीड़ा के हवाले हो चुका था। लेकिन वह थे, साक्षात। <br /><br />‘बैठो!‘ मुझे अपने सामने पा कर उन्होंने अत्यंत संयत और सधे हुए लहजे में कहा। वे किसी फाइल में नत्थी ढेर सारे कागजों पर दस्तखत करने में तल्लीन थे और मेरी उत्सुकता थी कि पसीने की मानिंद गर्दन से फिसल कर रीढ़ के सबसे अंतिम बिंदु पर पहुंच रही थी। मैं चुपचाप, अपनी उत्सुकता में बर्फ सा गलता हुआ अपने उस चहेते, अधेड़ दोस्त को अनुभव कर रहा था जो नौ महीने पहले बंबई की एक मनहूस, बरसाती रात में मुझसे बिछुड़ गया था और आज, अचानक, बिना पूर्व सूचना के अपनी उस चिर परिचित सीट पर आ बैठा था जो इन नौ महीनों में निरंतर घटती अनेक घटनाओं के बावजूद एक जिद्दी प्रतीक्षा में थिर थी।<br /><br />ब्रजेंद्र बहादुर सिंह दुबले हो गए थे। उनकी आंखों के नीचे स्याह थैलियां सी लटक आई थीं। कनपटियों पर के मेंहदी से भूरे बने बाल झक्क सफेद थे। आंखों पर नजर का चश्मा था जिसे वह रह-रह कर सीधे हाथ की पहली उंगली से ऊपर सरकाते थे। और हां, दस्तखत करने के दौरान या बीच बीच में पानी का गिलास उठाते समय उनके हाथ कांपते थे। उनकी आंखों में एक शाश्वत किस्म की ऐसी निस्संगता थी जो जीवन के कठिनतम यथार्थ के बीच आकार ग्रहण करती है। नौ महीने बाद लौटे अपने उस पुराने मित्र को इन नई स्थितियों और अजाने रहस्यों सहित झेलने का माद्दा मेरे भीतर बहुत देर तक टिका नहीं रह सका। फिर, मुझे भी अपनी सीट पर जाकर अपने कामकाज देखने थे। <br />‘मिलते हैं।‘ कह कर मैंने उनके सामने से उठने की कोशिश की तो वे एक अत्यंत तटस्थ सी ‘अच्छा‘ थमा कर फिर से फाइल के बीच गुम हो गए।<br /><br />मैं अवाक रह गया। उत्सुकता को कब का पाला मार चुका था। फिर सारे दिन दर्द की ऐंठन से घबरा कर जब-जब मैंने उनकी सीट की तरफ ताका, वह किसी फंतासी की तरह यथार्थ के बीचोंबीच झूलते से मिले। <br />छत्तीस साल गुजारे थे मैंने इस दुनिया में। उन छत्तीस वर्षों के अपने बेहद मौलिक किस्म के दुख-दर्द, हर्ष-विषाद, अपमान और सुख थे मेरे खाते में। नाते-रिश्तेदारों और एकदम करीबी मित्रों के छल-कपट भी थे। प्यार की गर्मी और ताकत थी तथा बेवफाई के संगदिल और अनगढ़ टुकड़े भी थे। नशीली रातें, बीमार दिन, सूनी दुपहरियां, अश्लील नीली फिल्में और धूल चाटता उत्साह-क्या कुछ तो दर्ज नहीं हुआ था इन छत्तीस सालों में लेकिन इन छत्तीस कठिन और लंबे वर्षों में मैं एक पल के लिए भी उतना आंतकित और उदास नहीं हुआ था जितना इस एक छोटे से लम्हे में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की वीतरागी उपस्थिति ने मुझे बना डाला था। क्या वह दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से बाहर चले गए हैं? दुनिया देख लेना और दुनिया से बाहर चले जाना क्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं या इनका कोई अलग अलग मतलब है? नौ महीने बाद वापस लौटे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के पास ऐसे कौन से रहस्य हैं जिन्होंने उन्हें इतना रूक्ष और ठंडा बना दिया है? मां के गर्भ में नौ महीने बिताने वाला शिशु भी क्या कुछ ऐसे रहस्यों के बीच विचरण करता है जो आज तक अनावृत नहीं हुए। आखिर किस गर्भ में नौ महीने बिता कर लौटे हैं ब्रजेंद्र बहादुर सिंह।<br /><br />पूरा एक दिन मेरा सवालों के साथ लड़ते-झगड़ते बीत गया। दो सेरीडॉन सटकने के बावजूद दर्द माथे पर जोंक सा चिपटा हुआ था और उधर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की सदा-बहार-खुशगवार सीट पर जैसे एक दर्जन मुर्दों का मातम कोहरे सा बरस रहा था। <br /><br />आखिर वह उठे। शाम के सात बजे। दफ्तर साढ़े पांच बजे खाली हो चुका था। अब तीन लोग थे-मैं, वे और चपरासी दीनदयाल। मैं रूठा सा बैठा रहा, उनके उठने के बावजूद। वे धीरे-धीरे चलते हुए मेरी सीट तक आए। मैंने उन्हें देखा, उन्होंने मुझे। उनकी आंखों में रोशनी नहीं, राख थी। मैं पल भर के लिए सिहर गया। <br /><br />‘उठो दोस्त!‘ वे बोले, उनकी आवाज कई सदियों को पार कर आती सी लग रही थी। मैंने देखा, वह ठीक से खड़े नहीं हो पा रहे थे। कभी दाएं झूल जाते थे, कभी बाएं, मानों किसी बांस पर कोई कुर्ता हवा में अकेला टंगा हो।<br />×××<br /><br />बिना वार्तालाप का तीसरा पैग चल रहा था और मैं भावुकता के कगार पर आ पहुंचा था। हम उनके दहिसर वाले फ्लैट में थे- नौ महीने के स्पर्श और संवादहीन अंतराल के बाद। कमरे में रौशन तीन मोमबत्तियों की लौ एक नंबर पर चलते पंखे की हल्की हल्की हवा के बीच पीलिया के मरीज सी कांप रही थीं। फ्लैट में घुसते ही उन्होंने बता दिया था कि अब उन्हें अपनी रातें कम से कम रोशनी के बीच ही सुखकर लगती हैं और पूरा अंधेरा तो उन्हें बुखार में बर्फ की पट्टी सा अनुभव होता है। चीजों, रहस्यों और सत्यों को अंधेरे में टटोल टटोलकर पाने का सुख ही कुछ और है। <br />आखिर एक घंटे की मुसलसल खामोशी के सामने मेरा धैर्य तड़क गया। शब्दों में तरलता उंडेलते हुए मैंने धीमे धीमे कहन शुरू किया, ‘आपको मालूम है, आपके सबसे प्रिय नौजवान कवि ने कुछ समय पहले पंखे से लटक कर जान दे दी।‘ <br />‘हां, यह समाचार मैंने दार्जिलिंग में पढ़ा था।‘ उन्होंने आहिस्ता से कहा और चुप हो गए।<br />मैं चकित रह गया। यह वे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह नहीं थे जिन्होंने नौ महीने पहले क्लब में अपने चहेते वेटर हनीफ को चांटा मार दिया था। <br />‘और... और आपके बचपन के दोस्त, हम प्याला-हम निवाला शायर विलास देशमुख भी जाते रहे...‘ एक सच्चे दुख के ताप के बीच खड़ा मैं पिघल रहा था... ‘बहुत कारुणिक अंत हुआ उनका। घटिया से अस्पताल में बिना इलाज के मर गए... यहां की हिंदी और उर्दू अकादमियों ने कुछ नहीं किया। वे अंत समय तक यही तय नहीं कर पाईं कि एक महाराष्ट्रियन व्यक्ति को उर्दू का शायर माना जाए या हिन्दी का गजलगो।‘ मैंने क्षुब्ध स्वर में उन्हें जानकारी देनी चाही। <br />ब्रजेंद्र बहादुर सिंह ने गहरी खामोशी के साथ अपने गिलास से रम का एक बड़ा घूंट भरा और बिना किसी उतार चढ़ाव के पहले जैसी शांत-स्थिर आवाज में बोले -‘हां, उन दिनों मैं देहरादून में था अपनी एक दूर की भतीजी के पास, मुझे कोई अजीब सी स्किन प्रॉब्लम हो गई थी। चालीस दिन तक लगातार सहस्रधारा के गंधक वाले सोते में नहाता रहा। इस विवाद के बारे में मैंने अखबारों में पढ़ा था।‘<br />अखबार... समाचार... खबर... हर मृत्यु पर वे क्लब के वेटर हनीफ की तरह बोल रहे थे-क्रूरता की हद तक पहुंची निस्संगता के शिखर पर खड़े हो कर। नहीं, वे मेरे दोस्त ब्रजेंद्र सिंह तो कतई-कतई नहीं थे। मेरे उस दोस्त की काया में कोई संवेदनहीन, निर्लज्ज और पथरीला दैत्य प्रवेश पा चुका था। <br />चैथा पैग खत्म करते करते मेरा जी उचट गया। एक क्षण भी वहां बैठना भारी पड़ने लगा मुझे। मुंह का स्वाद कैसला हो गया था और शब्द मन के भीतर पारे की तरह थरथराने लगे थे। <br />और फिर मैं उठा। लड़खड़ाते कदमों से बिजली के स्विच बोर्ड के पास जाकर मैंने सारे बटन दबा दिए। कमरा कई तरह के बल्बों और ट्यूबलाइट की मिली-जुली रोशनी में नहाता हुआ विचित्र सी स्थित में तन गया। साथ ही तन गईं, अब तक किसी संत की तरह बैठे ब्रजेंद्र सिंह के माथे की नसें।<br />‘ऑफ... लाइट ऑफ!‘ वे दहाड़ पड़े। यह दहाड़ इतनी भयंकर थी कि डर के मारे मैंने फौरन ही कमरे को फिर अंधेरे के हवाले कर दिया।<br />‘सर, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह, आप तो ऐसे नहीं थे?‘ मैंने आहत होकर कहा था और स्विच बोर्ड वाली दीवार से टिक कर जमीन पर पसर गया था, ‘जीवन की उस करुणा को कहाँ फेंक आए आप जो...‘<br />‘यंग मैन!‘ मोमबत्तियों के उस अपाहिज उजाले में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह का भर्राया और गीला स्वर गूंजा-‘किस करुणा की बात कर रहे हो तुम, करुणा की जरूरत किसे है आज? नौ महीने इस शहर में नहीं था मैं... क्या मेरे बिना इस दुनिया का काम नहीं चला?‘<br />‘वो तो ठीक है सर...‘ अब तक मेरा स्वर भी आर्द्र हो चुका था।<br />‘कुछ ठीक नहीं है यंगमैन।‘ उनकी थकी-थकी आवाज उभरी, ‘तुम जानते हो कि मेरा अपना कोई परिवार नहीं है। क्लब में घटी उस घटना के बाद मैं अपनी सारी जमा पूंजी लेकर यात्रा पर निकल गया था। इस उम्मीद में कि शायद कहीं कोई उम्मीद नजर आए लेकिन गलत... एकदम गलत... मेरे प्यारे नौजवान दोस्त! संवेदनशील लोगों की जरूरत किसी को नहीं है और कहीं नहीं है। मुझे समझ में आ गया है कि उस रात हनीफ ने कितने बड़े सच को मेरे सामने खड़ा किया था। रोज कोई न कोई मरता है... क्या फर्क पड़ता है कि किसी कवि ने आत्महत्या की या कोई कारीगर रेल से कटा। कवि का मरना अब कोई घटना नहीं है। वह भी सिर्फ एक खबर है।‘<br />‘तो?‘ मैंने तनिक व्यंग्य के साथ प्रश्न किया। <br />‘तो कुछ नहीं। फिनिश। इसके बाद भी कुछ बचता है क्या?‘ वे मुझसे ही पूछने लगे थे। फिर से वही मुर्दा राख उनकी आंखों में उड़ने लगी थी, जिससे मैं डरा हुआ था। <br />यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। नशे में थरथराती उस दार्शनिक सी लगती रात के दो महीने बाद तक वह फिर दफ्तर नहीं आए थे। कुछ व्यस्तता के कारण और कुछ उनको बर्दाश्त न कर पाने की कमजोरी के कारण मैं स्वयं भी उनकी तरफ नहीं जा सका था। <br />और अब यह सूचना कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह चल बसे। मैंने बताया न, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था जब आजाद मैदान के आसमान पर वह धूसर सन्नाटा पसरा हुआ था। जिस रात उन्होंने क्लब के वेटर हनीफ के गाल पर चांटा मारा था। उसी रात जब रात के अंतिम समाचारों की अंतिम पंक्ति में दूरदर्शन वालों ने सुदर्शन सक्सेना के देहांत की खबर दी थी और सर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह निपट अकेले थे।<br />नहीं, सर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह लेखक या कवि या कलाकार नहीं थे। वह तो एक व्यावसायिक कम्पनी में परचेज ऑफीसर थे। <br />लेकिन उनका दुर्भाग्य कि वह उन किताबों के साथ बड़े हुए थे जिनकी अब इस दुनिया में कोई जरूरत नहीं रही। <br /><br />(रचनाकाल: दिसंबर 1992)<br /><hr/><br /><A name="dheerendra"></A><br /><div class="lparichay"><img style="margin-right:30px;" src="http://i173.photobucket.com/albums/w76/bharatwasi001/Dheerendra_Asthana.jpg" align="left" /><strong><span style="font-size:120%; color:#bf5d15;">धीरेन्द्र अस्थाना</span></strong><br /><ul><li><strong>जन्म :</strong> 25 दिसंबर 1956, उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में। </li><br /><li><strong>शिक्षा :</strong> मेरठ, मुजफ्फरनगर, आगरा, और अंतत: देहरादून से ग्रेजुएट। </li><br /><li><strong>विवाह :</strong> 13 जून 1978 को देहरादून में ललिता बिष्ट से प्रेम विवाह के बाद दिल्ली आगमन। हिंदी के सबसे बड़े पुस्तक प्रकाशन संस्थान राजकमल प्रकाशन से रोजगार का आरंभ। तीन वर्ष यहां काम करने के बाद लगभग नौ महीने राधा प्रकाशन में भी काम। </li><br /><li><strong>पत्रकारिता :</strong> सन् 1981 के अंतिम दिनों में टाइम्स समूह की साप्ताहिक राजनैतिक पत्रिका 'दिनमान' में बतौर उप संपादक प्रवेश। पांच वर्ष बाद हिंदी के पहले साप्ताहिक अखबार 'चौथी दुनिया' में मुख्य उप संपादक यानी सन् 1986 में। सन् 1990 में दिल्ली में बना-बनाया घर छोड़कर सपरिवार मुंबई गमन। एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक 'जनसत्ता' में फीचर संपादक नियुक्त। मुंबई शहर की पहली नगर पत्रिका 'सबरंग' का पूरे दस वर्षों तक संपादन। सन् 2001 में फिर दिल्ली लौटे। इस बार 'जागरण' समूह की पत्रिकाओं 'उदय' और 'सखी' का संपादन करने। सन् 2003 में फिर मुंबई। सहारा इंडिया परिवार के हिंदी साप्ताहिक 'सहारा समय' के एसोसिएट एडीटर बन कर। फिलहाल 'राष्ट्रीय सहारा' हिंदी दैनिक के मुंबई ब्यूरो प्रमुख। </li><br /><li><strong>कृतियां :</strong> लोग हाशिए पर, आदमी खोर, मुहिम, विचित्र देश की प्रेमकथा, जो मारे जाएंगे, उस रात की गंध, खुल जा सिमसिम, नींद के बाहर (कहानी संग्रह) <br />समय एक शब्द भर नहीं है, हलाहल, गुजर क्यों नहीं जाता, देश निकाला (उपन्यास)।<br />'रूबरू', अंतर्यात्रा (साक्षात्कार)।</li><br /><li>पहली कहानी 'लोग हाशिए पर' सन् 1974 में छपी जब उम्र केवल 18 वर्ष की थी। नवीनतम रचना 'देश निकाला' सन् 2008 में छपी जब उम्र 52 वर्ष की है। धीरे-धीरे लेकिन रचनात्मक स्तर पर निरंतर सक्रिय। पत्रकारिता के दैनिक तकाजों, तनावों और दबावों के बावजूद। प्रत्येक कहानी का छपना, छपे हुए शब्दों की दुनिया में, एक घटना बन जाता है। कोई भी रचना इसी लिए 'अन नोटिस्ड' नहीं जाती। <br /><br />फिलहाल फिल्मी दुनिया के बैकड्रॉप पर लिखे लघु उपन्यास 'देश निकाला' के लिए चर्चा में हैं जो सन् 2009 की पहली तिमाही में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से पुस्तक रूप में छपने के लिए घोषित हुआ है। </li><br /><li>5 जनवरी 2007 से प्रत्येक शुक्रवार हिंदी फिल्म देख कर फिल्म समीक्षा लिखने का काम संभाला है जो आज तक जारी है। इस नयी भूमिका का बीज सन् 2006 के गोवा फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग के दौरान विकसित हुआ था। सिनेमा पर भी एक किताब वाणी प्रकाशन से आने को है।</li><br /><li><strong>पुरस्कार :</strong> पहला महत्वपूर्ण पुरस्कार 1987 में दिल्ली में मिला : राष्ट्रीय संस्कृति पुरस्कार जो मशहूर पेंटर एम.एफ. हुसैन के हाथों स्वीकार किया। पत्रकारिता के लिए पहला महत्वपूर्ण पुरस्कार सन् 1994 में मिला : मौलाना अबुल कलाम आजाद पत्रकारिता पुरस्कार, मुंबई में। सन् 1996 में इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाजे गये। </li><br /><li><strong>अतिरिक्त :</strong> एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह जापान के ओसाका विश्वविद्यालय के एम.ए. (हिंदी) पाठयक्रम में शामिल। एक कहानी गोवा विश्वविद्यालय के बी. ए. के पाठयक्रम में शामिल। एक कहानी गढ़वाल विश्वविद्यालय के बी. ए. के पाठयक्रम में शामिल। मुंबई, हरियाणा और कर्नाटक के विश्वविद्यालयों में विभिन्न पुस्तकों पर लघु शोध (एम. फिल) जारी।</li><br /><li><strong>विशेषता :</strong> अपनी पीढ़ी के कथाकारों में धीरेन्द्र अस्थाना अपनी उस पारदर्शी व बहुआयामी भाषा के लिए विशेष रूप से याद किए जाते हैं जो उनकी रचनाओं को हृदयस्पर्शी बनाती है।</li><br /><li><strong>संपर्क :</strong> dhirendraasthana@yahoo.com dhirendra.asthana@rashtriyasahara.com</li></ul><br /></div><br /><div align="right"><a href="#up">कहानी पर वापिस</a></div>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-57189341204749719212009-05-04T09:08:00.002+05:302009-05-04T09:09:16.859+05:30पापा की सज़ा- तेजेन्द्र शर्मा<a href="#Tejendra">तेजेन्द्र शर्मा</a> हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार हैं। हिन्दी के बहुत कम ऐसे प्रवासी लेखक हैं जिनके लेखन में साहित्यकता की झलक मिलती है। तेजेन्द्र की कहानियों में लंदन में रह रहे भारतीयों या यूँ कहें कि भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का जीवन चलता-फिरता है। आज हम इसी कथाकार की एक कहानी <strong>'पापा की सजा'</strong> लेकर उपस्थित हैं।<br /><hr/><br /><A name="up"></A><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">पापा की सज़ा</span></strong></center><br /><br />पापा ने ऐसा क्यों किया होगा?<br /><br />उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था - मेरे पापा ने मेरी मां की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।<br /><br />सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। डाक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डाक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा?<br /><br /><br /><div class="qoute2">"रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता।"</div>पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहां के माहौल से ही दहश्त होने लगती है। उनकी मां हस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं हस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किन्तु यह डर दिमाग में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें पेट में कैंसर हैं। पेट में दर्द भी तो बहुत तेज़ उठता था। पापा को एलोपैथी की दवाओं पर से भरोसा भी उठ गया था। उन पलों में बस ममी पेट पर कुछ मल देतीं, या फिर होम्योपैथी की दवा देतीं। दर्द रुकने में नहीं आता और पापा पेट पकड़ कर दोहरे होते रहते।<br /><br />पापा की हरकतें दिन प्रतिदिन उग्र होती जा रही थीं। हर वक्त बस आत्महत्या के बारे में ही सोचते रहते। एक अजीब सा परिवर्तन देखा था पापा में। पापा ने गैराज में अपना वर्कशॉप जैसा बना रखा था। वहां के औज़ारों को तरतीब से रखने लगे, ठीक से पैक करके और उनमें से बहुत से औज़ार अब फैंकने भी लगे। दरअसल अब पापा ने अपनी बहुत सी काम की चीज़ें भी फेंकनी शुरू कर दी थीं। जैसे जीवन से लगाव कम होता जा रहा हो। पहले हर चीज़ को संभाल कर रखने वाले पापा अब चिड़चिड़े हो कर चिल्ला उठते, 'ये कचरा घर से निकालो !'<br /><br />ममी दहशत से भर उठतीं। ममी को अब समझ ही नहीं आता था कि कचरा क्या है और काम की चीज़ क्या है। क्ई बार तो डर भी लगता कि उग्र रूप के चलते कहीं मां पर हाथ ना उठा दें, लेकिन मां इस बुढ़ापे के परिवर्तन को बस समझने का प्रयास करती रहती। मां का बाइबल में पूरा विश्वास था और आजकल तो यह विश्वास और भी अधिक गहराता जा रहा था। अपने पति को गलत मान भी कैसे सकती थी? कभी कभी अपने आप से बातें करने लगती। यीशु से पूछ भी बैठती कि आख़िर उसका कुसूर क्या है। उत्तर ना कभी मिला, ना ही वो आशा भी करती थी।<br /><br />रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता। कई बार तो स्टेक ओवन में रख कर ओवन चलाना ही भूल जाती। और पापा, वैसे तो उनको भूख ही कम लगती थी, लेकिन जब कभी खाने के लिये टेबल पर बैठते तो जो खाना परोसा जाता उससे उनका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर को आने लगता। ममी को स्यवं समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या होता जा रहा है।<br /><br /><div class="qoute3">"मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी।"</div>मुझे और मां को हर वक्त यह डर सताता रहता था कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें। ममी तो हैं भी पुराने ज़माने की। उन्हें केवल डरना आता है। परेशान तो मैं उस समय भी हो गई थी जब पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कमरे में बुला कर मुझे बहुत प्यार किया और फिर एक पचास पाउण्ड का चैक मुझे थमा दिया, 'डार्लिंग, हैप्पी बर्थडे !' मैं पहले हैरान हुई और फिर परेशान। मेरे जन्मदिन को तो अभी तीन महीने बाकी थे। पापा ने पहले तो कभी भी मुझे जन्मदिन से इतने पहले मेरा तोहफ़ा नहीं दिया। फिर इस वर्ष क्यों।<br /><br />'पापा, इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मेरे जन्मदिन में तीन महीने बाकी हैं।'<br /><br />'देखो बेटी, मुझे नहीं पता मैं तब तक जिऊंगा भी या नहीं। लेकिन इतना तो तू जानती है कि पापा को तेरा जन्मदिन भूलता कभी नहीं।'<br /><br />मैं पापा को उस गंभीर माहौल में से बाहर लाना चाह रही थी। 'रहने दो पापा, आप तो मेरे जन्मदिन के तीन तीन महीने बाद भी मांगने पर ही मेरा गिफ्ट देते हैं।' और कहते कहते मेरे नेत्र भी गीले हो गये।<br /><br />मैं पापा को वहीं खड़ा छोड़ अपने घर वापिस आ गई थी। उस रात मैं बहुत रोई थी। केनेथ, मेरा पति बहुत समझदार है। वो मुझे रात भर समझाता रहा। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।<br /><br />पापा के जीवन को कैसे मैनेज करूं, समझ नहीं आ रहा था। ध्यान हर वक्त फ़ोन की ओर ही लगा रहता था। डर, कि कहीं ममी का फ़ोन न आ जाए और वह रोती हुई कहें कि पापा ने आत्महत्या कर ली है।<br /><br /><br />फ़ोन आया लेकिन फ़ोन ममी का नहीं था। फ़ोन पड़ोसन का था - मिसेज़ जोन्स। हमारी बंद गली के आख़री मकान में रहती थी, ' जेनी, दि वर्स्ट हैज़ हैपण्ड।.. युअर पापा... ' और मैं आगे सुन नहीं पा रही थी। बहुत से चित्र बहुत तेज़ी से मेरी आंखों के सामने से गुज़रने लगे। पापा ने ज़हर खाई होगी, रस्सी से लटक गये होंगे या फिर रेल्वे स्टेशन पर.. .<br />मिसेज़ जोन्स ने फिर से पूछा, 'जेनी तुम लाइन पर हो न?'<br /><br />'जी।' मैं बुदबुदा दी।<br /><br />'पुलिस को भी तुम्हारे पापा ने ख़ुद ही फ़ोन कर दिया था। ...आई एम सॉरी माई चाइल्ड। तुम्हारी मां मेरी बहुत अच्छी सहेली थी।'<br /><br />'...थी? ममी को क्या हुआ?' मैं अचकचा सी गई थी। 'आत्महत्या तो पापा ने की है न?'<br /><br />' नहीं मेरी बच्ची, तुम्हारे पापा ने तुम्हारी ममी का ख़ून कर दिया है। 'और मैं सिर पकड़ कर बैठ गई। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसे समाचार की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी। पापा ने ये क्या कर डाला। अपने हाथों से अपने जीवनसाथी को मौत की नींद सुला दिया !<br /><br />पापा ने ऐसे क्यों किया होगा? मैं कुछ भी सोच पाने में असमर्थ थी। केनेथ अपने काम पर गये हुए थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया क्या हो। एकाएक पापा के प्रति मेरे दिल में नफ़रत और गुस्से का एक तूफ़ान सा उठा। फिर मुझे उबकाई का अहसास हुआ; पेट में मरोड़ सा उठा। मेरे साथ यह होता ही है। जब कभी कोई दहला देने वाला समाचार मिलता है, मेरे पेट में मरोड़ उठते ही हैं।<br /><br />हिम्मत जुटाने की आवश्यक्ता महसूस हो रही थी। मैं अपने पापा को एक कातिल के रूप में कैसे देख पाऊंगी। एक विचित्र सा ख्याल दिल में आया, काश! अगर मेरी ममी को मरना ही था, उनकी हत्या होनी ही थी तो कम से कम हत्यारा तो कोई बाहर का होता। मैं और पापा मिल कर इस स्थिति से निपट तो पाते। अब पापा नाम के हत्यारे से मुझे अकेले ही निपटना था। मैं कहीं कमज़ोर न पड़ जाऊं.. .<br /><br />ममी को अंतिम समय कैसे महसूस हो रहा होगा..! जब उन्होंने पापा को एक कातिल के रूप में देखा होगा, तो ममी कितनी मौतें एक साथ मरी होंगी..! क्या ममी छटपटाई होगी..! क्या ममी ने पापा पर भी कोई वार किया होगा..! सारी उम्र पापा को गॉड मानने वाली ममी ने अंतिम समय में क्या सोचा होगा..! <em>ममी.. प्रामिस मी, यू डिड नॉट डाई लाईक ए कावर्ड, मॉम आई एम श्योर यू मस्ट हैव रेज़िस्टिड..!</em><br /><br /><br />मैने हिम्मत की और घर को ताला लगाया। बाहर आकर कार स्टार्ट की और चल दी उस घर की ओर जिसे अपना कहते हुए आज बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। ममी दुनियां ही छोड़ गईं और पापा - जैसे अजनबी से लग रहे थे। रास्ते भर दिमाग़ में विचार खलबली मचाते रहे। मेरे बचपन के पापा जो मुझे गोदी में खिलाया करते थे..! मुझे स्कूल छोड़ कर आने वाले पापा .. ..! मेरी ममी को प्यार करने वाले पापा.. ..! घर में कोई बीमार पड़ जाए तो बेचैन होने वाले पापा ..! ट्रेन ड्राइवर पापा ..! ममी और मुझ पर जान छिड़कने वाले पापा ..! कितने रूप हैं पापा के, और आज एक नया रूप - ममी के हत्यारे पापा ..! कैसे सामना कर पाऊंगी उनका.. ..! उनकी आंखों में किस तरह के भाव होंगे..! सोच कहीं थम नहीं रही थी।<br /><br />मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी। ममी का शव एक पीले रंग के प्लास्टिक में रैप किया हुआ था। ... मैनें ममी को देखना चाहा..मैं ममी के चेहरे के अंतिम भावों को पढ़ लेना चाहती थी।.. देखना चाहती थी कि क्या ममी ने अपने जीवन को बचाने के लिये संघर्ष किया या नहीं। अब पहले ममी की लाश - कितना कठिन है ममी को लाश कह पाना - का पोस्टमार्टम होगा। उसके बाद ही मैं उनका चेहरा देख पाऊंगी।<br /><br />एक कोने में पापा बैठे थे। पथराई सी आंखें लिये, शून्य में ताकते पापा। मैं जानती थी कि पापा ने ही ममी का ख़ून किया है। फिर भी पापा ख़ूनी क्यों नहीं लग रहे थे ? .. पुलिस कांस्टेबल हार्डिंग ने बताया कि पापा ने स्वयं ही उन्हें फ़ोन करके बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी है।<br /><br />पापा ने मेरी तरफ़ देखा किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उनका चेहरा पूरी तरह से निर्विकार था। पुलिस जानना चाह्यती थी कि पापा ने ममी की हत्या क्यों की। मेरे लिये तो जैसे यह जीने और मरने का प्रश्न था। पापा ने केवल ममी की हत्या भर नहीं की थी – उन्होंने हम सब के विश्वास की भी हत्या की थी। भला कोई अपने ही पति, और वो भी सैंतीस वर्ष पुराने पति, से यह उम्मीद कैसे कर सकती है कि उसका पति उसी नींद में ही हमेशा के लिये सुला देगा।<br /><br />पापा पर मुकद्दमा चला। अदालत ने पापा के केस में बहुत जल्दी ही निर्णय भी सुना दिया था। जज ने कहा, "मैं मिस्टर ग्रीयर की हालत समझ सकता हूं। उन्होंने किसी वैर या द्वेश के कारण अपनी पत्नी की हत्या नहीं की है। दरअसल उनके इस व्यवहार का कारण अपनी पत्नी के प्रति अतिरिक्त प्रेम की भावना है। किन्तु हत्या तो हत्या है। हत्या हुई है और हत्यारा हमारे सामने है जो कि अपना जुर्म कबूल भी कर रहा है। मिस्टर ग्रीयर की उम्र का ध्यान रखते हुए उनके लिये यही सज़ा काफ़ी है कि वे अपनी बाकी ज़िन्दगी किसी ओल्ड पीपल्स होम में बिताएं। उन्हें वहां से बाहर जाने कि इजाज़त नहीं दी जायेगी। लेकिन उनकी पुत्री या परिवार का कोई भी सदस्य जेल के नियमों के अनुसार उनसे मुलाक़ात कर सकता है। दो साल के बाद, हर तीन महीने में एक बार मिस्टर ग्रीयर अपने घर जा कर अपने परिवार के सदस्यों से मुलाक़ात कर सकते हैं।"<br /><br /><br />मैं चिढ़चिढ़ी होती जा रही थी। कैनेथ भी परेशान थे। बहुत समझाते, बहलाते। किन्तु मैं जिस यन्त्रणा से गुज़र रही थी वो किसी और को कैसे समझा पाती। किसी से बात करने को दिल भी नहीं करता था। कैनेथ ने बताया कि वोह दो बार पापा को जा कर मिल भी आया है। समझ नहीं आ रहा था कि उसका धन्यवाद करूं या उससे लड़ाई करूं।<br /><br />कैनेथ ने मुझे समझाया कि मेरा एक ही इलाज है। मुझे जा कर अपने पापा से मिल आना चाहिये। यदि जी चाहे तो उनसे ख़ूब लड़ाई करूं। कोशिश करूं कि उन्हें माफ़ कर सकूं। क्या मेरे लिये पापा को माफ़ कर पाना इतना ही आसान है? तनाव है कि बढ़ता ही जा रहा है। सिर दर्द से फटता रहता है। पापा का चेहरा बार बार सामने आता है। फिर अचानक मां की लाश मुझे झिंझोड़ने लगती है।<br /><br />मेरी बेटी का जन्मदिन आ पहुंचा है, "ममी मेरा प्रेज़ेन्ट कहां है?" मैं अचानक अपने बचपन में वापिस पहुंच गई हूं। पापा एकदम सामने आकर खड़े हो गये हैं। मेरी बेटी को उसका जन्मदिन का तोहफ़ा देने लगे हैं ।<br /><br />अगले ही दिन मैं पहुंच गई अपने पापा को मिलने। इतनी हिम्मत कहां से जुटाऊं कि उनकी आंखों में देख सकूं। कैसे बात करूं उनसे। क्या मैं उनको कभी भी माफ़ कर पाऊंगी? दूर से ही पापा को देख रही थी। पापा ने आज भी लंच नहीं खाया था। भोजन बस मेज़ पर पड़ा उनकी प्रतीक्षा करता रहा, और वे शून्य में ताकते रहे। अचानक ममी कहीं से आ कर वहां खड़ी हो गयीं। लगी पापा को भोजन खिलाने। पापा शून्य में ताके जा रहे थे। कहीं दूर खड़ी मां से बातें कर रहे थे।<br /><br />मैं वापिस चल दी, बिना पापा से बात किये। हां, पापा के लिये यही सज़ा ठीक है कि वे सारी उम्र मां को ऐसे ही ख़्यालों में महसूस करें, उसके बिना अपना बाकी जीवन जियें, उनकी अनुपस्थिति पापा को ऐसे ही चुभती रहे।<br /><br />जाओ पापा मैंने तुम्हें अपनी ममी का ख़ून माफ़ किया।<br /><hr/><br /><A name="Tejendra"></A><br /><div class="lparichay"><img style="margin-right:30px;" src="http://i173.photobucket.com/albums/w76/bharatwasi001/Tejendra_Sharma.jpg" align="left" /><strong><span style="font-size:120%; color:#bf5d15;">तेजेन्द्र शर्मा</span></strong><br /><ul><li>21 अक्टूबर, 1952 को पंजाब के शहर जगराँव में जन्म।</li><br /><li>मूलतः पंजाबी भाषी</li><br /><li>स्कूली पढ़ाई दिल्ली के अंधा मुग़ल क्षेत्र के सरकारी स्कूल से</li><br /><li>दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अँग्रेज़ी एवं एम.ए. अँग्रेज़ी, कम्प्यूटर कार्य में डिप्लोमा</li><br /><li>वर्तमान में लंदन के ओवरग्राउण्ड रेल्वे में कार्यरत।</li><br /><li>काला सागर (1990), ढिबरी टाईट (1994 - पुरस्कृत), देह की कीमत (1999), ये क्या हो गया? (2003), बेघर आँखें (2007) [कहानी-संग्रह], ये घर तुम्हारा है... (2007) [कविता-ग़ज़ल संग्रह] प्रकाशित</li><br /><li>भारत एवं इंग्लैंड की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख, समीक्षाएँ एवं ग़ज़लें प्रकाशित</li><br /><li>लेखक के लेखन एवं व्यक्तित्व पर आधारित पुस्तक वक़्त के आइने में प्रकाशित – संपादक हरि भटनागर</li><br /><li><strong>अँग्रेज़ी में:</strong> 1. Black & White – the Biography of a Banker (2007), 2. John Keats - TheTwo Hyperions (1978) 3. Lord Byron - Don Juan (1977)</li><br /><li>दूरदर्शन के लिए "शांति" सीरियल का लेखन।</li><br /><li>अन्नु कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म "अभय" में नाना पाटेकर के साथ अभिनय</li><br /><li>बी.बी.सी. लन्दन, ऑल इंडिया रेडियो व दूरदर्शन के कार्यक्रमों की प्रस्तुति, नाटकों में भाग एवं समाचार वाचन</li><br /><li>ऑल इंडिया रेडियो व सनराईज़ रेडियो लन्दन से बहुत सी कहानियों का प्रसारण।</li><br /><li><strong>संपादन :</strong> पुरवाई - इंग्लैंड से प्रकाशित होने वाली पत्रिका का दो वर्ष तक सम्पादन।</li><br /><li><strong>पुरस्कार :</strong> 1. ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार - 1995 (प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों।)<br />2. सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार - 1998<br />3. सुपथगा सम्मान -1987<br />4. कृति यू.के. द्वारा वर्ष 2002 के लिये "बेघर आँखें" को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार<br />5. प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007)<br />6. तितली बाल पत्रिका का साहित्य सम्मान – बरेली (2007)<br />7. भारतीय उच्चायोग लन्दन द्वारा वर्ष 2007 का हरिवंश राय बच्चन सम्मान।</li><br /><li><strong>विशेष :</strong> वर्ष 1995 से "इंदु शर्मा कथा सम्मान" की स्थापना।</li><br />वर्ष 2000 से ही इंग्लैंड में रह कर हिन्दी साहित्य रचने वाले साहित्यकारों को सम्मानित करने हेतु "पद्मानंद साहित्य सम्मान" की शुरुआत की गई। <br />कथा यू.के. के माध्यम से लन्दन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन।<br />लन्दन में कहानी मंचन की शुरुआत "वापसी" से की।<br />लन्दन एवं बेजिंगस्टोक में अहिंदी भाषी कलाकारों को लेकर हिन्दी नाटक "हनीमून" का सफल निर्देशन एवं मंचन।</li><br /><li><strong>अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन :</strong> 1999 में छठे हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में "हिन्दी और अगामी पीढ़ी" विषय पर एक पर्चा पढ़ा, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। सम्मेलन के एक सत्र का संचालन किया और कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया।<br />2002 में त्रिनिडाड में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में "हिन्दी एवं इंग्लैड का पाठ्यक्रम" विषय पर एक पर्चा पढ़ा। वहीं आयोजित एक कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया।</li><br /><li>लन्दन, मेनचेस्टर, ब्रेडफ़र्ड व बर्मिंघम में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य-पाठ</li><br /><li>यॉर्क विश्विद्यालय में कहानी कार्यशाला करने वाले ब्रिटेन के पहले हिन्दी साहित्यकार।</li><br /><li>सम्पर्क : kahanikar@hotmail.com</li></ul><br /></div><br /><div align="right"><a href="#up">कहानी पर वापिस</a></div>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-13957823259118851562009-04-27T11:05:00.003+05:302009-04-27T11:13:18.876+05:30जीनकाठी - हरनोट की प्रतिनिधि कहानी<strong><span style="font-size:130%; color:#ff5577;">ए. आर. हरनोट की सबसे प्रसिद्ध कहानी</strong></span><br /><br />एस आर हरनोट हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध कथाकार हैं। हिमाचल की ग्राम्य विरासत, वहाँ की परम्परा, खूबियों-खामियों का कहानी के माध्यम विश्लेषण किया है हरनोट ने। पिछले दिनों इनकी कहानियों पर साहित्यालोचना के शिखर पुरूष नामवर सिंह ने दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में अपने विचार प्रस्तुत किये। <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/kahani_charcha/kahani_charcha.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />उन्होंने जिस कहानी का उल्लेख अपने वक्तव्य में किया, उस कहानी को बहुत से कहानी-मर्मज्ञ हरनोट की प्रतिनिधि कहानी मानते हैं। आज हम आपके समक्ष हरनोट की वही कहानी लेकर उपस्थित हैं। इससे पहले कहानी-कलश पर एस आर हरनोट की <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/07/blog-post_28.html">'बेज़ुबान दोस्त'</a> और <a href="http://kahani.hindyugm.com/2008/11/m-dot-com-by-s-r-harnot.html">'एम डॉट कॉम'</a> कहानियाँ पढ़ चुके हैं। <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/08/listen-hindi-story-bezuban-dost.html">बेज़ुबान दोस्त का ऑडियो संस्करण</a> भी हिन्द-युग्म के पास उपलब्ध है।<br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">जीनकाठी</span></strong></center><br /><br /><strong><span style="color:#7d5750;">भुंडा:</span></strong> <span style="color:#609503;">पहाड़ी समाज का एक विचित्र, अद्भुत और रोमांचक उत्सव। पुराने समय में इसे हर बारह वर्ष के बाद मनाए जाने की परम्परा प्रचलित थी। लेकिन पहाड़ों में आज इसके आयोजन का कई कारणों से कोई निश्चित समय नहीं रहा है। इसमें 'बेड़ा' नामक एक पर्वतीय दलित जाति की विशेष सहभागिता और महत्व होता है। इस परिवार से एक व्यक्ति का चुनाव करके उसे यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे अस्थायी रूप से ब्राह्मण बना दिया जाता है। उत्सव के दिन देवता और ईश्वर की तरह उसकी पूजा होती है। इस धर्माचार के तहत ऊंची पहाड़ी से नीचे की ओर एक लम्बा रस्सा बांध दिया जाता है। बेड़ा अपनी जान की बाजी लगाता हुआ जीनकाठी पर बैठ कर इस रस्से पर सरकता हुआ नीचे आता है।</span><br />----------------------------------------------<br /><br />सहज राम उर्फ सहजू अब दलित नहीं रह गया था।<br /><br />उसे ठण्डे पानी से नहलाया गया। पूजा के उपरान्त सारे संस्कार ब्राह्मणों की तरह करवाए गए विधिवत यज्ञोपवीत धारण करवाया गया। अब वह नीच जाति का न रह कर ब्राह्मणों की तरह पवित्र हो गया था। लोग उसे देवता का रूप मानने लगे थे। एकाएक अछूत से पंडित बन गया था सहजू। अब उसे विशेष विधि-विधान का पालन भी करना था जिसमें एक समय खाना खाना, नख और केश न काटना तथा ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना इत्यादि शामिल था। भोजन और कपड़े उसे मन्दिर की तरफ से मिलने शुरू हो गए थे। यहां तक कि आयोजन की अवधि तक उसके पूरे परिवार का खर्चा भी देवता कमेटी को ही उठाना था।<br /><br />भुण्डा उत्सव के लिए अब विशेष रस्से का निर्माण किया जाना था।<br /><br />लोग देवता के तमाम वाद्यों के साथ एक पहाड़ी पर सहजू को लेकर मूंज का घास काटने चले गए थे। पहले सहजू ने ही दराटी से घास काटने की परम्परा का निर्वाह किया था। इसके बाद सभी गावों वालों ने घास काटना शुरू कर दिया। जब पर्याप्त मात्रा में घास काट लिया गया तो सभी ने घास की गड्डियों को मन्दिर के प्रांगण में लाकर रख दिया। इसी घास से सहजू को भुण्डा के लिए रस्सा बनाना था। उत्सव स्थल का मुआयना किया गया तो कुल लम्बाई 500 मीटर की निकली। इतना ही लम्बा रस्सा बनना था। मजबूती के लिए उसकी मोटाई लगभग 25-30 सेंटीमीटर रखनी ज़रूरी थी।<br /><br />सहजू को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर नहाना पड़ता था। पूजा-पाठ के पश्चात् वह मूंज के घास से रस्सा बनाने में जुट जाता। यह कार्य अत्यन्त ही पवित्र माना जाता। उस समय कोई दूसरा व्यक्ति न उसके सामने आता और न ही बात करता था। कोई भी रस्से को छू तक नहीं सकता था। यदि भूल से किसी ने ऐसा कर लिया तो वह अपवित्र माना जाता। तत्काल उस पर एक भेड़ की बलि चढ़ाई जाती और नया रस्सा बनाना आरम्भ करना पड़ता। रस्सा बनाते हुए सहजू के मन में तरह-तरह के खयाल आते रहते। वह सोचता कि उसका जो बुजुर्ग बरसों पहले भुंडा निभाते रस्से से गिर कर मर गया था उसने भी इसी तरह तिनका-तिनका घास के रेशे से मौत को बुना होगा। वह इन्हीं ख्यालों में दिन भर खोया रहता। उसकी पत्नी दूर बैठी उसे चुपचाप निहारती रहती। कई बार निगाहें सहजू के चेहरे पर टिक जाया करती। उसके चेहरे पर आते-जाते भाव को पढ़ने की कोशिश करती। कभी वहां मौत की परछाई रेंगती दिखती तो कभी अपार सम्पन्नता की लकीरें बनती-बिगड़ती नजर आतीं। अपने खाविंद को एक दलित से बाह्मण होने के सुख को भी ह उसके चेहरे और आंखों पर तलाशने लगती। लेकिन कभी-कभी वह चेहरा अपने पति का न लग कर एक पाखंडी या करयालची का जैसा लगता जिस पर जबरन ब्राह्मण का मुखौटा चढ़ा दिया गया हो और लोगों द्वारा अपने मनोरंजन के लिए उसे 'स्वांगी' बना दिया गया हो।<br /><br />जब सहजू रस्से बनाने का काम बन्द करता तो गांव के लोग उनके पास आते-जाते रहते। उनसे इज्जत से बतियाते। घास कम होता देख फिर काट कर ले आते।<br />· <br /><br /><h6><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxryNOumva47KpMj7FV2AzvQBRqcqGBBBgZmNg7dFhlmokgmPuns5Ri3kywgzF2JNuuoncvhRHYAeVV0Li5Eg-6D5566vreij-sVSIqeUMzCzZdExpPK46jPbj5PXQnj9x7xTzo2hDKo5s/s240/SR_Harnot.jpg" width="195">हिमाचल प्रदेश के छोटे से गाँव चनावग (शिमला) में जन्मे कहानीकार एस आर हरनोट की १० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूलतः कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, इतिहास और शोध आदि पर लेखन। वर्ष २००३ का अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान (कथा यू के) तथा २००७ में हिमाचल राज्य अकादमी पुरस्कार। अन्य १० प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। कई सम्पादित कहानी संग्रहों में कहानियाँ संग्रहित। हिन्दी विश्व कहानी कोश, कथा लंदन, कथा में गाँव, १९९७ की श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ, दस्तक, समय गवाह है और हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियाँ में कहानियाँ प्रकाशित। कथादेश के कथा विशेषांक-फरवरी-२००७ '१० वर्ष एक चयन' में कहानी 'जीनकाठी' संकलित। कहानी दारोश पर दिल्ली दूरदर्शन द्वारा 'इंडियन क्लासिक्स सीरिज के तहत' फिल्म का निर्माण। फोटोग्राफी में विशेष रूचि। हिमाचल के मेलों और त्यौहारों पर शोध ग्रन्थ पर कार्य। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम, रिट्स एनैक्सी, शिमला में सहायक महा प्रबंधक (सूचना एवं प्रसार) के पद पर कार्यरत</h6>भुण्डा जैसे महा-उत्सव का आयोजन भगवान दत शर्मा के दिमाग की उपज थी। तहसीलदार के पद से शर्मा जी कुछ दिनों पूर्व ही सेवानिवृत हुए थे।<br /><br />जिस दिन वे सेवानिवृत हुए, उन्होंने अपने गांव में पूरे ताम-झाम के साथ एक बड़ी धाम दी थी। इस सहभोज के लिए सगे-सम्बन्धियों के अतिरिक्त गांव-बेड़ और परगने तक से लोग बुलाए गए थे। दफतर से तो उनके नए-पुराने साथी आए ही थे, परन्तु अपने चुनाव क्षेत्र के विधायक को भी विशेष रूप से आमन्त्रित किया था। विधायक के साथ प्रशासन के सभी अधिकारीगण पधारे थे। गांव के देवता को भी बुलाया गया था। शर्मा जी जब अपने दफतर से गांव पहुंचे तो साथ दस-पन्द्रह छोटी-बड़ी गाड़ियां थीं। अंग्रेजी बाजे के साथ ढोल-नगाड़ा बजाने वाली पार्टी को बुलाना भी नहीं भूले थे। इससे जहां उन्होंने तहसीलदारी की ठीस बरकरार रखने की कोशिश की वहां लोगों के बीच अपनी छवि को एक धार्मिक दृष्टि देने का भी प्रयास किया था।<br /><br />धाम में कई प्रकार के पकवान बनाए गए थे। कई तरह की शराबें उपलब्ध थीं। पांच बकरे भी काटे गए थे। लोगों ने इससे पहले कभी ऐसा जशन नहीं देखा था। इसीलिए इस कार्यक्रम की चर्चा काफी दिनों तक होती रही। शर्मा जी ने इतना बड़ा आयोजन करके एक साथ कई निशाने साधे थे। लेकिन ये सब उनके मन की बातें थीं जिसकी वे किसी को भी भनक नहीं लगने देना चाहते थे। वे जानते थे कि जिस ठाठ से उन्होंने नौकरी की है, सेवानिवृति के बाद वह ठसक कहां रहने वाली ? सभी कुर्सी को प्रणाम करते हैं। बाद में तो कोई कुत्ता भी नहीं पूछता। बैंक-बेलैंस भले ही लाखों में हो पर जब तक कोई कुर्सी का जुगाड़ न हो तो आदमी आदमी रहता ही कहां है। वेसे भी शर्मा जी तहसीलदार के पद से रिटायर हुए थे। पैसा खूब कमाया था। इज्जत-परतीत -खासी बटोरी थी। काम लोगों के बहुत किए। ऐसा नहीं कि वे दूध के धुले हुए थे। पर पैसा इस ढंग से बनाया कि अपने ऊपर कोई आंच तक न आने दी।<br /><br />अट्ठावन साल की उम्र में भी भगवान दत शर्मा चालीस के आसपास ही लगते थे। अभी भी गाल लाल थे। झुर्रियों का कहीं नामोंनिशान न था। हालांकि बाल कई बरस पहले सफेद हो चुके थे लेकिन मेंहदी से उन्हें काले किए रखते थे। माथा काफी चौड़ा था। गोल चेहरा ठोडी तक आते-आते थोड़ा नुकीला था। हल्की मूंछे उन पर खूब जंचती थी। माथे पर चंदन और कुमकुम मिश्रित टीका वे हमेशा लगाए रखते। नौकरी में उन्होंने कभी टाई और कोट पहनना नहीं छोड़ा। कोट की जेब में टाई के रंग से मिलता रूमाल वे हमेशा रखते। इसीलिए ठाठबाठ देख कर उनके वरिष्ठ अफसरों का भीतर ही भीतर फुंके रहना स्वभाविक था। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना लिबास बदल लिया था। अब फेरीदार पाजामे-कुरते के साथ वे नेहरूकट सदरी पहनते और जेब में बाहर झांकता लाल रूमाल सजा रहता। इस चमक-धमक से भी उनका व्यक्तित्व कुछ अलग हटकर ही लगता था।<br /><br />शर्मा जी का परिवार गांव में सबसे सम्पन्न था। वे तीन भाई थे। तीन ही गांवों के मालिक। उन्हें बड़े जमींदार भी कहा जा सकता था। अपने परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएं और तीन पोतू-पोतियां थे। दो लड़कियों की शादी हो चुकी थी। छोटा लड़का बी0डी0ओ0 लग गया था। बड़ा कत्थे का ठेकेदार था। साथ जमींदारी भी संभालता था। पानी लगती ज़मीन थी। फसलों के साथ खूब सब्जियां होती थीं जिनसे अच्छी-खासी आमदनी थी। दो क्वालिस गाड़ियों के साथ दो ट्रक भी थे। गोरखों की एक लेबर लगातार खेती-बाड़ी के काम में लगी रहतीं।<br />पहला काम शर्मा जी ने देवता कमेटी में घुसने का किया था। कई दिनों तक देवता के कार्यक्रमों में आते-जाते रहे। लेकिन जब कमेटी में सरपंच के चुनाव हुए तो लोगों के पास उनसे बढ़िया विकल्प कोई नहीं था। सर्वसम्मति से सरपंच चुन लिए गए। यह उनके धार्मिक जीवन की शुरूआत थी। यहीं से वे ग्राम पंचायत की प्रधानी तक जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अभी से जुगाड़ भिड़ाने शुरू कर दिए थे। शर्मा जी अब कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे गांव-परगने में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के इलाकों में भी उनकी साख का डंका बजना शुरू हो जाए। उनकी खूब वाह-वाह हो और विधायक तथा मुख्य मन्त्री तक खूब पहुंच भी बन सके। देवता को इसका माध्यम् बनाने की उन्होंने सोची थी।<br /><br />उनका पूरा गांव ब्राह्मणों का था। पांच गोत्रों के ब्राह्मण वहां रहते थे। इसे एक प्राचीन सांस्कृतिक गांव भी माना जाता था। कालान्तर से यहां बारह बरस के अन्तराल के बाद निरन्तर भुण्डा महोत्सव मनाया जाता रहा। गांव में कई प्राचीन मन्दिर अभी भी मौजूद थे। जिनका न केवल धार्मिक बल्कि पुरातात्विक महत्व भी था। गांव में चार-पांच परिवार दलितों के थे। उन्हीं में एक परिवार ''बेड़ा'' जाति का था जो भुण्डा में मुख्य भूमिका निभाया करता। लेकिन बरसों पहले उनके परिवार का एक सदस्य भुण्डा का रस्सा टूटने से मर गया था। शर्मा जी ने अपने दादा-पड़दादाओं से इस कथा को सुन रखा था जो मन में आज भी तरोताजा थी। जब बेड़ा को जीन-काठी पर बिठा कर रस्से पर छोड़ा गया तो कुछ दूरी पर वह रूक गई। बेड़ा बेचारा न आगे खिसक पाया न पीछे। रस्से में बाट पड़ गए थे। लोगों ने दोनों ओर से बहुत प्रयत्न किए कि बेड़ा की जीन-काठी आगे खिसक जाए लेकिन सभी प्रयत्न असफल हो गए। उन्होंने जब रस्से को जोर-जोर से लकड़ी के डंडों से पीटना शुरू किया तो रस्सा टूट गया। बेड़ा कई सौ फुट नीचे चट्टानों पर गिर पड़ा और मृत्यु हो गई। उस गांव और परगने के लिए वह दिन बड़े अनिष्ट का माना गया था। उसके बाद गांव में भयंकर महामारी फैल गई। गांव की आधी से ज्यादा जनसंख्या मौत के मुंह में चली गई। इसीलिए गावों के ब्राह्मणों ने बेड़ा के परिवार के साथ दूसरे दलितों को भी गांव से भगा दिया और सारे अनिष्ट का ठीकरा उन्हीं के सिर फोड़ डाला।<br />· <br /><br />अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए शर्मा जी को इससे बेहतर और कोई दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा था। वे जानते थे कि उस हादसे के बाद गांव में कभी भुण्डा नहीं हो पाया था। हालाकि दूसरे गांवों में कभी-कभार बीस-चौबीस बरसों के अन्तराल से ही सी यह आयोजन होता ही रहा था। अपनी तहसीलदारी के रहते उन्होंने भी कई आयोजन करवाए थे। परम्पराएं उसी तरह निभाई जाती थीं लेकिन 'बेड़ा' को जितने लम्बे रस्से पर उतारा जाता उसके नीचे उतनी ही लम्बी जाली भी बिछा दी जाती थी। बेड़ा किसी कारण गिरे भी तो उसे तत्काल बचाया जा सकता था। कई जगह 'बेड़ा' जाति का कोई व्यक्ति उपलब्ध न होने पर लोग बकरे को ही जीन-काठी पर बांध कर छोड़ते थे।<br /><br />शर्मा जी ने यह बात एक दिन देवता कमेटी के सदस्यों से की। सभी को उनकी बात खूब जची थी। देवता के गूर का विचार था कि उनके गांव पर अभी तक उस अनिष्ट का साया कायम है। वह तभी मिट सकता है जब गांव में भुण्डा का आयोजन किया जाए। इससे गांव पहले जैसा सम्पन्न और खुशहाल भी हो जाएगा। लेकिन बात लाखों रूपए के व्यय की थी। आज की महंगाई में इतना बड़ा आयोजन करना नामुमकिन था। इसका समाधान भी शर्मा जी ने ही निकाल दिया था। उन्होंने तत्काल एक लाख रूपए देवता कमेटी को दान देने का वादा कर दिया। इससे सभी सदस्यों का मनोबल बढ़ गया। दूसरा विकल्प यह निकाला गया कि देवता के पास जो बरसों का सोना-चांदी पड़ा है उसे अच्छी कीमत पर बेच दिया जाए। देवता का धन यदि देवता के ही काम आए तो इसमें बुरा भी क्या.......? इस बात पर सभी की सहमति बन गई थी।<br /><br />अब समस्या ''बेड़ा'' को ढूंढने की थी। गांव में किसी को भी पता नहीं था कि बरसों पहले निकाले जाने के बाद वे लोग कहां जा कर बस गए थे। शर्मा जी ने ही इसका समाधान भी निकाला था। उन्होंने बेड़ा को तलाश करने और गांव में लाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। देवता कमेटी उनकी सक्रियता को देख कर बेहद प्रभावित थी। उन्हें खूब मान-प्रतिष्ठा भी मिलनी शुरू हो गई थी। देवता से लेकर गांव-परगने के कई दूसरे छोटे-बड़े काम अब उन्हीं के सलाह-मशविरे से होने लगे थे। यह सुख शर्मा जी को तहसीलदार की कुर्सी से कहीं बढ़ कर लगने लगा था।<br /><br />शर्मा जी मन ही मन बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने आयोजन की पूरी रूप-रेखा अपने मन में तैयार कर ली थी। यह भी तय कर लिया था कि प्रदेश के मुख्य मन्त्री को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाए। गांव-बेड़ में जब देवता कमेटी के निर्णय का पता चला तो लोग हैरान-परेशान हो गए। इतने बड़े आयोजन के लिए वे तैयार नहीं थे। लेकिन शर्मा जी और कमेटी के अन्य सदस्यों ने उन्हें समझा-बुझा कर मना लिया था।.......फिर इतने बड़े पुण्य से वंचित भी कौन रहना चाहता था ?<br /><br />शर्मा जी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल बेड़ा' परिवार तलाशने की थी। 'बेड़ा' जाति के लोग दूर-दूर तक भी अब नहीं रहे थे। भीतर की बात यह थी कि जिस परिवार को अनिष्टकारी मानकर गांव से निकाला गया था उसी के सदस्य को लाना जरूरी था। गांव के बुजुर्गों और कुल पुरोहितों का मानना था कि गांव पर उन लोगों का अभिशाप अभी तक भी बैठा है। क्योकि जो 'बेड़ा' रस्से से गिर कर मरा था उसमें उसका तो कोई दोष नहीं था। इसलिए यदि उसी परिवार का कोई रस्से पर उतरे तो दो काम सफल हो जाएंगे। पहला कलंक और शाप से छुटकारा और दूसरा भुण्डा के सफल आयोजन से पुण्य ही पुण्यका फल।<br /><br />शर्मा जी गांव के एक-दो लोगों को लेकर पहले विधायक जी के पास पहुंचे और इस सन्दर्भ में बात की।<br /><br />'' देखो विधायक जी! हमारे गांव में लगभग डेढ़ सौ साल बाद भुण्डा होगा। मुख्य अतिथि तो आपको मुख्य मन्त्री जी ही लाने हैं। इससे आपका भी भला और हमारे साथ गांव का भी फायदा।''<br /><br />शर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक विधायक के आगे प्रस्ताव रखा था।<br /><br />विधायक जी को तत्काल कुछ नहीं सूझ रहा था। उन्होंने भी अपने बुजुर्गों से 'बेड़ा' के रस्से पर से गिरने से हुई मौत की बात सुन रखी थी। वे खुद भी दलित वर्ग से थे। उनका चुनाव-क्षेत्र आरक्षित था। सिगरेट के कश लगाते हुए काफी देर मन ही मन में बैठकें करते रहे। उनका विचार बरसों पहले घटी घटना की तरफ चला गया। उसकी आड़ में उन्होंने अपने फायदे-नुकसान का हिसाब-किताब लगाया। दलितों की वोटों की तरफ एक सरसरी नजर दौड़ाई जो उन्हें पिछले चुनाव में बहुत कम मिले थे। दूसरी सबसे बड़ी बात उन्हें इस इलैक्ट्रॉनिक युग में अपनी पुरानी परम्पराओं के साथ अपने को जोड़ने की लगी। तीसरी जो मुख्य बात समझ में आई वह थी गांव से निष्काशित 'बेड़ा' और दलित परिवारों को पुन: इस बहाने सम्मान दिलाने की थी। यह अवसर उन्हें 'ऑल इन वन' जैसा लगा।<br /><br />विधायक जी ने मन में खूब जोर का एक ठहाका लगाया लेकिन उसका भाव चेहरे पर नहीं आने दिया। एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर उतारते हुए कहने लगे,<br /><br />''शर्मा जी! धन्य है आप। नौकरी करते हुए भी अपनी परम्पराएं मन में बचा रखी हैं। वरना रिटायरमैंन्ट के बाद तो लोग सठिया जाते हैं। कोई तो इस गम से परेशान होकर दो साल भी नहीं निकाल पाते। आपने तो इतना बड़ा बीड़ा उठाया है। बड़ी समाज सेवा है भई। मैं तो आपके साथ हूं। मेरे लिए आप जो सेवा दें, सिर माथे।''<br /><br />शर्मा जी खुश हो गए। मन में कुल देवता को नमन किया। उसी के परताप से सब शुभ हो रहा है। पर दूसरे पल कुछ चिन्ताओं की रेखाएं अनायास चेहरे पर उमड़ी तो विधायक जी ने टोक दिया,<br /><br />'' कुछ परेशान दिख रहे हैं शर्मा जी ? ''<br /><br />'' नहीं...नहीं विधायक जी ऐसी बात नहीं है।''<br /><br />'' भई मैं आपके साथ हूं। कुछ है तो नि:संकोच बताएं। ''<br /><br />साथ दूसरा व्यक्ति बैठा था। उसने पहले विधायक जी के चेहरे पर नजर दी। फिर शर्मा जी की तरफ देखा। चिन्ता का उसी ने समाधान किया था।<br /><br />'' परेशानी उस बेड़ा परिवार को तलाशने की है जिन्होंने गांव छोड़ दिया था। ''<br /><br />विधायक जी ने सुना तो आंखें लाल हो गईं। मन अपमान से तिलमिला गया। जैसे बरसों पहले गांव से उन्हें ही निकाला गया हो। लेकिन पल भर में सहज हो लिए।<br /><br />'' उनकी फिक्र आप क्यों करते हैं शर्मा जी। कागज लाइए पता मैं बता देता हूँ।....है तो बहुत दूर। लेकिन जब आप सभी ने इतने बड़े आयोजन की ठानी है तो दूरियां कैसी। हाँ थोड़ी-बहुत मान-मनौती तो करनी ही पड़ेगी । बात भले ही बरसों पहले की है पर बेइज्जती के जख्म तो सदा हरे ही रहते हैं न।''<br /><br />शर्मा जी और उनके साथ बैठे दोनों आदमी थोड़ा झेंप गए। लेकिन शर्मा जी को सूत्र मिल गया था। झट से डायरी निकाली और विधायक जी के पास पकड़ा दी। उन्होंने सदरी की जेब से पेन निकाला और पता लिख दिया।<br /><br />शर्मा जी ने डायरी वापिस पकड़ी और पता पढ़ते हुए टेलीफोन शब्द पर नजर पड़ी तो चौंक गए....,<br /><br />'' टेलीफोन भी है ....? ''<br /><br />विधायक जी अपना आपा खोते-खोते रह गए।<br /><br />'' क्यों शर्मा जी इन लोगों के पास टेलीफोन या दूसरी सुविधाएं नहीं होनी चाहिए थी। ''<br /><br />बात हृदय में सुई की तरह चुभी। पर संभल गए।<br /><br />'' कैसी बात करते हैं विधायक जी। मेरा इरादा कोई ऐसा-वैसा थोड़े ही था। बस देख कर खुशी से चौंक गया था कि काम और आसान हो गया। ''<br /><br />'' ऐसा मत करना शर्मा जी। फोन से बात मत करना। वरना बना-बनाया खेल बिगड़ेगा। मान-सम्मान से जाना उनके पास। कठिन काम है। अब आपकी तहसीलदारी देखनी है कि कितनी काम आती है।''<br /><br />शर्मा जी को विधायक जी चुनौती देते दिखे थे। लेकिन काम अपना था, चुपचाप उठे और विधायक जी को प्रणाम करके निकल आए।<br />· <br /><br />जब दलित परिवार उस गांव से निकाले गए तो वे कई दिनों भूखे-नंगे भटकते रहे थे। उन्होंने मांग-मांग कर गुजारा किया था। कई सदस्य मर भी गए। बड़ी मशक्कत के बाद एक परिवार ने उनकी मदद की और उन्हें कुछ जमीन भी दे दी। मेहनत से उन्होंने अपना एक छोटा सा गांव बसा लिया। शर्मा जी ने तो कभी उस गांव का नाम तक नहीं सुना था।<br /><br />गांव लौट कर देवता कमेटी से चर्चा हुई तो सभी खुश हो गए। शर्मा जी और कमेटी के दो अन्य कारदार तत्काल 'बेड़ा' को आमन्त्रित करने चल दिए। जहां तक सड़क थी वहां तक वे लोग गाड़ी से गए थे। लेकिन वहां से लगभग सात मील का चढ़ाई वाला रास्ता ''बेड़ा'' परिवार के गांव तक पहुंचता था। शर्मा जी को पैदल चलने की कतई आदत नहीं रही थी। तहसीलदारी में तो ऐसे रास्तों के लिए पहले से ही घोड़ा उपलब्ध रहता। लेकिन इस समय तो अपने पांव से ही काम चलाना पड़ा। जैसे-कैसे शाम ढलने से पहले वे वहां पहुंचे गए थे।<br /><br />उसे गांव का नाम देना शर्मा जी को बेमानी लगा था। एक घाटी की ढलान की ओट में चार-पांच घर थे। अनघड़े पत्थरों से उनकी छतें छवाई गई थी। उनमें दो-तीन घर दो मंजिला थे। लेकिन थे साफ-सुथरे। नीचे और ऊपर की तरफ छोटे-छोटे खेत थे जिनमें गेहूं और जौ की फसल लहलहा रही थी। उन घरों के आंगन से एक चौड़ा रास्ता घासणी के बीचोबीच दूसरी तरफ कहीं गुम होता दिखाई दे रहा था। एक घर के पास पहुंचते ही दो-तीन कुत्तों ने उनका स्वागत किया। लेकिन तभी एक महिला आंगन में निकली और कुत्तों को चुप करवा दिया। उसने कुछ अपनी पहाड़ी बोली में कहा था लेकिन शर्मा जी उसे नहीं समझ सके। तभी भीतर से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला तो शर्मा जी ने उससे बात शुरू कर दी। वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता था। जब यहां रह रहे बेड़ा परिवार के बारे में पूछा तो उसने घासणी के मध्य से आगे निकलती पगडंडी की तरफ इशारा कर दिया। वे उधर निकल चल दिए थे।<br /><br />दूसरी तरफ पहुंचे तो उनकी नजर एक पक्के दो मंजिला मकान पर पड़ी। वे पगडंडी से नीचे उतरकर उस घर के आंगन में पहुंच गए।<br /><br />एक बजुर्ग आंगन में बैठा तम्बाकू पी रहा था। उसने हल्की काली ऊन का कुरता-पाजामा पहन रखा था। सिर पर लाल रंग की गोलदार पहाड़ी टोपी थी। दाईं तरफ एक किल्टा रखा था जिसके भीतर दो बिल्ली के बच्चे खेल रहे थे। एक मेमना भीतर से भाग कर आता और किल्टे में सिर की डकेल मार कर फिर भीतर भाग जाता। किल्टा रेंग कर इधर आता तो वह बजुर्ग हल्का सा धक्का देकर उसे दूर कर लेता। सामने रखी टोकरी में कई सफेद-भूरी ऊन के फाहे रखे हुए थे। कश लेते हुए वह एक फाहा उठाता और तकली से कातने लग जाता। शर्मा जी की नजरें कुछ<br />पल उस तकली के साथ घूमती रही। पास ही एक दराट भी पड़ा था। शर्मा जी की नजरें उसके कान पर पड़ी। बड़े-बड़े सोने के बाले देख कर वह चौंक गए।<br /><br />शर्मा जी कुछ पूछते, तभी एक आदमी भीतर से बाहर निकला। उसकी उम्र पैंतालीस के आसपास लग रही थी। अचानक पखलों को आंगन में देख कर ठिठक गया। शर्मा जी ने एक सांस में अपना परिचय दे दिया। गांव का नाम सुनते ही बुजुर्ग जोर से खांसा और कई पल खांसता रहा। खांसी कम हुई तो फटाफट किल्टा सीधा करके बिल्ली के बच्चों को उस के अन्दर कैद कर दिया। भीतर से खटर-पटर की आवाजें आती रहीं। तकली टोकरी में फैंक कर पास पड़े दराट पर दांया हाथ चला गया। उसने टेढ़ी गर्दन करके उन लोगों को सिर से पांव तक देखा। आंखों में खून तैर रहा था। गुस्से से पूरा शरीर कांपने लगा था। शर्मा जी ने सरसरी नजर उसके चेहरे पर डाली पर आंख मिलाने की हिम्मत न हुई। एक बार लगा कि वह बूढ़ा अपना हुक्का चिलम समेत उन पर फैंक देगा। या दराट लेकर पीछे ही दौड़ा आएगा। उसने एक साथ कई कश हुक्के की नड़ी से खींचे। शर्मा जी इस अप्रत्याशित गुड़गुडाहट के बीच जैसे फंस से गए थे।<br /><br />उन्होंने डरते-डरते जैसे ही भुंडा की बात शुरू की वह बुजुर्ग हांपता हुआ खड़ा हो गया। देख कर ऐसा लग रहा था मानो उस पर किसी देवता की छाया आ गई हो। उसने जैसे ही दराट का वार शर्मा जी पर करना चाहा भीतर से आए आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसे मुश्किल से संभाला और खींचते हुए भीतर ले गया। अभी भी वह टेढ़ी गर्दन से पीछे देख रहा था। शर्मा जी और उनके साथियों की पांव तले की जमीन खिसक गई। मारे भय के वे घर के पिछवाड़े हो लिए।<br /><br />भीतर कुछ देर उन लोगों की आपस में बोल-चाल होती रही जिसकी आवाजें शर्मा जी के कान में गर्म तेल की तरह पड़ती रही। उनके न तो वहां रूकते बन पा रहा था न जाते। आज शर्मा जी ने अपने को इतने विवश पाया जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। उन्हें भुंडा के आयोजन पर पानी फिरता नजर आने लगा। एक मन किया कि वहां से तत्काल खिसक लिया जाए। लेकिन मन पर स्वार्थ की परतें इतनी गहरा गईं थीं कि पांव पीछे मुड़ने के बजाए आंगन की तरफ सरकने लगे।<br /><br />वह आदमी गुस्से में बाहर निकलते ही उन पर चिल्ला पड़ा,<br /><br />'' यहां से चले जाएं आप लोग। क्या सोच रखा है। कैसे निकाला था हमारे बुजुर्गों को। सब जानते हैं। हम वहां दोबारा जलील होने जाएं......आप लोगों ने यह सोचा कैसे। हम बेवकूफ नहीं हैं। आज की बात होती तो बताते। हां।''<br /><br />शर्मा जी एक पल के लिए सकते में आ गए। पर उसके खाली हाथ देख हिम्मत बटोर कर उसके सामने चले आए। अपनी गरज थी, दोनों हाथ जोड़ दिए,<br /><br />'' देखो भाई! जो कुछ आपके साथ हुआ, उसमें हमारा क्या दोष...? हम उसके लिए आप सभी से माफी ही मांग सकते हैं। इसी खतिर आए भी हैं। आज जो चाहें आप सजा दे सकते हैं। भला-बुरा बोल सकते हैं। सब कुछ सर-माथे। हम ही नहीं सारा गांव उसके लिए शर्मिन्दा भी है। हम चाहते हैं कि आप भुंडा निभाए। हमारे साथ-साथ पुण्य के भागीदार भी बनें।''<br /><br />'' तुम्हारे गांव के बुजुर्गों ने अच्छा नहीं किया था। सब कुछ उजाड़ दिया हमारा। आज किस मुंह से आप यहां आए। बाबा कुछ बीमार है। ठीक होते तो पता नहीं क्या कर देते.......हे भगवान!''<br /><br />यह कहते-कहते उसने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। जैसे कोई बड़ी अनहोनी टल गई हो।<br /><br />शर्मा जी आगे बढ़े और आत्मीयता से उसके दोनों हाथ अपने हाथों में भर लिए। अति विनम्र और स्नेह से कहने लगे,<br /><br />'' भाई ! मत समझो कि हम यहां अपनी मर्जी से आए हैं। यह देव आज्ञा है। हम कौन होते हैं। हमारी औकात ही क्या..? सभी उस देवता-ईश्वर की मर्जी है। हम तो आपके आगे हाथ ही जोड़ सकते हैं। आपके बुजुर्ग के पांव ही पड़ सकते हैं।''<br /><br />शर्मा जी को अपने काम के लिए ''गधे को मामा' बोलने वाली कहावत इस वक्त बिल्कुल उचित जान पड़ रही थी। <br /><br />देवता का वास्ता सुनकर वह थोड़ा सा सहज हुआ। कहा कुछ नहीं। उल्टे पांव भीतर लौट गया। दरवाजे पर पहुंचते ही एक लड़के ने उसे पानी का बड़ा सा डिब्बा पकड़ा दिया। उसने खड़े गले सारा पानी गटक लिया। शर्मा जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्हें एक पल लगा कि किए-किराए पर पानी फिर गया है। भीतर वह बुजुर्ग जोर-जोर से अपनी बोली में गालियां बक रहा था। काफी देर बाद वह आदमी जब दोबारा बाहर आया तो हाथ में तीन प्लास्टिक की कुर्सियां थीं। शर्मा जी ने देखा तो जान में जान आई। कुर्सियां आंगन में पटका दीं।<br /><br />अब तक इधर-उधर से कुछ मर्द और आरतें भी आंगन के उस तरफ इकट्ठे हो गए थे। पंडितों का उनके आगे इस तरह गिड़गिड़ाना सभी को अकल्पनीय लग रहा था।<br /><br />वातावरण में भरी उमस जैसे हल्की हो गई। उसने तीनों को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। वे चुपचाप बैठ गए। फिर किल्टा उठाया। बिल्ली के दोनों बच्चे भाग खड़े हुए। ऊन की टोकरी और हुक्का एक किनारे रखते हुए अपना नाम बताने लगा,<br /><br />'' मैं सहज राम.....घर में सहजू ही बोलते हैं। वो मेरे पिता जी.......सौ पार कर गए है।''<br /><br />'' सौ पार......?''<br /><br />शर्मा जी और दोनों कारदार स्तब्ध रह गए। बुजुर्ग इतनी उम्र का दिखता ही नहीं था।<br /><br />सहज राम की बातचीत करने के ढंग से लग रहा था कि वह कुछ पढ़ा लिखा भी है। शर्मा जी लम्बी भूमिका नहीं बांधना चाहते थे। उन्होंने उससे सीधी बात की और पहले की घटना पर दोबारा अफसोस ही नहीं जताया बल्कि गांव और देवता की तरफ से माफी भी मांग ली थी। सहजू ने कुछ देर मन में विचार-विमर्श किया। फिर भीतर चला गया। बाहर खड़े लोग भी भीतर हो लिए। उन सभी की काफी देर खुसर-फुसर होती रही। काफी देर बाद बाहर आया और भूंडा में आने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। शर्मा जी और उनके साथी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। उन सभी का आभार जताया और वहां से खिसक लिए। तीनों के चेहरे पर इसका सुख तो झलक रहा था लेकिन मन पर पड़ी चोटें इतनी गहरी थीं कि सड़क तक किसी ने कोई बात ही नहीं की।<br />· <br /><br />देर रात वे गांव पहुंचे थे। पर कोई भी रात भर सो न पाया था। सुबह जब देवता कमेटी के सदस्यों और लोगों को शर्मा जी ने बताया कि 'बेड़ा' मिल गया है तो सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसके बाद गांव के हर घर में भुण्डा उत्सव प्रवेश कर गया था। सभी तैयारियों में जुट गए थे। अपनी-अपनी तरह से सोचते-विचारते लोग जैसे-कैसे भी अपने खोए हुए पुण्य को फिर से कमाना चाहते थे। अपने घर-परिवार, पशु और खेती को विपत्तियों से सदा-सदा के लिए मुक्त कर देना चाहते थे।<br /><br />भुण्डा उत्सव की प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो गईं थीं। सबसे पहले गांव वालों की एक सभा बुलाई गई। सभा का आयोजन मुख्य देवता के मन्दिर के प्रांगण में हुआ था। मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने लगभग डेढ़ मीटर ऊँचाई पर स्थित चौंतड़ा था। गांव के पंच और देवता के कारदार इसी पर बैठकर ऐसे कार्यक्रमों के निर्णय लिया करते थे। इस पर पंचो के बैठने के आसन बने थे जिनके पीछे ऊंचे पत्थर लगे थे। शर्मा जी सरपंच थे इसीलिए उनका स्थान मध्य में था। चारों तरफ दूसरे कारदार और मुखिए बैठ गए। गांव के लोग चौंतड़े के चारों तरफ नीचे बैठ गए थे। देवता के गूर के साथ बैठ कर पुरोहितों ने लम्बी बातचीत के बाद मुहूर्त और तिथियों को अन्तिम रूप दे दिया और सहजू को सर्वसम्मति से 'बेड़ा' नियुक्त कर लिया गया।<br /><br />मुहूर्त के मुताबिक जब सहजू को शर्मा जी ने इस बारे बताया तो उसने एक शर्त यह रख दी कि रस्सा उतना ही लम्बा बनेगा जितना कि पिछले भुण्डे में उनके बुजुर्ग ने बनाया था। दूसरी शर्त यह थी कि रस्से के नीचे बचाव के लिए कोई जाली इत्यादि नहीं लगाई जाएगी। शर्मा जी के लिए यह शर्त काठ की तरह सिर पर पड़ी थी। उन्होंने तत्काल कुछ कहना ठीक नहीं समझा लेकिन यह बात परेशानी की तो थी ही। रस्से के नीचे बिना जाली लगाए यदि दोबारा वही हादसा हो गया तो किए किराए पर पानी फिर जाएगा। बहुत सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई समाधान न सूझा तो सारी बात देवता के हवाले कर दी गई। पर 'बेड़ा' की शर्तें मानने के इलावा उनके पास कोई चारा भी न था।<br /><br />अब सारा गांव भुंडा की तैयारियों में जुट गया था। देवता के पंचों ने गांव के लोगों के लिए कई कार्य निर्धारित कर दिए थे। साथ ही उत्सव के आयोजन के व्यय को देखते हुए प्रत्येक परिवार को पांच सौ रूपए और एक-एक मन चावल की जोड़ भी डाल दी गई थी। इसे लोगों ने स्वीकार कर लिया था। सभी अपने-अपने घरों की लिपाई-पुताई में लग गए थे। प्रत्येक घर में से एक सदस्य देवता कमेटी के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त कर लिया गया था। पूरे गांव के रास्ते साफ होने लगे थे। कोई बर्तन इकट्ठे करता, तो कोई जंगल से पत्ताों को लाकर पत्तालें बनाता तो कोई घर-घर जाकर निर्धारित जोड़ की उगराही करता रहता। शहर से रोज ही अब एक आध ट्क सामान का भी आ जाता जिसकी ढुलाई लोग मन्दिर तक मिलजुल कर करते।<br /><br />भुण्डा के आयोजन की खबर जब इधर-उधर पहुंची तो प्रशासन के भी कान खड़े हो गए। हालांकि अभी देवता कमेटी की तरफ से कोई विधिवत निमन्त्रण नहीं निकला था लेकिन प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने वहां आना-जाना शुरू कर दिया था। कभी कोई प्रशासन का आदमी, कभी कोई पुलिस वाला तो कभी विधायक के चमचे पहुंचने लगे थे। शर्मा जी इस आयोजन के दूल्हा बन गए थे। सारे काम उनकी सलाह-मशविरे से हो रहे थे। उनकी आंखों में उज्जवल भविष्य के सपने तैरने लेगे थे। कुछ दिनों की सेवानिवृति ने जो ऊँघूपन उन्हें दिया था वह चेहरे पर बैठी रौनक ने भगा दिया था। उन्हें कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा था मानो वह नए-नए तहसीलदार बन गए हों।<br /><br />कार्यक्रम के अनुसार नियुक्त किए गए लोग सहजू को लाने उसके गांव चले गए थे। उसे बाजे-गाजे के साथ गांव लाया गया था। साथ उसकी पत्नी और एक बच्चा भी था। जिस दिन सहजू बेड़ा को गांव लाया गया उस दिन से छ: माह बाद भुण्डा का आयोजन होना था। सहजू और उसके परिवार को मुख्य देवता के मन्दिर के एक कमरे में रखा गया था। यह सुखद आश्चर्य ही था कि जिन देवता के मन्दिर प्रांगण में आज भी किसी दलित को नहीं जाने दिया जाता, सहजू 'बेड़ा' और उसके बच्चे देवता के मन्दिर में वास करने लगे थे।<br />॰<br /><br />जैसे-जैसे उत्सव के दिन नजदीक आते गए रस्सा लम्बा होता गया। जिस रोज रस्सा पूरा हुआ सहजू और उसकी पत्नी उसे एकटक देखते रहे......मानो रस्सा पूरा न होकर जीवन ही सम्पूर्ण हो चला हो। अपने हाथों से मौत का सामान तैयार करने का दर्द उन दोनों के मन में बसा था। लेकिन भुण्डा जैसे कालान्तर से चले आ रहे महोत्सव में एक दलित से देवता बनने का सुख भी मौजूद था। यह सुख उस मौत के एहसास से कहीं बड़ा था। शायद उससे भी कहीं ज्यादा था बरसों से निर्वासित जीवन जीने के बाद पुन: मिलता आदर। ब्राह्मणों की बैंठ और देव-पंक्ति में मिला उच्च स्थान का क्षणिक अपितु अविस्मरणीय आनन्द।<br /><br />रस्से को पूर्ण निर्मित देख कर देवता के कारदारों ने निर्धारित स्थान पर बने हवन कुण्ड को खोल दिया था। मुहूर्त के मुताबिक अब आग लाने की रस्म अदायगी थी। हवन जलाने के लिए आग केवल क्रौष्टु ब्राह्मण(कृष्ण गौत्र) के घर से ही लाई जानी थी। गांव में एक शास्त्री जी इस गौत्र से थे। देवता के कारदार और अन्य लोग कुछ सुनारों के साथ आधी रात को बाजा-बजंतर लिए उसके घर पहुंच गए। उनके साथ एक तांबे की अंगीठी और एक मेढा(नर भेड़) भी थे। कई विधि-विधानों के तहत् देवदार के वृक्ष की लकड़ी जलाकर आग तैयार की गई और उसे तांबे की अंगीठी में डाल दिया गया। अंगीठी को सुनारों ने मेढा के सिर पर रख दिया और उसे लेकर वापिस लौट आए।<br /><br />बेचारा मेढा ढोल-नगाड़ों और पारम्परिक वाद्य संगीत के बीच कई पल अग्नि-वाहक बना रहा। सभी उसकी सेवा में जुटे थे। वह उस दौरान षायद सहजू की तरह अपने आप को भी ब्राह्मणों से ज्यादा सम्मानित समझ बैठा होगा। जैसे ही हवनकुंड के पास लोग पहुंचे तो आग की अंगीठी उसके सिर पर से उतार कर कुंड में रख दी गई और तत्काल उस पर उसकी बलि दे दी गई।<br /><br />अग्नि प्रज्जवलित कर दी गई थी। हवन कुण्ड पर यज्ञेश्वरी देवी की प्रतिमा का निर्माण किया गया। उसकी प्राण-प्रतिष्ठता हुई। मेढे की जान लेकर......। अब यहां भुण्डे के अन्तिम दिन तक हवन चलना था।<br /><br />अब मुख्य देवता की मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाला जाना था जो कि धर्माचार का एक अहम हिस्सा था। देवता की मूर्ति एक गुफा मन्दिर में प्रतिष्ठित रहती थी जिसे केवल भुण्डा जैसे विशाल आयोजन में ही बाहर निकाला जाता था। इसके साथ कई अन्य छोटी मूर्तियां और सामान भी होता था। दैनिक पूजा और दूसरे अनुष्ठानों एवं जातराओं इत्यादि के लिए देवता की एक अन्य मूर्ति नीचे की मंजिल में रखी होती थी। लोग जानते थे कि पिछले भुण्डा के दौरान मन्दिर के किवाड़ बन्द कर दिए गए थे। इसीलिए लोगों की उत्सुकता अब कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। देव मूर्ति को निकालने का कार्य हर कोई नहीं कर सकता था। विधिनुसार यह काम उस गांव के एक ब्राह्मण को तीन सुनारों के साथ करना था। इन तीनों के सिर भीतर जाने से पूर्व मूंड दिए गए थे और उनके मुंह में परजतने (पंचरत्न) भी डाल दिए गए थे। वस्त्र के नाम पर उनके शरीर से कफन का कपड़ा लिपटा दिया गया था। वे अन्धेरे में ही भीतर गए थे और जिस के हाथ जो मूर्ति और दूसरी सुसंगत वस्तुएं लगीं उन्हें बाहर उठा कर ले आए थे।<br /><br />देवता के गूर ने जैसे ही मूर्ति के दर्शन किए वह सकते में पड़ गया। वह नकली मूर्ति थी। किसी सस्ती धातु की इस मूर्ति को मूल रूप दे दिया गया था। गूर के सिवाए किसी को यह पता नहीं लग पाया कि वह मूर्ति असली नहीं थी। श्रध्दा और अपार आस्था में रत लोग देवता का जयकारा कर रहे थे।........ असली मूर्ति की कुछ सालों पूर्व मन्दिर से चोरी हो गई थी। देवता की वह प्रतिमा बेशक़ीमती धातु की बनी थी जिसके माथे पर एक हीरा जड़ा था। जब वह बाहर धूप में रखी होती तो उसके मुख से पसीने जैसा तरल पदार्थ निकलने लगता और नीचे रखी कटोरी भर जाती। उसे चरणामृत के रूप में लोगों में बांट दिया जाता था जिसे लोग बड़ी श्रध्दा से ग्रहण करते थे। उसकी कीमत भी करोड़ों में आंकी जाती थी। लेकिन किसी को क्या पता था कि जो मूर्ति आज उनके समक्ष मौजूद है, वह नकली है..?<br /><br />गूर अभी तक स्तब्ध खड़ा था। उसने पुन: उन लोगों को भीतर भेजा लेकिन वे पुन: खाली हाथ लौट आए थे। गूर में तत्काल देव छाया ने प्रवेश कर लिया। उसकी हालत देखने वाली थी। पूरा शरीर कांप उठा था। चेहरा काला और डरावना हो गया था। आंखों में खून तैरने लगा था। इस तरह का आक्रोश पंचों ने कभी नहीं देखा था। यह किसी अनहोनी का संकेत था। लेकिन यहां ''पंचो के मुंह में परमेशवर'' की कहावत चरितार्थ होने लगी। सभी पंच,कारदार और देवता कमेटी के सदस्य हाथ जोड़ कर यही विनती कर रहे थे कि जैसे-कैसे इस आयोजन का निपटारा देव-कृपा से हो जाए। बाद में देवता की जो भी आज्ञा होगी वह सिर-माथे। मुश्किल से काफी देर बाद गूर से देव छाया चली कई। सब कुछ शांत हो गया तो गूर ने केवल सरपंच शर्मा जी से ही बात की। इस बात को सुन कर वे हैरान-परेशान हो गए। उन दोनों ने इस बात की भनक किसी को भी न लगने का तत्काल निर्णय ले लिया। यदि इस बात का खुलासा हो जाता तो इतने बडे आयोजन पर पानी फिर गया होता।<br /><br />उत्सव के पहले दिन लोग वाद्यों के साथ मुख्य देवता के मन्दिर स्थल से निकले। सभी छोटे-बड़े मन्दिरों में जाकर एक-एक दिया जलाते रहे और देवी-देवताओं को उत्सव के लिए आमन्त्रित करते चले गए। बाहर से आमन्त्रित देवतागण भी पधारने शुरू हो गए थे जिनका धूम-धाम से स्वागत किया गया।<br /><br />दूसरे दिन सभी देवता एक स्थान पर एकत्रित हुए। देव-कलशों को गोल दायरे में रख दिया गया था। बीच में गांव की मुख्य देवी का कलश था। अब क्रौष्टू ब्राह्मण ने पुराण पढ़ना शुरू कर दिया था। उसके पास एक पुरानी हस्तलिखित पुस्तिका थी जिससे मंत्र पढ़ कर वह सभी देवताओं का स्वागत कर रहा था। देवता के मंदिर की दूसरी मंजिल पर स्थित कमरे के फर्श पर देवता के एक कारदार ने इसी बीच देवदार के वृक्ष का एक चित्र सिंदूर से बना दिया था और अब सारे कलश उस चित्र पर प्रतिष्ठित कर दिए गए थे।<br /><br />तीसरा दिन जल यात्रा का था। उस दिन वरूण देवता की पूजा होनी थी। गावों की महिलाएं पारम्परिक परिधानों में तड़के ही मन्दिर के प्रांगण में पहुंच गई। वे वहीं से आ रही थी जहां सहजू और उसकी पत्नी को ठहराया गया था। सभी उन्हें सिर झुका कर प्रणाम कर रही थीं। सहजू की पत्नी के लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य जैसा ही था। वह जानती थी कि उनकी जाति की अस्सी साल की बुढ़िया को भी ब्राह्मणों की दस साल की लड़की के पास मत्था टेकना पड़ता है। लेकिन आज उससे उल्टा था। वह कई बार मन ही मन हँस लेती थी। लेकिन रस्से पर जैसे ही उसकी नजर जाती वह कांपने लग जाती। जैसे मौत का एक भयानक राक्षस रस्से में लिपट गया हो जो कभी भी उसके पति को झपट कर खा लेगा। कभी तो उसे रस्से के बाटों में असंख्य भेड़िए रेंगते नजर आते जैसे वह रस्सा न हो कर जंगल के बीहड़ की कोई टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी हो और उस पर वे दौड़ते उनकी ओर चले आ रहे हों।<br /><br />उन औरतों के सुन्दर पहनावे ने उसके मन में कुछ क्षणों के लिए रंगीनियां भर दी थीं। उसी पल मन्दिर से ढोल, नगारा, शहनाई, करनाल, रणसिंघा आदि वाद्य-यंत्रों के संगीत के साथ देवताओं के पूजारियों, ब्राह्मणो, गूरों और नर्तकों का जलूस निकला। उसमें सजी-संवरी नौ ब्राह्मण कन्याएं भी थी। उनके सिर पर लाल कलश थे। जुलूस पूर्व दिशा की ओर एक बांवड़ी की तरफ चल दिया था। वहां पहुंच कर उन कलशों को ताजा जल से भर दिया गया। विधिवत पूजन हुआ और उन्हें यथावत् कन्याओं के सिर पर रख कर वापिस मन्दिर लाया गया।<br /><br />भुण्डा के आखरी दिन से पूर्व मूल मन्दिर और गांव को प्रेतात्माओं से सुरक्षित करना था ताकि उत्सव में कोई अपशकुन न हो। भूत-प्रेत बाधाएं उत्पन्न न कर सकें। देवताओं के गूरों ने मिल कर इस विधि-विधान को पूरा किया था। वे अपने-अपने देवता के सामने हाथों में एक विशेष पात्र लिए खड़े हो गए थे। वे पूजा करते हुए अर्ध-नग्न अवस्था में काफी देर मन्त्रोच्चारण करते रहे। फिर उनमें देव छाया प्रवेश कर गई थी। देवताओं के वाद्य-यन्त्र भी बजने शुरू हो गए। मुख्य देवता के गूर को लोगों ने अपने कन्धे पर उठा लिया था। उसी के दिशा निर्देश में अब सब कार्य होने लगे थे। शेष बचे गूर और लोगों का जुलूस पीछे-पीछे चल रहा था। गांव के बाहर का चक्कर काटा गया। जुलूस में कई बंदूकधारी बंदूके चला रहे थे। जगह-जगह बकरों के सिर धड़ से अलग हो रहे थे। पगडंडियां उनके खून से सराबोर हो रही थी। परिक्रमा पूरी हुई तो जुलूस वापिस मन्दिर लौट आया और वहां हवन शुरू हो गया। यह तांत्रिक विधि थी। देवता का गूर मन्दिर की छत पर चढ़ गया था। वह चारों दिशाओं में घूम रहा था। मन्दिर के चारों कोनों पर एक-एक मशालची तैनात था। हर कोने पर एक-एक बकरे की बलि दी गई। गूर छत से नीचे उतरा तो महमान देवताओं के गूर मन्त्रोच्चारण के साथ अपनी मूल अवस्था में लौट आए।<br /><br />यह शिखफेर प्रक्रिया थी। सहजू ने अपनी पत्नी को बताया था।.....अब यहां से सारी प्रेतात्माएं भाग गई हैं और भुण्डा के कार्य में कोई भी विघ्न नहीं डाल सकता। लेकिन वह पति के मुख की ओर कई पल टकटकी लगाए देखती रही। पता नहीं कितने प्रश्न उसके मन में जागे थे जिन्हे वह सहजू से पूछना चाहती थी।.....पूछना चाहती थी कि भुण्डा के बाद देवता क्यों न उन्हें ब्राह्मण ही बना रहने दें ? फिर क्यों वे अछूत हो जाएं ? क्यों एक अछूत को कुछ दिनों के लिए देवता की तरह पूजा जाए......और यदि दुर्भाग्य से उसके पति की रस्से से गिरकर मौत हो जाए तो कौन सा देवता जिनके नाम पर अभी-अभी असंख्य मेढों और बकरों की बलि प्रेतों और भूतों को भगाने के लिए दी गयी है.....उसके पति को बचा देगा ...... ? ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो उसके मस्तिष्क में कौंध रहे थे लेकिन वह थी कि किसी न किसी तरह अपनी जिज्ञासाओं को दबाए चुपचाप बैठी रही। भय से कांपती हुई। जैसे सारे भूतों और प्रेतात्माओं ने उसके भीतर घुस कर आश्रय ले लिया हो।<br /><br />सहजू ने अपनी पत्नी के मन में उग रहे प्रश्नों को पढ़ लिया था। पर उनके उत्तर उसके पास नहीं थे। मन पर एक भारीपन लदा था......शायद ऐसे ही अनगिनत प्रश्नोंको लेकर जिनका कोई तसल्लीबख्श जवाब नहीं था....? वह उनके उत्तर भी पूछता तो किस से पूछता ? कोई कारदार, देवता का गूर या खुद देवता भी शायद उनके उत्तर न दे पाते। उसे आज ये सारीर की सारी क्रियाएं बिल्कुल ढोंग लगने लगी थीं।<br />· <br /><br />रात को सहजू और उसकी पत्नी नहीं सो पाए। न एक दूसरे से किसी ने कुछ बात की। अपनी-अपनी उधेड़-बुन में दोनों लगे रहे। सहजू के मन में भय तो था ही पर खुशी भी कम नहीं थी। अपने दादा-पड़दादाओं को वह बार-बार याद कर रहा था जो न जाने पितर-देवता बन कर कहां-कहां प्रतिष्ठापित होंगे।........ भुण्डा में उसका इस तरह 'बेड़ा' बन कर उतरना बरसों पहले खोए हुए मान को दोबारा हासिल करना भी था।<br /><br />सुबह हुई। भुण्डा का आज अन्तिम और मुख्य दिन था। सहजू के ब्राह्मणत्व का आखरी दिन।<br /><br />दोनों तड़के-तड़के उठ गए थे। मुहूर्त के अनुसार निश्चित समय पर रस्से की विधिवत पूजा की गई। सहजू ने अपने हाथों से रस्सा खश जाति के राजपूतों को सौंप दिया। उन्होंने रस्से को कन्धे पर अत्यन्त सावधानी से उठाया ताकि उसका कोई भाग जमीन से स्पर्श न करे। फिर बांवड़ी के पास ले जा कर खूब भिगोते रहे। पूरी तरह से भीगने के पश्चात् उसे पहले ही की तरह ही कन्धे पर उठा लिया गया। रस्से का वजन दुगुना हो गया था। कड़ी मशक्कत के बाद खशों ने रस्से को भुण्डा-आयोजन के मूल स्थान पर पहुंचाया था। वहां ढांक के सिरे पर एक खम्भा गाड़ा गया था जिसमें रस्से का एक सिरा मजबूती से बांध दिया गया। ढांक की ऊंचाई बहुत थी। नीचे देखने पर आंखे पथरा जाती थीं। दूसरे सिरे को पहाड़ से नीचे फैंक दिया गया। नीचे खड़े लोगों ने उसे तत्काल पकड़ लिया और वहां गड़ाए दूसरे खम्बे में खींच कर बांध दिया। सहजू की शर्त रस्से के नीचे जाली न लगाने की मान ली गई थी। फिर भी किसी दुर्घटना की आशंका से निपटने के लिए पहाड़ी के नीचे लम्बी कतार में पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात कर दिए गए थे।<br /><br />बेड़े के रूप में सहजू का देवता की तरफ से विशेष स्नान हुआ और यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे शुध्द ब्राह्मण बना दिया गया। उसे पगड़ी और एक सफेद लम्बा चोगानुमा कुर्ता पहनाया गया था। उसकी विशेष पूजा होने लगी थी। देवता ही की तरह। जैसे वह कोई मनुष्य न होकर एक घड़ी के लिए ईश्वर का अवतार बन गया हो। अब समय मुख्य उत्सव में शामिल होने का आ गया था। एक कारदार भीतर गया और अत्यन्त आदर से उसे अपनी पीठ पर उठा कर मंदिर से बाहर ले आया।<br /><br />सहजू की पत्नी को पति से अलग होना था। यह बिछोह का दर्दनाक समय था। उसे भी मन्दिर की तरफ से पहनने के लिए नए कपड़े दिए गए थे। ये वस्त्र सफेद रंग के थे......विधवा का लिबास। उसे गांव की कई औरतों ने घेर रखा था। न चाहते हुए भी उस बेचारी को होते पति से विधवा बनना पड़ा था। मन नहीं मान रहा था लेकिन भुण्डा की रस्मों ने उसे असहाय बना दिया था। औरतों ने उसके बाल खोल दिए। कलाइयों की चूड़ियां उतार दीं। मांग से सिंदूर पोंछ दिया गया। माथे की बिंदिया भी छीन ली गई। सुहागिन से विधवा बनने तक के वे क्षण अति दुखदायी थे। जब सुहाग की प्रतीक ये चीजें उसके बदन से उतारी जा रही थीं तो उसे ऐसा लगा था जैसे कलेजे के टुकड़े किए जा रहे हो। वह बच्चे को साथ लेकर उस स्थान के लिए लोगों के साथ चल पड़ी जहां रस्से का दूसरा सिरा बांधा गया था। बच्चा यह सबकुछ विस्मित होकर देख रहा था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है...? उसके बापू को इस तरह उठा कर कहां ले जा रहे हैं...?<br /><br />पुरोहितों ने अब संकल्प पढ़ने शुरू कर दिए थे। ये उसी तरह थे जैसे किसी बलिदान के अवसर पर पढ़े जाते है। वाद्ययन्त्रों पर वही संगीत बज रहा था जो शवयात्रा पर बजाया जाता था। वातावरण मेें इस संगीत ने एक अजीब सी मायूसी पैदा कर दी थी। चारों तरफ एक घड़ी के लिए घोर उदासी छा गई थी। यह नजारा कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे किसी घर से मृत्यु ने किसी अपने को छीन लिया हो। माहौल अत्यन्त गमगीन होने लगा था। मूल स्थान तक पहुंचते-पहुंचते कई जगह सहजू पर कफन की तरह कपड़ा ओढ़ाया गया और उसके मुंह में परजतना डाल दिया गया।<br /><br />समारोह की शोभा बढ़ाने के लिए मुख्य मन्त्री पहुंच गए थे। विधायक और प्रशासन के कई अधिकारी भी उनके साथ थे। उन सब के लिए पहाड़ की ढलान पर एक ओर मंच बनाया गया था ताकि वे सब उस सम्भावित नरबलि का नजारा ले सकें। शर्मा जी ने उनकी आव-भगत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी।<br /><br />शर्मा जी की नजर इस बीच एक पालकी पर पड़ी। उसके साथ कुछ लोग भी चल रहे थे। पहले उनकी समझ में कुछ नहीं आया। पालकी नजदीक पहुंच गईं। उसमें एक बुजुर्ग बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। शर्मा जी को पहचानते ज्यादा समय नहीं लगा। यह वही सहजू का पिता था जिसका सामना सहजू के आंगन में पहले ही हो चुका था। उसके साथ उस गांव के तमाम लोग भी थे। शर्मा जी स्तब्ध रह गए। अब पांव पीटने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं बचा था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि सहजू के गांव के लोग इस शान से उत्सव में पधार जाएंगे। समक्ष एकाएक कई प्रश्न खड़े हो गए। पर उनके उत्तर कहां से आते....? मुंह बांध कर बैठना ही उचित जान पड़ा। शर्मा जी कुछ कारदारों को साथ लेकर उनके पास गए और बनावटी अपनापन दिखाकर उन्हें उसी मंच के साथ बिठा दिया जहां मुख्यमन्त्री बैठे थे। पालकी में एक दलित का इस तरह पधारना न तो शर्मा जी पचा पा रहे थे और न ही गांव के दूसरे लोग। क्योंकि पालकी में बैठने का अधिकार तो वे लोग अपना ही मानते आए हैं। शर्मा जी वहां से झटपट खिसक लिए और खम्भे के पास जा कर खड़े हो गए, जहां सहजू को भुंडा के रस्से पर से सरकते हुए पहुंचना था।<br /><br />सहजू की घरवाली चुपचाप डरी-सहमी रस्से के अन्तिम छोर के पास बैठी, एकत्र उन सभी देवताओं से अपने पति की ज़िन्दगी मांग रही थी जिन्होंने पिछली रात उस गांव को भूत-प्रेतों और दुष्ट आत्माओं से निवृत्त किया था। उसका मन विचलित होने लगा था। एक मन करता कि इस लिबास को उतार कर जला दे और पति के पास जा कर विनती करे कि हमें नहीं बनना है देवता। न बनना है भगवान। हम जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं। हम बिना मान-प्रतिष्ठा के भी अपने छोटे से परिवार में सुखी हैं। ईश्वर न करे कि रस्सा टूट जाए.........? इतना भर सोच कर वह जमीन पर गिर पड़ी थी। पास खड़ी औरतों ने उसे न संभाला होता तो उसका सिर चट्टान से टकरा जाता। शर्मा जी उसकी स्थिति देखकर घबरा गए थे। उन्होंने तुरन्त पानी के छींटे उसके चेहरे पर मारने शुरू कर दिए। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो उनकी जान में जान आई।........... एक सुहागिन को इस पल अपने पति के जीते जी एक विधवा होने के तीखे दर्द और अथाह वेदना से गुजरना पड़ रहा था।<br /><br />सहजू जब खम्बे के पास पहुंचा तो निगाह तराईयों से उतरती अपनी पत्नी के पास चली गई। वे तमाम वेदनाएं उसने अपने भीतर महसूस कीं जिसे उसकी पत्नी सुहागिन से विधवा बन कर सह रही थीं। आंखें छलछला गई। मन में एक तीखी टीस उठी जो सुई की तरह नसों में चुभती रही। यह चुभन असहनीय थी। सहजू को एक पल लगा कि उसकी सासें जीन-काठी पर बैठने से पूर्व ही निकल जाएगी। जैसे-कैसे अपने को सम्भाला और हजारों लोगों की उमड़ती भीड़ के बीच उसका ध्यान चला गया।............हजारों आंखें उसी की ओर ताक रही थीं। उन आंखों में एक याचना थी। लालच था। उसकी ज़िन्दगी के लिए दुआएं भी थीं लेकिन उस जीवन के साथ सभी का अपना-अपना स्वार्थ निहित था। सारी प्रार्थनाएं केवल अपने लिए थीं। वे आंखें उसे अपने लिए ज़िन्दा रखना चाहती थीं ताकि उनका जीवन सुखमय हो। घर-परिवार में खुशहाली आए। जमीन-जायदाद और पशु-धन सलामत रहे। उन पर किसी तरह के अनिष्ट की छाया तक न पड़े। सभी का ध्यान रस्से पर से नीचे सरकते सहजू पर था। उसकी पत्नी के भीतर जो अथाह दर्द और भयानक भय पसरा था उसका न कोई प्रतिवादी चश्मदीद गवाह था और न कोई उसके आंसुओं को पोंछने वाला। ...........एक महान और तथाकथित जन-स्वार्थ की पूर्ति का उत्सव था वह....?<br /><br />.................एक घड़ी के लिए तो सहजू को यह भी लगा कि वह आज दुनिया का सबसे बड़ा और धनवान आदमी है जिसके आगे ब्राह्मण और ठाकुर तो क्या देवता तक भी पुण्य की भीख मांग रहे हैं।<br /><br />शर्मा जी तो आज अपने आप को सबसे प्रतिष्ठित और व्यस्त आदमी समझ रहे थे। हर जगह उन्हीं का बोल-बाला था। सहजू की पत्नी के बिल्कुल साथ खड़े थे शर्मा जी। वे भी लोगों के साथ उनकी दुआओं में शामिल थे लेकिन उनकी एक-दो दुआएं कुछ अलग ही थीं। वह दुआएं मांग रहे थे गांव को कलंक से छुटकारा पाने की और साथ अपने यश और प्रतिष्ठा की जिसके सहारे उन्हें आगामी राजनीति में प्रवेश पाना था। मन में और भी कई विचार कौंध रहे थे। उनकी इच्छा थी कि जैसे ही 'बेड़ा' नीचे सही सलामत पहुंचे, वे उसे सबसे पहले उठाकर अपने चूल्हे के पास ले जाएं ताकि उन्हें अपने ऊपर लगे कलंक, अनिष्ट, भूत-प्रेत आदि की छाया से सबसे पहले छुटकारा मिल सके। साथ ही अपने परिवार के लिए पहला आशीर्वाद भी लेना चाहते थे। वह जानते थे कि 'बेड़ा' आज के दिन देवता और भगवान के समान होता है और उसका घर के भीतर प्रवेश अति शुभ होता है। वह सबसे पहले इस पुण्य के भागीदार बनना चाहते थे। गांव के दूसरे सवर्णो की भी यही इच्छा थी।<br /><br />सहजू ने ईश्वर को प्रणाम किया। अपने इष्ट देवता को याद किया और अपने पिता को नमन किया। उस पितर को स्मरण किया जो इसी आयोजन में वर्षों पहले रस्से से गिर कर मौत के मुंह में चला गया था। फिर रस्से को हिला दिया। अब जीन-काठी पकड़ी और टिका कर रस्से पर बांध दी। इसे सहजू ने स्वयं बनाया था। उसके दोनों तरफ रेत की बोरियां टिका दी गर्इं थीं ताकि बराबर भार रहे। सहजू के लिए वह सचमुच की घोड़ी थी जिस पर सवार होकर उसे मौत का एक लम्बा और खतरनारक सफर तय करना था। गांव का कलंक धोना था और लोगों के पुण्य का भागीदार बनना था.....एक अछूत होकर नहीं बल्कि ब्राह्मण, देवता और भगवान बन कर। उसके मन में कई तरह के ख्याल आने लगे थे। वह सोच रहा था कि उसकी यह दुर्लभ 'बेड़ा' जाति एक जीन-काठी ही तो है जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के भागीदार बनने के लिए शर्मा या उस जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज उस अछूत को क्या मिलेगा........? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्व........और देवत्व। ........वह जोर से हंसा और जीन-काठी पर बैठ कर रस्से से नीचे सरक गया..........हाथ में एक सफेद रूमाल को लहराता हुआ। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह आसमान से धरती पर उतर रहा हो। मध्य में पहुंच कर वह थोड़ा घबरा भी गया। एक बार जरा सा संतुलन बिगड़ गया था, पर उसने अपने आप को संभाल लिया। अन्यथा इतनी ऊंचाई से गिर कर वह कहां बच पाता...? देवता के वाद्य पूरे जोश और ताल में बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह देवमय हो गया था। लेकिन उन वाद्यों के बीच एक पल के लिए सहजू की पत्नी की सांसे रूक गई थीं......।<br /><br />सहजू जैसे ही दूसरे खम्बें के नजदीक पहुंचा उसने चलती हुई जीन काठी रोक दी और रस्से पर मजबूती से बैठ गया। वह ऊंचाई से जितनी तेजी से नीचे आया था उस रफ्तार को रोकना कतई संभव नहीं था। परन्तु उसने जिस तरह संयत रह कर अपने आप को रस्से पर रोका था वह आश्चर्यजनक था। एक पल के लिए जैसे सब कुछ ठहर गया था। सभी उपस्थित जनों के दिलों की धड़कनें ही रूक गईं थीं। बाजा-बजंतर भी चुप हो गया था। एक गहरा सन्नाटा चारों तरफ पसर गया था। शर्मा जी के साथ सभी कारदार और लोगों के मन में किसी अनहोनी ने जन्म ले लिया। ........दोबारा कोई बड़ा अनिष्ठ तो नहीं होने वाला....? सहजू बिल्कुल सुरक्षित था लेकिन उसकी काठी नहीं चल रही थी। देवता के कारदार और गूर शर्मा जी के साथ खम्बे के पास एकत्रित हो गए थे। शर्मा जी एकाएक जोर से चिल्लाए,<br /><br />''सहजू ! तुम्हारी मंजिल आ गई है। नीचे उतर जाओ।''<br /><br />यही अन्य लोगों ने भी दोहराया था।<br /><br />लेकिन सहजू अभी भी चुपचाप था। जैसे कुछ सुना ही न हो। भीतर बहुत कुछ फूट रहा था। टूट रहा था। उस टूटन की किरचों ने उसे भीतर ही भीतर आहत कर दिया था। शर्मा जी ने हाथ जोड़ दिए और गिड़गिड़ाते हुए सहजू को नीचे उतर जाने का निवेदन करते रहे। सभी कारदारों और गांव के ब्राह्मणों ने भी हाथ जोड़ रखे थे। लेकिन सहजू नहीं उतरा। उसके मन में बहुत बड़ा तूफान उमड़ पड़ा था। उसे लगा कि वह सहजू बेड़ा नहीं बल्कि किसी सरकस का नर्तक भर है, जिसे जैसा चाहा नचा दिया। खेल खत्म हुआ तो उसका अस्तित्व भी समाप्त। जो लोग आज उसकी जय जयकार कर रहे है कल वही उसकी परछाई से भी दूर भागेंगे। फिर न कोई सम्मान और न ही कोई इज्जत-परतीत। उसे शर्मा जी और देवता के तमाम कारदारों के साथ सारे ब्राह्मण उस पल शैतान की तरह लग रहे थे जैसे वह स्वयं उनके पल्ले पड़ गया हो और उनके हाथों की कठपुतली हो। जहां वह रस्से पर रूका था वहीं तक सब कुछ था। देवता भी और भगवान भी। सम्मान और प्रतिष्ठा भी। इज्जत और परतीत भी। नीचे उतरते वह फिर वही दलित.......नीच.......अछूत। हाथ खाली के खाली। उसका मन आक्रोश से भरता जा रहा था।.......उसने भीड़ में एक नजर दौड़ाई। सामने से पालकी में उसके पिता आ रहे थे। दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए.....जैसे उन्हें आज सब कुछ मिल गया हो। उसने पिता की आंखों में अपनी विजय की चकाचौंध तो देखी लेकिन उसके पीछे छिपे दर्द और अपमान को भी सचमुच पढ़ लिया।<br /><br />सहजू की नजर अब उस तरफ गईं जहां दलितों के परिवार खड़े थे। वहीं से सबसे ज्यादा जय जयकार की आवाजें गूंज रही थी। उनके मन साफ थे। मन की आवाजें थीं वो जिनमें सहजू को कोई स्वार्थ नजर नहीं आया। हां, उनके कपड़े फटे हुए थे। कुछ औरतों की छातियां फटे कुरतों के बीच से बाहर झांक रही थी। उनके बाल बेतरतीबी से उलझे हुए थे। फूलदार रिब्बनों की जगह उनमें घास और पत्तियां फंसी थीं। उनके साथ उनके बच्चे भी थे। नंगी टांगे। बदन पर महज एक लम्बा सा फटा कुरता। छालों से रिसते पांव। आंखों में अथाह दर्द।.........सहजू को अपने देवत्व पर शर्म आ गई।<br /><br />उसके कानों में फिर अवाजें गूंजी........<br /><br />''शाबाश सहजू! शाबाश! नीचे आ जाओ। तुम आज भुंडा के सबसे बड़े देवता हो।''<br /><br />इस बार वह जोर से हंस दिया।<br /><br />'' कैसा देवता......? कौन सा देवता। मैं तो एक अछूत हूं। कठपुतली मात्र हूं। सारे पुण्य तो तुम सभी के लिए हैं। अपने स्वार्थ के लिए ऊंचे लोगों ने भी क्या-क्या परपंच रचे हैं...?.....जानते हो शर्मा जी, मैं इस घड़ी तो सबसे बड़ा पंडित हूं। देवता हूं और सभी का ईश्वर। लेकिन नीचे उतरते ही मैं सहजू अछूत......और तुम सभी उच्च कुल के पंडित और ठाकुर। तुम्हारे जो ये देवता आज मेरी विजय पर नाच रहे हैं, मुझे भगवान मान रहे हैं, कल इन्हें मेरी परछाई से भी दोष लगने लगेगा। अपवित्र हो जाएंगे ये !!''<br /><br />शर्मा की बोलती बन्द हो गई थी। कभी नहीं सोचा था कि सहजू के दिमाग में कुछ और भी चल रहा है। उसकी बाते मन में सुई की तरह चुभ गईं। अब वह झटपट इस स्थिति से उबरना चाहते थे। अपने को सहज करते हुए गिड़गिड़ाए,<br /><br />'' ऐसा मत सोचो सहजू,! तुम्हारे बिना इतना बड़ा आयोजन कैसे सम्पन्न होता। तुम आज हमारे सब कुछ हो।<br /><br />सहजू ठहाके लगाने लगा,<br /><br />''केवल आज ही न शर्मा जी.......कल....?''<br /><br />शर्मा जी सकपका गए। स्थिति भांपने में उन्हें देर नहीं लगी। सीधी बात पर आ पहुंचे।<br /><br />'' ऐसा मत कहो सहजू। भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बोलो तुम्हे क्या चाहिए..? आज तो वह समय है कि जिस चीज में भी तुम हाथ लगाओगे वह तुम्हारी हो जाएगी।''<br /><br />'' सोच लो शर्मा जी!''<br /><br />'' सहजू! इसमें दो राय नहीं हो सकती। आज के दिन तो तुम हमारे भगवान हो। बोलो तो....।''<br /><br />'' हमारी जमीन लौटा दो शर्मा जी। हम यहीं बसना चाहते है। इसी गांव में, जहां से आप लोगों ने हमारे पूर्वजों को भगाया था।''<br /><br />शर्मा जी को जैसे काठ मार गया। कलेजा मुंह को आने लगा। एक मन किया कि इस नीच की औलाद को इसकी असली औकात दिखा दूं कि अपने से ऊंचे लोगों से किस तरह बात की जाती है......? लेकिन समय की नजाकत को भांपते हुए लहू का घूंट पी गए। रूमाल से उन्होनें माथे का पसीना कई बार पोंछा। यह ख्याल पूरे आयोजन के दौरान किसी के भी मन में नहीं आया था कि सहजू ऐसा भी कर सकता है। लेकिन आज तो कोई उसको कुछ नहीं कह सकता। वह जहां चाहे जा सकता है। जिस वस्तु को चाहे मांग सकता है। शर्मा जी के साथ कारदार और जो गूर खड़े थे उन्होंने आंखों-आंखों में बातें की। सहजू को निराश करना उचित नहीं समझा था। मजबूरन शर्मा जी को हां कहनी पड़ी।........सहजू जानता था कि इस अवसर पर दिया धन या जमीन कोई दूसरा नहीं ले सकता। उसने जीन काठी को हल्का सा खींचा और सरकता नीचे उतर आया। चारों तरफ अब लोगों ने उसकी जय जयकार करनी शुरू कर दी थी। सभी देवताओं के वाद्य बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह संगीतमय हो गया था।<br /><br />समारोह में उपस्थित लोगों ने आज तो सचमुच महा पुण्य कमा लिया पर शर्मा जी, उनके साथी कारदार तथा उस गांव के लोगों के लिए यह उत्सव मायूसी लेकर आया था। उन्होंने कभी नहीं चाहा था कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों के इस गांव में फिर कोई दलित पसर जाए। लेकिन अब तो सहजू को भुंडा के अवसर पर सभी देवताओं को साक्षी मान कर जमीन देने की जुबान भी दे दी गई थी। उनका विश्वास था कि अपनी बात से मुकर जाना गांव और लोगों पर फिर किसी आफत के आने का बायस बन सकता है। मगर इसके बावजूद भी वे लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे थे। सहजू बेड़ा को अपने-अपने घर ले जाने के उनके सपने भी अब टूट गए थे। सभी को जैसे सांप सूंघ गया हो।<br /><br />उत्सव अब पूरे यौवन पर था। चारों तरफ का माहौल उमंगों से भर गया। पर शर्मा जी के भीतर एक सन्नाटा पसर गया था। लोग उनके पास आकर बधाई दे रहे थे। इस आयोजन की सफलता के लिए उनकी तारीफ कर रहे थे। लेकिन उनका मन विचलित था। जैसे यह भुंडा नहीं किसी विनाशोत्सव का आयोजन हुआ हो। उनकी स्थिति विचित्र हो गई थी। मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। कोई जब पास आता तो वे हंस देते। चला जाता तो अजीब सी हरकतें करने लगते.......कभी कुछ गाने लगते तो कभी नाचना शुरू कर देते। बिल्कुल पागलों जैसी हरकतें करने लगे थे।......मानो गांव से देवताओं द्वारा भगाए गए भूत-प्रेत सब के सब उनके भीतर नाचने लगे हो। शर्मा जी की इस हालत को देख कर देवता के कारदार, गुर और गांव के दूसरे लोग परेशान हो गए थे। उन्होंने शर्मा जी को घेर लिया था।<br /><br />तभी मुख्यमन्त्री और विधायक उनके पास पहुंचे। शर्मा जी की पीठ थपथपा कर कहने लेगे,<br /><br />'' भई शर्मा जी मान गए आपको। इतना बड़ा आयोजन तो आप ही करवा सकते थे। सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत। आपने हमारी तो एक बड़ी दुविधा ही मिटा दी। क्या नाम था इस बेड़ा का......? हां, सहजू......सहज राम। क्यों विधायक जी यही था न...........उसने तो कमाल कर दिखाया.........हमें तो लोकसभा के लिए कोई दलित मिल ही नहीं रहा था.........भई शर्मा जी कमाल कर दिया आपने।''<br /><br />यह कहते हुए मुख्यमन्त्री और विधायक वहां से निकल लिए। पर शर्मा जी उनकी बात सुन कर बुत की तरह खड़े रह गए थे। काटो तो खून नहीं। जैसे कोई जोर का तमाचा मुंह पर जड़ कर निकल गया हो। जो कुछ रही सही कसर थी वह भी जाती रही। <br /><br />सहजू को लोगों ने अपने कंधे पर उठा लिया था। वह, उसकी पत्नी और परिवार के दूसरे सदस्य खुशी-खुशी लोगों से ईनाम के पैसे और जेवर इकट्ठे करने में मशग़ूल थे।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5724241726450852727.post-8457371599072527422009-04-21T10:40:00.004+05:302009-04-21T11:00:42.011+05:30बेहया- मनोज कुमार पाण्डेय की पहली कहानीभारतीय ज्ञानपीठ <a href="http://hindi-khabar.hindyugm.com/2009/03/sheela-dixit-release-13-new-books-hindi.html">नवलेखन पुरस्कार</a> के माध्यम से प्रतिवर्ष कुछ नये रचनाकारों का प्रथम रचना-संग्रह प्रकाशित करता है। यह पुरस्कार गद्य व पद्य दोनों विधाओं में दिया जाता है। हम लम्बे समय से इस कोशिश में हैं कि इंटरनेट के पाठकों तक नवीन साहित्य-सृजन के उल्लेखनीय अध्याय पहुँच पायें। पद्य वर्ग में 7 संग्रह प्रकाशित हुए। जिसमें से आप इन दिनों <a href="http://kavita.hindyugm.com/2009/03/hare-prakash-upadhyay-naye-atithi-kavi.html">हरे प्रकाश उपाध्याय</a> के पहले कविता-संग्रह <a href="http://kavita.hindyugm.com/search/label/Khiladi%20Dost%20tatha%20anya%20Kavitayen">'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ'</a> की चुनी हुई कविताएँ पढ़ रहे हैं। गद्य वर्ग में वर्ष 2008 के लिए 6 कहानी संग्रहों का प्रकाशन ज्ञानपीठ की ओर से किया गया। जिसमें <a href="http://vahak.hindyugm.com/2007/11/blog-post_13.html">विमल चंद्र पाण्डेय</a> का कथा-संग्रह <a href="http://kahani.hindyugm.com/search/label/Darr">'डर'</a> को रु 50 हज़ार का नगद इनाम भी मिला। इस संग्रह की 12 कहानियों में से हमने आपको 11 कहानियाँ पढ़वा दी हैं। एक कहानी संग्रह <a href="http://kahani.hindyugm.com/search/label/East%20India%20Company">'ईस्ट इंडिया कम्पनी'</a> हिन्द-युग्म के <a href="http://vahak.hindyugm.com/2008/01/blog-post.html">पंकज सुबीर</a> का भी आया। इसकी भी दो कहानियाँ आप पढ़ और सुन भी चुके हैं। आज से हम तीसरे कहानी-संग्रह <strong>'शहतूत'</strong> की कहानियों का प्रकाशन आरम्भ कर रहे हैं। यह युवा कहानीकार <strong>मनोज कुमार पाण्डेय</strong> का संग्रह है। आज पढ़ते हैं, पहली कहानी '<strong>बेहया'</strong>-<br /><br /><hr/><br /><center><strong><span style="font-size:145%; color:#cc1188;">बेहया</span></strong></center><br /><br /><table align="right"><tr><td><img src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpVQCNQMH_EW0l4KBPlkoS9o75xaBMwnbCn4rRTiFZTmWA68z9q35q7qAETb9QW-4_p_D-AMmTGeg375YwQY8bOBodk9kyLUphuJTrbvfV_ARrlAa8Bt9oTjWGux9sRhOzCLnfP0Vk42lP/s320/Ipomea+bush1print.jpg"></td></tr><tr><td align="center">चित्र साभार- <a href="http://nitishpriyadarshi.blogspot.com">नितीश प्रियदर्शी</a></td></tr></table>इधर बहुत दिनों बाद गांव लौटा हूँ। मेरे लिए गांव आने का मतलब है अपने बचपन में लौटना। बचपन, जहाँ अम्मा हैं, बाबू हैं, दीदी हैं, घर के बगल की गड़ही है, गड़ही में बेहया की हरी-भरी झाड़ी, झाड़ी किनारे डंडा लिए खड़ी आजी और उनके सामने थर-थर काँपता हुआ मैं। बचपन की सारी छवियां एक तरफ, और आजी की यह छवि दूसरी तरफ, आजी की यह छवि सब छवियों पर भारी पड़ती है। <br /> कितना अच्छा लगता है जब कहीं किसी लेखक की स्वीकृति पढ़ता हूँ कि मैंने तो कहानी कहना अपनी दादी से सीखा। मैंने तो कहानी कहना अपनी नानी से सीखा। काश! मैं भी ऐसा कह सकता, पर मेरे बचपन में कहानियां थीं ही कहाँ, वहाँ तो कहानियों की जगह आजी के डंडे थे। बात-बात पर हमारी पीठ पर बरसते हुये। आज जब मैं आपसे अपनी बात कहने बैठा हूं तो सोचता हूं पहले इन डंडों के ऋण से ही मुक्त हो लूँ, नहीं तो न जाने कब तक यह मुझे परेशान करते रहेंगे। <br /> मैं गड़ही के बगल में बैठा हूं। गड़ही में मुँह तक पानी भरा है। पानी में मछलियां फुदक रही हैं । अब गड़ही का पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता होगा। शिवमूरत चाचा इसे फिर से भर देते होंगे। पर अभी पिछले साल तक इसमें मछली नहीं, बेहया था। गड़ही का पानी बरसात खत्म होते ही सूखने लगता था। तब गड़ही बेहया से भर जाती थी। बेहया से जो जगह बचती उसे हम भर देते। हम माने दीदी और मैं। हम वहाँ होते अपने अनोखे एकांत के साथ। हमारे चारों ओर होती बेहया की बड़ी-बड़ी पत्तियां, लाऊडस्पीकर जैसी बनावट के हल्के बैंगनी आभा लिए फूल। सब मिलाकर एक खूबसूरत झुरमुट। एक मुलायम हरी-भरी झाड़ी। <br /> गर्मियों में हमारे छुपने की एकमात्र जगह यही मुलायम हरी-भरी झाड़ी होती। नीचे एक जाल-सा बुन गया था टहनियों का। हम उस पर लेटते, बैठते, खेलते, झूलते और जब पकड़े जाते तो यही टहनियां पड़तीं हमारी पीठ पर। सटाक-सटाक-सटाक। हमें कई बार लगता कि साला बेहया हमसे बदला ले रहा है अपने ऊपर उछलकूद मचाने का। पर हम थे कि अगला मौका मिलते ही फिर वहीं पहुँच जाते। उसी झुरमुट में। आजी कहती बेहया के बीच रह-रहकर हम भी बेहया हो गये हैं।<br /> अम्मा, आजी को कभी फूटी आंख भी नहीं सुहाई। दीदी बताती पहले वह जब मर्जी होती अम्मा को पीट देतीं। पर एक बार जब ऐसे ही मौके पर बाबू, अम्मा और आजी के बीच में खड़े हो गये, तब से अम्मा तो मार खाने से बच गईं पर आजी ने जल्दी ही उन्हें प्रताड़ित करने का नया तरीका खोज निकाला अब आजी के निशाने पर दीदी और मैं आ गये। आजी हमें बुरी तरह पीटतीं और अम्मा पिटने से बचकर भी तड़पतीं। या फिर यह भी तो हो सकता है कि आजी हममें भी अम्मा को ही देखती रही हों। हमारे पिटने पर बाबू कुछ भी न कहते। उन्हें लगता इतना तो आजी का हक बनता ही था। <br /> गर्मियों के दिन थे। मेरे स्कूल में रोज मलाईबरफ वाला भोंपू बजाता हुआ आता। मैं रोज-रोज रंगीन बरफ का जादू अपने दोस्तों के मुंह में घुलता हुआ देखता। मेरे मुंह मे पानी आ जाता कि ये जादू किसी भी तरह मेरे मुंह में घुल जाये। बस। बाबू या आजी से तो पैसे मांग नही सकता था और अम्मा के पास कभी पैसे होते ही नहीं थे। आजी के पास एक गुल्लक था। गुल्लक में थे बहुत सारे सिक्के। एक दिन मैंने चुपके से आजी की गुल्लक में से एक सिक्का निकाल लिया और फिर रोज-रोज रंगीन बरफ का ये जादू मेरे मुंह में भी घुलने लगा। अब मैं मलाई चाटता और मेरे दोस्त मुझे ललचाई नजरों से देखा करते। कभी पैसा खर्च हो जाने से बच जाता तो स्कूल से आते ही मैं बेहया की हरी-भरी झुरमुट के बीच घुस जाता और निकलता तो खाली हाथ। <br /> आजी को एक दिन पता चल ही गया। फिर तो आजी खूब चिल्लाई। आय-हाय, आय-हाय कुलघाती-सटाक। सुअर के मूत- सटाक। नासपीटे धमसागाड़े-सटाक-सटाक। बस और भी खूब गालियां और खूब मार। पर आजी को अभी संतोष कहां हुआ था ! उनकी गुल्लक में चोरी उनकी निगाह में उनके आतंकी अनुशासन को चुनौती थी। आजी ने उस दिन खाना नहीं खाया। बाबू रात में आये तो आजी ने आते ही उनसे सारी बातें नमक-मिर्च लगाकर बता दी। बाबू ने मुझे पास बुलाया और पूछा कि मैंने पैसे का क्या किया? मैं कुछ नहीं बोला। बाबू ने दुबारा पूछा पैसे का क्या किया? मैंने जवाब दिया, मलाईबरफ खाई। फिर तो मैं खूब धुना गया। यहाँ कटा, वहाँ फटा। यहाँ सूजन, वहाँ दर्द। बाबू बार-बार चिल्ला रहे थे, और चोरी करोगे हूँऽ, मलाईबरफ खाओगे हूँऽ, लो खाओ और खाओ। बाबू के मोटे-मोटे मजबूत हाथ ऊपर पड़ते तो लगता कि चीख के साथ जान ही निकल जायेगी। इस चीख के साथ आंसू कभी नहीं निकले। रोना कभी नहीं आया। रोना तो आया दूसरे दिन जब मैं झाड़ियों में छुपाये हुए पैसे इकट्ठा कर रहा था। <br /> पता नहीं इन आंसुओं का भी क्या जादू था कि अम्मा डाँट भी देती तो मैं रोने लगता। दीदी से झगड़ा होता और दीदी कभी मार-वार देती तो मैं रोने लगता। भले ही दीदी को मैं भी पीट देता, पर रोता फिर भी। दीदी मुझे बैठकर बड़ी देर तक दुलारती-मनाती, पर आजी या बाबू के मारने पर चीखें निकलती, जिस्म पर यहां-वहां स्याह निशान उभर आते। कपड़ों सहित पूरा शरीर धूल-धूसरित हो जाता पर आंसू थे कि आते ही नहीं थे। बाबू-आजी थे कि इसे भी मेरी ढिठाई समझ लेते और मुझे और मार पड़ती। मैं आज तक नहीं समझ पाता कि मैं जो बात-बात पर रो पड़ता था, बाबू-आजी से इतनी मार खाकर भी कभी क्यों नहीं रोया। मेरे आंसू आखिर कहाँ गायब हो जाते थे। गायब भी हो जाते थे तो अगली बार दीदी या अम्मा के सामने फिर कैसे निकल आते थे, इतने आंसू कि कभी दीदी चाहती तो लोटा भर लेती। पता नहीं इन आंसुओं का भी क्या जादू था। <br />हमारा स्कूल घर के पास ही था और स्कूल के पांड़े पंडितजी का घर हमारे खेत के पास। वे अक्सर हमारे घर आ जाते तो आजी दुनिया-जहान की बातों के साथ-साथ हमारी शिकायतों का पुलिंदा भी खोल देतीं। आजी उन्हें बार-बार बतातीं कि हमारी हड्डी तो आजी की थी पर चमड़ा पांडे़ पंडितजी का। पांड़े पंडितजी के लिए इतना इशारा काफी होता और वे हमारा चमड़ा काट देते। आखिर उनको हमारे यहां रोज-रोज बैठना जो होता। दुनिया भर की सही-झूठ बातें करनी होतीं। सुर्ती-सुपाड़ी खानी होती और क्यारियों से हरी सब्जियाँ ले जानी होती। ऊपर से तुर्रा यह कि उनके लिए बेहया की टहनियां भी मुझे ही ले जानी होती। वे मुझे दिन भर पीटने का बहाना ढूंढ़ते रहते। मैं लगभग रोज पिटता पर आंसू वहां भी कभी नहीं आते थे। <br />इतने दिन बीत गये। पांड़े पंडितजी अभी भी वहीं पर हैं। हेडमास्टर हो गये हैं। अभी कल बाबू मेरे छुटके भाई अन्नू की शिकायत कर रहे थे कि कैसे उसने एक दिन पांडे़ पंडितजी की कुर्सी पलट दी और डंडा छीनकर भाग आया। मुझे हँसी आ गयी। मुझे अन्नू पर बहुत सारा लाड़ आया। क्या हुआ जो घर आकर उसे मार पड़ी होगी! क्या हुआ जो स्कूल में पांड़े पंडितजी ने मारा होगा। अन्नू ने खड़े रहकर पिटाई तो नहीं सही थी। मैं तो ऐसा करने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था। कौन कहता है कि दिन बदलते नहीं हैं दिन जरूर बदलते हैं, बल्कि बदल रहे हैं, नहीं तो मजाल होती अन्नू की कि पांड़े पंडितजी की कुर्सी पलट दे। <br />पिछले दिनों बाबू मेरे लिए जो भी चिट्ठियां लिखते, सब में अन्नू की बदमाशियों का जिक्र होता। जब से मैं यहां आया बाबू कई बार मुझसे कह चुके हैं कि मैं अन्नू को थोड़ा समझाने की कोशिश करूं। बाबू को क्या पता कि जब मैं अन्नू की बदमाशियों के बारे में पढ़ता हूँ या सुनता हूं तो मेरे अंदर कैसी खुशी होती है। यही सब शरारतें और बदमाशियां तो मैं करना चाह रहा था अपने बचपन में, पर आजी के.........। अन्नू को देखना दरअसल अपने ही बदले हुए बचपन को देखना होता है। मैं अन्नू को अपने पास बुलाता हूँ और उसका गाल चूम लेता हूँ। इस अनायास प्यार से पहले तो वह सकुचाता है, फिर हँसने लगता है। कितनी प्यारी और निडर है उसकी हँसी। मैं उसके बिखरे हुए बालों को और बिखेर देता हूँ और कहता हूँ कि जाओ खेलो। <br />दरअसल अन्नू को कुछ सहूलियतें अपने आप ही मिल गई हैं। आजी के शरीर में अब पहले जैसा दम रहा नहीं कि दौड़ाकर पकड़ लें। आजी तो अब बैठे-बैठे अम्मा, बाबू, अन्नू सब पर बड़बड़ाती रहती हैं और भगवान से बार-बार अपने आपको उठा लेने की विनती करती रहती हैं। बुढ़ापे में कष्ट भला किसे नहीं होता पर आजी का सबसे बड़ा कष्ट यह है कि अब सब अपने मन की करते हैं, आजी से कुछ पूछा नहीं जाता। रहे पांड़े पंडितजी, तो उन्हें बच्चों को पीटने के लिए टहनियां ही कहां मिलती होंगी और अब भला हाथों को कौन कष्ट दे। इस गड़ही में तो बेहया बचा नहीं। शिवमूरत चाचा ने इसमें मछलियां पाल लीं। आसपास भी जहां बेहया होता था, वहां अब खेत बन गये हैं। धीरे-धीरे बेहया लोगों के मन से भी साफ हो जायेगा और तब बेहया होने की उपमा मिलनी बंद तो अभी तो बेहया बिल्कुल साफ, पर कल अगर बेहया की पत्तियों या फूलों में से कोई दवा ही निकल आये तब? <br />ऐसा भी नहीं है की बिल्कुल बेकार की चीज है बेहया। बाबा जिन्दा थे तो बेहया की मोटी-पतली टहनियां काट कर लाते और हंसिये से चीरकर धूप में सुखाने के लिए रख देते। यही बेहया चूल्हे में जलता और हम रोटी खाते। बाद के दिनों में जब हम गाय-भैंस लेकर चराने थोड़ा दूर निकल जाते तो यही बेहया हमारे लिए हॉकी की छड़ी बन जाता। मुझसे छोटा झुन्नू बेहया की इन्हीं सीधी-सादी टहनियों से कुएं के पास की नाली पर पुल बनाता। हम कभी गिर-पड़ जाते या आजी कभी ज्यादा ही पीट देतीं तो इसी बेहया के पत्ते हमारी सिंकाई में काम आते। एक अकेले बेहया की इतनी उपयोगिता कम तो नहीं थी, कि उसे इस तरह से साफ कर दिया जाय कि उसके लिए कहीं जगह ही न बचे। <br />जब बेहया था तो उसकी झुरमुट में हम गर्मियों में कच्चे आम सबसे छुप-छुपाकर पकने के लिए रख आते। दीदी, मैं और बाद में झुन्नू भी, उसमें छुपमछुपाई खेलते और हमारे साथ खेलती जलमुर्गी, बनमुर्गी, गौरैया, बुलबुल। इसी झुरमुट में दबे पांव बिल्ली आतीं, गिलहरी और चिड़ियों की तलाश में। आजी भी जब हमारी तलाश में आतीं तो दबे पांव ही आतीं। <br /> गर्मियों में जब इस झुरमुट में मधुमक्खियां होतीं तो कई बार मैं चुपके से कटोरा और कंडी की आग लेकर उसमें घुस जाता और अपने लिए थोड़ी सी शहद निकाल लाता। जितनी शहद कटोरे में होती उसकी दुगुनी जमीन पर। पर मेरे लिए यह बहुत होती और दीदी को ललचाने के लिए भी। दीदी को मधुमक्खियों से जितना डर लगता शहद उतनी ही अच्छी लगती। शहद का लालच देकर दीदी से कोई बात मनवाई जा सकती थी। <br />एक बार जब मैं अकेले ही अपने छुपाये हुए आम ढूंढ़ रहा था, देखा आजी मुझे ढूंढती हुई इधर-उधर ताक रही हैं। मैं उनकी निगाहों में आने से बचता हुआ धीरे-धीरे पीछे की तरफ खिसक रहा था कि अचानक आजी ने देख लिया और मेरी तरफ बढ़ती हुई चिल्लाई-निकल बाहर, अभी बताती हूँ। मैं घबराकर भागने के लिए पीछे पलटा और पीली ततैयों के एक छत्ते से टकरा गया। ततैयों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया और डंक पर डंक मारने लगीं। मैं चिल्लाते हुए बाहर भागा। जब तक मैं गिरते-पड़ते बाहर आया, ततैयों के डंक के लाल-लाल निशान पूरे शरीर पर उभर आये थे। आजी बाहर डंडा लिए खड़ी थीं और मेरे ऊपर चिल्ला रहीं थीं। कुछ ततैयों ने उन्हें भी काट खाया था। मेरे बाहर निकलने भर की देर थी और आजी ने मेरे शरीर पर उभरे हुये निशानों को अपने डंडे से आपस में जोड़ दिया। <br />मेरा पूरा शरीर डंक और डंडे के जोर से सूज गया और इस बुरी तरह जकड़ गया कि मैं हाथ-पांव भी नहीं हिला पा रहा था। दर्द इतना था कि शरीर दर्द का समन्दर बन गया था ओर एक के बाद एक टीसती हुई लहरें उठ रहीं थीं। पर रोना तब भी नहीं आया। रोना तो तब आया जब अम्मा रात में कोठरी बंद कर गगरी के पानी से सिंकाई कर रही थीं। अचानक मुझे इतना रोना आया कि मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। अम्मा ने चुप-चुप करते हुए मुझे अपने आंचल में छुपा लिया। मेरा रोना था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। अम्मा मुझे चुप-चुप, चुप मेरे लाल करते हुये खुद सिसकने लगी। अम्मा सिसक रही थीं। अम्मा सिकाई कर रही थी। अम्मा दर्द कम करने के लिए मेरा पोर-पोर चूम रही थीं कि बाबू आ गये। <br />ऐसा पहली बार हुआ था कि बाबू सामने थे और मेरा रोना नहीं थमा। ऐसा भी पहली ही बार हुआ था कि बाबू ने मुझे प्यार से छुआ-सहलाया। पता नहीं क्यों मैं और जोर-जोर से रोने लगा। जैसे अंदर आंसुओं का कोई बांध था जो तेज आवाज के साथ टूट गया था। बाबू अचकचा से गये। उन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया और जीवन में पहली बार मैंने बाबू के हथौड़े जैसे उन हाथों की कोमलता को महसूस किया जो गुस्से में मेरी पीठ पर पड़ते तो मेरी चीख से आस-पास की हवा तक कांप उठती। जब मेरा रोना थमा और हिचकियों के साथ मैंने अपना सिर ऊपर उठाया तो मुझे बाबू की आंखें नम दिखीं। शायद मेरे ही थोड़े से आंसू बाबू की आंखों में पहुंच गए हों या फिर यह मेरा भ्रम ही रहा हो, पर उस दिन के पहले मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू की आंखें मेरे लिए भी नम हो सकती हैं। यह जादू जाने कैसे उस रात हो गया था। उससे भी बड़ा जादू यह हुआ कि उस रात के बाद बाबू ने मुझे शायद ही फिर कभी मारा हो। पता नहीं यह किस बात का असर था। <br /><br />आज जब गड़ही में नहीं बचा बेहया, बेहया की जगह पानी में उछलती-तैरती मछलियां हैं। मैं मछलियों को उछलते हुए देख रहा हूं। मेरे मन में बचपन की अनेक स्मृतियां मछलियों सी ही उछल रही हैं। गड़ही में बेहया कहीं नहीं है पर बिना बेहया के कोई स्मृति बनती ही नहीं। कहीं मैं इसके झुरमुट में आम छुपा रहा हूं तो कभी यही बेहया मेरे जिस्म पर बरस रहा है। आज भी जब मैं खुले बदन होता हूं तो मुझे अपने समूचे जिस्म पर आजी के डंडों के अनगिनत निशान दिखाई पड़ते हैं। मेरे देखते-देखते वे उभर आते हैं और उनमें से लहू टपकने लगता हैं। पीड़ा से मेरा जिस्म ऐंठने लगता है। <br />इस पीड़ा से बचने के लिए मैं अनायास ही अन्नू की बदमाशियों को अपने बचपन के साथ गड्डमड्ड कर देता हूं। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है। बेहया नहीं है तो क्या हुआ अन्नू ने अपने छुपने-छुपाने के लिए कई जगहें ढूँढ़ लीं हैं। वह जब कभी मेरी तरह अपना बचपन याद करेगा तो उसके जिस्म पर लहू टपकाते निशान नहीं उभरेंगे। उसकी आंखों में मछलियां तैरेंगी। क्या पता उसे पंडितजी की कुर्सी पलट देने की हिम्मत इन मछलियों से ही मिली हो।<br />~*~*~<br /><strong>मनोज कुमार पाण्डेय</strong>नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com6